रविवार, 30 अक्टूबर 2011

"एक बार, तुम आओ बस !!!!!"


एक बार,
तुम आओ बस,
नेह का दीपक जला,
राह तुम्हे दिखलाऊंगा,
राह तुम्हारी,
अक्षत कुमकुम,
रोली चन्दन, 
बिखराऊंगा,
बना पालकी पलकों की,
नित तारों की सैर कराऊंगा,
एक बार,
तुम आओ बस,
आंसू तेरे आँखें मेरी,
अधर तुम्हारे हंसी हमारी,
नित रौशनी बिखराऊंगा,
एक बार,
तुम आओ बस,
प्यार करूँ,
बस सांझ सवेरे,
दिन-रात सताऊँगा,
एक बार,
तुम आओ बस,
अंत समय है अब शायद,
पर तुमको तो होश कहाँ,
स्वप्न रचा था एक ऐसा,
हो हथेली दोनों तेरी,
और मुहं छुपा लूं मै अपना,
सुबक सुबक रोऊँ खूब,
और प्राण त्याग दूं मैं अपना, 
एक बार,
तुम आओ बस !!!


मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

"एक नज़र देखो तुम"


एक नज़र देखो प्रिये,

रौशन चराग कर दो तुम ,

हर तमस हर लो तुम ,

दिल माहताब कर दो तुम,

हँस के पूछ ना लो हाल मेरा,

दिल शादाब कर दो तुम,

कल हो ना हो,

आज ही हसीँ जहाँ कर दो तुम !!

सोमवार, 24 अक्टूबर 2011

"और दिवाली हो गई"

नन्हे मुन्ने, 
हाथ में ली बन्दूक,
किया ठायं ठायं, 
और दिवाली हो गई,

बनाया घरौंदा,
सजाये खिलौने,
रखा चूल्हा चौका,
बर्तनों में भरे खील बताशे,
और दिवाली हो गई,

घर के कोने कोने में,
रखे जलते चिराग,
और दिवाली हो गई,

खिलौनो पटाखों की,
चमक दिखी,
उनकी आँखों में,
और दिवाली हो गई, 

"और अब बच्चों के बड़े होने के बाद"  

बच्चे आ गए,
माँ की आँखों में, 
जल उठे "दिए",
और दिवाली हो गई !!!

शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

"शायद याद हो तुम्हें "


शायद याद हो तुम्हें,
बादलों की झीनी सी परत, 
उसके पीछे से,
लुका छुपी,
करता चाँद,
जैसे दुपट्टे के पीछे से,
चांदनी छिटकाता था,
चेहरा तुम्हारा, 
अक्सर |
हवा तेज़ थी बहुत, 
उस दिन,
या बादलों में ही,
होड़ सी थी,
छू लेने को,
उस चाँद को,
या शायद, 
दुपट्टा बस,
लिपट जाना चाहता था,
अक्स बन तुम्हारा,
मै इंतज़ार करता,
रहा था, 
रुकने का,
हवा का,
क़ि,
शायद बादल थमें,
और देख सकूं चांद को,
और दुपट्टा भी,
ठहर जाए तनिक देर को,
और नज़र भर देख लूं, 
अपनी नज़र को,
पर तुम लपेटे,
दुपट्टे को,
अपने चेहरे पे,
ग़ुम सी हो गई थीं,
अँधेरे में,
क्योंकि,
वो चाँद भी,
ओट पा गया था,
घने बादलों का |
और तुम भूल सा,
गईं थी, 
झटकना जुल्फों को,
जो माथे पे,
जब भी आये, 
तो बस, 
बन ही गए,
तुम्हारा नकाब !!!!! 
 


बुधवार, 12 अक्टूबर 2011

"गिरजा शंकर"

                             आज कार्यालय में पहुँचते ही खबर मिली ,गिरजाशंकर की मृत्यु हो गई | स्तब्ध सा रह गया मै | केवल आठ दिन पूर्व ही उसकी माँ की मृत्यु हुई थी और वो इसी सिलसिले में अपने गाँव गया हुआ था | वँही दिल का दौरा पड़ने से उसकी मृत्यु हो गई |

                 एक चपरासी किसी कार्यालय के लिए क्या मायने रखता है ? उसके रहने या ना रहने से ज्यादा कुछ फर्क नहीं पड़ता | पर गिरजाशंकर केवल एक चपरासी भर नहीं था | उसे देखते ही नीबू की चाय जैसी ताजगी दिमाग में आ जाती थी और एक सुखद इच्छा मन में प्रबल हो उठती थी कि बस अब नीबू की चाय आने वाली है | इतने स्नेह से वह चाय बना कर लाता भी था और ठंडी होने से पहले पीने को विवश भी कर जाता था | उसके चेहरे पर कभी भी कोई अवसाद नहीं दिखता था | छोटे से स्थान को उसने अपना एक पूजा स्थान , भण्डार और किचेन सब बना रखा था |
                  उसे तो जैसे इस बात की ललक रहती थी कि ,साहब लोगों को क्या खिलाया जाय ,कभी परिसर में ही लगे अमरुद तोड़ लिए, कभी बाज़ार से केले ,अमरुद खरीद लिए और वो उन्हें इतने सलीके और प्यार से काट कर सामने रखता था कि चाह कर भी मना करना मुश्किल होता था | कभी लंच के समय अगर कोई व्यक्ति मिलने आ जाता था या पहले से बैठा है और जल्दी जा नहीं रहा होता था ,तब वो बड़े सादगी से उनसे कह देता था ,अब आप जाए, साहब के खाना खाने का टाइम हो गया है |
                  अभी कुछ ही दिन पहले उसने एक छोटी सी भगवान् की तस्वीर ला कर मेरी मेज़ के शीशे के नीचे लगा दी थी | अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति का शख्स था वह |  
                 अत्यंत कम वेतन पाते हुए भी और छोटे पद पर काम करते हुए भी उसने अपने बच्चों को अपनी सामर्थ्य से कहीं अधिक सुविधा मुहय्या कराई और अच्छी शिक्षा भी दिलाने का प्रयास कर रहा था | उसके परिवार को देखकर आज उसके मन की भावनाओं का भान हुआ और उसके प्रति सम्मान उमड़ पड़ रहा है | नौकरी में इतने वर्ष रहते हुए ,पहले कभी किसी कर्मचारी की  मृत्यु से इतना आह़त नहीं महसूस किया ,जितना आज गिरजा शंकर के ना रहने से महसूस कर रहा हूँ |
                   ईश्वर से बस यही प्रार्थना है कि उस परिवार को एक साथ दो लोगों की मृत्यु से उपजे दुःख को सहन करने की शक्ति और मृत आत्माओ  को शान्ति प्रदान करें |  

सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

"वो रिश्ते "



रिश्तों में, 
इतनी, 
सीलन,
कि,
शब्दों में भी,
झलकती है,
फफूंद |

कोशिश,
की,
स्मृतियों, 
की,
धूप,
से,
गर्माहट,
मिले,
थोड़ी |

पर,
नहीं,
वो तो,
अमादा है,
पुराना,
कुछ भी,
ना रखने को,
ना सीलन,
ना फफूंद,
ना जाले सरीखे,
यादें |

   "रिश्ते भी खुली हवा में ही पनपते हैं शायद,अन्यथा सीलन और फ़फ़ूंद तो  उनमें लगनी ही है । "

शनिवार, 8 अक्टूबर 2011

"रुख" से "रुखसार" तक.......


तुम,
तुम्हारी बातें,
सब याद हैं मुझे |
लगता है तुम्हे,
कि, 
कुछ भूला भूला सा,
कुछ गुम गुम सा, 
रहता हूँ, 
मै |
सच यह, 
होता नहीं,
तुम्हारी कही अनकही, 
सब सुन लेता हूँ, 
पर, 
कहते हैं ना, 
ज़ख्मों को, 
छेड़ो तो,
सूखते नहीं कभी |
इसी ना छेड़ने को, 
चुप्पी  समझ लो, 
मेरी  |
.
.
.
.
.
वक्त शायद बीते,
और,
नई परत, 
आए रुख की,
रुखसार पे,
उनके,
काश !
ऐसा हो,
फिर, 
नामुमकिन ही होगा,
उनके लिए, 
चुप करा पाना, 
मुझे |
.
.
.
.

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011

"तीर , धनुष और जीवन "

          किसी धनुष से तीर कितनी दूर जायेगा और लक्ष्य को भेदेगा कि नहीं ,यह निर्भर करता है प्रत्यंचा पर | प्रत्यंचा की लम्बाई और कसाव ही धनुष का लोच तय करती है और प्रत्यंचा ही तीर को लक्ष्य अनुसार बल भी प्रदान करती है | प्रत्यंचा के निर्धारण में अथवा प्रत्यंचा चढाने में यदि त्रुटि हो जाए तो धनुष टूट भी सकता है और सारा आरोपित बल व्यर्थ हो जाता है, तब लक्ष्य भेदन तो दूर की बात ,धनुर्धारी सबके उपहास का पात्र भी बन जाता है |
          मनुष्य का जीवन भी 'धनुष' की ही भांति होता है | ईश्वर ने प्रत्येक मनुष्य को एक धनुष स्वरूप जीवन प्रदान किया है | सारे लक्ष्य इसी धनुष से ही तो भेदने होते हैं, जीवन काल में | बस मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन रुपी धनुष पर "दृढ़ निश्चय" रुपी प्रत्यंचा इस प्रकार चढ़ा ले कि ,प्रत्यंचा का इतना दबाव ना हो कि जीवन रुपी धनुष  टूटने अर्थात निराशा की कगार पर आ जाये और ना ही प्रत्यंचा इतनी ढीली हो कि तीर को आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त बल न मिल सके | मनुष्य द्वारा किये जाने वाले 'कर्म' ही धनुष रुपी जीवन के 'तीर' हैं | 
          'जीवन' के धनुष पर 'दृढ़ निश्चय' रुपी प्रत्यंचा चढ़ा कर बस 'कर्म' रुपी तीर छोड़ने की आवश्यकता है , फिर निश्चित तौर पर जीवन के सभी लक्ष्य सरलता से भेदे जा सकेंगे | बस एक बात और है , जब मनुष्य प्रत्यंचा पर कर्म रुपी तीर चढ़ा ले तब पुनः उन कर्मो का आत्म-अवलोकन कर ले कि ( जैसे की प्रत्यंचा पर तीर चढ़ा कर तनिक तीर पीछे खींच लेते है ,तब छोड़ते हैं) , उन कर्मों से उसका और समाज का क्या हित होगा ,तब संभवतः क्या ,निश्चित रूप से मनुष्य के ’तीर’ रुपी ’कर्म’ अपने लक्ष्य से ना कभी विमुख होंगे ना ही व्यर्थ सिद्ध होंगें |     

         "विजय दशमी  की सभी को हार्दिक बधाईयाँ  और शुभकामनायें "