"शब्द भीतर रहते हैं तो सालते रहते हैं, मुक्त होते हैं तो साहित्य बनते हैं"। मन की बाते लिखना पुराना स्वेटर उधेड़ना जैसा है,उधेड़ना तो अच्छा भी लगता है और आसान भी, पर उधेड़े हुए मन को दुबारा बुनना बहुत मुश्किल शायद...।
सोमवार, 30 अप्रैल 2012
रविवार, 29 अप्रैल 2012
" एक शहर , अपना सा......."
इस शहर का हर शख्स,
मुझे क्यूँ अच्छा लगे है |
आबो-हवा में बस,
बसता यहाँ प्यार ,
कहना उसका आज,
सच सच्चा लगे है |
हवाओं में घुली है ख़ुशबू,
उसकी हर ओर,
यही सोच सोच बस मन को,
यह शहर अपना लगे है |
इसी शहर में हुआ था प्यार,
उस से इस कदर,
कि हर सूरत यहाँ तो,
बस उसकी सी लगे है |
पता नही कहाँ,
गुम गई है अब वो,
झुरमुट में वक्त के |
दीदार होगा फिर ज़रूर,
बस यही सच्चा लगे है |
" उस ख़ुशबू को समर्पित जो अक्सर उठती थी जिस्म से उसके ,भीगने के बाद आंसुओ में,
जैसे उठती हो ख़ुशबू मिटटी की सोंधी सी, पहली बारिश के बाद | "
गुरुवार, 26 अप्रैल 2012
" ढक्कन हो क्या...."
यह वाकया देख मुझे ढक्कन की महत्ता समझ आई कि ढक्कन बिना सब सूना है । कितना भी शानदार और राजसी भोजन बना हो अगर खुले पात्र से परोसा जाए तब स्तर हीन समझा जाता है । हाँ ! उस पर ढक्कन लगा हो तो अपने आप उसकी श्रेष्ठता सिद्ध हो जाती है । महँगी महँगी शराब शानदार ,आकर्षक बोतलों में आती हैं । अगर उनके ढक्कन पहले से खुले हो तो उनकी वैल्यू शून्य । ढक्कन मेहमान के सामने ही खोला जाए तभी उस आकर्षक बोतल की कीमत है । दवा की शीशी खुल गई और ढक्कन खो गया ,दवा बेकार । शहद की शीशी का ढक्कन गायब ,पूरा शहद बेकार क्योंकि उस पर तो फिर चीटियों का साम्राज्य हो जाता है ।
स्कूल में बच्चों के टिफिन के ढक्कन तो बहुत काम के होते हैं । उसी की आड़ बनाई और उसी आड़ में पूरा खाना खा गए । किसी को शेयर कराना हुआ तो उसी ढक्कन पर हो गए दो दो कौर ।
इसी नादान से और अदने से ढक्कन को जबरन भगोने पर बिठा दिया जाय और कस कर बाँध दिया जाय ,फिर देखें वह ढक्कन बेचारा सारा दर्द सह लेगा पर उफ़ नहीं करेगा और सारी ऊष्मा सहते हुए भोजन पकाने में स्वयं शहीद हो जाएगा ।
हमारे जीवन में प्रयोग होने वाली चीजों का जब ढक्कन इतना महत्वपूर्ण अंग है , फिर हम किसी व्यक्ति को बेकार ,मूर्ख और बुद्धिहीन कहने के लिए उसे "ढक्कन " कह कर क्यों पुकारते हैं ।यह सोचने का विषय है ।
शायद एक कारण यह हो सकता है कि ढक्कन जिस भी पात्र का होता है, उस ढक्कन की क्षमता अपने बर्तन या कंटेनर की क्षमता से बहुत कम या लगभग शून्य होती है । दूसरी बात , ढक्कन आसानी से कहीं भी लुढ़क जाता है और कहीं का ढक्कन कहीं और भी लग जाता है अर्थात उसकी निष्ठां भी परिवर्तित हो सकती है ।
प्रयोग में लगातार आने के कारण ढक्कन अक्सर ढीले भी हो जाते हैं ।
इसीलिए संभवतः ऐसे व्यक्तियों को ,जो अपने आसपास के मिलने जुलने वाले लोगों से कम क्षमता रखते हों ,लोगों के प्रति बार बार अपनी आस्था और निष्ठा बदलते हों, प्रायः अत्यधिक ढीला ढाला आचरण करते हो उन्हें ही कहा जाता हो " ढक्कन हो क्या ...."
" वैसे कोई भी ढक्कन ( अगर बड़ा हो तो और भी अच्छा ) जब ज़मीन पर गिर कर गोल गोल नाचने लगता है और बहुत देर तक नाचता रहता है ,मुझे बहुत अच्छा लगता है । अगर थोड़ा तेज़ नाचे तो अक्सर बहुत सारे elliptical वृत्त बनने लगते है जो "लिसाजू फीगर" ( lissajous figure )की याद दिला देते हैं ।
मै भी अपने ढक्कन-पने में न जाने क्या क्या लिख गया ।
मंगलवार, 24 अप्रैल 2012
" ज़िप.........."
ज़िप ने हमारा जीवन कितना सरल कर दिया है । अटैची में कूड़ा करकट की तरह सामान भर लो ,हल्का सा दबाओ,चारो और ज़िप पकड़ कर खींच लो ,सब अस्तता व्यस्तता अन्दर बंद । यही अगर ज़िप न होती तो किसी न किसी कोने से कोई दुपट्टा या रुमाल झांकता अवश्य रहता और दूसरों को आपके सामान की गुणवत्ता के आधार पर आपकी औकात आंकने का मौक़ा देता रहता ।
महिलाओं की तो ज़िप ने बल्ले बल्ले कर रखी है । पर्स का मुंह खोला उसमें ड्रेसिंग टेबल का सारा कचरा (सौन्दर्य प्रासधन ) हाथ से उठाकर नहीं बस बुहारते हुए सारा भर लिया ,पर्स बेचारा छोटा सा,पर चीखे कैसे , ऊपर से उस पर, कम से कम, एक अदद मोबाइल को लिटा दिया और खर्र से ज़िप बंद । अब वे कहीं भी जाएँ ,कितनी भी भीड़ हो ,कितना भी पर्स उलट पुलट जाए पर वह ज़िप अपने अंदरूनी सामानों पर आंच भी नहीं आने देगी ।
अब तो ऐसे बैग भी आते हैं देखने में छोटे से ,पर सामान अधिक है तो उसमे लगी ज़िप को उस बैग के चारो और घुमाते रहिये, बस बैग बड़ा होने लगता है। काश ! ऐसे ही कुदरत ने हम इंसानों के दिल पर एक ज़िप लगाईं होती जब दिल छोटा होता ,बस उसे थोड़ा चारों और घुमा लेते ,दिल बढ़ जाता । पर पता नहीं क्यों ,ज्यों ज्यों दुनिया सभी की बढती जा रही है ,दिल छोटे होते जा रहे है ।
जींस की तो बिना ज़िप के कल्पना ही संभव नहीं है । रैम्प शो हो या कोई भी फैशन शो हो उसमे अधिकतर डिज़ाईनर ड्रेस का प्रयोग होता है और उसमे भी ज़िप अवश्य ही प्रयुक्त होती है और जहाँ भी प्रयोग की जाती है वहां ज़िप के प्रारम्भ के एक दो दांत खुले छोड़ दिए जाते हैं । (देखने वाले की काल्पनिक क्षमता पर पूरा विश्वास जो होता है ,शो आर्गनाइज करने वालों को )।टी.आर.प़ी.बढाने का सीधा सा फंडा है "थोड़ी सी ज़िप खुली छोड़ दो " ।( इज्ज़त लुटी भी नहीं और सच माने तो बची भी नहीं )
ज़िप ने लगभग सभी बंद करने वाली जगहों पर अपना कब्जा जमा लिया है ।ज़िप का प्रयोग इतना सरल और सहज है कि अब बहुत अच्छी सड़कों पर कार चलाने को भी 'ज़िप ड्राइव' ही बोलते है ।
आने वाले दिनों में शादियों में वर वधू के कपड़ों में आपस में गाँठ नहीं बाँधी जायेगी बल्कि उन दोनों के कपड़ों में एक ही ज़िप के दो हिस्से अलग अलग लगे होंगे जो शादी के पहले अलग अलग होंगे और शादी की रस्म होने बाद दोनों को आपस में "ज़िप-अप" कर दिया जाएगा । शादी के बाद जब तक राज़ी ख़ुशी रहे तब तक रहे ,जब अलग होना हुआ ,ज़िप खोल दी और तलाक हो गया । उसके लिए किसी एक को बस एक शब्द बोलना होगा " ज़िप ऑफ "
आज ज़िप की इतनी चर्चा इस लिए हो गई क्योंकि आज ही के दिन (२४ अप्रैल १८८० ) को 'ज़िप' या 'जिपर' का आविष्कार करने वाले महान इलेक्ट्रिकल इंजीनियर Gideon Sundback का जन्म हुआ था । यह याद दिलाने और जानकारी देने का श्रेय "गूगल बाबा" को जाता है ।
(Gideon Sundback )
शनिवार, 21 अप्रैल 2012
" कवितायेँ तो बहुत लिखते हो......."
तुम जब लिखते हो,
दर्द,दिल,आंसू,
इश्क,मोहब्बत,
यादें,लम्हे,
और कभी,
नजदीकियों के बारे में,
महसूस भी करते होगे ,
उन्हें अपने भीतर,
कुरेदते होगे खुद को,
भीतर तक,
या बस यूँ ही ,
उलीच देते हो ,
सारी कश-म-कश,
बिना फ़िक्र के मेरी,
जितनी चाहत,
की चाशनी लिपटी है,
तुम्हारे हर्फों में,
कभी लफ़्ज़ों में,
होती ,
काश !
मै तो बस रह गई,
मसोसती मन अपना,
जो लिखता इतना सब है,
मौन क्यूँ रहा,
ताउम्र मेरी.......??
.
.
.
क्या करता,
कहा था मैंने,
निगाहों निगाहों में,
कई कई बार,
दिल मचल मचल कर ,
चीखा था कई कई बार,
कदम बढ़ बढ़ के लौटे थे कई बार,
कलेजे में जो हूक सी,
उठती थी न तुम्हारे,
उठती थी न तुम्हारे,
वो मेरे बोल ही तो थे ,
पर मेरा कहा ,
सब अनसुना रह गया,
और लिखा मेरा आज,
लगे तुम्हे शायद,
स्क्रिप्ट किसी 'नाट्य' का ।
बुधवार, 18 अप्रैल 2012
" नजराना से जबराना तक........"
बिजली विभाग की सरकारी नौकरी करते करते काफी अरसा हो चला है । तमाम कहानी किस्से जुड़े है इस विभाग से । चूंकि जनता का सीधा सम्बन्ध होता है और ऊपर से बिजली इतनी आवश्यक हो चली है ज़िंदा रहने के लिए कि बिजली न रहने पर या खराब हो जाने पर जनता मरने मारने पर उतारू हो जाती है ।
इसी कारण जनता के बीच महत्त्व भी बहुत है बिजली वालों का । इसी से जुडा किस्सा कुछ यूँ है ।
कहते हैं ,बहुत पहले जब कभी कोई बिजली वाला किसी के काम के सिलसिले में उसके घर पहुँच जाता था तब लोग उसकी बहुत खातिर वगैरह करते थे । खूब आवभगत और खिलाने पिलाने के बाद उसे जबरदस्ती टोकन के तौर पर कुछ रुपये भी देते थे और यह कहते थे कि आप हमारे घर पधारे ,उसके लिए आभार और नज़र के तौर पर इन रुपयों को रख लें । चूँकि मामला सम्मान से जुडा होता था ,लोग तनिक न नुकुर के साथ रख लेते थे । यही नज़राना कहलाता था ।
धीरे धीरे वक्त बीतता गया । आने वाली पीढियां यही कहानी सुनती थीं और यही क्रम चलता रहा । धीरे धीरे विभाग के लोगों में भी गिरावट आई और जनता भी सोचने लगी कि इनकी नज़र उतारने का क्या औचित्य ।लेकिन लोग (कर्मचारी वगैरह ) जाते थे जब किसी के यहाँ तब लोग नज़र के तौर पर तो नहीं, हाँ !थोड़ा बहुत एहसान मान उन्हें शुक्रिया अदा करने के उद्देश्य से कुछ रुपये वगैरह दे दिया करते थे ,जो शुकराना कहलाया जाने लगा ।
कुछ समय और बीता । नौजवान किस्म के लोग विभाग में आये और जनता में भी नौजवान लोग ही कर्मचारियों से संपर्क में आने लगे । अब जब काम ख़त्म करके लोग शुकराना के इंतज़ार में वहीँ खड़े रहते तो लोग कह उठते ,किस बाते के रुपये - पैसे ? यह तो तुम्हारा विभागीय कार्य है ,तुम्हारा दायित्व है ,तुम्हे तो करना ही है । इस पर वे सदियों से सुनते आये सुनी सुनाई कहानी सुना देते और फिर धीरे धीरे यह कहने लगे कि ये तो हमारा हक़ है और जो आप देते हो वह हमारा हकराना है । इस तरह हकराना के नाम पर कुछ कुछ फिर पाने लगे ,वे बिजली वाले ।
वक्त के साथ थोड़ी गिरावट और आई । जनता में भी और बिजली वालों में भी । अब तो अव्वल वे काम करते नहीं ,और कभी आपके घर पहुँच गए तो काम खुद तो करेंगे नहीं । उसे कराने के लिए अपने साथ निजी आदमी रखते है और काम के बाद आपसे जबरदस्ती पैसे भी मांग लेते हैं, जिसे अब वे जबराना कहते हैं ।
"इस कहानी का सम्बन्ध किसी घटना या व्यक्ति से नहीं है ,यदि किसी को दुःख पहुंचता है तो हमें खेद है "
सोमवार, 16 अप्रैल 2012
" एक स्पर्श हो दिल पे" ...कुछ 'टच-स्क्रीन' की तरह ....."
'त्वचा' ही एकमात्र ऐसी इन्द्रिय है जो मनुष्य का साथ मृत्यु तक देती है । 'आँख' ,'कान','जिह्वा' और 'नाक' तो अपने दायित्वों में असफल हो सकते हैं परन्तु 'त्वचा' जो एक प्रकार से मनुष्य का प्राकृतिक आवरण भी है ,अंत तक अपने एहसास को जीवित रखती है ।
'त्वचा' बेहद संवेदनशील होती है । स्पर्श के प्रकार से ही त्वचा जान लेती है कि उसके संपर्क में आने वाले व्यक्ति के मन के भाव क्या और कैसे हैं । कभी कभी तो अपने किसी 'प्रिय' का केवल एक हल्का सा स्पर्श बेहद सुकून औए दिलासा देने वाला होता है । स्पर्श का विस्तार और उसमे लिया गया समय भी दोनों के संबंधों के विषय में बहुत कुछ कह देता है ।
आजकल अधिकतर मोबाइल,टीवी,किचेन के उपकरण या कार के कंट्रोल पैनेल और ना जाने क्या क्या ,सभी टच-स्क्रीन के साथ ही आ रहे हैं । बस हल्का सा स्पर्श और आपके मन का हो गया । जो चाहे आइकोन ऊपर ही बना लीजिये ,जिसे चाहिए उसे प्रयोग करें । फिर, उसे बस एक स्पर्श से रीमूव कर डस्ट-बिन में डाल दें ।कितना सरल और सहज लगता है ये सब।
अब बात हमारे दिल की । दिल की सतह भी बस एक टच स्क्रीन की तरह ही रखनी चाहिए ।दिल में कोई विकार या चिंता के भाव उत्पन्न हो तब बस उसे दिल के ऊपर से ही महसूस करें ,उस पर उंगली रखें और उँगली से उसे पकडे पकडे ड्रैग करते हुए एक काल्पनिक डस्ट-बिन में डाल दें । समस्या समाप्त । अपने प्रिय लोगों के आइकोन बना उन्हें दिल के सतह पर ही सजा लें और जब चाहे बस स्पर्श मात्र से ही उन्हें महसूस कर लें ।
अनचाहे लोगों को बस एक स्पर्श से अपने दायरे से बाहर कर दें ।आवश्यकता केवल यह विश्वास बनाने की है कि हमारा दिल हमारा है और इसे बस एक स्पर्श मात्र से ही हम नियंत्रित कर सकते हैं । बस दिल पर हाथ रख लें और उसका स्पर्श महसूस करें । जब आप स्वयं कभी व्यथित होंगे तब वो दिल ही बोल उठेगा 'आल इज वेल ' ।
बस दिल की सतह को एक टच-स्क्रीन से सिमुलेट करें और अपने मन के अनुसार कस्टमाइज कर लें और फिर बस आपके एक स्पर्श मात्र से ही दिल का पूरा नियंत्रण ।
हाँ ! पासवर्ड से इसे आप लाक भी कर सकते हैं ,जिससे आप से दूसरा कोई बगैर आपकी जानकारी के छेड़छाड़ न करे । कोई ख़ास आपका अगर आपका पासवर्ड हैक कर ले ,फिर चूंकि वो आपका 'ख़ास' है तब तो हैक करने का हक़ बनता ही है न ...शायद ।
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