गुरुवार, 30 अगस्त 2012

" १२.३५ की शताब्दी से अगले दिन २३.१५ की कैफ़ियात तक ......"



दिनांक : २६.०८.२०१२ , ट्रेन : स्वर्ण शताब्दी , कोच नंबर-सी ५
ठीक १२.३५ पर ट्रेन लखनऊ के प्लेटफार्म नंबर -१ पर ठहरती है | मै एक ऐसे शख्स को रिसीव करने आया था ,जिनसे पिछले दो वर्षों से ब्लॉग और फेसबुक की आभासी दुनिया में बातचीत तो होती रही, परन्तु सच में एक दूसरे से शत-प्रतिशत अनजान | मेहमान विदेशी था ,सो संकोच भी मेरा अपने चरम पर था | कैसा होगा , क्या पसंद हो , क्या नापसंद हो | जन्मदिन पर मेरे उनका फोन आ गया था और तब उन्होंने बताया था कि एक कार्यक्रम के सिलसिले में उन्हें बतौर मुख्य अतिथि मेरे शहर में आना है सो मेरे लिए कहीं रहने की व्यवस्था किसी होटल में मैं करा दूँ | तभी मैंने कह दिया था कि मेरे रहते होटल में रुकने का प्रश्न ही नहीं उठता | यह बात मैंने कैसे और किस अधिकार से कह दी थी यह आज तक समझ में नहीं आया | खैर उन्होंने फोन पर ही कहा ,नहीं मै आपके यहाँ ही आऊँगी । आप  खिलाना ,पिलाना , शहर घुमाना पर ठहरेंगे किसी होटल में ही | यह बात पहली अगस्त की है ,जब जन्मदिन पर बात हुई थी | मैंने एक विदेश में रहने वाली  महिला को अपने यहाँ आने का निमंत्रण तो दे दिया था परन्तु थोड़ा मैं असहज भी महसूस कर रहा था कि उनकी व्यवस्था में कहीं कोई कमी न रह जाए | 

डरते डरते यह बात मैंने अपनी पत्नी को बताई कि मैंने तुमसे बगैर पूछे एक निमंत्रण दे दिया है | बिना असहज हुए ही वे तुरंत हामी की मुद्रा में आ गई | अब अगला प्रस्ताव पत्नी के सामने मैंने यह रखा कि चूंकि आमंत्रित मेहमान एक महिला है अतः बेहतर होगा कि उन्हें रिसीव करने स्टेशन तुम भी चलो | इस पर उन्होंने कहा कि सोच तो मै भी यही रही थी पर चाहती थी आप कहें तो चलने को | 

ट्रेन के ठहरने से पहले ही मै कोच नंबर सी-५ के सामने अपने को स्थापित कर चुका था | ब्लॉग और फेसबुक पर उनके चित्र देखते देखते उनका चेहरा लगभग परिचित सा हो चुका था | अतः उन्हें देखते ही मैंने बरबस अपना दायाँ हाथ ऊपर उठा दिया | अब तक शायद वह भी पहचान चुकी थीं और मेरे साथ मेरी पत्नी को देख उम्मीद से अधिक आश्वस्त भी लग रही थी | उनके साथ उनका एक छोटा सा सूटकेस पहियों वाला था , जिसे मैंने अपने हाथ में शिष्टाचारवश लेना चाहा पर उन्होंने मना कर दिया और मैं भी  अधिक जोर नहीं दे पाया क्योंकि मैं अपना सामान तो कभी स्वयं उठाता नहीं और पत्नी के सामने यह परोपकार करने की जहमत नहीं उठा सकता था क्योंकि भविष्य में इस बात को 'कोट' किये जाने की पूरी  संभावना रहती | खैर प्लेटफार्म से बाहर निकल कर मै उन्हें अपनी कार से अपने घर ले आया | कार में यदि तीन लोगों को बैठना हो तब समस्या यह होती है कि अगर दो लोग पीछे बैठ जाएँ तो चलाने वाला ड्राइवर समान लगने लगता है और अगर मेहमान को पीछे बिठा कर पति-पत्नी आगे बैठ जाए तब मेहमान neglected फील करता है | यहाँ पुनः मेरी पत्नी अपने विवेक का परिचय देते हुए और मेरी समस्या को हल करते हुए स्वयं तो पीछे बैठ गई और मेहमान को आगे बिठा दिया और दलील यह दी कि आप बाहर विदेश से आये हो आपको बाहर का दृश्य देखना समझना अच्छा लगेगा जो आगे की सीट से  बेहतर संभव होगा |

घर पहुँच कर बहुत जल्दी ही हम सब सामान्य से हो गए और ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हम लोग आपस में पूर्व परिचित हों | कारण क्या था इसका, आज तक अज्ञात है | चाय वगैरह और उसके बाद भोजन के बाद उन्होंने शहर से कुछ मशहूर चिकन के कपडे खरीदने की इच्छा व्यक्त की | अब तक तो मैं अपने को 'जिन' समझने लगा था कि कोशिश करूँ कि जो कुछ भी वह कहे मैं कर दूं | इसी क्रम में हम लोग हजरतगंज गए परन्तु रविवार होने के कारण अधिकतर दुकाने बंद थीं फिर भी जनपथ में २/३ दुकाने खुली थी | उन्होंने कुछ कुर्ते वगरह वहां से लिए ,इसी बीच मेरी जानकारी में आया कि थोड़ी दूर पर एक बेहतर दुकान और है जिसके यहाँ सामान तो अच्छा है ही, थोड़ा मेरा पूर्व परिचय भी था वहां | परन्तु एक समस्या यह थी कि इसी बीच मैंने अपनी कार थोड़ी दूर पर पार्किंग में लगा दी थी | तब तक  बारिश भी आ गई |हम तीनो लोग दो रिक्शे  पर बैठ कर बौछारों का आनंद लेते हुए अगली दुकान पर पहुंचे | वहां दुकानदार ने मेरे पूर्व परिचय का सम्मान करते हुए हम लोगों को 'काफी' पिलाई और उन्होंने जी भर के वहां खरीददारी भी की | वहां से फिर हम लोग रिक्शे से ही हल्की हल्की बारिश में वापस कार पार्किंग में आये | इस तरह मैंने उनको एक चार्टर्ड रिक्शे में भी घुमा दिया | वहां से हम लोग शहर का मशहूर इमामबाडा देखने गए जहां तस्वीरें भी उतारी गई | लखनऊ की गोमती पर सबसे पुराना बना पुल जो 'लाल पुल' के नाम से जाना जाता है उसे भी देखा  | अब तक हम लोग थक भी चुके थे सो घर वापस चल दिए | बारिश लगातार हो रही थी ऐसे में मैंने ताजे भुने भुट्टे खाने का प्रस्ताव रखा जिसे ध्वनि मत से पारित कर दिया गया | भुट्टे खाते खाते हम लोग घर पहुँच गए | वहां बारिश में ही कार से उतरने में उनका मोबाइल नीचे पानी में गिर गया | जो काफी मशक्कत के बाद ढूंढने से मिला पर उसका मिलना न मिलना अब बेमानी ही था क्योंकि अब वह अन्दर तक पसीज गया था और उसकी बोलती बंद हो चुकी थी | अपने वतन से दूर अगर किसी का मोबाइल बिगड़ जाए तो इससे भयावह स्थिति और कोई नहीं हो सकती | तत्काल मौके के मिजाज़ को समझते हुए मैंने अपना एक पुराना मोबाइल ढूंढ़ कर उनका 'सिम' उसमें  डाल कर उसे चालू कर दिया | उनका फोन इस दरमियाँ लगभग आधे घंटे ही बंद रहा होगा पर तब तक उस पर बीसियों काल आ चुकी थीं | 

मेरे घर के पास ही काफी शाप पर उन्हें किसी डाक्टर दंपत्ति के बुलावे पर भी जाना था | उनका सिम जिस मोबाइल में डाला गया वह मोबाइल पूर्णतया डिस्चार्ज था | अतः वे काफी शाप बिना मोबाइल लिए ही चली गई | अब स्थिति बदल चुकी थी | एक अपरिचित विदेशी मेहमान अब मेरी जिम्मेदारी था | उन्हें काफी शाप से लौटने में थोड़ा विलम्ब हुआ और उनसे संपर्क का कोई जरिया भी नहीं था , वह डाक्टर भी हमारे लिए अनजान था | हम लोग उस क्षण थोड़ा चिंतित भी हो गए थे और मैं पुनः उन्हें देखने जाने वाला ही था कि बेल बज उठी थी और हम लोगों ने चैन की सांस ली | बातचीत के दौरान अब तक वह हमारे घर में ही रुकने को सहमत हो गई थी और इस बात से उन्होंने अपने परिवार को अवगत भी करा दिया था | फिर भी घर वाले तो सशंकित रहते ही हैं कि जिसे कभी देखा नहीं कभी जाना नहीं उसके यहाँ रात्र-निवास का क्या मतलब | 

आभासी दुनिया के कुछ अन्य मित्र भी मेरे निमंत्रण पर मेरे घर आ गए और डिनर हम लोगों ने साथ ही एक पास के होटल में लिया | उस रात काफी देर तक हमारे घर में ठहाके गूंजते रहे थे |

अगले दिन सुबह उठकर बस नाश्ता वगैरह कर हम लोग कार्यक्रम स्थल पहुँच गए थे | चूँकि मेरे यहाँ ठहरने वाला मेहमान ही उस कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण था सो लोग मुझे अत्यंत आश्चर्य मिश्रित  भाव से देख रहे थे | सारे दिन कार्यक्रम चलता रहा , वह पुरस्कार पे पुरस्कार बटोरती रहीं और शाम ७ बजे तक हम लोग वापस घर आ गए थे | इसी रात की ट्रेन से उनकी वापसी भी थी | मैं तो भागादौड़ी में उनसे बिलकुल भी बात नहीं कर पाया | हाँ ! इच्छा तो थी कि वह थोड़ा और ठहरती परन्तु सारे कार्यक्रम पूर्व निर्धारित थे जिसमे परिवर्तन संभव नहीं था | इस बीच उनकी दोस्ती मेरी पत्नी से इस कदर हो गई कि, आईं थी मेरी मेहमान बनकर और लौट रही थी उनकी दोस्त बन कर | 

उनकी ट्रेन कैफ़ियात एक्सप्रेस थी जो रात के २३.१५ बजे छूटती है | मैं उन्हें छोड़ने स्टेशन गया और लखनऊ जंक्शन के प्लेटफार्म नम्बर १ पर ट्रेन के विवरण की प्रतीक्षा कर रहा था | तभी अकस्मात पता चला कि वह ट्रेन तो छोटी लाइन (एन. ई. आर.) के स्टेशन से छूटती है | ( छोटी लाइन तो बड़ी लाइन में परिवर्तित हो चुकी है परन्तु अभी भी उसे छोटी लाइन का ही स्टेशन कहा जाता है ) भागते भागते हम लोग छोटी लाइन के स्टेशन पहुंचे | वहां पहुँचते ही बत्ती गुल हो गई | उसी अँधेरे में जानकारी हुई कि ट्रेन तो आ चुकी है और प्लेटफार्म नंबर २ पर खड़ी है | छोटी लाइन पर ट्रेन बहुत आगे खड़ी होती है और ए. सी. का डिब्बा एकदम आगे होता है | तेजी से भागते हुए ट्रेन के डिब्बे तक पहुंचे | वहां डिब्बे पर चार्ट नहीं लगा था | जल्दीबाजी में उन्होंने टिकट देखा और अपनी उम्र की संख्या को सीट नंबर समझ उसी पर जम गईं | तब तक एक सज्जन आये और ध्यान से टिकट देखकर उन्होंने हम दोनों ही का भ्रम दूर कर दिया | इतनी देर में अब केवल ५/७ मिनट रह गए थे ट्रेन छूटने में | जल्दी जल्दी मैंने दूसरे कोच में कंडक्टर को ढूंढा पर वह होता तब तो मिलता | मैंने कहा अब आप कहीं भी बैठिये मैं कुछ करता हूँ | तब तक उन्होंने स्वयं ही देखा कि टिकट में सीट नंबर अंकित था जो उन्हें ही आबंटित थी | फिर उसी सीट पर उन्हें बिठा कर एक बोतल ठंडा पानी देकर बस उतर ही रहा था और ट्रेन चल दी थी | इस आपाधापी  में उन्हें विदा करते समय ठीक से न कुछ कह पाया, न देख पाया |

और कैफ़ियात एक्सप्रेस चली गई ,पर बहुत सारी स्मृतियाँ दे गईं | 
दिनांक २७.८.२०१२ ,समय २३.१५ |


शनिवार, 25 अगस्त 2012

" अभिमान क्यों न करूँ ......"


अनिमेष,
आज २५ अगस्त,तुम्हारा जन्मदिन ,तुम्हारे जन्म के साथ ही हम लोग नव-दंपत्ति से एक परिवार बन गए थे | तुम्हारे बचपन ने हम लोगों को भरपूर वात्सल्य का सुख प्रदान किया | तुम्हारा घर का नाम 'राजन' तुम्हारे बाबा जी ने रखा और अनिमेष,तुम्हारी मम्मी ने | वो तुम्हे अपलक देखती रहती थीं और नाम अनिमेष रख दिया | अपने बेटे को बड़ा होते देखने से बड़ा सुख और कोई नहीं होता | सब लोगों की ही तरह हम लोग भी चाहते थे कि तुम जल्दी बड़े हो जाओ और इसी के चक्कर में, मैं सदैव तुम्हारी उम्र के हिसाब से बड़ी उम्र के लिए उपयुक्त खिलौने ले आता था और तुम्हारी मम्मी से डांट खाता था ( वो तो आज भी खाता हूँ ) | तुम्हारे जन्म के दो वर्षों बाद अभिषेक / रमन का जन्म हुआ और हम लोगों की ख़ुशी तो अब चौगुनी होनी ही थी क्योंकि अब हम चार जो हो गए थे | मैं सोचता था अब तुम दो लोग हो तो अब तुम लोगों को और शीघ्रता से बड़ा होना चाहिए , मिलजुल कर किया गया काम शीघ्र होता है न | रमन के जन्म के बाद तुम दोनों और तुम्हारी मम्मी की एक टीम बन गई | तुम तीनो खूब मगन रहते थे आपस में ( वो तो आज भी रहते हो ) | मुझे तो याद नहीं, तुम्ही लोग कभी कभी बताते हो कि मैं खिलौने ऐसे लाता था जो तुम लोगों से बड़े बच्चों के लिए होते थे , तुम लोग तो खेलते न थे , मैं ही उनसे उलझता रहता था | ट्राई साइकिल की उम्र में सपोर्ट वाली साइकिल ले आया था | ऐसा ही कुछ किताबों के साथ भी कर देता था | तुम शायद क्लास फोर्थ में थे और मैं तुम्हारे लिए ' ए ब्रीफ हिस्ट्री आफ टाइम ' ले आया था और  क्लास सिक्स्थ में लोनी की 'ट्रिगनामिट्री' दे दी थी | एंट्रापी,एन्थाल्पी,मर्फीज़ ला जैसे टर्म से सिक्स्थ /सेवेंथ क्लास से ही तार्रुफ़ कराता रहता था । खैर, पढ़ाई लिखाई अच्छी चलती रही | शैतानी कभी ऐसी की नहीं कि हम लोगों को कभी डाटना भी पडा हो | हाँ ! खाने पीने में तुमने बहुत तंग किया अपनी मम्मी को | एक बार डाइनिंग टेबल के ऊपर की अलमारी पर से मैं कोई सामान उतार रहा था तब देखा वहां बहुत सारा खाना कई दिनों का , छोटे छोटे कौर की शक्ल में पडा था ,उस दिन बहुत दुःख हुआ था कि तुम अपनी मम्मी की नज़र बचा कर 'कौर' ऊपर फेंक दिया करते थे | उलटा मैंने मम्मी को ही डांटा था कि उसकी फ़ोर्स फीडिंग मत कराया करो | किताबें पढने का शौक तुम्हारी मम्मी को भी था ,वही शौक विरासत में तुम दोनों को मिल गया और परिणाम स्वरूप आज घर में एक छोटी सी लाइब्रेरी बन गई तुम लोगों क़ी | कोशिश तो हमेशा यही रही कि तुम लोगों के मन की बात जानता रहूं पर शायद यह बहुत आसान नहीं क्योंकि जब बच्चे भी सेंसिटिव हो जाते हैं तब वे भी पापा-मम्मी  के मूड को देखकर आपनी बातें छुपा ले जाते हैं | मैंने हमेशा तुम दोनों से अपनी सारी बातें शेयर करी हैं ,हास्टल की भी और जाब की भी और कोशिश करी कि तुम लोगों के सामने ऐसी शैली प्रस्तुत करूँ कि कभी तुम्हे यह न सोचना पड़े कि मेरे पापा ऐसा क्यों करते हैं |

तुम पढ़ते पढ़ते कब बड़े हो गये और तुम्हारे पीछे पीछे अभिषेक/रमन भी तुम्हे ही फालो करते करते तुम्हारे तो पीछे ही लग गया और आई.आई. टी. में भी तुम्हारे ही पास पहुच गया और तुम्हारे हास्टल और तुम्हारे दोस्तों में  तुमसे ज्यादा पापुलर हो गया | तुम दोनों का 'आई.आई.टी.' में होना अच्छा तो लगता ही है पर जब दूसरे लोग यह सुनकर खुश होते हैं और अचंभित भी,तब थोड़ा सा अभिमान भी होता है, तुम दोनों पर और तुम्हारी मम्मी पर | परन्तु आई.आई.टी. में होना ही पर्याप्त नहीं , अभी बहुत कुछ करना शेष है और तुम अपना पोटेंशिअल जानते हो ,बस अपने 'पन' पर आ जाओ जैसा कि हमेशा तुमसे कहा है मैंने |

आज तुम्हारा जन्म दिन है ,ईश्वर से प्रार्थना है बस हम लोगों का अभिमान यूं ही बना रहे | तुम जीवन में सदैव ऊंचाइया छूते रहो | सदा अपने मन की सुनना और जो भी करना पूरे जूनून और समर्पण के साथ , अपने कार्यों का आकलन स्वयं करना कि तुम्हारे कृत कार्य का समाज पर और परिवार पर दूरगामी परिणाम क्या होगा  और समाज में अपने को एक अच्छे नागरिक की तरह स्थापित करना | बस यही दुआ और कामना है |

प्यार सहित ,

पापा तुम्हारे ।
२५.८.२०१२ 

बुधवार, 22 अगस्त 2012

" बहुत कठिन है डगर .......ब्लागिंग की ........"


बचपन गुजरा रेलवे कालोनी में | वहां से रेल की पटरियों पर दौड़ते हुए हम लोग स्कूल जाया करते थे | कभी डरे नहीं और कभी गिरे भी नहीं | दिन बीतते  गए , वर्ष बीतते  गए , इंजीनियरिंग की पढ़ाई की , बिजली विभाग की सेवा में आये | यहाँ भी बिजली की पचासों घातक दुर्घटनाएं देखी और सामना भी किया पर कभी भयभीत नहीं हुए | सड़क पर बाइक दौड़ाई , कार भी १२० से ऊपर भगाई पर कभी भयभीत नहीं हुए | परिवार में ,समाज में अनेक चुनौतियां ऐसी आई जो अन्य लोगों ने  अस्वीकार कर दी , उन्हें भी शौक से आजमाया और अक्सर लगभग सफल ही रहे |

पर अब जो यह शौक लग गया ब्लागिंग का , यहाँ राह नहीं आसान | फूल , ख़ुशबू, नदी , पर्वत , आंसू , लज्जा, मुस्कान ,अधर इत्यादि पर कविता लिखना मुश्किल नहीं होता, पर जब आप अपनी ज़िन्दगी में आये पलों , घटनाओं ,व्यक्तियों  से जुडी बाते लिखना,सुनाना चाहते है तब वह आपके नितांत व्यक्तिगत अनुभव और विचार होते हैं | जिन्हें लिखे जाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए | परन्तु अगर आपका अनुभव किसी लिंग , किसी जाति ,किसी पात्र के साथ असामान्य सा रहा हो या अपने गुणवश उस पात्र ने वैसा व्यवहार किया हो और आपने उसे ब्लाग में लिख दिया तब उस पात्र से सम्बंधित लिंग, वर्ण , जाति ,देश ,धर्म के लोग उसे अपने ऊपर आक्रमण और अतिक्रमण मानकर आपकी आलोचना प्रारम्भ कर देते हैं जो सर्वथा अनुचित है | आपके लेख के एक , दो वाक्य से ही वे लोग आपके पूरे चरित्र और व्यक्तित्व का आकलन कर दुनिया के सामने प्रस्तुत कर देते हैं | वास्तविक जीवन में अगर वह व्यक्ति दोषपूर्ण आचरण कर रहा होगा तब निश्चित तौर पर उसके आसपास का समाज उसकी आलोचना करता होगा | अगर कोई व्यक्ति समाज में सम्मान पूर्वक स्थापित है तब निश्चित तौर पर उस व्यक्ति ने अपने कार्यों और आचरण से स्वयं को स्थापित किया होगा |  किसी की रचना या लेखन से अगर कोई विपरीत संकेत जो लिंग,वर्ण विरोधी लगते भी हो ,तब भी क्षण मात्र में उसके बारे में कोई धारणा नहीं बना लेनी चाहिए |

विनोद भाव में की गई बाते अक्सर साथ में बैठे अन्य लोगों को अरुचिकर भी लगती हैं परन्तु उसका अर्थ यह कभी नहीं होता कि  विनोदी स्वभाव का व्यक्ति लम्पट या असंस्कारी है | मनुष्य के आचरण और व्यवहार के लिए वातावरण और उससे भी अधिक जिसके साथ व्यवहार किया जा रहा है उसका मानसिक स्तर प्रभावशाली होता है | बच्चे के साथ आप बच्चे जैसा और विनोदी के साथ आप भी विनोदपूर्ण व्यवहार ही करते हैं | 

तर्कहीन विवाद की तो कोई सीमा नहीं होती | जब दो लोग पूर्व से ही पूर्वाग्रह से ग्रस्त हों तब विवाद की स्थिति में वे एक दूसरे  का दोष ही देखते हैं और सारी कटुता और कलुषता बाहर निकाल देते हैं | कोई भी व्यक्ति शत प्रतिशत सच नहीं होता और न ही शत प्रतिशत झूठ | परिस्थितियाँ और सापेक्षता के अनुसार उनके गुण दोष बदलते रहते हैं |

ब्लागिंग में अपने जीवन के अनुभव और परस्पर व्यवहार को उद्घाटित करने का एक अच्छा अवसर और तल मिलता है | एक दूसरे को पढ़ कर उस पर टिप्पणी किये जाने का भी प्राविधान है | कभी कभी पढने वाला लिखने वाले के मूड को बिना समझे उस पर टिप्पणी कर देता है जो उस लेख  या रचना से मेल नहीं खाती और अर्थ का अनर्थ हो जाता है | मानसिक परिपक्वता के अभाव में भी ऐसा हो जाता है | परन्तु अकस्मात जिस व्यक्ति के आचरण और सामान्य ख्याति पर लोग प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं , उसे यह सब बहुत सालता है | मेरी पिछली पोस्ट पर की गई टिप्पणियों पर अनायास हुए घमासान से , जिहोने आपत्ति की वे सच में दुखी हुए या नहीं परन्तु उनकी आपत्ति का तरीका अच्छा मुझे  भी नहीं लगा |

या फिर सच्ची ब्लागिंग छोड़कर बस इश्क ,मोहब्बत , मौत, ख़्वाब, आंसू , ख्याल और ख्वाहिश सरीखे विषय पर ही चंद आड़ी तिरछी पंक्तियाँ लिख कर इतिश्री समझी जाए | 

                                               " बहुत कठिन है डगर .......ब्लागिंग की ........"
  

शनिवार, 18 अगस्त 2012

" एक बहुत अच्छा प्लान है ,सर , वह बोली ....."


सर, मैं आई.सी.आई.सी.आई से पायल बोल रही हूँ , आप अमित बोल रहे हैं न | हाँ ! पर आप कौन , किसने नंबर दिया आपको | वह बोली , सर आपका नंबर वी.आई.पी. नंबरों की लिस्ट में था , वहीँ से मिला है | ऐक्चुअली अभी हमारे यहाँ एक बहुत अच्छा सा प्लान आया है सर, आपको रूचि हो तो मै आपसे मिलने आ जाती हूँ | ऐसे न जाने कितने फोन , कभी मैक्स लाइफ , कभी बिरला सन लाइफ , कभी एच.डी.एफ.सी. ,कभी स्टेट बैंक , कभी किसी रिजोर्ट , कभी किसी ट्रेवल ग्रुप से आते रहते  है कि उनकी कंपनी में बस पैसा लगा दीजिये और फिर लाभ ही लाभ मिल जाएगा आपको | अधिकतर क्या, लगभग सारे फोन लडकियां ही करती हैं और इतने प्यार से मिठास के साथ बोलती हैं कि तुरंत दिमाग उनकी आवाज़ से उनके चेहरे के बारे में कयास लगाने लगता है | अक्सर तो मैं फोन उठाते ही 'सारी' बोलकर फोन रख देता हूँ पर कभी कभी जब लाइट मूड में होता हूँ और कुछ फुर्सत के लम्हे होते हैं और ऐसे में अगर अच्छी सी आवाज़ भी सुनने को मिल रही हो तो फोन भी कान पर लगा रह ही जाता है | फिर भी अंत में मै कह ही देता हूँ फिलहाल मेरे पास पैसे वैसे नहीं लगाने के लिए और बात वहीँ ख़त्म हो जाती है |

ऐसे ही एक काल पर एक लड़की जिद करने लगी कि , सर मेरा प्लान एक बार आप देख लीजिये बस | लेना न लेना आपकी मर्जी , आप अपाइन्टमेंट दे दीजिये प्लीज़ | मैंने कहा , मै टाइम नहीं दे पाउँगा | तुम कभी भी आ सकती हो, अगर मैं फ्री हुआ तो बात कर लेंगे | एक दिन अचानक वह आफिस आ गई | सारी कहानी सुनने के बाद मैंने कहा , देखो जहां तक बचत वगैरह या टैक्स सेविंग के प्लान होते हैं वह सब तो हम लोग खुद ही करते रहते हैं | तुम्हारी स्कीम में तो मुझे कोई विशेष आकर्षण नज़र नहीं आ रहा है | पहले तो वह धीरे धीरे बात कर रही थी , बाद में अनुनय विनय तो कम लिबर्टी कुछ ज्यादा ही लेने लगी | अरे मैंने कहा , मुझे कोई रूचि नहीं है | आप जा सकती हो | शिष्टाचार के नाते मैंने उसे एक कप चाय भी आफर कर दी | 

इन सब बातों के दौरान मेरा मन यह सोचने को विवश हो रहा था कि आखिर यह लडकियां कैसे फोन पर किसी को .कन्विंस कर इन्वेस्टमेंट के लिए राजी कर पाती होंगी और कैसे फिर इन्हें कमीशन मिलता होगा | मैंने सोचा , चलो आज इस लड़की से ही यह गुत्थी सुलझाते हैं | उसने जो कुछ बताया वह सब मेरे लिए बहुत अजीब सा था | उसने कहा , सर पहली बात तो हम लोग कभी अपना सही नाम नहीं बताते | जो नाम भी रखते हैं इस जाब के लिए, प्रायः वे नाम काफी लुभावने और कर्णप्रिय से होते हैं जैसे : पायल, पियाली, स्वीटी, अनामिका, सिमरन,......और बहुत सारे बताये उसने ( वास्तव में जिनके यह नाम हों उनसे क्षमा याचना सहित )| जबकि वास्तव में उनके नाम लक्ष्मी , सुषमा, शोभा या सुमित्रा देवी टाईप होते हैं | आगे बोली फिर हम लोग फोन डाइरेक्ट्री से सरकारी अफसरों के नंबर सेलेक्ट करते हैं क्योंकि सरकारी अफसर पैसे वाले होते हैं, उनके पास समय फ़ालतू बहुत होता है और फ़ीमेल आवाज़ सुनकर जल्दी पिघल जाते हैं | आगे उसने बताया २/ ४ विज़िट में तो वह बाहर लंच भी कराते हैं और पॉलिसी तो ले ही लेते हैं | कंपनी वाले जानबूझकर ऐसी टैकटिक्स अपनाते हैं | यह सब काफी सोच समझ कर किया जाता है | 

काल सेन्टर से यह लडकियां फोन करते समय अपने सामने कापी पर फोन नंबरों के आगे रिमार्क भी लिखती रहती हैं कि जिससे बात की , उसकी रिपीट वैलू है कि नहीं या कितनी काल में वह ढेर हो जाएगा | मेरे जैसे के आगे वह लिख देती हैं एन.आई. अर्थात नाट इंटेरेस्टड , जिससे कि किसे दोबारा फोन करना है किसे नहीं ,यह तय किया जा सके | फिर भी मुझे बात समझ में नहीं आ रही थी कि वार्षिक प्रीमियम लाख / डेढ़ लाख देने को कोई कैसे राज़ी हो जाता होगा , वह भी उसका रिटर्न कब मिलेगा या क्या होगा या मरने के बाद घर वालों को मिलेगा या नहीं मिलेगा  | सब कुछ बहुत गोलमाल सा लग रहा था मुझे | मैंने कहा मुझे तो तुम्हे सामने सामने मना करना भी अजीब सा लग रहा है , फोन पर मना करना आसान होता है | इस पर वह बोली , यह बात हम लोग जानते हैं कि फोन पर लोग मना कर देते हैं इसीलिए पर्सनली मिलने की जिद करते हैं और सब आप जैसे नहीं होते जो जैसे फोन पर थे वैसे ही मिलने पर भी निकले | फिर उसने मुझसे ४/६ रेफेरेंसेस मांगे ,जिनसे वह वहां से निकलने के बाद मिल सके | मैंने कहा एक शर्त पर रेफेरेंस दूँगा , तुम किसी को यह नहीं बताना कि मैंने रेफेरेंस दिया है नहीं तो मेरे नाम पर लोग पालिसी करा लेंगे और बाद में गलियाँ भी मैं ही खाऊँगा |

मैंने कहा जो भी हो तुम्हारा काम तो बहुत मुश्किल है | अनजान आदमी को अचानक इन्वेस्टमेंट के लिए राजी करना , एकदम असंभव | वह मुस्कुराते हुए बोली आप चिंता छोडो , हम लोग सब मैनेज कर लेते हैं | फिर भी शिष्टाचार वश जाते जाते उससे मैंने कहा , कभी बिजली सम्बंधित कोई समस्या हो तो जरूर बताना  तुम्हारी मदद कर दूँगा, फिलवक्त तो मैं तुम्हारे किसी काम का नहीं | वह जाते जाते मुझे यूं देख रही थी गोया कह रही हो , हुंह तुम और तुम्हारी बिजली |

इस पूरे सिस्टम को एक कुचक्र कहूँ या कंपनियों का एक अच्छा सा प्लान |  

बुधवार, 15 अगस्त 2012

" आज़ादी....मंतव्य....गंतव्य ....और कर्तव्य...."


१९४७ के पहले हम क्या थे , आज़ादी कैसे मिली , कितनी शहादतें हुईं , यह सब सर्विदित है | देश में अंग्रेजों का शासन था पर तब अनुशासन भी था | परन्तु तब यह बात सालती थी कि हम अपने ही देश में निर्णय लेने को और अपना भविष्य सोचने के लिए स्वतन्त्र नहीं थे | इन्ही भावनाओं ने उस समय के लोगों में देशभक्ति जागृत की और परिणाम स्वरूप हम १९४७ से स्वतन्त्र हैं |

परन्तु उस समय के लोगों का आज़ाद होने के बाद का मंतव्य संभवतः यह रहा होगा कि हम स्वयं अपने देश में सु-शासन स्थापित करेंगे | विभिन्नता में एकता को संजोये हुए सदैव देश की तरक्की की बात होगी और उस पर अमल भी होगा | संसाधनों का सदुपयोग करते हुए मूलभूत अवस्थापना के क्षेत्र में यथा बिजली , पानी ,सड़क  हर आम आदमी को उपलब्ध करायंगे | गाँव का विकास गाँव में ही होगा | कृषि प्रधानता को महत्व देते हुए किसानो को खेती के क्षेत्र में तकनीकी के सहारे उन्हें आत्मनिर्भर और समाज में अग्रिणी होने का मौका देंगे | राजनीति में पारदर्शिता होगी और देशवासियों को अपने राजनेताओं पर गर्व होगा | परन्तु आज़ादी का यह मंतव्य कहाँ पूरा हुआ | अंश मात्र भी पूर्ण नहीं हुआ |

उस वांछित मंतव्य से भटक जिस गंतव्य को हम पहुँच गए , वहां निराशा ही निराशा है | राजनेताओं के कृत्य हमें शर्मसार करते हैं | गवर्नेंस की बात कहीं दिखती नहीं | मूलभूत आवश्यकताओं का घोर आभाव है | वैश्विक स्तर पर किसी भी स्पर्धा में हमारा कोई नाम नहीं | हमसे छोटे छोटे देश खेलकूद में ही कई गुना आगे रहते हैं | भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई लड़ाई लड़ने को तैयार नहीं | शीर्ष पर बैठे लोगों का कॉकस इतना मजबूत है कि उसे भेद पाना आसान नहीं | आज हमें इस बात से कोई ख़तरा नहीं कि कोई दूसरा देश हमें गुलाम बना लेगा , क्योंकि अब हम सोने की चिड़िया नहीं कहलाते और हैं भी नहीं | इसलिए इस पर ध्यान देने कि आवश्यकता नहीं है कि हम फिर से गुलाम हो जायेंगे | आज विश्व स्तर पर देशों के आपसी संबंधों का  ढांचा इस प्रकार है कि कोई देश किसी भी दूसरे देश पर आक्रमण तो कर सकता है परन्तु उसे अपने अधीन कर पाना संभव नहीं और हमारे देश के सन्दर्भ में तो बिलकुल भी नहीं |

परन्तु भय और चिंता तो इस बात की है कि आज हम अपनों के ही गुलाम हो गएँ हैं | देश की , प्रान्तों की ,कोई स्पष्ट दिशा नहीं है | नेता काम वो करते हैं जिसमे उन्हें निजी लाभ हो | उस काम से क्षेत्र को फायदा होगा अथवा नहीं और न ही कभी क्षेत्र की जनता को विश्वास में लेकर कोई  काम किया जाता है | कही कहीं वही सड़क वर्ष में दस बार मरम्मत की जाती है और कहीं लोग आज भी सड़क से वंचित हैं | जिस क्षेत्र का नेता प्रभावशाली वहां बिजली की आपूर्ति अधिक की जाती है | आज भी हम शहरों के हर घर रोशन नहीं कर पायें है , गाँव की तो बात अभी बहुत दूर है | रोजगार परक योजनाओं का आभाव है | युवा दिशाहीन हो भटक रहा है | और यही युवा हमारे कल का भविष्य है | अभावग्रस्त समाज से ही नक्सलपंथी जन्म लेते हैं जो हमारे अपने ही हैं परन्तु परिस्थितिवश उनसे भी हमें युद्ध ही करना पड़ रहा है जो बहुत ही घातक और शर्मनाक है |

मंतव्य क्या था और गंतव्य क्या हो गया ऐसे में आखिर हमारा कर्तव्य क्या होना चाहिए !सरकारों को बहुत संवेदनशील होना पडेगा | प्रजातंत्र में चूँकि संख्या बल का महत्व है अतः राजनीति में साफ़ सुथरी छवि के लोगों को आगे आना होगा और हमारा कर्तव्य और दायित्व होना चाहिए कि हम मत का प्रयोग अवश्य करें और सही चयन भी करें | हमारे देश के लोगों की क्षमता और बौद्धिक स्तर में कहीं कोई कमी नहीं है | आखिर गुजरात में ऐसा क्या है जो यू.पी., बिहार में नहीं क्या जा सकता | आवश्यकता है विज़न और विल पॉवर की | अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता को उत्प्रेरित किया जाय तब वह अराजकता का स्वरूप लेने लगता है | जिसकी आड़ में अराजक तत्व कुछ ज्यादा ही नुकसान कर जाते हैं | 

आखर फिर करें तो क्या करें ? हर आदमी अनुशासित हो | दिए गए दायित्वों का ईमानदारी से निर्वहन करे |अपने आसपास होने वाले गलत कामों का मजबूती से विरोध करे | दिए गए लालच से प्रभावित हो ब्लैकमेलिंग के धंधे में न शामिल हो जाए | साफ़ सुथरी पत्रकारिता हो | १९४७ से पहले तो आज़ाद होने के लिए जान देनी पड़ी थी और खून बहाना पडा था परन्तु अब यह सब बिलकुल नहीं करना है | सेना में भर्ती के समय मैदान में उमड़ा समूह कितना अनियंत्रित और बेमेल सा लगता है | प्रत्येक व्यक्ति बिलकुल अजीब सा और रा मटीरियल सा लगता है और वही सारे व्यक्ति सेना में जाकर सैनिक बन कितने प्रभावशाली और आपस में सिंक्रोनाइज्ड लगने  लगते हैं अर्थात वही जनसंसाधन ट्रेनिंग के पश्चात नए रूप में तैयार हो जाता है | बस यही सोच हमारे देश के शीर्ष पर बैठे नेताओं की होनी चाहिए | सारी योजनाओं का रोजगारपरक  और ग्रामोन्मुख होना अत्यंत आवश्यक है | पंजाब की ओर जाने वाली ट्रेनों में बिहार और यू.पी. का मजदूर जानवरों की तरह भर भर कर काम की तलाश में वहां जाता है  और सिवाय शोषित होने के कुछ भी हासिल नहीं होता | काम की तलाश में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में पलायन को रोकना होगा तभी क्षेत्रवाद पर रोक लगेगी और आसाम जैसी घटनाएं रोकी जा सकेंगी |

विदेश से काला धन तो जब आएगा तब आएगा ,अपने ही देश में बहुत सारा कला धन जमा है | ( आये दिन लोगों के लॉकर से रुपये भरभरा कर गिरते रहते हैं , चाहे वह फिजा ही क्यों न हो ) चुनाव में इसके उपयोग पर और कड़ा प्रतिबन्ध लगना चाहिए | शिक्षा ,स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत अधिक धन प्राविधानित तो किया जाता है पर अपने लक्ष्य तक वह धन पहुँच नहीं पाता | 

अंत में सबसे आवश्यक बात जनसंख्या के विषय में भी की जानी चाइये | हमारे संसाधन अत्यंत सीमित हैं और अगर जनसंख्या इसी प्रकार बढती रही तब सड़क पर चल पाना भी मुश्किल हो जाएगा | प्रत्येक परिवार दो बच्चों तक सीमित हो, इसका भी कड़ा क़ानून बनाया जाना चाहिए  | उनको शिक्षित किया जाना सर्वोच्च वरीयता पर होना चाहिए | सरकार से अलग जो लोग संपन्न वर्ग के हैं उनका भी थोडा दायित्व बनता है कि आखिर उन्हें जो कुछ भी हासिल हुआ है ,इसी समाज से हुआ है अतः अपने आसपास के और संपर्क में आने वाले लोगों की भरपूर मदद भी करें | 

प्रत्येक व्यक्ति बस यह संकल्प ले ले , चाहे वह जिस भी वर्ग का हो कि वह अपनी संतान को ईमानदारी से अपने से श्रेष्ठ बना कर समाज को देगा तभी उनका परिवार ,समाज और अन्ततोगत्वा देश का कल्याण हो सकेगा |

जय हिंद !जय भारत !

सोमवार, 13 अगस्त 2012

" रेस्त्रां , वेटर और टिप......"


रेस्त्रां में प्रायः तो खाने का शौक नहीं , क्योंकि घर के खाने क़ी बात ही कुछ और होती है , पर कभी कभार बच्चों के आग्रह पर , जब वे अपनी मम्मी को खुश करना चाहते हैं , बाहर खाना हो जाता है | ( बना बनाया खाना किसी भी पत्नी को मिल जाए, खुश होना स्वभाविक है ) | हम लोगों के २ / ३ रेस्त्रां निश्चित हैं जहां अक्सर हम लोग खाना खाने के लिए जाते हैं | एक दो जगह ऐसी हैं जहाँ ग़ज़ल गायकी भी होती रहती है | अच्छे खासे उम्रदार लोग सितार और तबला बजाते है और कोई एक साहब ग़ज़ल गाते हैं  | वे लोग आपकी फरमाइश पर भी गाना या ग़ज़ल सुनाते है | मुझे यह कुछ अजीब सा लगता है क्योंकि उनके चेहरे पर संगीत का आनंद नहीं झलकता बल्कि दो जून क़ी रोटी जुहाने का एक प्रयास मात्र लगता है , जिससे उनके सामने बैठ कर शौकिया खाना खाने में अजीब सा लगता है |

खाने का आर्डर , फिर खाना आना और फिर खाने क़ी समाप्ति तक वेटर से एक अच्छा खासा संवाद स्थापित हो चुका होता है | अब तक वह जान चुका होता है कि, इस आयोजन का अभिप्राय क्या है , कौन किसको खुश करने के लिए वहां लाया है और मुद्दे क़ी बात भी वह जान लेता है कि बिल कौन भुगतेगा | जिसके द्वारा बिल का भुगतान किये जाने की संभावना अधिक होती है , उसका वह विशेष ध्यान रखता है और उससे भी ज्यादा उसका ध्यान रखता है जिसको खुश करने के लिए बिल भुगतान करने वाला आत्मघाती प्रयास में वहां आया है | रेस्त्रां में कितने भी लोग एक साथ खाना खाने क्यों न गए हों परन्तु बिल भुगतान करने वाला किसी एक को ही सर्वाधिक खुश देखना चाहता है  और वेटर यह बखूबी जानता है | 

बारी जब बिल की आती है , तो कोई बात नहीं उसका तो भुगतान करना ही है, परन्तु एक समस्या होती है कि वेटर को टिप कितनी दी जाए | अगर भुगतान कैश में किया जा रहा है तब तो बिल क़ी खातिर दिए गए पैसे में से क्या बचेंगे , उसी में कुछ हिसाब लग जाता है कि टिप भी हो जाए और शेष पैसे के लिए प्रतीक्षा न करनी पडी | अगर कार्ड से भुगतान कर रहे हैं , तब टिप तो कैश ही देनी पड़ती है | टिप की राशि के बारे में विद्वानों का मत है कि वह कुल बिल राशि का १५ / २० प्रतिशत होना चाहिए अगर वेटर ने सेवायें अच्छी दी हैं, अन्यथा १० प्रतिशत दे कर निपट लेना चाहिए | कुछ का कहना है अगर आप प्रायः उस रेस्त्रां में जाते रहते हैं तब तो टिप पर ध्यान दे, अन्यथा अगर कभी दुबारा वहां न जाना हो तो जैसी आपकी मर्ज़ी | 

मैंने अक्सर देखा है टिप देने में कोई नियम नहीं चलता | अक्सर बिल भुगतान करने वाला वेटर की सेवायें नहीं देखता , अपितु जिसको अपने साथ खाने पर ले गया है उसे ही इम्प्रेस करने के लिए वेटर को अनाप शनाप टिप दे बैठता है और ऐसे ही लोगों के इर्द गिर्द वेटर घूमते नज़र आते हैं | टिप व्यवस्था पर होटल / रेस्त्रां प्रबंधन एकदम मौन रहता है | कभी कभी तो खाना काफी ठंडा अथवा जायका रहित होता है तब सारा क्रोध उस वेटर पर ही आता है पर बिल तो भुगतान कर देते हैं | हाँ ! टिप देने की इच्छा नहीं होती , जोकि शायद गलत भी है | 

टिप कितना देना है , यह रेस्त्रां के क्लास पर भी निर्भर करता है | जो लोग रेस्त्रां में अच्छी खासी टिप देते हैं उन्ही लोगों को 'हाई वे' पर बने ढाबे में खाना खाने के बाद बिना टिप दिए फुर्र से कार में जाते भी देखा है मैंने |

होटल या रेस्त्रां में पहुँचते ही गार्ड का सैलूट मारना , वैलेट पार्किंग की जिद करना फिर वेटर का असमान्य व्यवहार सब कुछ एक नाटक और ओवर एक्टिंग सा लगता है | मुझे तो बिलकुल बर्दाश्त नहीं होता |

खाना खाने के बाद शायद ही कभी कोई बिल का टोटल कर के देखता होगा , उसमे 'सेवा कर' भी अच्छा खासा लगा होता है | परन्तु वेटर को टिप देते समय अनायास आध्यात्मिक चिंतन करना पड़ता है और थोड़ी असहजता भी महसूस होती है | बेहतर है होटल प्रबंधन टिप को भी बिल में ही जोड़ कर हम जैसे लोगों को इस समस्या से निजात दिलवा देने की व्यवस्था करें |

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

" बदसूरत मौत ....एक खूबसूरत की ....."


फूल खुश था,
उन हाथों में जाकर,
हाथ खुश थे,
उसकी ख़ुशबू पाकर |
पर खुशबू,
मुस्काई थी धीरे से,
उड़ जाऊँगी,
सुबह तक मसले फूलों से |
मसले हुए लम्हे,
जब बन गए मसले,
उस फूल के ,
वो हाथ न थे,
कहीं आस पास | 
नाम था फिजा,
उस फूल का,
जो लटकी मिली,
चाँद के सलीब पे |

शनिवार, 4 अगस्त 2012

" और कविता मचल गई ......"




आहट हुई आने की उनके,

कविता मेरी मचल गई,

पहले उगी फिर खिली फिर संवर गई,

कभी उलझी निगाहों में उनके,

कभी लबों पे ठहर गई,

डूबी कभी ख्यालों में उनके,

कभी साँसों में घुल गई ,

इंतज़ार में रह गया मैं,

आगोश की उनके,

कविता बरबस लिपट गई,

खुशबू उनकी आती है अब,

कविता से यूं ही अक्सर,

कभी भिगो जाती है मन,

बरसा जाती कभी आँखे जमकर,

रह गया मैं तो तसव्वुर में उनके,

कविता मंजर सारा बयाँ कर गई |

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

" ग्रिड और बिजली ....."



बिजली का उत्पादन , पारेषण और वितरण एक समग्र विषय है और जो इस क्षेत्र से नहीं जुड़े हैं उनके लिए इसे समझना जटिल भी | परन्तु चूँकि बिजली आम आदमी के जीवन में इतना रच बस गई है अतः इस सिस्टम को आम फहम जबान में समझाने का यह एक प्रयास मात्र है |

बिजली बनाने के लिए मौलिक रूप से एक चुम्बकीय क्षेत्र की आवश्यकता होती है और उस चुम्बकीय क्षेत्र के मध्य गुड कंडक्टर के बंद परिपथ को बस घुमाना मात्र होता है | जिस घूर्णन गति से घुमाते हैं उसे ही फ्रीक्वेंसी कहते हैं | हमारे देश में यह गति ३०००  आर.पी.एम. , फ्रीक्वेंसी ५० हर्ट्ज़ होती है | 

बिजली घर का वर्गीकरण बस इसी तथ्य पर आधारित होता है कि उस बंद परिपथ को किस प्रकार से घुमाया जा रहा है | बंद परिपथ जेनरेटर कहलाता है और उसे घुमाने के लिए उससे टरबाईन जुडी होती है | अब अगर उस  टरबाईन को पानी के दबाव से घुमाते हैं तब वह जलविद्युत संयत्र  कहलाता है और अगर उसे भाप से घुमाते हैं और भाप अगर कोयले से बन रही है तब तापीय बिजली घर कहलायेगा और अगर भाप परमाणु संयत्र से बन रही है तब वह परमाणु बिजली घर कहलाता है | इसके अलावा अगर वही घुमाने का कार्य विंड मिल द्वारा किया जा रहा है तब वह विंड एनेर्जी कहलाती है | समुंदरी लहरों के पोटेंशियल को भी प्रयोग कर tidal wave एनर्जी का भी प्रयोग आरम्भ हो गया है | जल विद्युत् में पानी का दबाव प्राप्त करने के लिए ही नदियों पर डैम का निर्माण करते हैं |

किसी बिजली घर में उत्पादन शुरू करने के लिए आरम्भ में उसे अपनी auxiliary machines को चलाने लिए भी बिजली की आवश्यकता होती है | बहुत छोटे छोटे बिजलीघरों में यह आवश्यकता डीज़ल सेट से पूरी हो जाती है परन्तु बड़े बिजली घरों में उन्हें चलाने के लिए शुरू में एक छोटे से जिले के बराबर की बिजली की  आवश्यकता होती है | यह आवश्यकता 'जूस' कहलाती है | अधिकतर जूस जलविद्युत घरों से प्राप्त होता है |

बिजली उत्पादन होते ही उसे अत्यंत उच्च वोल्टेज वाली लाइनों से वितरण के लिए प्रेषित किया जाता है | जिन लाइनों से हम बिजली भेजते हैं , उन्ही लाइनों से आवश्यकता पड़ने पर लेते भी हैं | धीरे धीरे सारे बिजली घर उत्पादन और वितरण करने के लिए आपस में एक तंत्र से जुड़ जाते हैं जिसे 'ग्रिड' कहते हैं | ग्रिड से जुड़े सभी बिजलीघरों की फ्रीक्वेंसी एक सी होती है , ५० हर्ट्ज़ | अब इस ग्रिड से अगर कोई बिजली घर अपना उत्पादन करना बंद करता है परन्तु ग्रिड पर लोड वही रहेगा तब वाजिब है फ्रीक्वेंसी घटने लगेगी और चूँकि पूरा तंत्र उस फ्रीक्वेंसी के लिए ही डिज़ाइन किया गया है तब ऐसी स्थिति में सिस्टम को नुक्सान हो सकता है | अतः जैसे ही उत्पादन कम होता है , उसी अनुपात में प्रयोग की जा रही बिजली के लोड को भी कम करना पड़ता है और ऐसे ही विपरीत स्थिति में यदि उत्पादन बढ़ता है तब हमें तत्काल लोड बढ़ाने की आवश्यकता होती है अन्यथा फ्रिक्वेंसी बढ़ जायेगी और वह सिस्टम के लिए डिज़ाइन के कारण घातक होता है |

इस क्षेत्र की सबसे बड़ी इमरजेंसी 'ग्रिड' फेल होने पर ही आती है | ग्रिड फेल होने के मुख्यतः दो ही कारण है , पहला , अगर सिस्टम से जुड़े किसी बड़े  बिजली घर का उत्पादन अचानक शून्य हो जाये और उस अनुपात में संयोजित भार तत्काल कम न किया जा सके |  दूसरा , सिस्टम से जुडी कोई बड़ी लाइन जिस पर कम से कम १००० मेगावाट या उससे अधिक भार जुड़ा चल रहा हो , किसी कारण वश  (फाल्ट)  ट्रिप (अलग ) कर जाए ,बस इन्ही दो दशाओं में ग्रिड फेल हो सकता है | १५ / २० वर्षो  पहले तो ग्रिड अधिक डिस्टर्ब रहता था परन्तु अब तो ऐसी स्थिति में क्षेत्र वार ग्रिड अपने को इस फाल्ट से स्वयं अलग कर लेते हैं जिसे आइलैन्डिंग कहते हैं |

अभी जो घटना ग्रिड फेल होने की हुई थी उसमे आगरा- ग्वालियर लाइन जोड़ते समय फाल्ट आया था जिसने ग्रिड फ्रिक्वेंसी को डिस्टर्ब किया और फाल्ट ट्रिगर हुआ जिससे कैसकेडिंग इफेक्ट से सारी मशीने बंद हो गई थी | ओवरड्राल मैन मेड फाल्ट है , इसमें सिस्टम का कोई दोष नहीं | इसीलिए ओवरड्राल पर जुर्माना लगाने का भी प्राविधान है |
एक बार ग्रिड फेल होने पर सारी मशीने बंद हो जाती हैं और बहुत बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़ता है | एक तो जो मशीने चलते चलते बंद हो जाती हैं उनके  रोटर चूँकि बहुत वजनी और गर्म होते हैं उन्हें वैकल्पिक  व्यवस्था  से घुमाते रहने पड़ता हैं नहीं तो वह डैमेज हो सकते हैं | सारी बियरिंग्स को ठंडा रखने ले लिए तेल के पम्पो को भी डीज़ल सेट और बैटरी से चलते रहना पड़ता है | अब चूँकि ऐसी इमरजेंसी कभी कभार होती है अतः लोगों को इसका अनुभव भी नहीं होता और बहुधा काफी नुकसान उठाना पड़ता है | ग्रिड फेल होने पर सबसे पहले जल विद्युत् संयत्र ही चलाये जाते हैं क्योंकि उन्हें तत्काल चलाना सरल होता है फिर उस बिजली घर की बिजली को बड़े बिजली घरों को जूस के तौर पर दी जाती है तब वहां की मशीने चल पाती हैं |

अब राष्ट्रीय ग्रिड से कौन सा राज्य कितनी बिजली लेगा या ले रहा है इसकी निगरानी की आवश्यकता होती है जिसमे चूक होने पर ही असंतुलन होता है और अक्सर इसके कारण राजनैतिक भी ज्यादा होते हैं |

पिछले २५ वर्षो से मैं इस सरकारी महकमे में काम कर रहा हूँ | उत्पादन के क्षेत्र में ओबरा और टांडा परियोजना में लगभग ५ वर्ष काम किया और फिर वितरण के क्षेत्र में आ गया तबसे वितरण के ही क्षेत्र में हूँ  और अभी लखनऊ में हूँ । वितरण के क्षेत्र में उपभोक्ताओं से इंटरफेस और बढ़ जाता है जो कठिन भी है और एक चुनौती भी क्योंकि उपभोक्ताओं की अपेक्षाएं बहुत अधिक हैं और बिजली की उपलब्धता बहुत कम | हमारे देश में इस क्षेत्र में अभी बहुत कार्य किया जाना है और लोगों को भी समझने की आवश्यकता है कि इसका प्रयोग अत्यंत सावधानी , ईमानदारी और किफायत से करना चाहिए |

" greed for more power fails GRID " ,whether this power is electrical, political ,economical or social , it is applicable everywhere in larger perspective .

बुधवार, 1 अगस्त 2012

" पहली अगस्त .....जन्म हुआ था इस दिन हमारा ....."

                                     
                                        सब की नज़र से - " मै "

१.बेटों की नज़र में --मेरे पापा सबसे अच्छे और एक दोस्त उससे भी अच्छे ।

२.पत्नी की नज़र में --है तो ठीक, पर थोड़े खिसके हुए से | 

३.मम्मी-पापा की नज़र में --जिद्दी, नालायक पर अनुशासित, औरों के लिए उदाहरण | 

४.रिलेटिव्स की नज़र में --अपने में मस्त , या अभिमानी |

५.पड़ोसियों की नज़र में --वक्त ज़रूरत काम आने वाला , सहजता से सुलभ |  

६.दोस्तों की नज़र में --यार आ जाये, तो मजा आ जाए | 

७.बॉस की नज़र में --परफेक्ट |

८.मातहत की नज़र में --बॉस तो अपने हैं ,फिकर नाट |

९.महिलाओं की नज़र में --यह तो हम से ही ज्यादा शर्माते हैं | ( ऐसा वे समझती हैं )

१०. खुद की नज़र में --'निपट अकेला ' ,  jack of all ,master of none.