जी आई सी वाला पंद्रह अगस्त
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स्कूल कभी बिना यूनिफार्म के गये हों ,ऐसा याद नही पड़ता। दो या तीन ही सेट थे खाकी निकर और सफेद शर्ट के। स्कूल चूंकि जुलाई में ही नये सेशन में खुलते थे तो तभी नई ड्रेस बनने का अवसर होता था परंतु जुलाई में बनी नई ड्रेस कभी जुलाई में नही पहनते थे ,पुरानी से ही काम चला लेते थे और नई ड्रेस को पंद्रह अगस्त पर पहनने के लिये बचाकर रखे रहते थे।
वो चुस्त टेरीकॉट की खाकी निकर और टेरिलीन की सफेद चमकती शर्ट और काली चमकती बेल्ट एक हफ्ते पहले से ही मुआयना कर उसकी दुरुस्ती से इत्मीनान कर मुतमईन हो लेते थे।
जूते तो हर साल नए नही मिलते थे क्योंकि पैरों का साइज ज्यादा जल्दी बदलता नही था। ( साइज की बात करें तो निकर और शर्ट का साइज भी दो तीन क्लास में मेरा एक ही रहता था) पुराने जूतों की एक रात पहले ही जमकर खुद ही पॉलिश कर चमका लेता था। किसी से सुना था कि पॉलिश के बाद उस पर लहसुन रगड़ने से और ग्लॉसी फिनिश आ जाती है तो वह भी कर देता था, कुछ चमक बढ़ तो जाती थी।
पंद्रह अगस्त की सुबह प्रभात फेरी के लिए स्कूल 6 बजे ही पहुंचना रहता था। कतार में सबसे आगे और हमारी कतार से कुछ आगे हमारे मास्साब पी टी वाले एकदम खिलाड़ी वाली ड्रेस में चलते थे। "उनकी फ़िटनेस मुझे बहुत प्रभावित करती थी।"
नारे लगाते ,जिंदाबाद बोलते, नेहरू गांधी को अमर करते उस समय जो जज़्बा रहता था कि लगता था बॉर्डर पर भेज देते तो तुरंत सर्जिकल स्ट्राइक कर आते।
प्रभातफेरी में अगर रास्ते मे दूसरे स्कूल के बच्चों की लाइन आती दिख जाती तो जोश और भी बढ़ जाता था और जवाबी कव्वाली वाले अंदाज़ में नारों में गर्मी आ जाती थी।
एन सी सी और स्काउट वाले बच्चों की अलग कतार होती थी और उनमें एक अलग दम्भ भी दिखता था। उनका यह दम्भ भी मुझे बहुत विचलित परंतु आकर्षित करता था। उसी समय से फौजियों और सिविलियन का अंतर मुझे समझ आने लगा था। "अनुशासन ने मुझे हमेशा ही बहुत लुभाया है।"
आधे शहर का चक्कर लगाते हुए स्कूल लौटते थे। मेरा मन करता था कि प्रभातफेरी का रास्ता कुछ यूँ हो जाये कि मेरा घर भी रास्ते मे आ जाये जिससे घर मोहल्ले वालों को भी अपनी नई ड्रेस में अपना जोश सामूहिक रूप से दिखा सकूँ, पर वो कभी हुआ नही। "रास्तों की दिशाओं पर अपना हक कहाँ होता है, तब नहीं पता था।"
फिर प्रिंसिपल सर द्वारा झंडारोहण ,उनका सैलूट करना झंडे को देखते हुए बहुत अच्छा लगता था। हारमोनियम पर राष्ट्र गान जब बजाते थे संगीत वाले मास्साब तो उस दिन संगीत विषय ही सबसे श्रेष्ठ लगता था और विज्ञान, गणित, अंग्रेजी आदि के मास्साब लोग अजीब से अनपढ़ और व्यर्थ लगते थे।
बच्चों के भाषण, कविताएं भी होती थी। एक बार मैंने भी कविता सुनाई थी क्लास 6 में , खूब रट कर गया था घर से पर वहां सुनाते समय लाइन्स आपस मे ऊपर नीचे हो गई थीं, लेकिन कोई जान नही पाया होगा क्योंकि ताली तो खूब बजी थी या हो सकता ताली बिना सुने समझे मेरी मासूम शक्ल देख बजा दी होगी ,जैसे यहां कविता लिखता हूँ गलत सही,फिर भी लोग खूब वाह कर ही देते हैं।
फिर स्टाफ रूम में कतार से सब बच्चे गुजरते थे और एक बड़ी सी मेज पर बड़ी सी ट्रे में रखे बांसी कागज के लिफाफे में बन्द चार मोतीचूर के लड्डू उठा कर आ जाते थे। उन लड्डुओं में चाशनी और घी खूब होता था क्योंकि हथेलियाँ पूरी गीली हो जाती थी।
वापसी में पूरे रास्ते जगह जगह चूना पड़ी सड़कें और लाउड स्पीकर पर देशभक्ति वाले गाने गूंजते सुनाई पड़ते थे।
तब एक बात खुसुर पुसुर खूब होती थी कि सुभाष चन्द्र बोस अभी भी जीवित हैं, इस पर बच्चे खूब गढ़ी हुई कहानियां सुनाते थे।
#पंद्रहअगस्त