शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

"ख्वाब" तो अच्छे हैं.........

ख़्वाब तो अच्छे हैं,

जब चाहो बुला लो उन्हें,

पास बिठा सता लो उन्हें,

कितना रूठें मना लो उन्हें,

अपने हाथों सजा लो उन्हें,

कुछ उनकी सुनो, 

कुछ अपनी सुना लो उन्हें,

ख़्वाब में गर ख़्वाब आयें, 

दूर जाने के उनके,

झट आँख खोल झुठला दो उन्हें

ख़्वाब तो अच्छे हैं !!!!!! 

            "उनके ख्वाब तो बहुत अच्छे हैं और वो ख्वाबों में तो बहुत ही अच्छे हैं"
              "काश ! ! ना ख़्वाब टूटें ,ना ख़्वाब में वो टूटें  "

बुधवार, 28 सितंबर 2011

"न जी भर के देखा ,न कुछ बात की ; बड़ी आरज़ू थी मुलाकात की"


हर बात पे महके हुए जज़बात की खुशबू,
याद आई बहुत, पहली मुलाक़ात की खुशबू,

होठों में अभी फूल की, पत्ती की महक है, 
साँसों में बसी है उनसे मुलाक़ात की खुशबू,

आंखें कहना चाहती थीं वो तमाम बातें,
पर लब थे कि उलझे रहे निगाहों में उनकीं,

दिल था कि तजबीजता रहा ख़्वाब की हकीकत,
और ख़्वाब थे कि बेताब, होने को हकीकत,

वक्त था कि कुछ ठहरा ही नहीं उधर ,
बिखर गई कुछ बातें खुशबू सी मगर,

यादों के सहारे पहले भी जिए थे,
फिर संजों लायें हैं यादें ही उनकीं |

उन्हें तो पढ़ना भी आसान न था ,
उनपे अब लिखना भी मुश्किल हुआ है ,

इबारत सी बन गई वो ज़िन्दगी की मेरी,
इबादत ही हो गई अब ज़िन्दगी की मेरी | 

रविवार, 18 सितंबर 2011

"भूकंप मन का "


व्यक्ति प्रकृति की ही एक प्रतिकृति है | प्रकृति के ही समस्त गुण धर्म व्यक्ति में भी समाहित रहते हैं | किसी
भी व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन काल में उसके मन के भीतर समय की सतहों का एक पहाड़ सा निर्मित होता रहता है | अनुकूल घटनाएं ठोस धरातल का  निर्माण करती है, समय की सतह का, और प्रतिकूल अथवा दुखपूर्ण घटनाएं, सदैव चूँकि भावनाओं से परिपूर्ण होती हैं ,अतः इनसे निर्मित समय की सतह आंशिक रूप से तरल सी होती हैं | होने वाली घटनाओं के क्रम में ही समय की परत एक दूसरे के ऊपर स्थापित होती चली जाती हैं |

अब यदि तरल सतह के ऊपर ठोस सतह की बारी आती है तो स्वाभाविक ही है कि ठोस सतह संभवतः स्थिर
ना रह सके | ऐसी ही स्थिति में व्यक्ति का मन विचलित हो उठता है | बहुत काल के पश्चात ,जब अनेक परतें
,समय की, कुछ ठोस, कुछ तरल, कुछ पथरीली, कुछ नरम ,एक दूसरे के ऊपर अच्छी तरह से जम चुकी होती हैं और ऎसी स्थिति में व्यक्ति के जीवन में पुनः कुछ ऐसा घटित हो जाता है, अथवा पुरानी किसी तरल घटना की पुनरावृत्ति हो जाती है ,तब वो परत वहां से खिसकने लगती है और पूरा का पूरा ढांचा ,व्यक्ति के मन के अन्दर का ,ढहने की स्थिति में आ जाता है | इसी को मन का भूकंप कहते हैं | यह भूकंप प्रकृति के भूकंप से अधिक विनाशकारी होता है | अतः मन के भीतर समय की सतहों का विन्यास इस प्रकार का रखना चाहिए कि सारी परतें एक दूसरे से अभिन्न प्रकार से जुडी रहें | अर्थात व्यक्ति सदैव स्वयं को सभी से जुड़ा महसूस करे | तभी उसे किन्ही विपरीत परिस्थितियों में भी ठोस धरातल का सहारा मिल सकता है |

मन का भूकंप रिक्टर स्केल पर  यदि १० का अंक छू ले तभी शायद व्यक्ति अपने जीवन का अंत या आत्महत्या की बात सोचता है और शायद कर भी डालता है |

"अद्भुत तथ्य यह है कि  ,अधिकतर इस भूकंप का एपिसेंटर किसी दूसर के मन के भीतर होता है ,परन्तु घातक वो दूसरों के लिए होता है |"

बुधवार, 14 सितंबर 2011

"हिन्दी की खुशबू...."

हिंदी माँ के हाथ बनी, 
नरम नरम लंगोटी है, 
अंग्रेजी असहज डायपर है, 
हिंदी माँ का आँचल है, 
अंग्रेजी बाटल का दूध है, 
हिंदी माँ का दुलार है, 
अंग्रेजी क्रेच का एकाकीपन है, 
हिंदी माँ की उंगलियाँ है, 
अंग्रेजी प्रैम और वाकर के पहिये है,
हिंदी नाक पोंछते माँ के पल्लू हैं, 
अंग्रेजी सूखे खुरदुरे टिशु पेपर है,
हिंदी के पहले बोल म--माँ हैं,
अंग्रेजी के पहले बोल हाय हैं, 
हिंदी माटी के मकान में गोबर की लिपाई की खुशबू है, 
अंग्रेजी फाल्स सीलिंग की तरह पूरी फाल्स है, 
हिंदी गाय का थन है,
अंग्रेजी पाउडर मिल्क है, 
हिंदी घी लगी रोटी पे रखी चीनी है, 
अंग्रेजी चाय में पड़ी शुगर क्यूब है, 
हिंदी खाजा है, 
अंग्रेजी पिज्जा है,
हिंदी "तुम्हारा साथ अच्छा लगता है " है,
अंग्रेजी "आई लव यू" है,
हिंदी संस्कार हैं,
अंग्रेजी फैशन है, 
हिंदी तरंग है, 
अंग्रेजी कण है,
हिंदी मेहँदी है,
अंग्रेजी टैटू है,
हिंदी प्रकृति है,
अंग्रेजी प्रवृत्ति है !!!!!
   

सोमवार, 12 सितंबर 2011

"बस तुम और तुम"


सुबह भी तुम,
शाम भी तुम, 
तमाम उम्र का नाम भी तुम, 
गर ख्याल से भूले भी कभी,
तो उस ख्याल का नाम भी तुम,
आती सांस में तुम,
जाती सांस में भी तुम,
आस भी तुम, 
विश्वास भी तुम, 
आनन्द भी तुम, 
उन्माद भी तुम, 
कौतूहल भी तुम, 
सादगी भी तुम,
श्वेत भी तुम, 
श्याम भी तुम,
और अब तो, 
लगता है, 
’मै’  मै नही,
वह ’मै’  भी 'तुम’ ।

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

"..और वो सयानी हो गई"

बात करते करते, 
अब वो नहीं लपेटती, 
कोना चुन्नी का, 
अपनी उँगलियों में | 
ना ही कुरेदती है, 
मिटटी ज़मीं की, 
पैर के अंगूठे से | 
आँख भी नहीं मीचती अब, 
कमरख खाते खाते | 
ना ही खेलती है, 
जूस ताक,
चियों से इमली के |
अब वो झगडा भी, 
नहीं करती,
हारने पे,
लूडो के खेल में |
ना ही उचक के, 
देखती है, 
खिड़की से बाहर,
आते जाते लोगों को |
पहले अक्सर,
खोल देती थी, 
मौक़ा पा,
बछड़े को खूटें से,
और पीने देती थी, 
उसे भर पेट दूध माँ का | 
पर अब उसे यह भी, 
नहीं अच्छा लगता | 
उसने शायद, 
जान लिया है, 
पढ़ना नज़रों को, 
लोगों की |
हाँ !! बस निहारती है, 
आसमान एकटक,
अक्सर, 
और मुस्कुरा उठती है, 
देख परिंदों को |

"शायद ज़िन्दगी की उलझनों ने उसकी शैतानियाँ कम कर दीं,
और लोग समझते हैं, अब वो सयानी हो गई है |" 

रविवार, 4 सितंबर 2011

"टीचर्स डे".... ’५ सितम्बर ’ तिथि नहीं, एक संस्कार....

       यदि सबसे सुन्दर और मनोरम दृश्यों की बात की जाए तब निश्चित तौर पर लोग प्राकृतिक सौन्दर्य की
ही बात करेंगे | यह भी हो सकता है, कुछ लोगों को तितलियों के अथवा मोर पंखों के रंग लुभावने लगते हों, परन्तु मुझे सबसे अच्छा और प्यारा दृश्य लगता है "सवेरे सवेरे नन्हे मुन्ने बच्चों  का स्कूल जाना" | उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता है ,मानो प्रकृति के सभी  रंग खुद जीवन्त हो उठे हों और धरती के विशाल कैनवास पर बिखर जाने को बेताब हों | मजे की बात यह होती है कि विभिन्न प्रकार के यह रंग आपस में मिलकर नित नए और अत्यंत मनोरम चित्र   बनाते हैं और अगले दिन पुनः ये सभी रंग नई चित्रकारी के लिए बेताब दिखते हैं |
       इस चित्रकारी की तूलिका के रूप में होते हैं ,इन बच्चों के शिक्षक / शिक्षिकाएं  | सारे बच्चे अपने मन में ढेरों  कौतूहल रुपी रंग भरे होते हैं,जिन्हें उनके शिक्षक / शिक्षिकाएं रंगों के गुण दोष के अनुसार तूलिका का चयन कराते  हैं,और बच्चों के माँ बाप उन चित्रों को देख देख मुदित होते रहते हैं |
       रंग कितने भी अच्छे हों ,परन्तु यदि तूलिका उचित प्रकार एवं दशा की न हो तो सभी रंग बिखर जाते हैं और चित्र भी खराब हो जाते  है | अर्थात सबसे अधिक महत्त्व प्रारम्भिक शिक्षक/शिक्षिकाओं का ही होता है | नन्हे बच्चों में अपने शिक्षक के प्रति सम्मान एवं विश्वास कूट कूट कर भरा होता है | घर जो बातें माँ बाप बताते है ,उन्हें वे नहीं मानते परन्तु यदि वही बातें स्कूल में शिक्षक/शिक्षिकाए  बता दें तो बच्चे तुरंत मान लेते हैं और अपने माँ बाप को भी मनवाने  को मजबूर कर लेते हैं | ऐसे में शिक्षक/शिक्षिकाओं का दायित्व अत्यंत अधिक हो जाता है |

         समाज में  शिक्षक/शिक्षिकाओं का स्थान सर्वोपरि और सम्मान जनक होना चाहिए और  शिक्षक/शिक्षिकाओं को भी अपने दायित्व के प्रति ईमानदारी बरतते हुए बच्चों के सर्वांगीण विकास हेतु प्रयास रत रहना चाहिए |   
            ऐसा  हो  जाए तो फिर आ ही जाएँ "तारे ज़मीं पर" |