मंगलवार, 30 नवंबर 2010

"पहरा पलकों का"

पुरानी यादों को टटोलने के लिये,
उस पर पड़ी नई कच्ची यादों को,
बुहार रहा था पलकों से,
पर यह क्या,
पलकों की बुहारन में,
उनकी ही पलकें झलक गई,
और फ़िर उलझ भी गईं आपस में,
फ़िर जो सिलसिला शुरु हुआ,
पलकों को समेटने और बटोरने का,
तो यादें परत दरपरत खुलती गईं,
उनकी पलकें,नज़र भरे नयन,
कपोलों को चूमती बालियां,
उलटा प्रश्न-चिन्ह सा बनाती लटें,
मुस्कुराते होठों के दोनो ओर बनते कोष्ठक,
सांसो के अनुपात में होती कम्पित धड़कन,
उंगलियों में फ़ंसी और खेलती गले की माला,
बहुत कुछ और सभी कुछ याद आता गया,
मुझे लगा कि ऐसा ना हो कि,
पलकों की बुहारन में ,
मैं उन यादों को भी बुहार दूं,
जिन्हें मैं क्या कोई भी,
जीवन भर संजो के रखना चाहेगा,
इसीलिये मैने झट से पलकें,
मूंद लीं और उन्हीं की पलकों का,
पहरा बिठा दिया।

बुधवार, 24 नवंबर 2010

एक बहुत पुरानी "वो"

"वो" सलोनी तो थी,
मगर,
यह एहसास भी था उसे कि,
"वो" सच में खूबसूरत बहुत है,
और यही एहसास उसे दिन हर दिन,
और भी जालिम किये जा रहा था,
मुझ में ना जाने क्या दिखा उसे,
एकदिन होठों से मुसकुराते हुए,
आंखों आंखों से बोल बैठी कि,
मेरा निहारना,
उसे अच्छा लगता है ।
यह शुरुआत थी,
एकबार मैं सीढियां चढ़ रहा था,
और "वो" नीचे पानी भरी बाल्टी रखे,
शायद चावल धुल रही थीं,
अचानक पानी में मैने जो,
अक्स उसका देखा तो देखता ही रह गया,
मैने शरारतन एक भारी सा तिनका जो,
बाल्टी में फ़ेंका तो पानी मॆं,
भंवर सी बन गई और उसका चेहरा,
गोल गोल सा घूमने लगा,
घूम उसका अक्स रहा था और चक्कर सा मुझे,
आ  रहा था।
याद आज  यह सब इस लिये आ गया,
क्योंकि "वो"  साधारण सी लड़की ,
पर असाधारण चेहरे वाली थी,
जिसने कभी जाना ही ना था कि,
श्रॄंगार क्या होता है,
पर उसे देखने वाला पूरी तरह,
श्रॄंगार रस में सराबोर हो जाता था,
परंतु प्रकॄति की तो विडम्बना है कि,
कभी अच्छे और बहुत अच्छे  लोगों को,
जीवन भर का अच्छा साथ नही,  
नसीब होता और "वो" भी अन्ततः बेनसीब,
हो गई परन्तु  मैं शायद आज भी कहीं,
उसे अपने जेहन में जिन्दा रखे हूं,
पर उसे क्या पता.......
                 

सोमवार, 22 नवंबर 2010

"अखबार" और राष्ट्र का चरित्र


सही और गलत,सच और झूठ,मान और अपमान का कोई पैमाना नही है। सब सापेक्ष है। परिस्थितियां ही न्याय और अन्याय तय करती हैं। मनुष्य अपने द्वारा किये गये कार्य अथवा अपनी सोच को परिस्थितिपरक कारणों से justify करने का प्रयास करता है और अपने कॄत कार्यों से ही अपना चरित्र बनाता है और शीर्ष पर विराजमान लोगों के कार्यो एवं सोच से राष्ट्र का चरित्र दर्शित होता है।
             
यदि कभी कोई व्यक्ति ना चाहते हुए अथवा तनिक लोभवश कोई गलत कार्य या भ्रष्ट आचरण कर बैठता है और चूंकि वह स्वयं में अच्छा व्यक्ति है अतः उसे रात भर नींद भी नही आती और मन कसमसाता रहता है,यहां तक कि वह रात ही रात में यह भी तय कर चुका होता है कि सुबह सबसे पहले उस गलत आचरण का निवारण करना है।
              
परंतु सबेरे जब वह अखबार में देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन लोगों के कारनामों से रूबरू होता है तब उसे अपने द्वारा किये गये गलत काम बहुत नगण्य से और लगभग justified भी लगने लगते हैं। (यह बात घूसखोरी,गबन,अपरहण बलात्कार जैसे सभी कॄत्यों पर लागू होती है।) और यह प्रक्रिया एक vicious circle की तरह चलने लगती है।
               
भय तो इस बात का है कि ऐसे गलत कामों के justification ही धीरे धीरे नई generation को इस कदर convince कर दे रहे है कि उन्हें यह सब राजनीति में प्रवेश करने का माध्यम और अवसर सा लगने लगा है।
               
कैसी विडम्बना है कि राष्ट्र का चरित्र "अखबार" समाज की इकाई "मनुष्य" का चरित्र बिगाड़ने को अग्रसर है।


                               "शायद आवश्यकता सोचने की है अब मीडिया को ..."

शनिवार, 20 नवंबर 2010

"entropy" और "मन"

 'एनट्रॉपी' किसी 'सिस्टम' के व्यवस्थित होने की अवस्था के बारे में जानकारी देता है। कोई सिस्टम जितना सुव्यवस्थित होगा उसकी entropy उतनी ही कम होगी,पर यह भी सच है कि entropy हमेशा बढ़ती रहती है, यानी कि कितना भी प्रयास करो system  हमेशा disorderliness की ओर ही अग्रसर रहता है | एक छोटे से उदाहरण से ऐसे समझ सकते हैं कि कार आप जितना साफ़ करोगे उसके गंदे होने की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है।
           
कुछ कुछ यही स्थिति "मन" की भी रहती है। मन सदैव चंचल रहता है।विचारों का प्रवाह निरंतर बना रहता है और वे सदा मन को अस्थिर रखते हैं, यानी मन की entropy बढ़ाते रहते हैं ।मन की entropy कम करने का तरीका यही है कि जिस भी अवस्था में आप हैं,उसी में प्रसन्न रहें और मन को विचलित ना होने दें क्योंकि  आप जो कुछ भी नया करेंगे,शतप्रतिशत entropy को ही बढ़ाएंगेऔर चूंकि प्रकॄति का नियम है कि entropy या disorderliness सदैव बढ़ना ही है अतः यह बहुत कठिन कार्य है कि मन की अस्थिरता को ना बढ़ने दिया जाय ।परन्तु नियम संयम और निश्चित प्रकार की जीवन शैली से यह थोड़ा बहुत संभव है।
            
सच तो यह है कि सारी दुनिया की  entropy क्षण-प्रतिक्षण बढ़ती जा रही है और उसके maximum state को ही catastrophe का नाम दिया गया है।
             
यह पोस्ट लिखकर मैने अपने ब्लॉग की ,कम्प्यूटर की ,नेट की और आप लोगों की भी entropy ही बढ़ाई है। यही प्रकॄति है शायद।

"latent heat" और "talent"


 "लेटेन्ट हीट" यानी गुप्त उष्मा,जो निर्धारित करती है कि कोई पदार्थ अपनी अवस्था परिवर्तन मे कितना समय लेगा और कितनी उष्मा absorb अथवा release करेगा।समान तापक्रम की दो भिन्न वस्तुओं में उष्मा की मात्रा अलग अलग होती है।बिलकुल इसी से मिलता-जुलता है "टैलेन्ट"। 'talent' ही तय करता है कि कोई व्यक्ति किसी एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जानें में कितना समय और कितनी ऊर्जा लेता है। यही स्थिति अंक निर्धारण में  भी है।

यह सच है कि यदि qualifying marks -६० हैं,तब ५९ अंक पाने वाला अनुतीर्ण हो जाता है । लोग समझते हैं कि केवल ०१ अंक का ही अंतर था और वह अनुत्तीर्ण हो गया।जबकि ऐसा नही है।५९ अंक से ६० अंक जाने में 'latent heat' की तरह ही 'talent' का रोल होता है। बिलकुल वैसे ही जैसे ९९ डिग्री तापमान के पानी और १०० डिग्री तापमान की भाप में निहित ऊष्मा की मात्रा बिलकुल भिन्न होती है।
             
'talent' को amount of "enthalpy" से भी simulate कर सकते हैं। परीक्षाऒं में अंक निर्धारण में असमंजस की स्थिति से बचने के लिये ही अब percentile का concept तेजी से लागू हो रहा है।जिसमें सीधे सीधे कौन कितना talent contain कर रहा है उसकी relative स्थिति प्रदर्शित हो जाती है।
             
वैसे भी 'talent' यदि 'latent' मोड (mode) में हो तभी ज्यादा शोभित भी होता है,इसीलिये इत्तिफ़ाकन talent और latent की वर्तनी भी एकसमान ही है ,शायद ।

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

"काश मुझे भी कोई याद करता"

          पहले तो अक्सर होता था,
          वो कहते थे हिचकी आ रही थी,
          जब जब मेरा नाम लिया बन्द हो गई थी,
          अब ऐसी कोई बात नही,
          ऐसा नही कि उन्हें अब हिचकी नही आती,
          पर मेरा नाम लेने से बन्द नही होती,
          पता नही कि वे याद नही करते,
          या मैं याद नही आता,
          काश एक बार फ़िर,
          वे याद तो मुझे करते,
          फ़िर वैसे ही कहते,
          कि लग रहा था कि,
          मैं इत्तफ़ाक से मिलूंगा,
          और मैं मिल भी जाता,
          पर ऐसा क्या हुआ जो,
          याद तो दूर भूल कर भी,
          मेरी भूलों को नही भूलते,
          पर सच तो यह है कि,
          याद तो मै  भी नही करता उन्हें,
          क्योंकि मैं पहले भूल तो जाऊं उन्हे,
          तब तो याद करूं।

बुधवार, 17 नवंबर 2010

स्वयं जीवन का अंत, आखिर क्यों?

              अभी लगभग दो घंटे पहले बच्चों ने बताया कि उनके यहां (आई.आई.टी. कानपुर में) चौथे वर्ष की एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली ।बहुत दुख हुआ और स्तब्ध भी हूं।पिछले दो वर्षों मे यह स्वर्णिम भविष्य का तीसरा अंत है।किसी भी परिवार के लिये यह बहुत ही बड़ा और असहनीय दुख है।ईश्वर उनकी सहायता करे ऐसी हमारी प्रार्थना है।
             ऐसी कौन सी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है जो बच्चे इतना कठोर कदम उठा लेते हैं।यूं ही मौत को गले लगा लेना इतना आसान भी नही होता।संभव है मेधावी बच्चे जब अपेक्षाकॄत परिणाम नही प्राप्त कर पाते एवं अन्य बच्चों की तुलना में करियर तुच्छ लगने लगता है या पूरी तरह सेमेस्टर दोहराना पड़ता है तब भी अत्यंत ग्लानि होती है और ऐसे कदम की परिणति होती है।पर कारण कुछ भी हों इस तरह की घटनाओं की जिम्मेदारी पूरी तरह से कॉलेज प्रशासन की होनी चाहिये।सुदूर जगहों से अच्छे बच्चे ही ऐसे संस्थानों में दाखिला पाते हैं और वहां आने के बाद अगर उनमे ऐसी प्रवॄति जन्म लेती है तब वहां के प्रबंधकों की ही जिम्मेदारी बनती है ।बहुत फ़ोकस्ड पढ़ाई के बाद जब बच्चे को हॉस्टल का स्व्च्छंद माहौल मिलता है तब उनमे बिगड़ने की भी बहुत गुंजाइश रहती है इसी लिये अच्छी रैंक वाले बच्चे भी कभी कभी बहुत उम्दा परिणाम नही हासिल कर पाते।मां-बाप की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे बच्चे से लगातार संपर्क मे रहे और उसे सदा यह विश्वास दिलाते रहे कि परिणाम कुछ भी हो परिवार सदा उसके साथ है।
                 ऐसी तो कोई भी समस्या अथवा परिस्थिति नही हो सकती जिसका हल ना हो और जो भी हो वह किसी की मौत से अधिक  दुखकर तो नही हो सकता।

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

ओ, बी.ए.,एम.ए. या ओबामा

        विवाह के पहले मेरी श्रीमती जी केवल बी.ए.  और आधा एम.ए.पास थीं।शर्तिया उन्हें मेरी योग्यता से कुछ बढ़त बनानी थी सो बाद में उन्होने एम.ए. भी पूरा कर लिया।फ़िर क्या था,मै केवल बी.ई. और वह बी.ए.,एम.ए. दोनों।
         मैने सोचा यार अब तो इन्हे कुछ सम्मान देना अति आवश्यक हो गया है,सो मैने सम्मानवश  उनका नाम लेना छोड़ दिया और प्रायः "ओ बीए एमए" कहने लगा।सब कुछ सामान्य सा चल रहा था,पर मैने यह महसूस किया कि इस नाम से पुकारने के बाद से वह दिन प्रतिदिन कुछ अधिक प्रभावशाली होने लगी एवं बात बात में वीटो का इस्तेमाल कर बच्चों के आगे मेरी हालत बिल्कुल एक छोटा देश जैसी (जो कतई कर्ज़ मे डूबा हो) बना दी। मेरी समझ में कुछ नही आ रहा था कि क्या कारण है,अचानक पुकारने के नाम बदलने से इनमे इतनी सत्तात्मक शक्ति  कंहा से आ गई।
             आज अचानक समझ आया कि अपने पैर पर कुल्हाड़ी तो मैने खुद ही मारी है। मै उन्हें ओ बीए एमए नही "ओबामा" (OBAMA)  कहे जा रहा था,फ़िर नाम का तो असर होना ही था।
               अब तत्काल प्रभाव से मैने उन्हें उनके ही घर के नाम से "बेबी" कहना शुरु कर दिया है जिससे जल्दी से जल्दी वह अपने स्वभाविक रूप में आ जाए।       (बेबी उर्फ़ निवेदिता उर्फ़ शिखा बुरा मत मानना please)

सोमवार, 8 नवंबर 2010

ए बी सी डी..... से आई. आई. टी. तक

             दीपावली की छुट्टियां खत्म हुंई और दोनों बेटे फ़िर रवाना हो गए, कानपुर के लिए।जब भी बेटे छुट्टियों के बाद घर आते हैं,उनकी मां को वे और बच्चे से लगने लगते हैं क्योंकि उनके साथ ना रहने पर वे सारी बचपन की यादें और शरारतें मां को और पीछे ले जाती हैं।पर मुझे तो हरबार पहले की अपेक्षा दोनो ही थोड़ा और mature से लगते हैं।
                कभी कभी एक ही flash में सारी यादें मन के कैनवस पर उभर आती हैं। बच्चों के स्कूल जाने का पहला दिन आज भी साफ़ साफ़ याद है,सारे दिन हम दोनों स्कूल के गेट के बहर ही खड़े रहे थे। स्कूल जाने के लिये रिक्शे पर बैठ कर दोनों पीछे मुड़कर यों देखते कि शायद हम लोग  झट उन्हें उतार लें ।पर फ़िर धीरे धीरे यही रूटीन बन गया।स्कूल जाना,लौटना फ़िर अपनी मां को कॉपी दिखाना कि कितने गुड, कितने स्टार ।अक्सर दोनों में होड़ कि किसके गुड की गिनती ज्यादा,किसकी ड्राइंग ज्यादा सुंदर।(बड़े होने पर बच्चे  भी  शायद मां -पापा से यही अपेक्षा करते होंगे कि वे भी अपने  व्यवहार,कार्य संस्कॄति को ऐसा रखे कि they can also be proud of their parents) ।पर ऐसा होता नही ,पता नही क्यों?दुनिया के सारे मां-बाप अपने बच्चों को अच्छी तालीम दिलाना और अच्छा इंसान बनाना चाहते है पर खुद ऐसी मिसाल नही पेश कर पाते कि बच्चे भी उन पर फ़ख्र कर सकें ।(समाज को बेहतर बनाने के लिये शायद इससे अच्छा triggering point नही हो सकता।
             समय बीतता गया,बच्चों के होमवर्क की सारी जिम्मेदारी तो उनकी मां की थी।हां कभी कभी मैं भी रुचि ले लेता था जब  excellent कार्य पर parent's signature करने होते थे।बच्चों के बढ़ने की नाप, घर मे रखे सामान अथवा ऊचाई पर टंगी चीजों को पा पाने से होती थी और हम दोनों मन मन मे ही मुदित होते रहते थे। पी. टी. एम.में जाकर बच्चों के बारे में अच्छे रिमार्क सुनकर ऐसा लगता था, जैसे हमारे ही परिणाम दिखाए जा रहे हों।यकीनन उस समय भी हम लोग अपने को दुनिया का सबसे अधिक lucky पेरेंट समझते थे।पर धीरे धीरे पढ़ाई तो मुशकिल होने वाली थी,थॊड़ी जिम्मेदारी मेरे हिस्से भी आई, मैथ्स और साइंस की।कभी कभी मै झल्लाया भी,कुछ बिजली महकमे की व्यस्त नौकरी की वजह से और ज्यादातर उस समय मेरे स्वयं के उन सवालों को ना हल कर पाने के कारण।(क्योंकि मैने तो मैथ्स मैथ्स की तरह पढ़ी थी पर अब तो मैथ्स फिलोस्फ़िकल ज्यादा और मैथ्स कम हो गई है) । पर शायद अब तक दोनों यह समझ चुके थे कि पापा को क्या और कितना आता है,बस उतना ही पूछते थे ।
                 अब बारी आनी थी बोर्ड परीक्षाओं की।ऐसे में मेरा ट्रांसफ़र लखनऊ से बाहर हो गया।पुनः मां का परचम ही लहराना जो था।परिणाम अच्छे रहे।अब चूंकि घर में विरासत इंजीनियरिंग शिक्षा की थी सो तैयारी तो फ़िर आई.आई.टी. की होनी थी।
                बच्चों को कड़ी मेहनत करते देखकर यह दुख भी होता था कि इनका बचपन तो जैसे इन्हें मिला ही नही।पर जिस व्यवस्था मे आज हम रह  रहे हैं उसमें vertical launch या catapulting इसी slot में उपलब्ध है।असल में समाज में या पूरी दुनिया में शिक्षा के तौर पर,स्टेटस के तौर पर अथवा आर्थिक तौर पर विभिन्न orbits हैं जो different एनेर्जी लेवेल्स की हैं और higher orbit में जाने के लिये आई.आई.टी. निश्चित तौर पर  एक अच्छा लांचिंग पैड है(स्वयं कुछ करना हो तो भी और दूसरे से करवाना हो तब भी) ।
               संक्षेप में  -- वर्ष ०९ और १० में क्रमशः दोनों का चयन हो गया और दोनों कानपुर चले गए। बच्चे जल्दी बड़े होते हैं तो जैसे लगने लगता है अब हम भी और बड़े होते जा रहे हैं और यही तो जीवन चक्र है।

शनिवार, 6 नवंबर 2010

नए ब्लॉगर का दर्द

                मन सदैव चंचल और गतिमान रहता है,कुछ ना कुछ सोचता रहता है, थोड़ा बीते हुए समय पर,थोड़ा आने वाले पलों के बारे में।इन्हीं विचारों को अन्य लोगों से शेयर करने से मन हल्का हो जाता है और फ़िर कुछ नया सोचने के लिये पुनः तैयार हो जाता है।कम्प्यूटर युग से पहले डायरी लिखने की परम्परा थी।लोग अपने विषय में तमाम निजी बातें भी लिख मारा करते थे,जिनसे उनके बाहरी और वास्तविक व्यक्तित्व के अंतर का पता चलता था।पर अब इसका स्थान web-log यानि blog ने ले लिया है।डायरी लेखन में यह आवश्यक नही था कि वह हमेशा सार्वजनिक ही होगी पर बलॉग तो सार्वजनिक होगा, यह तय जानकर ही लिखने वाले अपना कौशल उजागर करना चाहते हैं।बस यहीं मात खा जाती है बलॉगिंग,क्योंकि फ़िर लोग सच बयानी कम और अपने लेखन की टी.आर.पी. ज्यादा ध्यान में रखते  हैं।
                  पर एक नया बलॉगर (मेरे जैसा) बेचारा क्या करे।जब भी कुछ लिखो,लोग पढ़ते ही थोड़ा खिसिया कर सोचते हैं कि साला यह तो पढ़ा लिखा लगता है,फ़िर अंजान बनते हुये कमेंट मारेंगे "कहां से टीपा भाई"।अब कैसे समझाएं भैया कि लिखा तो हमने खुद ही है।तब वे सारा दिमाग यह सोचने में लगाते है कि कैसे भी इसका स्रोत ढ़ूंढा जाय,जहां से टीपा गया है ताकि पोल खोली जा सके।पुराने ब्लॉगर (time wise) या कहें, मंजे हुए ब्लॉगर कुछ भी लिख दें, उस पर कमेंट की झड़ी लग जाती है या लिखने वाली कन्या राशि की हो फ़िर क्या कहने साहब ,फ़िर तो मूल लेखन का अता पता नही चलेगा ।केवल कमेंट को एक साथ पढ़ कर देखिये ,कविता सी लगेगी, शर्तिया।
                   अभी कुछ दिनों पहले ही मैने जाना कि ब्लॉगर्स की भी रैंकिंग होती है टेनिस प्लेयर्स की तरह।मैने भी शीर्ष क्रम के महानुभाव से थोड़ी जान पहचान बनाई और उनके सभी ब्लॉगों की (पढ़े-अनपढ़े सब) जमकर तारीफ़ की।फ़िर कभी धीरे से उनसे निवेदन किया कि कभी थोड़ा समय निकालकर हमार ब्लॉग भी पढ़िये और कुछ सुधारात्मक टिप्पणी दीजिये,लेकिन यह क्या ,उनकी प्रतिक्रिया ऐसी थी,जैसे हमने आई.आई.टी. के मास्टर से प्राइमरी स्कूल के बच्चों की कॉपी जांचने को कह दिया हो।पुराने,जमे हुए, मंजे हुए या मजे लिये हुए ब्लॉगर्स को, नयों को प्रोत्साहित करना  चाहिये और यदि कहीं भाषा अथवा विचार असंसदीय हो रहे हों तो आपत्ति भी करनी चाहिये।
                   खैर कुछ भी हो, मैं तो जो कुछ भी मन मे आएगा इसी तरह तरह कम्प्यूटर स्क्रीन पर उड़ेलता रहूंगा,चाहे आप बड़े लोग  इसे समेटे अथवा बिखेरें।