मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

ऊन के गोले

 बेटा इधर आना जरा, आवाज़ दी बगल वाली चाची ने। स्कूल जाने के लिये घर से निकला ही था, बस्ता कंधे पर टांगे हुये। यह बात होगी जब हम छठी या सातवीं कक्षा में होंगे।

अपने पास बुलाकर चाची जी ने हमारे नये बने स्वेटर में नीचे से हाथ डाला और दो मिनट तक बुनाई की डिज़ाइन देखती रही फिर किसी से बोली , एकदम नई डिज़ाइन है, इनकी मम्मी बहुत अच्छा स्वेटर बुनती है। यह डिज़ाइन अभी 'सरिता' में निकली थी वही वाली है। ( तब सरिता , मुक्ता , मनोरमा और गृहशोभा में जाड़ों में बुनाई विशेषांक आते थे।)

उन दिनों यह अक्सर होता था कि मोहल्ले में कोई भी चाची बच्चों को अपने पास बुलाकर खड़े खड़े वहीं पहने हुए स्वेटर का पूरा अनुसंधान कर डालती थी।

दरअसल एक यह चलन भी था कि कोई जल्दी किसी को बुनाई बताता भी नही था , लेकिन लोग डिज़ाइन को अलट पलट देख कर डिकोड कर ही लेते थे।

एक बार तो मोहल्ले में ही सामने खेल रहे थे , किसी चाची ने बुलाया और दोनो हाथ हमारे फैला कर उसमे ऊन का लच्छा फंसा दिया और खुद उसका गोला बनाने लगीं। ऐसी सेवाएं 5 या 10 मिनट वाली पूरे मोहल्ले में कोई भी हम बच्चों से ले सकता था।

पहले फेरी वाले ऊन बेचने आते थे। खूब सारे रंग बिरंगे और मोहल्ले में सारी महिलाएं खरीदती थीं। फिर बाद में फॉलो अप भी होता था कि वो गुलाबी वाला स्वेटर बन गया तुम्हारा, हाँ लगभग बन गया बस अब गला घटा रहे या आस्तीन जोड़ना है बस ,यह जवाब होता था।

हाथ के बुने स्वेटर ही पहनते थे हम लोग बचपन मे। नये स्वेटर के लालच में बहुत देर रात तक पढ़ते थे क्योंकि मम्मी बोलती थी ,जब तक पढ़ते रहोगे हम बुनाई करते रहेंगे। हमे याद है दो दो दिन में एक पूरा स्वेटर बुन जाता था हम लोगों के लिए।

हमे शौक था कि स्वेटर पर हमारा नाम भी लिखा हो बुनाई से ही, उन दिनों यह बड़ी बात थी और कौशल भी। मम्मी ने बनाया था फिर।

बेल ( सीने पर चौड़ी पट्टी सी )की डिज़ाइन वाला स्वेटर बहुत पॉपुलर हुआ था। ऊन के गोले ounce में आते थे, यह वजन की माप थी। सबसे सॉफ्ट ऊन कैशमिलान नाम से आता था। लोग ऊन को गाल से लगाकर उसकी सॉफ्टनेस चेक करते थे।

मोहल्ले में सलाइयाँ बुनने वाली बहुत उधार मांगी जाती थी, इस घर से उस घर।  बॉर्डर बुना जाता था 12 या 14 नम्बर की सलाई से और बाकी स्वेटर कम नम्बर की सलाई से।

हाथ के बुने दस्तानों की बात ही कुछ और थी।

अब तो जमाना प्लग एंड प्ले वाला हो चुका है, क्लिक एंड यूज़, कुछ भी, बस मोबाइल में डेटा हो और अंटी में पैसा हो।


शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

मुख़्तसर सी बात

 मुख्तसर सी बात थी

मगर इसी बात में तो बात है


भीड़ भरी ज़िन्दगी में

चंद लम्हों की मुलाकात थी


उन लम्हों में बसी साँसे तेरी

हर एक साँस थी धड़कन मेरी


सकुचाती थी हथेलियाँ मेरी

उनमें धड़कती रहीअंगुलियाँ तेरी


वक्त गुज़रा फिर

जिंदगी की शाम हुई

मुड़ कर न देखा

उन लम्हों ने दुबारा।


😊

मंगलवार, 10 दिसंबर 2024

"आटा पिसाई"


सायकिल स्टैंड पर चढ़ा कर खड़ी करने के बाद उस पर 30 या 35 किलो का झोला गेंहू से भरा हुआ  कैरियर पर रखकर एक हाथ से हैंडल और दूसरे हाथ से झोले को सहारा देते हुए आटा चक्की तक जाते थे।

चक्की पहुंच कर झोला तौलवाना होता था तराजू पर चढ़ा कर। चक्की वाला कभी तराजू दोनो पलड़ा खाली नही रखता था, तौल वाले कुछ बाट जरूर रखे होते थे। (यह कोई टोटका होता होगा दुकान में बढोत्तरी का।)

अब बाट वाला पलड़ा तो नीचे ही रहता था तो खाली पलड़े को पैर से दबा कर फिर उस पर अपना झोला रखकर तौलवाते थे फिर चक्की वाली कॉपी में लिखता था नाम और उसके आगे गेंहू का वजन।

पिसाई देने का दो रेट हुआ करता था ,जलन काटकर या बिना जलन काटे। जो आटा चक्की के दोनो पाट के बीच जल जाने से कम हो जाता था अगर उसकी भरपाई लेनी हो तो रेट ज्यादा था।

घर से हिदायत रहती थी कि अपना नम्बर किसी गेंहू के बाद ही लगाना ,और किसी अनाज के बाद नही, अन्यथा आटा खाने में खिसकेगा मतलब रोटी खाने में दांत से फिसल जाएगी और कुछ किच किच टाइप आवाज़ आती थी खाने में।

इस बीच वहां बैठ कर चक्की कैसे चलती है, एक मोटर से तमाम उपकरण गोल घूमते हुए शैफ्ट से पट्टे के माध्यम से चलते थे , कौतूहल वश देखते रहते थे। 

चलती मोटर पर पट्टा चढ़ाना भी बड़ा जोखिम वाला होता था जिसे चक्की वाला बखूबी करता था।

कभी कभी बिजली ज्यादा देर न आये तो चक्की वाला बिजली वालों को खूब गन्दी गाली भी बकता था, हम भी उसकी गाली में सुकून महसूस करते थे क्योंकि समय हमारा भी खराब होता था। (तब क्या पता था कि हमे भविष्य में नौकरी भी यहीं मिलेगी।)

आटा पिसने के बाद फिर चक्की वाला ही झोला उठा कर हमारी साईकल पर लाद देता था और हम एक हाथ से झोला को सहारे देते वापस आ जाते थे। कभी कभी जब झोला बड़ा वाला हो तो साईकल की कैंची में रखकर ले जाते थे पिसवाने।

यह काम कक्षा 6 से लेकर कक्षा12 तक किया होगा जहां तक याद पड़ रहा है। 

चक्की स्टार्ट होने की आवाज और उसके बाद की खटर पटर बड़ी अच्छी लगती थी।

गुरुवार, 19 सितंबर 2024

नक्षत्र ने कहा।

तुम एक पहाड़ हो मेरे लिए।

जिसकी पीठ से लिपट मुझे थोड़ी देर सिसकना था। इन सिसकियों में कुछ ठण्डी आहें शामिल थी जिन्हें आंसुओं से गर्म करना था ताकि वे चाहतों के समन्दर में गिरने से पहले ही उड़ जाए।

मैं आंसूओं को बादल बनाना चाहती थी उसके लिए मैंने तुम्हारी पीठ चुनी तुम मेरे जीवन के पहले वो शख्स थे जिसकी रीढ़ की हड्डी झुकी हुई नही थी इसलिए मन में कहीं एक गहरी आश्वस्ति थी कि तुम्हारे आलम्बन से मेरी गति पर कोई प्रभाव नही पड़ेगा तुम्हारा पास अपेक्षाओं का शुष्क जंगल भी नही था इसलिए मैंने मन के अरण्य की कतर ब्योंत कर एक साफ रास्ता तुम तलक आने का बनाया। 

अमूमन पीठ का आलम्बन पलायन की ध्वनि देता है या फिर इसमें किसी को रोके जाने का आग्रह शामिल हुआ दिखता है मगर तुम्हारे साथ दोनो बातें नही थी। 

तुम्हारी पीठ चट्टान की तरह दृढ़ मगर ग्लेशियर की तरह ठण्डी थी मेरे कान के पहले स्पर्श ने ये साफ तौर पर जान लिया था कि तुम्हारे अंदर की दुनिया बेहद साफ़ सुथरी किस्म की है वहां राग के झूले नही पड़े थे वहां बस कुछ विभाजन थे और उन विभाजन के जरिए अलग अलग हिस्सों में तनाव,ख़ुशी और तटस्थता को एक साथ देखा जा सकता था।

तुम्हारे अंदर दाखिल होते वक्त मुझे पता चला कि जीवन में प्लस और माइनस के अलावा भी एक चुम्बकीय क्षेत्र होता है जिसकी सघनता में दिशाबोध तय करना सबसे मुश्किल काम होता है तुमसे जुड़कर मैं समय का बोध भूल गई थी संयोगवश ऊर्जा का एक ऐसा परिपथ बना कि यात्रा युगबोध से मुक्त हो गई नि:सन्देह वो कुछ पल मेरे जीवन के सबसे अधिक चैतन्य क्षण है जिनमें मैं पूरी तरह होश में थी।

तुम पहाड़ थे तो मैं एक आवारा नदी मुझे शिखर से नीचे उतरना ही था सो एकदिन बिना इच्छा के भी मैं घाटी में उतर आई मगर मगर मेरी नमी अभी भी तुम्हारी पीठ पर टंगी है इनदिनों जब मैं यादों की गर्मी में झुलस कर एकदम शुष्क हो गई हूँ तो मैं चाहती हूँ तुम मेरी नमी को बारिशों के हाथों भेज दो मैं रोज़ बादलों से तुम्हारे खत के बारें में पूछती हूँ इस दौर के बादल बड़े मसखरे है वो कहते है उनके पास बिन पते की चिट्ठियां है उनमें से खुद का खत छाँट लो! अब तुम्ही बताओं जब तुम्हारी लिखावट पलकों के ऊपर दर्ज है मैं कैसे पता करूँ कि कौन सा खत मेरे लिए है?

तोहफा शब्दों का।

मैं यह तो नहीं कह सकती कि वो भविष्य दृष्टा हैं, मगर वह कालबोध से मुक्त ज़रूर हैं। 

इसलिए उनकी बातों में एक चैतन्यता हमेशा विद्यमान रहती है। उनको सुनते हुए मैं निहितार्थ विकसित नहीं करती, मगर मैं सिलसिलेवार ढंग से उनकी बातों को एक जगह तह लगाकर ज़रूर रखती जाती हूं। 

जब मैं बहुत व्यस्त होती हूं तब उनकी बातों की तह खोलकर पढ़ती हूं। ख़ालीपन में न वो और न उनकी बातें समझ में आती हैं। 

ख़ालीपन में उनके प्रति स्नेह महसूस होता है और व्यस्तता में उसके प्रति आदर पैदा होता है।

शनिवार, 7 सितंबर 2024

गूगल मैप और रास्ता

आजकल कहीं जाना हो और रास्ता न पता हो पहले से तो लोग गूगल मैप के सहारे गंतव्य तक पहुंच जाते हैं।

हम व्यक्तिगत रूप से इसका इस्तेमाल लगभग नही ही करते हैं। अपने शहर में तो लगभग सभी जगहों की खाक छान रखी है तो मुश्किल नही होती कोई और अगर कुछ नए लैंडमार्क भ्रम की स्थिति पैदा करते भी है तो बस शीशा डाउन कर किसी भी अजनबी से पूछ लेते हैं।

अगर किसी का घर पता करना हो तो उस क्षेत्र में कोई आयरन करने वाला ठीहा जैसे ही दिखे वहां पूछ लें एकदम सही-पता पता चल जाएगा।

कोई होटल रेस्त्रां पता करना हो तो वहां कहीं पान सिगरेट की गुमटी ढूंढ कर उससे पता किया जा सकता।

किसी सरकारी इमारत , बैंक आदि का पता करना हो तो वहां घूमते हुए रिक्शे वाले से पूछ सकते।

रास्ता पूछने पर बताने वाला व्यक्ति रास्ता ही नही बताता बल्कि उसके साथ तमाम जानकारियां मुफ्त में दे देता है।

मुफ्त की जानकारियां कुछ इस तरह की होती हैं :

●अरे वहां तक गाड़ी नही जा पाएगी आप इधर ही कहीं लगा दीजिये।

●आप इधर से न जाकर पीछे से जाइये पास पड़ेगा और इधर का रास्ता बहुत खराब है।

●यह दफ्तर पिछले महीने ही मुख्यालय वाली बिल्डिंग में शिफ्ट हो गया है। लगता है आप बहुत दिनों बाद आये हैं।

●यहां मकान नम्बरो की सीरीज अजीब सी है कुछ odd even टाइप,ऐसे नही मिलेगा। कहाँ काम करते हैं, अच्छा वो बिजली वाले ,अरे उनके घर के पास एक सीढ़ी वाला ठेला खड़ा होगा।

●अच्छा वो मास्साब जिनके यहां बच्चे ट्यूशन पढ़ने आते हैं।

●जिनके यहां कोई फंक्शन है आज।

और भी तमाम इनपुट मिल जाते एकदम मुफ्त।

वैसे भी अजनबियों से रास्ता पूछने में एक नया अनुभव होता है।उस शहर के लोगों का मिजाज़ कैसा है साफ पता चल जाता है। 

कभी इसी तरह मुझसे भी कभी कोई रास्ता पूछता है तो बड़े इत्मीनान से उसे रास्ता जरूर बता देता हूँ , अगर मुझे नही पता होता तो आसपास के लोगों से पूछकर उसे बता देता हूँ।


छोटी सी ज़िंदगी मे ऐसी भी क्या हड़बड़ी कि किसी को हम रास्ता/ पता बताने में भी समय की दुहाई देते हुए उसे मना कर देते हैं।

रविवार, 1 सितंबर 2024

आकार

 बारिश की बूंदे जितनी नन्ही सी होती है , वो कार के शीशे पर अधिकतम समय तक के लिए ठहरती हैं। आकार बड़ा होते ही ढुलक कर फ़ना हो जाती हैं।

"छोटी छोटी बातें ज्यादा देर तक मन को विचलित अथवा प्रफुल्लित करती हैं।"

"बड़ी बातें या तो क्रोध की अग्नि में स्वाहा हो जाती है और अगर बात प्रशंसा की हो तो वे घमंड पैदा करती हैं, जिसे भी अंत मे चूर होना ही होता है।"

गुरुवार, 29 अगस्त 2024

अशर्फियाँ

 जो भी शाम कभी अच्छी लगी , घुल ही गई किसी रात में।

रात को  गर निथारा जाय तो न जाने कितनी अशर्फियाँ हाथ लग जायेंगी।

"शाम जब प्रेम में होकर रात में घुलती है तब अशर्फी बन जाती है।"

बुधवार, 28 अगस्त 2024

प्रेम संवाद

 "पलकें जब झुकी , प्रेम तब भाषित हुआ,

नयन तब नम हुये , भाषित जब मौन हुआ।"

अर्थात आशय अथवा अभिप्राय उस स्थिति से है जब प्रेमिका लाजवश बार बार प्रेमी के पूछने पर प्रेम की प्रगाढ़ स्थिति में होने को स्वीकार करने को कुछ बोलने के स्थान पर बस पलकें झुका लेती है और यही प्रेम की भाषा है। 

फिर कभी किसी अन्य अवसर पर प्रेमिका प्रेमी से उसके न मिलने के कारण प्रश्न करती है तब प्रेमी मौन रह कर ही अपनी असमर्थता जताता है जिससे प्रेमिका के नयन आर्द्र हो उठते हैं।

यह बस प्रेम और उलाहना का छोटा सा संवाद है।  



सोमवार, 26 अगस्त 2024

रेगुलेटर

 पंखे का रेगुलेटर अगर पांच ( मैक्सिमम ) पर हो और तब भी आपको हवा कम लग रही हो तो ऐसे में अनजाने में आप रेगुलेटर को एक टर्न और दे देते हैं। ऐसा करने से वो जीरो पर चला जाता है। ऐसे में पंख बन्द हो जाता है।

अब आप फिर जीरो के बाद एक दो तीन चार पर पहुंचते हुये पांच पर पहुंचते है और पंखा फिर फुल स्पीड पर आ जाता है।

एक तरीका यह भी था कि जब पांच से आगे घुमाने पर ज़ीरो आ गया था तो वहीं से वापस उल्टा घुमाते तो तुरन्त पांच आ जाता और एक दो तीन चार से होकर न गुजरता पड़ता।

"यही जीवन का सिद्धांत है कभी कभी शीर्ष पर पहुंचने के बाद अगर गलती से स्थिति शून्य की सी आ जाये तो तुरंत एक कदम पीछे हट जाने से पुनः शीर्ष स्थिति प्राप्त हो सकती है। लेकिन लोग पीछे हटना स्वीकार नही करते और  आगे बढ़ने के उपक्रम में पूरी कवायद एक दो तीन चार की करने में जीवन व्यर्थ कर जाते हैं।"

रविवार, 25 अगस्त 2024

पच्चीस अगस्त।

 माँ के लिए उसके बच्चे का जन्मदिन मात्र एक तिथि नही होता है। उस दिन वो पुनः हर्ष मिश्रित प्रसव पीड़ा से गुजरती है। 

एक बच्चे को जन्म देने में वो कई बार माँ बनती है। पहली बार वो उस दिन बनती है जिस दिन prega news से न्यूज़ मिलती है। दूसरी बार तब बनती है जब वो अल्ट्रा साउंड में उसकी धड़कन देखती है। तीसरी बार तब बनती है जब वो भीतर से पांव मारता है। इस दौरान वो रोज दिन में कल्पनाओं में खोई रहती है।

जिस दिन बच्चे का जन्म होता है उस दिन उसे ईश्वर के होने का पूरा विश्वास हो जाता है क्योंकि उस दिन वो अपनी ज़िंदगी से एक नई जिंदगी बना चुकी होती है जिस पर उसे सहसा विश्वास नही होता है।

बच्चे के जन्म के बाद जब माँ की आंखे अपने बच्चे को देखती है तो वो ईश्वर के दिये उस खिलौने को निहारते हुए उसके चेहरे को गौर से देख कर निहाल हुई जाती है।

बरसों बाद तक भी बच्चा कितना बड़ा भी क्यों न हो जाये माँ वह पल, दिन नही भूलती। विशेषकर जन्मदिन के दिन तो वो जन्मदिन सबके लिए बस एक उत्सव उल्लास का होता है परंतु माँ के मन मे एक पूरा चलचित्र चल रहा होता है और यह हर साल होता है। 

बच्चा कितना भी वयस्क क्यों न हो जाय और बाद में वो स्वयं भी एक बच्चे का पापा क्यों न बन जाये फिर भी उसकी माँ के लिए कम से कम उस दिन वो नवजात ही होता है।

यह अद्भुत एहसास करने का हुनर  कुदरत ने बस माँ को ही दिया है। बच्चे इसे amazon या flipcart की डिलीवरी से ज्यादा कुछ नही समझते। इसमे उनका दोष नही है , ईश्वर ने यह भाव उन्हें दिया ही नही है।

आज अनिमेष का जन्मदिन है। 

इसी दिन हम दो से तीन हुए थे। 😊

मंगलवार, 6 अगस्त 2024

एक सुझाव।

जितने भी काउंटर पब्लिक डीलिंग के होते हैं जैसे रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन, बैंक, हाउस टैक्स, वाटर टैक्स, बिजली टेलीफोन के बिल जमा करने वाले या किसी भी अभिलेखों में updation कराने वाले काउंटर, इन सभी जगहों पर काउंटर पर बैठा व्यक्ति अपने सामने डेस्क टॉप पर काम करता रहता है।

काउंटर के इधर से व्यक्ति अपना विवरण बोलता रहता है, जिसे काउंटर वाला व्यक्ति सिस्टम में फीड करता है।

काउंटर के इधर वाले व्यक्ति को पता नही चलता कि उसके विवरण के विषय मे सिस्टम पर बैठा व्यक्ति क्या फीड कर रहा है। कई बार तो वह उचक कर देखना चाहता कि विवरण कहीं गलत तो नही भरा गया है।

उचित होगा कि उस सिस्टम से जुड़ी एक स्क्रीन काउंटर पर बाहर की तरफ करके लगाया जाना चाहिए जिससे कि जो भी आंकड़े, विवरण सिस्टम पर फीड किया जा रहा हो उसे सम्बंधित व्यक्ति स्वयं भी देखता रहे और कोई त्रुटि होने पर उसे इंगित कर सके।

कई बार आधार नम्बर या पैन नम्बर जोर जोर से चिल्ला कर बोलने पर भी काउंटर वाला व्यक्ति गलत ही पंच कर देता है।हाउस टैक्स वाटर टैक्स जमा करते समय (online जमा करने वालों की बात नही हो रही, वैसे कभी कभी त्रुटि उसमे भी रहती है) पिछला विवरण देखने की भी उत्सुकता रहती है जिसके विषय मे प्रायः वृद्ध लोग जोर जोर से पूछते रहते हैं पर काउंटर वाला व्यक्ति झुंझला कर बताता कुछ नही।

यदि एक अतिरिक्त स्क्रीन बाहर की तरफ रुख कर लगी हो तो किसी भी क्वेरी का जवाब वो बिना बोले बस कर्सर को  हिला डुला कर पूछी गई जानकारी के ऊपर रख कर शंका का निवारण कर सकता है।

यह अतिरिक्त स्क्रीन थोड़ा बड़ी हो और इसके फॉन्ट साइज़ भी बड़े हों।

छोटी सी व्यवस्था से बड़ा समाधान निकल सकता है।

शनिवार, 3 अगस्त 2024

अजोध्या जी।


मेरा जन्म अवश्य लखनऊ में हुआ पर जन्म के पश्चात से सारा जीवन फैज़ाबाद में ही बीता। पापा वहीं पोस्टेड हुए और फिर वहीं बस गए। 

फैज़ाबाद एक साफ सुथरा शांत और अप्रगतिशील शहर हुआ करता था। कारण 123 किमी की दूरी पर लखनऊ स्थित होने से वहां विकास न हो सका। 

लगभग सभी प्रकार की जरूरतें और मनोरंजन लखनऊ आकर लोग पूरा कर लेते थे। ट्रेन और बस से वेल कनेक्टेड था बहुत पहले से। एक ट्रेन सियालदह एक्सप्रेस बहुत ही सुविधजनक थी। सुबह 6 बजे बैठो  और बस 9 बजे लखनऊ। शाम को लखनऊ से 630 बजे बैठो और  930 बजे फैज़ाबाद।

लोग सिनेमा देखने लखनऊ जाया करते थे। हम भी 'ब्लू लैगून' देखने आए थे एक बार।😊 अंग्रेजी फ़िल्म फैज़ाबाद में नही लगती थीं।

चूंकि पापा रेलवे में थे तो ट्रेन तो घर की बात थी। फर्स्ट क्लास में बैठ जाते थे और सारे टीटी चाचा जी हुआ करते थे।(अब तो यह फर्स्ट क्लास होता ही नही,खतम कर दिया गया। ) तिफाक से हम और हमारे बड़े भाई थोड़ा पढ़ने लिखने में अच्छे थे तो रेल महकमे में लोग इसी बात से जानते थे। खैर।

 तब तमाम रिश्तेदार अक्सर घर मे आया करते थे। उस समय आजकल की तरह कोई किसी के आने पर तुरन्त उसके वापस जाने का प्लान नही पूछता था। अब कोई आया है तो कम से कम एक हफ्ता तो रुकना लाजिमी था।

खासकर बुआ फूफा आते थे या नाना जी आते थे, मौसी मौसा, मामा मामी ,बड़े पापा  यही लोग आते थे। इन लोगो के आने पर अयोध्या घूमने का प्लान जरूर बनता था। 

अब इन लोगों को अयोध्या लेकर जाने की जिम्मेदारी मेरी होती थी। इतनी बार अयोध्या गया हूँ कि वहां की गली गली से वाकिफ था। इतना तो वहां के पंडा भी नही घूमते थे उस समय वहां।

मेरा एक दोस्त अखिलेश भी वही से था। उसके घर भी जाना होता था। कैंची सायकिल चलाते हुए अयोध्या तक हो आते थे।😊

मेरे नाना जी कभी अयोध्या को अयोध्या नही कहते थे, हमेशा अजोध्या जी कहते थे और जब भी घर आते थे उनका वहां जाना निश्चित था। वहां से वो दोने में बेसन के लड्डू का प्रसाद लाते थे। उसी दोने में कोने पर गाढ़े लाल रंग का टीका लगा होता था,उसे हम लोग अपने माथे पर लगा लिया करते थे। नाना जी सुल्तानपुर से आते थे , सुल्तानपुर को वो सुल्तापुर बोलते थे।

अयोध्या में जहां विवाद था वहां हमेशा कीर्तन होता रहता था। कनक भवन , जन्मभूमि ,सीता रसोई, राम की पैड़ी , मानस मंदिर, तुलसी उद्यान सब जगहों पर सैकड़ों बार तो गया ही हूं। 

1993 में जब ट्रांसफर होकर उत्तरकाशी गया तो लोग यह जानकर कि मैं फैज़ाबाद से हूँ यानी अयोध्या वाला फैज़ाबाद तो लोग पैर छूने लगते थे मेरा। ताजी ताजी 1992 की घटना का असर था वह।

जितनी आस्था बाहर देखने को मिली अयोध्या के प्रति ,स्थानीय लोग उतना महत्व नही देते दिखते थे।

फिर समय ने करवट बदला और आज स्थिति सामने है।

आस्था का सम्मान हो रहा है। बहुत अच्छा है। फैज़ाबाद अयोध्या का स्थानीय स्तर पर विकास भी हो जाएगा अब ऐसी आशा दिख तो रही है।


।। जय श्री राम।।

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

मेडिटेशन

 साइकिलिंग/स्विमिंग/मेडिटेशन

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साइकिलिंग करते समय मस्तिष्क बैलेंस बनाता है। जब गति मिल जाती है और बैलेंस बन चुका होता है, तब सायकिल अपने आप चलती रहती है और फिर मस्तिष्क खाली हो जाता है। उस क्षण फिर मस्तिष्क में दुनिया भर की बातें उपजती रहती है और मन मस्तिष्क शून्य नही रहता है। साईकल चलती रहती है और मस्तिष्क भी इधर उधर विचारों में चलता रहता है।

स्विमिंग करते समय मस्तिष्क का सारा ध्यान सांस लेने और छोड़ने में लगा रहता है। चूंकि इसमे जरा सा चूक होने पर जान का जोखिम है तो मस्तिष्क में और कोई विचार आता ही नही है और स्थिति एकदम विचार शून्य सी होती है।

मेडिटेशन करते समय प्रयास ही यही रहता है कि मस्तिष्क विचार शून्य हो जाये और इसी बात का विचार आता रहता कि कैसे भी कोई विचार न आये। चूंकि यह अवस्था सबसे सहज होती है तो इस स्थिति में विचार शून्य होना सबसे कठिन भी है।

निष्कर्ष : जिस कार्य मे जोखिम की मात्रा जितनी अधिक होगी उस कार्य मे मस्तिष्क सबसे अधिक विचार शून्य होगा क्योंकि उसमे फिर और कुछ नही सूझता है।

तुलना करें तो स्विमिंग करना इस दृष्टिकोण से साइकिलिंग से बेहतर है। 

अब अगर साइकिलिंग करने में थोड़ा जोखिम जोड़ लिया जाय तो बात बन सकती है। यदि साइकिलिंग करते समय दोनो हाथ छोड़ कर साइकिलिंग की जाये तो फिर जोखिम बढ़ जाने के कारण मस्तिष्क में और कोई विचार नही आता है और मेंडिटेशन की गति प्राप्त होती है।

"किसी भी कार्य को करते समय यदि आप उसमे जोखिम की मात्रा बढ़ाते जाए तो उस कार्य को करते समय मेडिटेशन की स्थिति स्वयं बनती जाती है। फिर अलग से कोई मेडिटेशन करने की आवश्यकता नही होती है।"

दुनिया मेरे ठेंगे पे

 मम्मी का फोन आया आज। जन्मदिन wish करने के लिए तो एक पूरी कहानी सुना दी हमारे जनम की।

उस रात बहुत पानी बरस रहा था। नरही , लखनऊ में पापा मम्मी रहते थे। हजरतगंज पूरा डूब सा गया था। रिक्शे का पूरा पहिया पानी मे डूब कर चल रहा था। 31 जुलाई को शाम 6 बजे रिक्शे से नरही से चौपड़ अस्पताल, जो कॉफ़ी हाउस की बिल्डिंग के बगल में थोड़ा भीतर जा कर है, मम्मी पहुंची। वहां अगले दिन पहली अगस्त को सुबह हम 10.15 को सामान्य प्रसव से पैदा हुए। 

हम एकदम कोयले की तरह काले थे और मम्मी एकदम सफेद हैं। मम्मी ने हमको गोद मे लेने से ही मना किया और नर्स से कंफर्म किया यही हुआ है हमे।

नर्स ने हामी भरी तो गोद मे पहुंच गए उनकी। मम्मी ने ही बताया आज कि थोड़ी देर बाद में हमारी बुआ वहीं आई तो नर्स ने हमे बुआ की गोद मे दे दिया, वहां पहुंचते ही हमने बुआ के दोनो गाल पकड़ लिए। बुआ बोली, ई बहुत मुरहा होए बाद मा। 

पता नही ,यह सही निकला की गलत। (मुरहा माने फ्लर्ट)

मम्मी की जिठानी को भी हमसे एक हफ्ते पहले बेटा हुआ था यानी हमारे कजिन। वो एकदम सफेद गोरे। जबकि ताई जी सांवली थी।

अब जब भी मम्मी और ताई जी अपना अपना ललना गोद में लेकर कभी बैठती तो रिश्तेदार अक्सर पूछते , तुम लोग एक दूसरे का बच्चा काहे लिए बैठी हो ,अपना अपना लो।

"उस समय हमको समझ होती तो फौरन रंग भेद का प्रकरण बना कर status लगाते फेसबुक पर।"

कारण रंगभेद का यह था कि मेरे पापा सांवले हैं और ताऊ जी गोरे थे।

बचपन मे काफी दिनों तक हमे कल्लू कहा गया, प्यार से ही सही। अच्छा हमे तब समझ ही नही थी कि काला गोरा क्या होता है। 

"हम तब भी अपने को हीरो समझते थे और आज भी समझते हैं।"

दुनिया मेरे ठेंगे पे।

गुरुवार, 11 जुलाई 2024

अनुलोम विलोम

 इलाहाबाद में निरंजन चौराहे पर एक ट्रैफिक कांस्टेबल हुआ करता था। उसकी खासियत यह थी कि वो चौराहे पर एक साथ सारी तरफ के ट्रैफिक को रोक देता था फिर थोड़ी देर बाद एक साथ सबको छोड़ देता था। 


फिर हैरान परेशान हो कर सबको संभालता था। यह हमने स्वयं कई बार नोटिस किया था।


अनुलोम विलोम करते समय हमसे भी यही होता है। दोनो ही नाक से एक साथ सांस भीतर जाती है और दोनो से ही एक साथ बाहर आती है। क्रम वार नही हो पाता।


सड़कें भी अगर अनुलोम विलोम करती हैं तो ट्रैफिक का स्वास्थ्य अच्छा रहता है और फिर ट्रैफिक को किसी बायपास की जरूरत नही होती।


😊

बुधवार, 10 जुलाई 2024

चोर

 चोर पर निबंध

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▪️चोर देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ है।


▪️चोरों के लिए तिजोरियाँ, अलमारियाँ और ताले लगाने होते हैं। जिससे इन्हें बनाने वाली कंपनियों को काम मिलता है।


▪️ चोरों की वजह से घरों की खिड़कियों पर ग्रिल लगी होती हैं, दरवाजे लगे होते हैं, दरवाजे बंद होते हैं, इतना ही नहीं बल्कि बाहर सुरक्षा के लिए अतिरिक्त दरवाजे भी होते हैं। कितने लोगों को काम मिलता है।


▪️ चोरों के कारण मकानों, दुकानों और सोसायटी के चारों ओर एक परिसर बनाया जाता है, गेट होता है, गेट पर चौकीदार 24 घंटे रहता है और चौकीदार के लिए एक वर्दी भी होती है। कितने लोगों को काम मिलता है।


▪️ चोरों की वजह से न सिर्फ सीसी टीवी, मेटल डिटेक्टर बल्कि साइबर सेल भी होते हैं।


▪️ चोरों के कारण पुलिस है, पुलिस चौकी है, पुलिस थाने हैं, गश्ती गाड़ियाँ हैं, डंडे हैं, राइफलें हैं, रिवाल्वर हैं और गोलियाँ भी हैं। कितने लोगों को काम मिलता है।


▪️ चोरों के कारण ही अदालतें हैं, अदालतों में जज, वकील, क्लर्क और जमानतदार हैं। कितने लोगों को काम मिलता है।


▪️ चोरों के कारण जेलें हैं, जेलर हैं, जेलों के लिए पुलिस भी है। कितने लोगों को काम मिलता है।


▪️ मोबाइल, लैपटॉप, कोई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, साइकिल, वाहन जैसी कई उपयोग में आने वाली चीजें चोरी हो जाती हैं तो लोग नई खरीद लेते हैं, इस खरीद फरोख्त से देश की आर्थिक स्थिति को मजबूती मिलती है और कितने लोगों को काम मिलता है।


▪️ उच्च मान्यता प्राप्त और‌ नाम वाला यदि कोई चोर होता है तो देश विदेश की मीडिया की भी रोजी रोटी चलती है।


▪️ चोर ही सारे सरकारी सिस्टम की रीढ़ हैं और समाज के लोगों की रोजी रोटी का साधन भी है.

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

चार्जिंग पॉइंट

 मोबाइल चार्ज करना हो तो बस एक प्लग पॉइंट चाहिए होता है। वह चाहे जहां लगा हो, रेलवे प्लेटफॉर्म हो, बस अड्डा हो, फुटपाथ पर कोई बूथ हो, किसी आफिस के पैसेज में हो, टॉयलेट में हो, ट्रेन में हो, प्लेन में हो, किसी साफ जगह में हो या किसी कचरे के डब्बे के पास हो, फौरन ही लोग अपना चार्जर वहां लगाकर मोबाइल चार्ज कर लेते हैं।

मंदिर छोटा हो या बड़ा हो, पार्क में हो, पहाड़ी पर हो, पेड़ के नीचे बस एक मूर्ति हो, भव्य मंदिर हो, जरा सा मंदिर हो , गली मोहल्ले में हो, रेलवे लाइन के किनारे हो, श्मशान में हो, अस्पताल में हो, स्कूल में हो, यह सब मंदिर बस चार्जिंग पॉइंट ही होते हैं।

इन सभी मंदिरों में वोल्टेज और करंट बराबर होता है और मनुष्य को चार्ज करने की क्षमता सब मे एक जैसी होती है।

Samsung हो, apple हो, one plus हो सब चार्ज हो जाते हैं कहीं भी किसी भी पॉइंट से।

बस इत्ती सी बात है। 

यह सभी धर्मों के पूजा स्थल की बात है।

जय श्री राम।