मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

'एक और साल' धकेला पीछे ......


पिछले साल भी यहीं खड़े थे जब २०१२ को विदा कर रहे थे और २०१३ के लिए सबको शुभकामनायें दे और ले रहे थे और आज फिर वही मुकाम और मौका बस लेन देन का । क्या किया पिछले एक बरस में ,कुछ भी तो नहीं ,वही रोजमर्रा की ज़िन्दगी । बस अपने और अपनों के लिए जीना ,न कभी अपनों के अलावा किसी के लिए कुछ सोचा ,न किया । लगता है जैसे हम आगे नहीं बढ़ रहे हैं बल्कि हम साल भर इस पूरे समूचे साल को पीछे धकेलते रहते हैं और हमें गुमान होता है कि हम आगे बढ़ रहे हैं ।

कुछ सवाल जिनकी कसौटी पर मैं खुद को खरा नहीं पाता :

१. क्या मेरे किसी कार्य से किसी अनजान के चेहरे पर ख़ुशी आ पाई !

२. क्या मैंने कोई ऐसा कार्य किया जिसके लिए न रहने पर भी मुझे याद किया जाए !

३. क्या समाज में व्याप्त किसी रूढ़ि को तोड़ पाने में सफल हुआ !

४.  क्या कोई ऐसा कार्य किया जो अन्य लोगों के लिए अनुकरणीय हो !

५. क्या किसी अनजान अशिक्षित को शिक्षित करने में कोई योगदान किया !

६. क्या कभी रक्तदान किया ।

७. क्या बिना स्वार्थ के किसी की कोई मदद की ।

८. क्या कभी किसी रोते हुए को चुप कराने का सामर्थ्य जुटा पाये !

९. क्या सक्षम होते हुए भी कभी मदद न कर पाने का बहाना नहीं किया !

१०. क्या कभी जानते हुए भी गलत बात को जोर देकर सच साबित करने का प्रयास नहीं किया ।

उपरोक्त सभी बिदुओं पर मै पूरे साल असफल रहा ,बस एक बार रक्तदान अवश्य किया । इसके अतिरिक्त इस साल ऐसा कोई काम मैंने नहीं किया जिस पर आप लोग 'वाह' कह सकें । अपने परिवार का भरण पोषण तो जो मनुष्य नहीं है ,वह भी कर लेते हैं ।

अब नए साल पर फिर वही शुभकामनाओं का दौर ,पता नहीं क्यों सब खोखला सा लगता है ।  

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

" कम से कम इतना तो है ......"

पाँच राज्यों में चुनाव हुए ,सरकारें चुनी गई ,मुख्यमंत्री बने । सभी नए मुख्यमंत्रियों ( दिल्ली को छोड़ कर ) के चेहरे खिले खिले से ,विजयी मुस्कान लिए ,चेहरे पर राजा बन जाने के भाव ,लम्बी गाड़ियों के काफिले और दिल्ली में जब से अरविन्द केजरीवाल का मुख्यमंत्री बनना तय हुआ ,उनके चेहरे पर चिंता के , जिम्मेदारियों के भाव और प्रबल हो गए । आँखों से नींद उड़ी उड़ी सी ,शायद मन में एक ही चिंता ,कैसे पूरा कर पाऊँगा जनता के वायदे । 


देखा जाए तो अरविन्द केजरीवाल के पास खोने को कुछ नहीं । पहली बार ही जनता का इतना विश्वास हासिल कर थोड़ा बहुत भी जनता की भलाई के कार्य कर दिए तो भी श्रेय ही मिलेगा । अगर वह चाहे तो तसल्ली से मुख्यमंत्री बन कर बाकी अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह चेहरे पर राजसी भाव लिए शपथ ले लें और सरकारी तामझाम से अपने को घिर जाने दें पर नहीं उनके चेहरे पर चिंता /हताशा की लकीरें बता रही हैं कि उनके मन में कुछ कर गुजरने का भाव तो है । हो सकता है वायदे पूरे करने में सरकारी खजाने में धन का अभाव आड़े आये पर अगर मंशा साफ़ है तो परिणाम अच्छे ही होने वाले हैं । 


कल किसी बड़े नेता ने कहा देश को कार्पोरेट की तरह से नहीं चलाया जा सकता । ठीक ही है राबड़ी देवी चला सकती हैं ,अखिलेश यादव चला सकते हैं ,पुराने नेताओं के सुपुत्र चला सकते हैं पर एक ज्यादा पढ़ा लिखा व्यक्ति अगर देश चलाने आगे आता है तो वह कार्पोरेट कल्चर हो गया । सारे औद्दोगिक घरानों से सांठ गाँठ तो पुरानी बड़ी पार्टियों की ही है  । अरे अब तो कुछ अच्छा होने दीजिये ।कब तक 'still worse to come' की बाट जोहते रहेंगे ।  


कम से कम अरविन्द केजरीवाल की बॉडी लैंग्वेज तो यही कह रही है कि उनके मन में कुछ तो अच्छा करने को है । 

                                                            "भारतीय राजनीति में शायद कोई सेंटा क्लाज़ आ ही जाए "। 

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

"हाफ़िज़ खुदा ......."


आशिकी ने उनकी ,
गुदगुदाया तो है ,

मन ही मन आज ,
मन मुस्कुराया तो है ,

यूँ चाहते थे हमको ,
अब बताया जो है ,

गई जान जान से ,
गर भुलाया जो है ,

छलक क्यूँ गए आंसू ,
याद दिलाया ही तो है ,

ख़्वाबों को उनके अब ,
पलकों पे सुलाया ही तो है ,

माना मोहब्बत उनसे ,
आसाँ नहीं है अब ,

हाफ़िज़ खुदा तो कह दूँ ,
बस इतना चाहा ही तो है ।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

"कैसे कैसे सर्वे ........"



यूँ तो अगर प्रतिदिन हिंदी और अंग्रेजी के राष्ट्रीय संस्करण के कोई भी दो समाचार पत्र पढ़ लिए जाएँ तो अद्दतन समुचित जानकारियां मिल जाती है फिर भी कुछ साप्ताहिक ,पाक्षिक और मासिक पत्रिकाएं समाचार पत्रों से अलग जानकारियां रोचक ढंग से उपलब्ध कराती हैं । अतः उन्हें भी पढ़ लेने का मन हो जाता है । पत्रिकाएं लेते समय सदा इस बात का ध्यान रहता है कि उस पत्रिका में किस तरह के समाचार और घटनाओं को प्रमुखता दी जाती है ।

कुछ पत्रिकाएं कादम्बिनी , नवनीत ,रीडर्स डाइजेस्ट जैसी होती हैं जिन्हे लेते समय यह विश्वास होता है कि इसमें कोई ऐसा प्रसंग नहीं छपा होगा जिसे सबके सामने पढ़ने में कोई असहजता हो । उसी श्रेणी में पहले इण्डिया टुडे पत्रिका का स्थान भी था । लगभग सारी खबरें राजनीति ,शिक्षा ,साहित्य,सिनेमा और खेलकूद से जुडी होती थीं । इसे पढ़ने में यह लाभ था कि अगर कभी समाचारपत्र में कोई समाचार पढ़ने से छूट गया हो तब भी वह समाचार इस पत्रिका में अवश्य मिल जाता था ।

इलेट्रानिक मीडिया के प्रमुख रूप से स्थापित हो जाने के बाद अब लोगों की रूचि पत्रिकाएं पढ़ने में कम हुई लगती हैं । पत्रिकाएं भी बाजार में अब नाना प्रकार की छपने लगी हैं । पता नहीं इतने कम सर्कुलेशन में उनका व्यवसाय चल कैसे पाता है । शायद इस प्रतिस्पर्धा से इण्डिया टुडे ग्रुप भी प्रभावित हुआ । अपनी गिरती लोकप्रियता के कारण होने वाली हानि की भरपाई करने के लिए उसने अब ऐसे विषयों को प्रमुखता देना प्रारम्भ कर दिया जो इस पत्रिका के लिए पहले अप्रासंगिक हुआ करते थे ।

इण्डिया टुडे के वर्त्तमान अंक में पत्रिका द्वारा जो सर्वे प्रकाशित किया गया है वह बेहद फूहड़ ,अश्लील और अनावश्यक है । इस प्रकार के विषय बेहद संजीदे होते हैं । इनके प्रस्तुतीकरण के लिए भाषा और चित्र बहुत गम्भीर और स्तरीय होने चाहिए । ऐसे प्रस्तुतीकरण के कारण इस पत्रिका के पाठकों की संख्या में कमी ही आने वाली है । इसमें प्रस्तुत तथ्य और जानकारियों से अधिक जानकारियां तो कालेज के समय में हम लोग जो सस्ती पत्रिकाएं किराए पर लाकर पढ़ते थे उनमे मिल जाया करती थीं , जबकि वह बेहद फूहड़ पत्रिका होती थीं ।

पत्रिकाओं को अपना क्षेत्र ,दायरा और पाठक वर्ग निश्चित रखना चाहिए । उन्ही के अनुसार विषयों का चयन होना चाहिए । अंग्रेजी भाषा की 'रीडर्स डाइजेस्ट' लगातार पढ़ते हुए मुझे लगभग पचीस वर्षों से अधिक हो गए और सभी अंक आज भी सुरक्षित हैं । उनमें भी सभी तरह के विषयों पर चर्चा होती है परन्तु भाषा अश्लील कभी नहीं होने पाती  ।

'साहित्य समाज का दर्पण होता है ' इस विषय पर बचपन में अनेक बार निबंध लिखने को मिला था । अब यह कैसा साहित्य परोसा जा रहा है समाज के लिए ,अथवा समाज ही ऐसा हो गया है ,समझ से परे है । लोगों का यह मत हो सकता है कि उठाये गए विषय से अधिक बहुत कुछ तो आज कल इंटरनेट पर भी उपलब्ध है । परन्तु पश्चिम की ओर अगर देखें तो वहाँ भी 'टाइम' और 'प्लेबॉय' जैसी पत्रिकाओं में बहुत स्पष्ट अंतर दिखाई पड़ता है ।

पत्रिका के प्रकाशन से जुड़े लोग इस प्रकार के सर्वों से निष्कर्ष क्या निकालना चाहते हैं ,यह कभी स्पष्ट नहीं करते , इसीलिए यह और भी घातक हो जाता है । संवेदनशील विषयों को अंत में अथवा प्रारम्भ में ही निष्कर्ष अवश्य दे दिया जाना चाहिए और ऐसे विषयों को स्थान देने के लिए तो पत्रिकाएं और भी हैं । इसे तो फिलहाल साधारण ही बने रहने दिया जाए । 

रविवार, 15 दिसंबर 2013

"चूज़ योर पेरेंट्स वेल ..choose your parents well "


कल राष्ट्रपति भवन में एक मीडिया चैनेल की ओर से आयोजित समारोह में विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट कार्य के लिए और वैश्विक स्तर पर प्रसिद्धि पाने के लिए भारत देश के राष्ट्रपति द्वारा उन विशिष्ट लोगों को सम्मानित किया गया । उनमे विज्ञान ,कला , समाज सेवा , संगीत , साहित्य ,सिनेमा ,खेलकूद लगभग सभी वर्गों से लोग चयनित किये गए थे । बस मीडिया को इस सम्मान में सम्मिलित नहीं किया गया था । जबकि प्रिंट मीडिया / इलेक्ट्रानिक मीडिया से भी अच्छा कार्य कर रहे विशिष्ट व्यक्तियों का चयन हो सकता था ।

इस समारोह की विशेष बात यह थी कि प्रत्येक सम्मानित व्यक्ति को अपने जीवन से प्राप्त तीन सींखें युवा पीढ़ी के लिए उनके मार्ग दर्शन के लिए बतानी थीं । सभी ने वही पुरानी बातें  कहीं कि ,"सपने बड़े देखो , हार से डरो नहीं , कठिन परिश्रम का कोई विकल्प नहीं , साहसी बनो , नए रास्तों पर चलो , आलोचना से डरो नहीं , अपने आस पास के लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा करने में सहायक बनो और बहुत सी बातें कि माता-पिता /शिक्षक के प्रति आभारी होना चाहिए कि उनके बिना किसी भी सफलता का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता ।

सबसे अलग हटकर और डटकर बोला लेखक विक्रम सेठ ने । प्रारम्भिक बातें तो वही थीं कि हमें भिन्नता में एकता और सभी धर्मों के सम्मान में विश्वास करना आना चाहिए तभी हम देश के तिरंगे का उचित सम्मान कर सकते हैं । समाज का दायित्व है कि गरीबी जैसे अभिशाप को मिटाया जाए ।

अंत में उन्होंने कहा कि लगभग सभी अतिथियों ने अपने अनुभव बताते समय माता-पिता के प्रति सम्मान और श्रद्धा व्यक्त करने का उल्लेख अवश्य किया क्योंकि आज जो कोई भी जो कुछ है वह अपने माता-पिता द्वारा दी गई प्रारम्भिक शिक्षा /सीख /संस्कार/ वातावरण के ही कारण है । आगे उन्होंने कहा ," अतः युवा पीढ़ी क्या ,भावी पीढ़ी के लिए भी मेरी सीख है कि आप जन्म से पहले अपने माता-पिता का चुनाव स्वयं अच्छी तरह से करें । (choose your parents well) 

इस पर लोग हँस दिए और तालियां बज गई । यह ताली बजाने वाली बात नहीं है । बहुत गम्भीर बात है । सच बात तो यह है कि कोई भी अपने माता पिता का चयन नहीं कर सकता । फिर इतने विद्वान लेखक द्वारा यह बात क्यों कही गई । इस बात का युवा पीढ़ी से कहे जाने का अर्थ बस इतना सा है कि अब वह भावी माता-पिता है । अपनी संतान को ऐसी शिक्षा /सीख /संस्कार दें जिससे कि आने वाली पीढ़ी समाज में स्वयं को शिखर पर स्थापित करने के साथ साथ समाज को भी एक नया स्वरूप दे सके । जैसे माता-पिता अपने बच्चों पर गर्व करना चाहते हैं ,उसी तरह बच्चे भी अपने माता-पिता पर गर्व करना चाहते हैं ।

मेरे पिता जी ने एक बार कहा था कि जिस प्रकार गुलाब के पौधे से गुलाब ही निकलता है और कैक्टस के पौधे से कैक्टस ,उसी प्रकार बच्चे के व्यवहार / कार्यों से भी परिलक्षित होता है कि उसके मात-पिता कौन है ,किस पौधे का फूल है वह । सदा यह बात ध्यान रहे कि बच्चों के प्रत्येक शब्द / विचार/ सपनों /लक्ष्य से उनके माता-पिता का ही चरित्र परिलक्षित होता है ।

अतः युवा पीढ़ी अपनी संतति का पालन पोषण इस प्रकार न करें कि उनके बच्चों को कभी यह बात कहनी पड़े अपनी आगे की युवा पीढ़ी से कि "choose your parents well"

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

"हिंदी समाचार पत्रों की भाषा .........."


बचपन में प्रतिदिन हिंदी और अंग्रेजी का समाचार पत्र पढ़ना अनिवार्य सा था । उद्देश्य सामान्य ज्ञान बढ़ाने से अधिक शुद्ध भाषा का ज्ञान प्राप्त करना था । निबंध / लेख लिखने में कभी शब्दों की वर्तनी अथवा प्रयोग में संशय होता था तब उस शब्द को समाचार पत्र में ढूंढ कर उसकी शुद्धता और सार्थकता की जांच कर लेते थे । हिंदी भाषा की शुद्धता का सारा दारोमदार समाचार पत्र पर ही था क्योंकि अंग्रेजी की डिक्शनरी तो सरलता से सुलभ थी परन्तु हिंदी का शब्द कोष सरलता से सुलभ नहीं था । अनेक प्रमुख समाचारों का अंग्रेजी से हिंदी और हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद भी किया करते थे और फिर उसे समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार से मिला कर उसे जांचते भी थे ।

धीरे धीरे पता नहीं क्या हुआ अंग्रेजी समाचार पत्रों ने तो अपनी भाषा को और भी परिष्कृत कर लिया परन्तु हिंदी भाषी समाचार पत्र स्थानीय भाषा में प्रयुक्त शब्दों का अधिक प्रयोग करने लग गए । जब कि स्थानीय भाषा या 'वर्नाकुलर' में छपने वाले दैनिकों की कमी नहीं है । राष्ट्रीय समाचार पत्रों को भाषा का उच्च स्तर ,शब्दों के चयन में शालीनता और शुद्धता का अवश्य ध्यान रखना चाहिए जो वास्तविकता में अब गौण हो चुका है ।

राजनीति करने के उद्देश्य से धार्मिक / जातिगत भावनाओं को भड़काने के लिए ऐसी शब्दावलियों का प्रयोग किया जाता है जिससे बचा भी जा सकता है । यथा दलित महिला से बलात्कार ,अब यदि केवल महिला ही लिखा जाये तब भी यह समाचार उतना ही गम्भीर है परन्तु दलित लिख कर अनायास क्षणिक आवेश उत्पन्न कराने का कार्य किया जाता है । आजकल 'हर्ष फायरिंग' / 'ऑनर किलिंग' का प्रयोग प्रायः किया जा रहा है जिसे पढ़ते ही भाषा दोष का आभास होता है । परीक्षा देते 'साल्वर' पकडे गए , अब 'साल्वर' नया शब्द बना दिया हिंदी का ,जो किसी भी प्रकार से समझ से परे है । ऐसे अनेक शब्द जैसे रौंदा ,गुंडई ,रपटा,ठोंका ,रंगरेलियां , जलवा, दारू का ठेका ,आबरू तार तार हुई ,इत्यादि न जाने कितने शब्द और शब्द विन्यास हैं जिनके प्रयोग से बचा जा सकता है और उनके स्थान पर अधिक उपयुक्त और शालीन शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है ।

अभी कुछ पत्रकार बंधुओं से मैंने इस विषय में चर्चा की तो उन लोगों ने बहुत चौकाने वाली बात बताई कि उन लोगों को अब यह निर्देश मिलते है कि घटना की प्रमुखता का ध्यान रख कर किसी भी प्रकार के शब्दों का चयन कर सकते हैं भले ही वह पूरी तरह से स्थानीय शब्द क्यों न हो और भाषा दोष होने का भी भय न करें । जनता को समाचार से अवगत कराना है वह भी खूब मसाले दार भाषा और शब्दों के संग परोस कर न कि समाज को हिंदी भाषा सिखानी है ।

दुःख हुआ यह जान कर कि प्रमुख हिंदी समाचार पत्र स्वयं हिंदी भाषा को परिष्कृत करने से अब किनारा कस  रहे हैं । समाचार पत्रों से अच्छी भाषा तो अब सोशल साइट्स पर पढ़ने को मिल जाती है ।

हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े लोगों से अपील है कि कृपया देश की मातृ भाषा का स्तर उठाने में भी तनिक सहयोग करें , अन्यथा जैसे दूरदर्शन चैनल और बाक़ी चैनल की गुणवत्ता में अंतर स्पष्ट दिखाई पड़ता है वैसा ही चिर अंतर हिंदी और अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्र  में बना रहेगा ।


सोमवार, 9 दिसंबर 2013

"खुला पत्र ,केजरीवाल के नाम ………"

आदरणीय केजरीवाल साहब,

बधाई आपको और आपकी टीम को ,अभूतपूर्व विजय के लिए । कांग्रेस पार्टी एक बहुत पुरानी राष्ट्रीय पार्टी है । शासन करते करते उसने आम जनता को निरीह / असहाय वर्ग का प्राणी मान लिया था । परिवारवाद की आड़ में तमाम नेता अपनी करनी से देश और देश की जनता का बेडा गर्क करते गए और अपना भर पूर भला करते रहे । कांग्रेस के शासन काल में महंगाई / भ्रष्टाचार / कुशासन चरम पर रहा ।

आम आदमी एक सच्चा साधारण सा बस आम आदमी होता है । वह इतना चाहता है बस कि उसके सारे काम सत्ता में बैठे लोग ईमानदारी से करते रहे । समाज में भय का वातावरण न हो । उनकी बहू / बेटियां अपने घरों / कार्यस्थलों में सुरक्षित रहे ।गरीब आदमी भी कम से कम दो वक्त कम पैसों में अपना पेट भर सके ।

आप और आपके नए सदस्य अभी चुन कर आये हैं । आप लोग बिलकुल ही नए हैं इस माहौल के लिए । बहुत अधिक श्रम कर आप यहाँ तक पहुंचे हैं । आपके पास इनसे लड़ने के लिए न पर्याप्त धन है और न संसाधन । आंकड़े जिस स्थिति को बयान कर रहे हैं उसमे पूरी उम्मीद है कि दूसरा दल आपके दो / चार सदस्यों को धन / वैभव के बल पर अपनी ओर खींचने का प्रयास अवश्य करेगा । लोभ का आकर्षण बड़ा लुभावना होता है । बड़े बड़े ऋषि मुनि भी डोल जाते हैं ,इतिहास इसका गवाह है ।

जीते हुए सदस्य कभी भी पुनर्मतदान नहीं चाहते । चुनाव लड़ने में और ख़ास कर जीतने के बाद सदस्य एकदम थक जाता है और निढाल सा हो चुका होता है । हारा हुआ नेता तो पुनः चुनाव में रूचि ले लेता है क्योंकि उसे उम्मीद हो जाती है कि शायद दुबारा वह जीत जाए । यह बात सभी पार्टियों पर लागू होती है । आप के लोग तो विशेष कर पुनः चुनाव नहीं चाहेंगे ,क्योंकि आपके पास तो धन का भी अभाव है और कार्यकर्ताओं का भी । ऐसे में आपके सदस्य सबसे अधिक आसानी से 'टारगेट' किये जा सकते हैं दूसरे दल द्वारा ।

चुनाव से पहले और अब चुनाव जीतने के बाद आपने भी अब तक अपने सदस्यों में थोड़ा परिवर्तन अवश्य महसूस किया होगा । यह मानव स्वभाव है । यह चुनाव आपने वर्त्तमान सरकार की कमियां / गलत नीतियां / नान-परफार्मेंस को जनता के सामने रख कर जीता है । अब आपको सरकार में रहकर ,भले ही विपक्ष में ,उन सभी कमियों को पूरा कराना है । पानी / बिजली / महंगाई की समस्या से निजात दिलाना है जो बहुत आसान नहीं है । किसी समस्या को सामने उठाना ,कमिया निकालना ,घटनाओं का विश्लेषण करना बहुत सरल है परन्तु पूर्व से ही प्रयास कर अपेक्षित परिणाम दे पाना कहीं कठिन ।

'आई आई टी' से निकलने के बाद अनेक स्वर्णिम अवसर छोड़ आप सरकारी नौकरी में आये । आप भी बाक़ी लोगों की तरह ऐशोआराम की ज़िन्दगी जी सकते थे परन्तु आपने अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीना स्वीकार किया और उसी जूनून का फल है कि आपको जनता ने अपना प्रतिनिधि बड़ी उम्मीदों के साथ चुना । आपके सभी साथी भी आपकी तरह ही जुनूनी हो तभी जनता की उम्मीदों पर आप खरे उतर पाएंगे ।

इस समय देश की राजनीति करने वाले लोग बहुत गंदे हैं । वे आपको और आपके साथियों को नैतिक /अनैतिक कामों में उलझा कर जल्दी से जल्दी आपका अंत करना चाहेंगे ।  आपको बहुत सोच विचार कर ,ठोंक बजा कर निर्णय लेना होगा । अन्ना के आंदोलन के समय आप अपने साथियों में मन मुटाव देख ही चुके हैं ।

ईश्वर आपका साथ दें और आपके साथियों को विवेक और सद्बुद्धि दें जिससे वे अपने इर्द गिर्द फैले दुश्मनों को पहचान सके । अब अगर यह मौक़ा निकल गया तो भारत की राजनीति में फिर कभी कोई सुधार न हो सकेगा । बस अभी आप विपक्ष में रहकर सरकार की नाक में इतना दम करते रहिये कि उसे गलत करने में सौ बार सोचना पड़े और हाँ समस्याओं को हल करने में अपना सुझाव देकर सरकार का सहयोग भी करें यही स्वस्थ प्रजातंत्र होगा ।

अंत में यह भी अवश्य निवेदन करूंगा कि आप अपने स्वास्थ्य का ध्यान अवश्य रखें तभी आप जन कल्याण करने में अपना शत प्रतिशत योगदान दे पाएंगे ।

----------------------------------------------------------------एक आम आदमी ।