शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

" हर मुड़ा तुड़ा कागज कचरा नहीं होता ......"


हर मुड़ा तुड़ा कागज कचरा नहीं होता ,
आंसुओं संग बह जाये वह कजरा नहीं होता ,

मुड़े तुडे कागज़ अक्सर होते हैं खत मोहब्बत के ,
 लफ्ज़ जिसके हरेक जुगनू होते हैं 'उन' नज़रों के ,

ऐसा ही टुकड़ा एक दबा रह जाता है अक्सर नीचे तकिये के ,
और कर देता है उस ओर मुझे 'उनकी' यादों के हाशिये के ।

हाशिये पर ही ठहर गई फिर एक बार कलम उनकी  ,
दिल कह रहा है आंसुओं से बन जाओ अब स्याही उनकी ।

हाँ ,यह सच है आँखें आँसू बहाना चाहती हैं ,
यह भी सच है , कोई तो 'बहाना' चाहती हैं । 

बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

" सफाई तो हो गई .......देखते देखते "


आनन फानन में बड़े साहब ने मीटिंग बुलाई | विचार हुआ कि २ अक्टूबर के मौके पर कार्यालय प्रांगण की सफाई की जानी है | कुल कर्मचारी /अधिकारी मिला कर गिनती हुई १२१ , अरे यह तो बहुत शुभ अंक है ,अवश्य कुछ अच्छा होने को है ,बड़े साहब बोले | 

सफाई के लिये सब लोग अपने अपने घरों से झाड़ू लेते आयेंगे , एक कर्मचारी ने राय दी | उस कर्मचारी को घूरते हुये बड़े साहब बोले ," नहीं घर का सामान ,दफ्तर मे नहीं लाया जायेगा , यह उचित नहीं |" अपने सबसे खास 'टेंडर बाबू' को बुलाकर कहा ,"शीघ्र एक अल्प कालिक निविदा आमंत्रित करो और उसके माध्यम से १५० अदद झाड़ू और १५० जोड़े दस्ताने क्रय करने क़ी व्यवस्था करो |"

अब सबसे पहला काम झाड़ू की डिज़ाइन का मानक तय करना था | झाड़ू के डंडे की लंबाई , मोटाई और उस पर उच्च कोटि के केसरिया रंग के पेन्ट का कोड तय कर दिया गया | झाड़ू की सींको का 'फ्रंट प्रोफ़ाइल' कुछ इस प्रकार ' डिज़ाइन' किया गया कि झाड़ू लगाते समय झाड़ू और जमीन के मध्य २० अंश का कोण बन सके ,क्योंकि रिसर्च से पता चला है कि इसी अंश के कोण पर झाड़ू से न्यूनतम श्रम के सापेक्ष अधिकतम आउटपुट मिलता है | झाड़ू के सींको के विषय में आम राय यह बनी कि ,सींको के स्थान पर 'ओप्टिकल फाइबर' का प्रयोग किया जाय और झाड़ू के डंडे के उपरी सिरे पर भीतर एक बैटरी चालित बल्ब लगा हो | खोखले डंडे के भीतर से रोशनी प्रवेश करते हुये 'ओप्टिकल फाइबर' वाली सींको से रोशनी उस स्थान पर पड़ेगी जहां सफाई किया जाना होगा | इतनी हाईटेक झाड़ू से कोई भी कूड़ा करकट बचा रहा जाय ,असंभव है | रात को भी अगर सामूहिक सफाई की जायेगी ,इतनी उच्च तकनीक की झाड़ू से, तो मंगल से धरती पर देखने पर असंख्य तारे से बिछे दिखेंगे ज़मीन पर | प्रत्येक झाड़ू पर एक संदेश भी लिखा होगा कि " झाड़ू चलायें ,स्वास्थ्य बनायें |"

अगला मानक दस्तानों का तय किया जाना था | दस्ताने बहुत ही मुलायम और हल्के डिज़ाइन किये गये ,जिससे उन्हे पहनने के बाद भी कलाइयों की लचक बनी रहे क्योंकि झाड़ू लगाते समय कलाई और कमर में लोच / लचक बहुत आवश्यक है |(इस बात पर भी बहुतों ने हामी भरी |) 
 
दोनो महत्वपूर्ण वस्तुओं की कीमत मिलाकर टेंडर की राशि तय हो रही है | बड़े साहब मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं | सफाई तो अब लगभग तय है , भले ही वह सरकारी खजाने की हो | 

रविवार, 28 सितंबर 2014

" कुछ मीठा हो जाये ....."


अभिषेक / रमन ,

जन्मदिन पर क्या कहें बस खिलते रहो , खिलखिलाते रहो । शिक्षा / नौकरी के विषय में अब तो कुछ कहना शेष नहीं , उन दोनों क्षेत्रों में तुमने अपने  साथ साथ हम लोगों का भी मान बढ़ाया ही है पर कुछ ज्ञान तो देना पड़ेगा न ,नहीं तो पापा कैसे कहलाऊंगा ।

१. शारीरिक स्वस्थता और मानसिक दृढ़ता शीर्ष वरीयता पर होने चाहिए ।
२. हर अगला दिन पिछले दिन से भिन्न अर्थात कुछ तो नया होना चाहिए ।
३. जिस किसी के संपर्क में आओ उस पर तुम्हारे व्यक्तित्व का अधिक नहीं तो तनिक सा तो प्रभाव दिखना चाहिए ।
४. जितना संभव हो  समाज / देश की बेहतरी / तरक्की के लिए निरंतर प्रयास होना चाहिए । परिवार के लिए तो हर कोई करता है । सोच परिवार से ऊपर की हो ।
५. किसी भी निर्णय के दूरगामी परिणाम की व्याख्या समग्रता में बहुत आवश्यक है , वह निर्णय चाहे परिवार के सन्दर्भ में हों या समाज / देश के सम्बन्ध में हों ।
६. हासिल सब कुछ करो पर ,अपना कुछ भी मत समझो ।
७. तुम्हारी किसी भी बात अथवा कृत्य से कभी किसी के आत्मसम्मान को ठेस नहीं लगनी चाहिए ।
८. समाज में आर्थिक और शैक्षिक विषमताएं बहुत हैं । समाज के निम्नतम स्तर के लोगों की भी बेहतरी के विषय में यथासंभव सोच हो और प्रयास भी ।
९. कितनी भी उन्नति कर जाओ पर सामाजिक मर्यादाओं का भान रहे ।
१०. जीवन में सफलताओं / विफलताओं का क्रम अवश्य आता है । उनसे न कभी निराश हो और न कभी आपा खो दो ।

और अंत में सिर्फ और सिर्फ एक बात , तुम्हारी मम्मी को तुमसे अब क्या चाहिए पता है ,तुम्हे ? सिर्फ रोज़ दो मिनट की बात फोन पर ,कितने भी बिज़ी हो, कितनी भी अन्य प्राथमिकताएं हों , देश में हो या रहो विदेश में ,बस एक बार तुम लोगों की आवाज़ सुन लेती हैं तो उनका दिन पूरा हो जाता है और तुमसे बात होने पर तुम्हारी मम्मी के चेहरे पर जो संतोष और ख़ुशी झलकती है न ,उससे मेरा दिन पूरा हो जाता है । 

अब एक चॉकलेट खा लेना ,इतनी कड़वी दवा के बाद कुछ मीठा हो जाये ।

( जन्मदिन तो तुम्हारा है पर यह बातें तुम्हारे दद्दा ( अनिमेष / राजन ) के लिए भी हैं )

सोमवार, 22 सितंबर 2014

" लिखते तो अच्छा हो ,पर लिखते क्यूँ हो ......."


नज़्मों में तुम्हारी दर्द सहती रहूँ मैं क्यूँ  ,

लिखते तो अच्छा हो पर लिखते क्यूँ हो ,

मेरे एहसास बयां होते है तेरे लफ़्ज़ों से ,

पर अपने लफ़्ज़ों से मुझे यूँ भिगोते क्यूँ हो ,

मोहब्बत तो थी पर जब निभानी न थी ,

फिर इतनी मोहब्बत यूं करते क्यूँ हो ,

इज़हारे इश्क का अगर हौसला न था ,

छुप छुप के ज़ाहिर इश्क  करते क्यूँ हो ,

रहने दो मुझे मेरी ही तन्हाइयों में ,

यूं मिल मिल कर निगाहें भिगोते क्यूँ हो । 

रविवार, 21 सितंबर 2014

"बैक डेट से मोहब्बत ,क्यों नहीं ...."


                                                                             
                                                                             यदि प्रेम एक संख्या है
                                                                             तो निश्चित ही
                                                                             विषम संख्या होगी

                                                                             इसे बांटा नहीं जा सकता कभी
                                                                             दो बराबर हिस्सों में ।

हाँ ,वह एक नेक और पाक रूह थी | अंगूरी बादल सी धुँधलाई उसकी कहानी ने जबसे अपनी चुप्पी तोड़ी है , कसम से उसकी उदासियाँ अब सालने लगी हैं | स्मृति जब रीतती है तब पनीली उदासी भी रिसते रिसते एक सवाल छोड़ जाती है ,क्या मुझे तब भी मोहब्बत थी उससे |

स्वेटर बुनते हुये जब वह निगाहें उपर उठाकर भौं के बीच एक मुस्कुराता हुआ प्रश्नचिन्ह बनाती थी न ,तब मेरे सारे दुखों के बीज जन्मने से पहले ही मृतप्राय हो जाया करते थे | उसकी स्मृतियाँ अमलतास की डाली है ,जिस पर सदियों से विरासत की चली आ रही मोहब्बत की कहानियों के शब्द बनते बिगड़े मेरी नज़्म का ही रूप अख्तियार कर लेते हैं और गाहे बगाहे मुझे ही उसके राग विराग से रु-ब-रू भी कराते हैं और हैडल विद  केयर की नसीहत भी देते हैं |

अब एहसास होता है कि वह मैं ही हुआ करता था दुआ में उसकी ,जो मेरी नज़्म और मेरे कमरे का मौसम ख़ुशबुओं से लबरेज़ कर उठती थी । अक्सर वह प्रेम में होने का अर्थ और प्रेम का रसायन् बयाँ करती नहीं थकती थी | दुआ एक और की थी उसने जब स्पर्श किया था होंठ मेरे और बरबस ही निगाह में रिश्ते कुछ बन से गए थे | इच्छायें मुझे एहसास कराती तो रहीं उसकी चाहत की ,परंतु जैसे बादल धूप न बनने दे तो सर्दी कभी गुनगुनी नहीं लगती बस वैसे ही वक्त ने एक पुल न बनने दिया हमारे और उसके बीच जो उसके साया को मिला देता रूह से मेरी |

बदरा भी इंतज़ार करता है बरसने से पहले कि कोई ख्वाहिश तो करे बारिश की ,बस उसी तरह मैं भी इंतज़ार करता रहा  उम्र भर प्रेम करने से पहले प्रेम का विज्ञान समझ पाने का  | पर बदरा तो बरस गया ,मैं ही न बरस पाया ।

सच तो यह है कि बिन्दी उसके माथे की शून्य सा लगाती थी , जिसमें विलय होता रहा मैं तब और अब विलीन हो जाएगी मेरी शेष ज़िंदगी की गुज़र | ख्याल से उसके कभी बे-ख्याल हुआ हूँ ,ऐसा शायद कोई लम्हा नहीं पर हाँ ,प्रेम का गणित , प्रेम का भौतिक शास्त्र ,प्रेम की प्रकृति समझने में कुछ वक्त तो ज़ाया जरूर किया | बीज जो बो उठा था हमारे मन में उसके प्रेम का ,उसकी तलाश में अंधेरा सा हो चला है अब मेरी ज़िंदगी में । बस धड़कन जरूर धड़क रही हैं इन दिनों और शायद इनकी तो यही नियति है मौत तक |

इब्तेदा मोहब्बत की हो , इन्तेहा मोहब्बत की हो या हो फिर बेइंतहा मोहब्बत ,हर कहानी में मोहब्बत अब भी रोती है क्योंकि लौ जो जलाता है मोहब्बत की अँधेरी सुरंग में ,वही जल उठता उस लौ में ,जैसे रेत में मरता हो कोई बस गुजारिश करता हुआ ,दो बूँद पानी के लिए ।

यकीन हो चला है कि ख्वाहिश कभी पूरी न होने के कारण ही मोहब्बत करने वाले सपनो का सौदागर बनते बनते जोग में रम जाते हैं | यूं तो सिन्दूर हर औरत की आकांक्षा होती है जो उसे नदी सा प्रवाह और पवित्रता देता है । परंतु कुछ लोग उन पर गुलामी की बेड़ियाँ भी जकड़ देते हैं नाकाम इश्क की आड़ में | अच्छा हुआ वह चिड़िया बन उड़ गईं और मेरी प्रतीक्षा नहीं करी ,क्योंकि मैं तो यादों के पदचिह्न पर चलता चला ही जाऊँगा |

आज वह रास्ते याद आ गये जिन पर हम चले थे कभी संग संग ,खाते खाते कच्ची मूंगफलियाँ और एक बार इन्ही रास्तों पर सहसा एक झटके में मैने उसके  चेहरे को उसकी ही ज़ुल्फ़ों से बेनकाब करते हुये उसका मुंह चूम लिया था | तब उसने कहा था ,आसमां की ओर ताकते हुए ,सुनो बरखा ,बरस न जाओ एक बार फिर , जिससे मैं उसके आंसू न देख सकूं | उसने ढांप लिया था चेहरा अपनी हथेलियों से ।

आज अकेले सोचता हूँ तो लगता है जब वह थी तब जैसे तारों की बारात थी मेरे पास और आज तारों की घर वापसी हो गई और कर गई मुझे अजनबी मेरे ही घर में और अब घर का हर कोना डेड एंड सा लगता है | मृत्यु कहूँ या महामुक्ति अब तो बस उसी की प्रतीक्षा में एक ख्वाब जलता हुआ सा देखता रहता हूँ |

जब कभी ख्वाब का रूपांतरण उसके  चेहरे में हो जाता है तब उसकी पनीली आंखे चुभन सी पैदा करती हैं मेरे जिस्म में और अनायास होने लगती है एक तलाश कविता की | पर जब एक ख्वाब थका सा हो तो उसमे और चिता में कोई फर्क नहीं होता क्योंकि फिर दोनों ही दोनो भस्म कर डालते हैं ख्वाबों के वजूद को |

तुम्हारे बिना रिहाई आसान नहीं इस तन्हाई की कैद से | बंधक बन बैठा हूँ तुम्हारी यादों का , जो शायद जीवन यात्रा की समाप्ति पर ही अब रिहा करेगा मुझको | अब जब भी प्रेम कविता लिखता हूँ न ,वो लम्हे जिनमे उसकी याद गुजरी , डुबो ही लेते हैं मुझे अक्सर झील बन कर |

सोचता हूँ मैं ही न समझ पाया उसको  ,कितना मोहब्बत करती थी वो मुझसे | मुझे तो अब उस से मोहब्बत हो गई है 'बैक डेट' से |

"इश्क तुम्हे हो जायेगा" अनुलता जी का एक अद्भुत संकलन हैं 'प्रेम कविताओं' का । इस धरोहर का प्रत्येक शीर्षक एक पोटली है जिसमे बंद है अनमोल खजाना । बस उन्ही पोटलियों को इकठ्ठा कर एक प्रयास किया है ,एक टूटी फूटी कहानी लिखने का । (इस कहानी को अर्थ देने के लिए अनु जी की पुस्तक के सभी शीर्षकों को ही शब्द-विन्यास के रूप में प्रयुक्त किया गया है ) 

बुधवार, 17 सितंबर 2014

"कान उमेठने के लिए नहीं बने हैं ......."


जरा सी गलती पर किसी भी बच्चे के कान उमेठ देना अत्यंत साधारण सा सत्य है । ईश्वर ने कभी स्वप्न में भी न सोचा रहा होगा कि उसकी रचना का लोग इस तरह दुरुपयोग करेंगे । कान उमेठना दंड का एक प्रकार शायद इस लिए बन गया होगा क्योंकि कान उमेठने में जिसका कान होता है उसे दर्द होता है और कान उमेठने वाला उमेठने के प्रकार से दिए जाने वाले दर्द को नियंत्रित कर सकता है । इसीलिए विभिन्न प्रकार की गलती के लिए विभिन्न आयु के बच्चों के लिए विभिन्न तरीके हैं कान उमेठे जाने के ।

यूं ही विचार विमर्श से ज्ञात हुआ कि अगर बच्चा गलती करके सर झुकाये नीचे देख रहा है तब उसके कान 'क्लॉक वाइज़' उमेठने से उसका चेहरा ऊपर की ओर अपने आप उठ जाता है और अगर गलती करने के बाद भी ऊपर ही घूर रहा है तो कान 'एंटी-क्लॉक वाइज़' उमेठने से उसका चेहरा अपने आप नीचे हो जाता है | एक केमिस्ट्री के मास्साब ने बताया कि अगर कान उमेठने से आंसू भी निकल आएं तो यह रासायनिक परिवर्तन है और अगर केवल मुंह बन जाये और आंसू न निकले तो यह भौतिक परिवर्तन है ,क्योंकि कान तो छोड़े जाने के बाद पुनः अपने मूल रूप में आ जाता है । यह तो हास परिहास की बात हुई ।

कान उमेठने का उद्देश्य अगर बच्चे को गलती का एहसास कराना है तो यह कार्य बगैर कान उमेठे भी किया जा सकता है । किसी भी आयु के बच्चे को पीड़ा पहुँचाते हुए सुधार करने की अपेक्षा पूर्णतया गलत है । इस प्रकार की प्रक्रिया से बच्चों को दर्द तो अधिक नहीं होता है पर वे अपमानित हो कुंठा से भर जाते है । ऐसी कुंठाएं आगे चल कर उन्हें बुरी संगत और प्रतिशोधात्मक काम करने को अग्रसित करती हैं ।  ऐसी कोई स्थिति नहीं होती जिसमे कोई भी अपने बच्चे से सरल तरीके से बात कर उसे समझा न सके । अगर आप ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तब कहीं न कहीं दोष आप में है ।

सीधा सा मूल मन्त्र यह है कि जब आप अपने बच्चे से बात करें तब केवल उससे ही बात करें । मतलब ऐसा न हो कि आप घर का या ऑफिस का काम भी कर रहे हों , टीवी देख रहे हों , मोबाइल पर बात कर रहे हों , मेहमान नवाज़ी कर रहे हों और इन सबके साथ साथ बच्चे को भी नसीहत दे रहे हों  । बच्चे भली भांति समझते हैं कि उनके माँ बाप की वरीयताएं क्या हैं । उन्ही के अनुसार ही वे भी प्रतिक्रिया देते हैं ।

अगर बच्चे बड़े हो कर अच्छे नागरिक बनते हैं और समाज में एक आदर्श स्थापित करते हैं तो आवश्यक नहीं माँ-बाप को श्रेय दिया जाये ,परन्तु अगर बच्चे समाज के लिए अथवा परिवार के लिए समस्या बन जाते हैं तब सारा का सारा दोष माँ बाप का ही माना जाना चाहिए ।

गलती होने पर भी बच्चे को सीने से लगा कर स्नेह से समझा कर देखिये तो सही । वह अपने उसी 'कान' से आपके दिल की धड़कन सुन कर सब समझ जाएगा जिस 'कान' को आप उमेठने को बेताब रहते हैं । 

रविवार, 7 सितंबर 2014

" एक शौक ..बात करने का ..अनजान लोगों से ..."


कभी यूँ ही ज़िक्र कर बैठा था कि अगर कभी रास्ते में कोई गलत तरीके से कार चलाते हुए मिल जाता है तब उससे रोक कर पूछ ही लेता हूँ ,इतनी भी क्या जल्दी या इतना कन्फ्यूज़न क्यों । इस पर एक टिप्पणी मिली कि बहुत फुर्सत रहती है आपको रास्ते में भी । मैंने कहा ,क्या करें अनजान लोगों से बात करने का शौक जो है ।

अचानक मुझे लगा कि यह तो सच बात है । जब किसी परिचित से मिलता हूँ तो उसके बारे में चूंकि पहले से ज्ञात होता है ,अतः उसी अंदाज़ और दायरे में उससे बात होती है । परन्तु अनजान व्यक्ति ,जिससे आप कभी पहले न मिले हो ,उससे अकस्मात बात करने में बहुत आनंद एवं रोमांच होता है । एक कारण मेरे साथ यह भी हो सकता है कि चूंकि आरम्भ से ही नौकरी की प्रकृति के कारण हमेशा नए नए लोगो से ही मिलना होता रहा एवं जो भी मिला पहले अत्यंत रोष और बिगड़े अंदाज़ में ही मिला । मैं तो बड़े मजे से ऐसे लोगों की सुनता हूँ , फिर जब उनके काम हो जाते हैं तो उनके रोष रहित चेहरे और भी अच्छे लगते हैं ।

अब अचानक रास्ते में कोई कार वाला बाई ओर का इंडिकेटर देकर दायें मुड़ता मिल जाए तो उसे रोक कर पूछ ही लेता हूँ ,घर पर सब ठीक तो है । पहले तो वह मुझे घूरता  / घूरती  है ,फिर अपनी गलती देख एक मुस्कान बिखेर कर आगे बढ़ जाता / जाती है । अनजान लोगों से विवाद की स्थिति होने पर मुझे तो बहुत ही मजा आता है । पहले उन्हें समझने की कोशिश करता हूँ ,फिर समझाने की ,तब भी न माने तो चुपचाप अलग हो जाता हूँ पर शांत रह कर पूरा आनंद ले लेता हूँ । निवेदिता भी अक्सर कहती है ,"आप मुझसे लड़ते नहीं बल्कि अपना मूड ठीक करने के लिए मुझे लड़ने के लिए उकसाते हैं । "

इस बात पर भी मुझे कई बार टोका गया है घर पर, कि फोन पर किसी नए व्यक्ति से आप इतने अच्छे से बात करते हैं कि आपसे तो फोन पर ही किसी अनजान नंबर से बात करनी चाहिए । मैं कहता हूँ कि अनजान के साथ अप्रत्याशा जो बनी रहती है ।

अनजान लोगों से किसी भी विषय / संदर्भ में कई बार नई बातें पता चल जाती हैं ,जो कोई आपको जानने वाला इसलिए नहीं देता कि पता नहीं आपको अच्छा लगे या नहीं । जैसे अक्सर सफर में या पब्लिक प्लेस में जहाँ लोग मुझे नहीं पहचानते ,बिजली से सम्बंधित या बिजली चोरी के तरीके पर महत्वपूर्ण जानकारी दे डालते हैं । जब उन्हें मेरे बारे में पता चलता है तो फिर अपना नाम छिपाने लगते हैं ।

अनजान लोगों से बात करना और अबोध बच्चों से बात करना एक सामान होता है । जो कोई आपको जानता नहीं होगा वही आपसे सारी बातें सच्ची सच्ची बता देगा । 

मेरी इस फितरत पर एक टिप्पणी यह भी मिली  ,"हम भी अनजान होते तो हमारी बारी भी आ जाती ।" अनजान था तभी तो आपको इतना जाना ,जानता होता ,पहले से, तो इतनी जान पहचान न होती ।

वैसे मैं संबंधों में विषमताओं का सम्मान करता हूँ शायद इसीलिए मेरे मित्रों में भी आपस में बहुत भिन्नता है । 

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

" आजादी से अलग आजादी के मायने ....."


                                                                                        ( चित्र साभार शिखा वार्ष्णेय )

आजाद होना किसे अच्छा नहीं लगता । पर इससे भी बेहतर तब होगा जब हमें आजाद करना भी अच्छा लगने लगे । किसी के विस्तार को सीमित करना उसकी आजादी की विपरीत की सी हालत होती है । किसी के ख़्वाबों को सीमित करना ,ख्यालों को सीमित कर हकीकत में तब्दील न होने देना गुलामी नहीं तो और क्या है । हम जहाँ भी हैं ,जैसे भी हैं और जिस किसी के संपर्क में हैं उसके विषय में यह अवश्य पता होता है कि वह अपनी मर्जी से जीवन जी भी रहा है या इतना मजबूर और बंद दायरे में है कि वह पूरी तरह से अपने मन की बात कह भी नहीं पा रहा है ,पूरी होने को कौन कहे । घर परिवार ,आस पड़ोस ,कार्य स्थल या और कहीं तमाम लोग ऐसे दिखते और मिलते हैं कि यकीन नहीं होता कि वह भी एक आजाद देश के आजाद नागरिक हैं ।

हमारा दायित्व बनता है कि अब हमारी सोच ऐसी हो कि हमें लोगों को आजाद करना भी अच्छा लगना चाहिए । बात चाहे आपसी रिश्तों / संबंधों की हो ,सास बहू की , पिता पुत्र की , पति पत्नी की या और किसी की , सभी को सोचने की और अपनी बात रखने की आजादी तो होनी ही चाहिए । नौकरी में मातहत को अपने से वरिष्ठ के सामने अपनी राय ,अपनी दिक्कतें रखने की आजादी भी होनी चाहिए और यह सब वह दायरें हैं जहाँ आजादी देने वाले को ही पहल करनी चाहिए ।ऐसे मामलों में आजादी मांगने वाले तो अक्सर नेता बन जाते हैं और उनकी तो सब सुन भी लेते हैं और उनके खुद के स्वार्थ के सारे काम होते भी रहते हैं । परन्तु जो अभी सोच पाने में भी आजाद नहीं ,गुलामी वही ढोते रहते हैं ।

तमाम जगहों पर ईंट भट्ठों , कोयले की खदानों में या और भी मजदूर प्रधान कारखानो में आज भी काम करने वाले मजदूर गुलामी की ज़िन्दगी जीते हैं । वह अपने मालिक से लिया उधार पैसा पीढ़ी दर पीढ़ी वापस करते रहते हैं और उसी के एवज में अपना तन, मन सब रेहन रख देते हैं ।  आखिर यह आजाद मुल्क ऐसे लोगों का भी तो है । उन्हें तो आजाद हम लोगों को ही करना है । उनके लिए तो अब महात्मा गांधी , खुदी राम बोस दुबारा आने से रहे ।

एक बात और ,पक्षियों की उड़ान का कोई सीमित दायरा नहीं होता । ईश्वर ने उन्हें अपार विस्तार दिया है । ऐसे में उन्हें कैद कर पिंजरे में रखना घोर अप्राकृतिक , निंदनीय है और आत्मा को कचोटने वाला भी । कभी भी बंद पिंजरे में कैद तोते को निहार कर देखें ,उसकी आँखों में याचना दिखाई पड़ती है और उन आँखों में एक प्रश्न हमेशा ठहरा सा रहता है कि " आखिर मैं अपनी दुनिया ,परिवार ,समाज से अलग क्यों ,मेरा अपराध क्या ?"
आज कम से कम उन्हें ही आजाद कर ऊंची उड़ान भर लेने दें । 

सोमवार, 11 अगस्त 2014

अरे , इश्क तुम्हे .......है !!


एक्सक्यूज़ मी , 'इश्क तुम्हे हो जायेगा' ,चाहिए थी , किताबों की दुकान पर सेल्सगर्ल से कहा मैंने । पूरी बात सुने बगैर उसने मुझे घूरते हुए देखा और पूछा आपको कैसे पता ,मुझे इश्क हो जाएगा । अरे , यह किताब का नाम है ,जो मुझे चाहिए ,मैंने थोड़ा संकोच व्यक्त करते हुए कहा । इस पर अब वो संकोच में आ गई और बोली ,नहीं मेरे पास तो नहीं है ,आप बगल में देख लें ।

बगल की दूकान पर मैंने फिर वही बात कही ,पर अबकी थोड़ा बदलते हुए पूछा कि वह इश्क होने वाली किताब है । यहाँ भी सेल्सगर्ल ही थी ,मुस्कुराते हुए बोली ,आप कोई भी किताब ले लें ,सभी किताबों से पढ़ने पर इश्क हो जाता है । मैंने कहा नहीं ,किताब का नाम ही है 'इश्क तुम्हे हो जाएगा ' । अरे ,फिर तो बहुत उम्दा किताब होगी ,अभी तो मेरे पास नहीं है ,पर ऑर्डर करती हूँ । मैंने कहा पर मुझे तो अभी चाहिए । इस पर उसने यूनिवर्सल पर देखने को कहा ।

वहां गया तो एक नवयुवती तैनात थी काउंटर पर । अबकी मैंने थोड़ा सावधानी बरतते हुए पूछा ,लगभग फुसफुसाते हुए ,अरे इश्क तुम्हे है । वह भी हलके से मुस्कुरा दी और नज़रें गड़ाते हुए बोली ,आप तो नजूमी मालूम होते हो । अभी आज ही मुझे एहसास हुआ कि मुझे इश्क है किसी से और आपने आते ही मुझसे पूछ लिया । अरे ,मैं नजूमी वजूमी नहीं ,एक किताब की तलाश में हूँ जिसका नाम ही है 'इश्क तुम्हे हो जायेगा' । इस पर वह मुस्कुराते हुए बोली ,मुझे तो इश्क हो चुका है ,आप यह किताब किसी और दुकान पर ढूंढो ।

मैंने कहा ,कही यह नाम ,किताब का, मुझे किसी घोर संकट में न डाल दे ,इसलिए अबकी एक कागज़ के छोटे से पुर्जे पर लिखा 'इश्क तुम्हे हो जायेगा ' और लिखकर एक बहुत बड़ी सी किताबों की दूकान पर गया और घुसते ही एक काउंटर पर बैठी सुन्दर सी महिला को कागज़ का पुर्जा थमा दिया । उसने उसे खोला और पढ़ते ही इशारे से एक हट्टे कट्टे आदमी को बुलाया और उसे पढ़ा दिया । उस आदमी ने आव देखा न ताव और मेरा गिरेबान पकड़ कर बोला ,अपने को बहुत बड़ा रोमियो समझते हो ,यूं खुले आम पर्ची पर लिख कर इश्क का इज़हार कर रहे हो । इतना ओवर कांफिडेंस है कि लिख कर दे रहे हो मैडम को ' इश्क तुम्हे हो जाएगा ' । मैं समझ गया ,यहाँ भी अर्थ का अनर्थ हो ही गया । मैंने तुरंत दोनों हाथों को आपस में मिलाते हुए क्षमा मांगने की मुद्रा में कहा ,अरे इसी कन्फ्यूज़न से बचने के लिए मैं तो किताब का नाम लिख कर दे रहा था कि मैडम नाम पढ़ कर किताब दे देंगी अथवा बता देंगी उसके विषय में । पर यहाँ तो लिख कर पूछना भी गुनाह हो गया ।

अब तक वह मैडम सच समझ चुकी थीं । पूछने लगी ,अच्छा राईटर कौन है । मैंने बताया 'अनुलता राज नायर । ओह ,वह किताब तो ऑनलाइन मिल रही है । अभी दुकानो पर बिक्री के लिए नहीं उपलब्ध है । आप ऑनलाइन मंगवा लें । पर आपने पढ़ा है क्या जो इतनी शिद्दत से खरीदना चाहते हैं इस किताब को , मैंने कहा अभी पढ़ा तो नहीं है ,पर जितना जानता हूँ लेखिका को उस हिसाब से निश्चित तौर पर यह बहुत ही उम्दा किताब होगी ।

अब ढूंढ ही लेता हूँ , इश्क ............ऑनलाइन ।

शनिवार, 2 अगस्त 2014

" मैं लालची हूँ ........"


इधर बहुत दिनों से फेसबुक से दूर था । कारण कोई ख़ास नहीं ,बस यूं ही दूर था । ३० जुलाई को अचानक ख्याल आया कि पहली अगस्त को तो मेरा जन्मदिन है और अगर फेसबुक एकाउंट ऐक्टिवेट नहीं किया तो लोग जन्मदिन पर विश कैसे करेंगे । बस शुभकामनाओं की लालच में पुनः एकाउंट ऐक्टिवेट कर दिया और मैंने वहां लिखा भी था "समेटने की चाहत में फिर आ गया हूँ " ,क्योंकि किसी ने सच ही कहा है " दुआओं का एहले करम न समझिए ,बहुत दे दिया जिसने दिल से दुआ दी " |


फेसबुक पर लगभग ८० प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनसे कभी नहीं मिला पर ऐसे लोगों से विचारों / टिप्पणियों के माध्यम से संवाद का एक सिलसिला सा बन गया है और ऐसे लोगों से बस दो लफ्ज़ "हैपी बर्थडे " सुनना अच्छा तो लगता है । इसके अलावा सिस्टम जनरेटेड ही सही पर गूगल जब आपको नाम के साथ अचानक से विश करे तो भी अच्छा लगता है ।


ऐसे अवसरों पर कुछ लोग ख़ास कर याद आते हैं जो फोन कर सीधे दिल में अपनी दुआएं उतार देते हैं । इन्ही सब बातों में उलझा था ,अचानक से मुझे महसूस हुआ कि मैं अब कुछ लालची होने लगा हूँ । लालच संबंधों का , सामीप्य का ,हंसी का , खिलखिलाहट का बढ़ता जा रहा है ।

जब किसी का संग अच्छा लगे तो चाय न ख़त्म होने का लालच , कोई मुस्कुरा दे तो उसे खिलखिलाहट में बदल पाने का लालच दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है । बेटे अपनी उपलब्धियां बताएं तो उनके चेहरे पर आई चमक के बरक़रार रहने का लालच ,निवेदिता आँखे मीच जब हंसे तो उनके गालों पे डिम्पल बने रहने का लालच ,दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है । 

बदल दूँ खिलखिलाहट में ,तबस्सुम लाएं तो लबों पे वो ,
और रोक सकूँ आंसू उन आँखों में ,भीगे पलकें जब कभी भी । 

इस लालच को बढ़ाने में ईश्वर का ही सारा दोष है क्योंकि प्रत्येक लालच को वह पूर्ण कर देते हैं और इसी क्रम में लालच और बढ़ जाती है । 

हाँ , मैं लालची हूँ । 

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

" ईद................"


चाँद देखा तुमने ,
तुम्हारी तो ईद हो गई ,
रोज़े हुए सब पूरे ,
खुशियां भी कैद हो गईं ।

कभी ख्याल ,
न आया उसका ,
ईद जिसकी होती ,
बस दीद से तुम्हारे ,

चाँद चाँद कहता वो ,
ढूंढता सबमें तुमको ,
छलकते आंसुओं से करता ,
वज़ू पाँचों वक्त वो सारे ,

दुआ में तुमको मांगे ,
तुम्हारी दुआ वो चाहे ,
मोहब्बत उसने की है ,
थोड़ा हक़ अता भी कर दो ,

थोड़ा तुम मुड़ के देखो ,
थोड़ा वो भी जी भर रो ले ,
यूं ही नज़रें मिला लो  ,
कभी उसकी भी ईद हो ले  ।  

बुधवार, 28 मई 2014

" हाँ , मैं रोमांटिक हूँ......"


'फेसबुक' पर यूँ ही मैंने एक 'चुनावी स्टेटस' पर एक हलकी फुलकी टिप्पणी वह भी 'स्माइली' के साथ कर दी थी ,जवाब मिला ,यहाँ गंभीर चिंतन होता है और 'romantic poems are not my cup of tea' . मैं सोचने को विवश हुआ कि कहाँ गलती हो गई मुझसे । मेरा कोई अभिप्राय तो वैसा था ही नहीं । पर 'ब्लॉग' और 'फेसबुक' पर की गई प्रस्तुति से लोग एक 'इमेज' बना लेते हैं उस व्यक्ति के बारे में और शायद मेरी कविताएं या स्टेटस और टिप्पणियों से लोगों को लगता होगा कि मैं रोमांटिक शब्द विन्यास और रोमांस में अधिक रूचि रखता हूँ ।

हाँ , यह सच है कि मैं रोमांटिक हूँ और रोमांस करना मेरी फितरत है । बचपन में मुझे पहला रोमांस अंको के संग हुआ । मैं लकड़ी के बने छोटे छोटे अंको के साथ घंटो खेल करता था । बाद में वही रोमांस गणित के प्रति रूचि में परिवर्तित हो गया । ' 8 ' अंक  के 'कर्व' पर तो मैं न जाने कितनी देर अपनी छोटी सी खिलौने वाली कार चलाया करता था । गणित से रोमांस इतना अधिक था कि अन्य कोई विषय पढता ही नहीं था । इस रोमांस की अधिकता के लिए डांट भी बहुत मिली । बाद में ऊंची कक्षा में आते आते यही रोमांस फिजिक्स से हो गया । रोमांस की पराकाष्ठा यह थी कि कभी स्वयं को 'गैलीलियो' समझता था तो कभी 'आइज़क न्यूटन' ।

पूरी तरह युवा होते होते बारिश अच्छी लगने लगी , फिर मिटटी की खुशबू से रोमांस हो गया । नया नया साइकिल चलाना सीखा तो साइकिल से रोमांस हो गया और सपने में भी पैर चलाता रहता था । साइकिल से रोमांस ने तो बहुत चोटें दी हाथ पैरों में पर रोमांस तनिक भी कम न हुआ । ( वैसे रोमांस कोई भी हो चोट अवश्य देता है ) 

इन्ही रोमांस और रोमांटिक मनोभावों के बीच जीवन आगे बढ़ता गया । नौकरी में आया तो यकीन मानिये कि मुझे अपने काम में इतनी रूचि हो गई कि उसके साथ मेरा रोमांस ही चलता आ रहा है आज तक ।

मैं जब कार चलाता हूँ न तब मैं अपनी कार से भी बात करता हूँ । जब पहिये के नीचे ख़राब सड़क आती है तब उसका दर्द मैं अपने सीने में बखूबी महसूस करता हूँ । अपनी कार का मूड मैं भली भांति जानता हूँ और वह भी मेरा खूब साथ देती है और अपनी कार से मेरा रोमांस आज भी जारी है ।

मोबाइल से रोमांस कौन नहीं करता आजकल । बगैर उसके जीना दुश्वार और भूले से कहीं छूट जाए तो कलेजा मुंह को आ जाता है । अंगुलियां तो उसके शरीर को गुदगुदाती ही रहती हैं ।

जहाँ तक बात रोमांटिक कविताओं और स्टेटस की है ,उसका सच तो यह है कि रोमांटिक भावनाओं को कलम में बांधना सरल नहीं होता । बगैर एहसास किये इन्हे जतलाना बहुत मुश्किल होता है । रोमांस का सीधा सा अर्थ है किसी को बहुत शिद्दत और लगन से चाहना और उसका ख्याल भी रखना ,मगर जतलाना हौले हौले ,बदले में वह चाहे न चाहे उसकी मर्जी । दिल में उमड़ते भावनाओ के ज्वार भाटा को शब्द देने में कभी कभी तकलीफ भी बहुत होती है और ऐसी रचनाएं प्रस्तुत करने के लिए साहस और बेबाकी की जरूरत भी होती है ।

जिन्होंने हमारे देश को स्वतंत्रता दिलाई उन वीर पुरुषों को देश से रोमांस था ,जो हँसते हँसते झूल गए फांसी के तख्ते पर । कुछ कुछ वैसा ही रोमांस शायद अब दिख जाए इस नई सरकार का अपने देश से ,बस इसी आशा के साथ .......... । 

शनिवार, 24 मई 2014

" कुछ ख्वाबों / ख्वाहिशों को नाम नहीं दिए जाते ......"


खुद का एहसास होने के लिए कुछ लिखना जरूरी है ,
पर उसके लिए खुद का आसपास होना भी तो जरूरी है ।

खुद को ढूँढा तो पाया आगोश में उनकी ख्वाहिश के ,
अब आगोश इस कदर हो तो तड़पना भी जरूरी है ।

ढुलक जाए लाख आँसू उनकी यादों में ,
पर नाम उनका लूँ तो मुस्कुराना भी जरूरी है ।

मोहब्बत मुझसे वो करें न करें मर्जी उनकी ,
पर मेरी हिचकियों का हिसाब लेना जरूरी है ।

ख़्वाब में है ख्वाहिश या ख्वाहिश उनके ख्वाब की ,
उनसे नज़र एक बार मिलाना भी तो जरूरी है ।

अकेले में वो तबस्सुम लिए फिरते तो हैं होंठों पे ,
इश्क हमी से है उनको तसदीक करना भी तो जरूरी है ।

रविवार, 18 मई 2014

"और गुनाह हो गया......"


एक नज़्म सी तुम ,
गुनगुना गया मैं ,
और गुनाह हो गया ,

गहरी नदी सी तुम ,
बह गया मैं ,
और गुनाह हो गया ,

ठंडी बयार सी तुम ,
मचल गया मैं ,
और गुनाह हो गया ,

सुहानी शाम सी तुम ,
ढल गया मैं ,
और गुनाह हो गया ,

पूरा चाँद सी तुम ,
बहक गया मैं ,
और गुनाह हो गया ,

मासूम तबस्सुम सी तुम ,
अश्क मैं पीता गया ,
और गुनाह हो गया ।

शुक्रवार, 2 मई 2014

" दिल , दिमाग और जिस्म "


'दिल' , 'दिमाग' और 'जिस्म' , इन्ही तीन हिस्सों में किसी व्यक्ति को विभक्त किया जा सकता है । यह तीन हिस्से अपने में परिपूर्ण होने के साथ साथ अपनी अपनी रूचि ,अपनी अपनी प्रवृत्ति और अपनी अपनी आवश्यकताएं लिए होते हैं ।

'दिल' सबसे घुलना मिलना चाहता है । स्नेह करना और पाना चाहता है । यह तर्क नहीं जानता , विमर्श नहीं मानता । 'दिमाग' तर्क करता है ,'क्यों' और 'क्यों नहीं' में उलझा रहता है और इसका समाधान मिलते ही अगली उलझन को निमंत्रण दे डालता है ,यही उसकी प्रवृत्ति है । 'जिस्म' ही चूंकि वह अवयव है व्यक्ति का ,जो दिखाई पड़ता है इसीलिए 'जिस्म' सदा खूबसूरत ,सुदृढ़ और सुन्दर दिखना और बना रहना चाहता है ।

जब व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से मिलता है ,संवाद करता है तब वास्तव में दोनों व्यक्तियों के यही तीनो अंग अलग अलग  आपस में संवाद करते हैं । 'दिल' से 'दिल' बात करता है और 'दिमाग' सामने वाले के 'दिमाग' को टटोल कर उससे बात करने की चेष्टा करता है और दोनों के 'जिस्म' अपनी अपनी जगह पर रहते हुए एक दूसरे की बाह्य ज्यामिति समझने का प्रयास करने में लग जाते हैं ।

कुदरत ने व्यक्ति की ऐसी रचना की है कि इन तीनो अंगों के परस्पर संवाद सामने वाले के साथ बहुत द्रुति गति से स्थापित होते हैं । इस संवाद के दौरान व्यक्ति के अपने तीनो अंगों के भीतर भी सामने वाले व्यक्ति को लेकर जद्दोजेहद चलती रहती है । अगर तीन में से दो अंग सामने वाले के उन दोनो अंगों से प्रभावित हो जाते हैं तब दोनों व्यक्ति आपस में मैत्री स्थापित कर सकते हैं , यह दो अंग कोई भी हो सकते हैं ।

यदि 'दिल' और 'दिमाग' सामने वाले के 'दिल' और 'दिमाग' से प्रभावित होते हैं तब वैचारिक मित्रता अथवा स्नेहपूर्ण मित्रता स्थापित होती है और अगर 'जिस्म' एवं 'दिल' का युग्म सामने वाले के 'जिस्म' एवं 'दिल' को पसंद कर लेता है तब उनमे प्यार और परस्पर शारीरिक मिलान की चाह पनप जाती है । अब यदि 'जिस्म' और 'दिमाग' का युग्म बनता है तब भी प्यार तो पनपता है और जिस्मानी मिलान की इच्छा भी होती है पर दोनों के 'दिमाग' की उपस्थिति से अंकुश लग सकता है ।  

वैवाहिक जीवन की सफलता ,असफलता भी पति और पत्नी के इन्ही तीन अवयवों के परस्पर संवाद की सफलता पर निर्भर करती है । विवाहेत्तर संबन्ध बनाने में भी इन्ही तीनो अंगों का असंतुलन काम करता है । समाज में जब भी कहीं कोई विकृति या विकार देखने को मिलता है ,वह बस इन्ही तीनो के परस्पर सामंजस्य के अभाव में ही होता है । अचम्भे की बात तो यह है कि उम्र की इसमें कोई भूमिका नहीं होती । 

व्यक्ति के इन्ही तीन (अंगों) टांगो पर समाज की मस्तिष्क प्रधान व्यवस्था टिकी हुई है और इन टांगो में से सबसे कमजोर टांग 'जिस्म' ही है और सबसे मजबूत 'दिमाग' । जिस समाज की यह कमजोर टांग टूटती है वह पुनः पाशविक समाज की और झुकने लगता है । इसीलिए समाज के अग्रणी लोगों को जिन्हे लोग रोल मॉडल की तरह देखते हैं उन्हें ऐसे विकारों से अवश्य बचना चाहिए और बचने का एकमात्र तरीका यही है कि जिस्मानी सन्तुलन न बिगड़ने दे ,भले ही 'दिल' और 'जिस्म' कितने प्रलोभन क्यों न देते नज़र आयें  


सोमवार, 14 अप्रैल 2014

" इंटरव्यू ...एक जेबकतरे का ...."


यह उन दिनों की बात है जब शाहजहाँपुर तैनाती के दौरान प्रायः ट्रेन से लखनऊ से आवाजाही लगी रहती थी । एक बार स्लीपर क्लास में दो सिपाही एक मरियल से लडके को लेकर चढ़े थे । उस लडके के हाथ में हथकड़ी पड़ी थी । बर्थ पर खिड़की की तरफ मैं था और मेरे बगल उस लडके को बिठा कर उसकी बगल में वह दोनों सिपाही बैठते ही अपनी रायफल के सहारे ऊँघने लगे थे । पहले तो मैं बड़ी हिकारत से उस लडके को देख रहा था और उन सिपाहियों को गुस्से से बोलने वाला था कि ऐसे कैसे स्लीपर में अपराधी को लेकर चढ़ गए । फिर मैंने सोचा क्या फ़ायदा ,यह तो इनका रोज़ का पेशी के लिए आना जाना है ,बेकार में पंगा क्या लेना । इससे बेहतर है इस लडके से बात चीत कर कुछ समय गुजारा जाय ।

मैंने उस लड़के से पूछा ,क्या गुनाह कर डाला जो यह हथकड़ी लगी है । खिसियाते हुए वह बोला पॉकेटमारी की है मैंने । अरे तो पाकेटमार तो बहुत होशियार होते हैं कैसे पकड़ गए तुम । इस पर वह बहुत दार्शनिक अंदाज़ में बोला , बस टाइम ख़राब था ,साहब । मैंने कहा चलो कोई नहीं ,अगली बार सावधानी बरतना और हाँ ,मुझे इतना जरूर बता दो कि पॉकेटमारी से बचने के लिए मुझ जैसों को क्या करना चाहिए ।

इस पर उसने बताया कि पहचानने के लिए जान लीजिये कि जेबकतरा हमेशा मरियल सा और कमजोर सा दिखने वाला लड़का ही होता है । उसको सपोर्ट करने के लिए उसके पीछे मजबूत लडके होते हैं । कई बार पकड़े जाने पर कमजोर से लडके को बिना मारे पीटे लोग छोड़ देते हैं । आगे उसने बताया कि  पॉकेटमारी से बचने के लिए सबसे सुरक्षित जेब कमीज़ या कोट की ऊपर की होती है और अगर उसी जेब में कुछ सिक्के भी पड़े हों तो और भी बेहतर क्योंकि सिक्के अलार्म का काम करते हैं । किसी ने हाथ लगाया नहीं कि खनखना उठती है जेब । सबसे असुरक्षित जेब पीछे वाली होती है । कई बार तो लोग दोनों हाथ से बस अथवा ट्रेन का डंडा पकड़ कर उतरते रहते हैं और उनकी आँखों के सामने उनकी पीछे की जेब से बटुआ मार देते हैं ,अब अगर हाथ छोड़ेंगे तो जान से ही जाएंगे । वैसे जींस में सामने की जेब भी काफी सुरक्षित होती है ।

उस जेबकतरे ने आगे बताया कि अक्सर हम लोग यह जानने के लिए कि लोगों ने पैसा अथवा बटुआ कहाँ रखा है ,अचानक से कहते हैं कि अरे किसी का बटुआ तो नहीं गिरा है । यह सुनते ही स्वाभाविक रूप से हर व्यक्ति अपना हाथ वहीँ ले जाता है जहाँ उसने रूपया रखा हुआ है । हमारे दूसरे आदमी बस इसी को देखते रहते हैं और जानकारी हो जाती हैं कि माल कहाँ है ।

जेब हमेशा शिकार की गतिशील अवस्था में काटी जाती है । चलती ट्रेन अथवा बस में जेब कभी नहीं कटेगी । जैसे ही ट्रेन / बस रुकती है और मुसाफिर गतिशील होते हैं या जब सिनेमा का शो छूटता है ,बस उसी समय जेब काटने का सबसे मुफीद समय होता है । सारे रास्ते लोग बहुत होशियार रहते हैं पर घर के निकट पहुंचते ही असावधानी कर बैठते हैं ।जब किसी के दोनों हाथ व्यस्त होते हैं ,जैसे मंदिर में प्रसाद लिए हुए अथवा हाथों में बच्चे को लिए हुए या एक हाथ में मोबाईल लिए और दूसरे में कोई भारी सामान वगैरह लिए हुए व्यक्ति भी जेबकतरे का आसान टारगेट होता है ।

पॉकेटमारी से  बचने का सबसे आसान उपाय बटुआ ऊपर की जेब में रखे । रूपया दो तीन जगह रखें । अधिक धन लेकर न चलें । प्लास्टिक मनी का उपयोग सर्वाधिक करें । यह कभी न सोचें कि आपके साथ ऐसा नहीं हो सकता ।

मैंने सोचा ,यह ऐसे ही सबको बताता फिरेगा तो इसका तो धंधा चौपट हो जाएगा । मेरी बात चीत सुनकर दोनों सिपाहियों में से एक आँखों आँखों में ही मुझे टटोल कर बोला ,क्या बात है ,बहुत इंट्रेस्ट ले रहे हो । बड़ी बारीकी समझ रहे हो इस धंधे की ।

मैंने मन ही मन कहा तुम नहीं समझोगे । मैं भी ठहरा पाकेटमार ,देखो उस जेबकतरे की जेब से कुछ तो माल निकाल लाया और अब उड़ेल भी दिया सब के सामने ।  

गुरुवार, 27 मार्च 2014

"बेखयाल लम्हा एक ..........."


ख़यालों में तुम्हारे ,
कुछ बेखयाल यूँ थे ,
कि सुर्ख़ियाँ तुम्हारी ,
हम संजोया किए थे ,

वो अक्स था तुम्हारा ,
कि था वह तसव्वुर ,
पलकों को पलकों से ,
यूँ मूंदा किये थे ,

आहट जब हुई ,
ख़ामोशी की तुम्हारी ,
सिहर से गए हम ,
चढ गई थी खुमारी ,

और झांका तुमने जब ,
अंधेरों को रोशनी मिल गई ,
गुमशुदा बैठे थे तन्हा,
लम्हों को ताज़गी मिल गई | 

शनिवार, 22 मार्च 2014

" बिजली और मानवीय संबंधो की 'फाल्ट एनालिसिस' ......."


एक लम्बे अरसे से लोगों को बिजली देने के काम के सरकारी तंत्र में अटका सा हुआ हूँ । फिर भी 'जहाँ हूँ जैसे हूँ' के आधार पर मुस्तैद रहते हुए भरसक कोशिश रहती है कि लोगों के काम आ सकूँ । इस दौरान बिजली आपूर्ति में होने वाले बहुत से 'फाल्ट' देखे ,सैकड़ों तरह के 'फाल्ट' और उनसे उपजी सैकड़ों तरह की 'परिस्थितियां' ।  उन सभी 'फाल्ट' को दूर कर प्रायः विद्युत् कर्मी तत्काल बिजली चालू करने का प्रयास करते हैं ।  परन्तु मेरा ध्यान हमेशा उन फाल्ट के उत्पन्न होने के कारणों पर ही केंद्रित रहा । मैंने लगभग सभी तरह के फाल्ट के कारणों का पता लगाने का प्रयास किया जिससे तंत्र में ऐसे सुधार कर लिए जाएँ कि उन फाल्ट्स की पुनरावृत्ति न होने पाये ।

फाल्ट्स जो प्रायः देखने को मिलते हैं जैसे  तार का टूटना , जम्पर का जलना , फ्यूज़ उड़ना , ट्रांसफार्मर का क्षति ग्रस्त होना , खम्भे से केबिल का सिरा जल जाना , मुख्य केबल का जल जाना , उपकेंद्रों पर ब्रेकर का क्षतिग्रस्त होना ,इत्यादि । इन सभी प्रकार के फाल्ट्स में मुख्य भूमिका 'करेंट' की रहती है ।

'करेंट' की विशेषता यह है कि जैसे भगवान् अपने भक्तों से प्रसन्न हो कर उनके बुलावे पर नंगे पाँव दौड़े चले आते हैं बस उसी तरह 'करेंट' से भी जो कोई जुड़ जाता  है और जितना भी चाहता है , 'करेंट' दौड़ कर उसकी इच्छा पूरी करता है और इच्छा पूरी की इसी भागा दौड़ी में 'करेंट' को दौड़ने के लिए अगर उचित पथ नहीं उपलब्ध रहता है तो वह अपना रास्ता ही तोड़ देता  है ,जिसे 'ओवरलोडिंग' कहते हैं और अगर रास्ता तो है परन्तु रास्ता सुगम नहीं है और 'करेंट' को इस रास्ते से कूद फांद कर चलना पड़ रहा है तब 'करेंट' उस कूद फांद वाले मोड़ को लांघने के प्रयास में फिर अपना रास्ता ही जला डालता है जिसे 'लूज़ कनेक्शन' कहते हैं ।   

जितने तरह के भी फॉल्ट होते हैं  वह सभी इन्ही दो फाल्ट्स की उत्पत्ति से ही उत्पन्न होते हैं । इन दो फाल्ट्स के अतिरिक्त बिजली के तंत्र में कोई अन्य फाल्ट नहीं होता । तकनीकी रूप से अगर  कहें तो यदि सभी उपकरण उचित क्षमता के हों और अपनी निर्धारित सीमा से अधिक अधिभारित न हों तो बिजली के बाधित होने का कोई कारण ही नहीं उत्पन्न हो सकता परन्तु कुछ संसाधनों का अभाव और बहुत कुछ समग्रता में योजनाओं का अभाव इन 'ओवरलोडिंग' और 'लूज़ कनेक्शन' का कारण बनते हैं ।

समाज में , परिवार में , दो व्यक्तियों के बीच , पति पत्नी के बीच अथवा  प्रेमी प्रेमिका के बीच के संबंधों में प्रायः उत्पन्न होने वाले दोष के कारणों का अगर परिक्षण किया जाए तो इसके परिणाम भी बिजली व्यवस्था में पाये जाने वाले दोष के कारणो जैसे ही प्राप्त होते हैं ,वही दो कारण 'ओवरलोडिंग' और 'लूज़ कनेक्शन' । 

'लूज़ कनेक्शन'----संवाद की स्थिति में अगर दोनों एक दूसरे को ध्यानपूर्वक नहीं सुन रहे हों अथवा बौद्धिक स्तर में अंतर होने के कारण संवाद सुगम न हो पा रहा हो तो बिजली के तंत्र में होने वाले 'लूज़ कनेक्शन' की सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है । जैसे 'फैक्स' भेजने से पहले 'फैक्स टोन' का मिलना आवशयक है उसी तरह संवाद के सफल होने के लिए दो व्यक्तियों का आपस में उचित बौद्धिक जोड़ होना नितांत आवश्यक है । इसके न होने पर भावनाओं का उचित सम्प्रेषण नहीं हो पाता और नाहक ही विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है ।ऐसी स्थिति में संवाद तो होता है परन्तु 'कनेशन लूज़' होने के कारण तापक्रम इतना बढ़ जाता है कि सम्बन्ध ,संवाद समाप्त होते होते स्वयं ही समाप्तप्राय होने लगते हैं ।  

'ओवरलोडिंग'-------व्यक्ति के मस्तिष्क में सदैव एक से विचार अथवा भाव नहीं होते । कभी उसके मन मस्तिष्क में अनेक कल्पनाएं , योजनाएं , चिंताएं अथवा भय व्याप्त रहता है और कभी उसका मस्तिष्क विचार शून्य भी हो जाता है । मस्तिष्क की अधिभारिता की स्थिति में उस पर जरा सा भी दबाव और पड़ने पर मस्तिष्क अपनी कार्यशीलता खोने लगता है और अनाप शनाप तरीके से व्यवहार करने लगता है । संवाद करने से पहले एक दूसरे के मन / मस्तिष्क की स्थिति को समझने की बहुत आवश्यकता होती है । इसी के अभाव में संवाद विफल तो होता ही है ,व्यक्ति अधिभारिता के कारण असामान्य प्रकृति का होने लगता है और असमय मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है । इसी को ही 'ओवरलोडिंग' कहा जा सकता है ।

आपसी सम्बन्धों को मधुर और सफल रखने के लिए नितांत आवश्यक है कि एक दूसरे के मस्तिष्क को अधिभारित नहीं होने देना चाहिए और यदि किसी कारणवश मस्तिष्क अधिभारित है तब पहले उस अधिभारिता को स्नेह पूर्वक समझ कर दूर करना चाहिए और तभी संवाद स्थापित करना चाहिए । इसके अतिरिक्त संवाद के दौरान 'कनेक्शन' कदापि 'लूज़' नहीं होने देना चाहिए । 

मंगलवार, 18 मार्च 2014

" खोखली गुझिया............"


गुझिया की प्लेट बढ़ाई जा रही थी । सभी लोग क्रम से एक एक कर के ले रहे थे । मौका था एक दोस्त के यहाँ होली मिलन के कार्यक्रम का । मेरे पास आते आते प्लेट में एक अंतिम गुझिया बची थी ( अन्य कोई विकल्प नहीं था ,नोटा की भांति ) , मैंने उठाया तो ,आकार के अनुपात में वह अंतिम गुझिया बहुत हलकी लगी मुझे । मैंने तारीफ़ करी कि अरे यह गुझिया तो बहुत हल्की है और खाने के लिए मुँह में डाला ही था कि वह गुझिया तो दांत के हलके स्पर्श मात्र से ही पिचक कर फूट गई । पुनः हाथों में बटोर कर उसका निरीक्षण किया तो पाया कि वह गुझिया भीतर से खोखली थी । मन ही मन अपनी किस्मत को कोसते हुए मैं उस गुझिया को हाथ में लिए ताकने लगा ।

मुझे वह खोखली गुझिया अचानक से कभी अपना खाली बटुआ तो कभी नेताओं के खोखले वादे तो कभी युवाओं के खोखले इरादे सदृश लगने लगी । गुझिया बाहर से किसी से कम न थी , एकदम सुडौल और आकर्षक ,पर भीतर से एकदम खोखली । सहसा मुझे लगा यह गुझिया ही क्यों ,यहाँ तो सब कुछ इसी की तरह खोखला है । जो लोग सामने बैठे हँस रहे हैं ,उनकी हँसी खोखली है । जिस विषय पर जो चर्चा हो रही है ,वह चर्चा क्या वह विषय ही खोखला है । बार बार जम्हाई लेता मित्र ,जिसके यहाँ सब एकत्र हैं , जब दुबारा चाय को पूछ रहा है तब उसका निमंत्रण ही खोखला है ।

अच्छे खासे सफ़ेद मोटे मोटे मोती जैसे दांत में जब दर्द प्रारम्भ हुआ ,तब डाक्टर को दिखाया तो डॉक्टर बोला ,आपका दांत ही खोखला है । जिसकी जीवन भर सेवा की  ,देखभाल की ,वह दांत ही भीतर भीतर बैर रखता रहा मुझसे और खोखला हो गया । माँ-बाप बचपन से लेकर आत्म निर्भर बनाने तक जिन बच्चों को लाड प्यार करते रहते हैं  ,बाद में पता चलता है , बच्चों के भीतर उन माँ-बाप के प्रति सम्मान / प्यार खोखला है ।

एक लम्बी घनिष्ठ मित्रता के बाद कभी सहायता की आवश्यकता पड़ने पर ज्ञात होता है कि वह मित्रता ही खोखली थी । अच्छी अच्छी और ईमानदारी की बाते करने वाले लोग हर सरकारी विभाग में खूब मिलते हैं फिर भी उन विभागों की छवि / कार्यप्रणाली क्यों इतनी ख़राब होती है ,एक ही उत्तर ,सब भीतर से खोखले हैं ।

'आवरण संस्कृति ' का जमाना है । जो जितना बाहर से आकर्षक वह भीतर से उतना ही खोखला निकलता है । महिलाओं के सशक्तिकरण की बात करने वाले लोग ही बड़े बड़े 'एन जी ओ' में ,अनेक नारीवादी संस्थाओं में लम्बे लम्बे भाषण देते हैं और अधिक से अधिक यही लोग महिलाओं के शोषण में लिप्त पाये जाते हैं । खोखला चरित्र आज कल चरम पर है और बाज़ार में इसी की धूम है । जो जितना संस्कारी वही अत्यधिक व्यभिचारी कैसे पाया जाता है । ऐसे खोखले संस्कारों की तिलांजलि देनी होगी ।

समाचार पत्रों में , मीडिया में दिखाए जाने वाले सारे के सारे विज्ञापन भीतर से खोखले होते हैं , सरासर झूठ को रंगीनियों में लपेट कर परोसते रहते हैं बस । गली गली खुलने वाले इंजीनियरिंग और एमबीए के स्कूल / कालेज खोखली डिग्री और डिप्लोमा बाँट रहे हैं और बच्चों के भविष्य को साथ ही साथ उनके माँ-बाप के बटुओं को भी खोखला कर रहे हैं ।

आज युवाओं के सपने खोखले हैं ,बिलकुल वैसे ही जैसे उनके वालेट में रखे ढेरों क्रेडिट कार्ड भीतर से खोखले होते हैं । फेसबुक पर स्टेटस की पड़ताल करो तो स्टेटस खोखले निकलते हैं ।

चुनावों का मौसम है ,हर नेता चाशनी लगा कर आश्वासनों और विकास के वायदों की मोटी मोटी गुझिया परोस रहा है और यकीन जानिये ,यह सारी की सारी गुझिया खोखली ही निकलने वाली हैं ।

                  फिर भी होली के शुभ अवसर पर शुभकामनाएं तो बनती हैं । ( भले ही भीतर से खोखली हों ) 

मंगलवार, 11 मार्च 2014

" मर्जी से ........mercy तक "


घर,परिवार,समाज,संस्थाओं, विद्यालयों अथवा राजनैतिक दलों तक में यही संस्कार स्थापित किये जाने पर बल दिया जाता है कि सभी स्थानों पर छोटे लोग,आयु अथवा पद में,अपने से बड़ों का सम्मान करें एवं यथासम्भव बड़ों से सलाह , मशवरा करने के उपरान्त ही कोई कार्य करें । एक सीमा से अधिक सम्मान करने से और सदैव सलाह मांगने से धीरे धीरे वह "सलाह" कब उन बड़ों की 'मर्जी' में परिवर्तित हो जाती है ,पता ही नहीं चलता ।

'सलाह' और 'मर्जी' में बहुत अंतर है ,परन्तु 'सलाह' देने वाला व्यक्ति अपने पद ,आयु और सम्बन्ध का दुरूपयोग कर 'सलाह' के स्थान पर धीरे धीरे अपनी 'मर्जी' व्यक्त करना कब प्रारम्भ कर देता है , ज्ञात ही नहीं रहता ।

दूसरे की 'मर्जी' के अनुसार कार्य करने वाला व्यक्ति कभी भी अपने कार्य को आत्मविश्वास और निर्भीकता से नहीं कर पाता । बच्चों में तो ख़ास कर निर्भरता इतनी अधिक बढ़ जाती है कि उपयुक्त 'सलाह' अथवा मशवरा के आभाव में वह लाचार से हो जाते हैं , जो उनके स्वतन्त्र रूप से विकसित होने में बाधा बनता है । बात बात में अपनी 'मर्जी' व्यक्त करने वाला व्यक्ति परोक्ष रूप से स्वयं को स्वयं-भू समझने लगता है ।

यही 'मर्जी' जब परम और चरम स्थिति को प्राप्त करती है तब 'mercy' में परिवर्तित हो जाती है । जब कोई किसी को हानि पहुचा पाने की स्थिति से उबारने की क्षमता रखता हो तब वह व्यक्ति 'mercy' की शक्ति रखने वाला माना जाता है । 'mercy' की पराकाष्ठा के तौर पर राष्ट्रपति महोदय को मृत्यु दंड पाये व्यक्ति को 'mercy' दे कर उक्त दंड से माफ़ करने का अधिकार है ।

शादी ,ब्याह में भी पहले लड़के वालों की 'मर्जी' चलती थी ,जो अभी भी कायम है और गरीब परिवारों की लड़कियों की शादियां तो सदा से लड़के वालों की 'मर्सी' पर ही टिकी रही हैं । प्रेम करने वाले भी पहले एक दूसरे की 'मर्जी' का ख्याल रखते हैं । धीरे धीरे जब प्रेम कमतर होने लगता है तब बस जितनी जिसकी 'मर्सी' बस उतना ही प्रेम बिखर पाता है ।

अब जब लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं , तब सबसे अधिक राय ,मशवरा सभी सीटों पर प्रत्याशियों को टिकट दिये जाने को ले कर हो रहा है । अभी तक टिकट आला कमान की 'मर्जी' से मिलता था ,अबकी लग रहा है ,इस 'मर्जी' ने 'mercy' का स्थान ले लिया है । लाल जी टंडन , मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह के हाव भाव देख कर तो यही लगता है । अब 'mercy' पता नहीं किसकी , कहीं मोदी की तो नहीं । कमोबेश यही हाल सभी पार्टियों का है , कहीं लालू की 'मर्सी' है तो कहीं केजरी की ,तो कहीं सोनिया की । सलाह उस व्यक्ति से ही ली जानी चाहिए जिसे सलाह, मर्जी और मर्सी में स्पष्ट रूप से अंतर ज्ञात हो ।

अब शायद मैंने  'सलाह' , 'मर्जी' और 'मर्सी' में अंतर स्पष्ट कर दिया है । 'आत्मविश्वास' आखिर इतना अधिक क्यों न हो जैसा कि अत्यंत मशहूर निम्न पंक्तियों में उल्ल्लखित है :

                                                   "खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले ,
                                                     खुदा बन्दे से खुद पूछे कि बता तेरी रज़ा क्या है "।


(यह पोस्ट मैंने अपने एक मित्र के आग्रह पर लिखी है )

गुरुवार, 6 मार्च 2014

" कुछ तो है ........."


कुछ तो है.........

नैना खिलखिलाते हैं ,

अधर मिचमिचाते हैं ,

कपोल भिंचे जाते हैं ,

स्याह लटें डोलती हैं ,

कुछ तो है.........

बालियां बोलती हैं ,

बिंदिया बहकती है ,

आवाज़ महकती है ,

कनखियाँ घूरती हैं ,

कुछ तो है........

मन कुरेदता है ,

तन सिमेटता है ,

राहें डोलती हैं ,

बाहें खोलती हैं ,

कुछ तो है.........

रोते रोते हंसती हैं ,

हँसते हँसते रोती हैं ,

कसमें कसमसाती हैं ,

स्मृतियाँ उभर आती हैं ।

कुछ तो है..........

बुधवार, 5 मार्च 2014

" डॉक्टर्स ........प्लीज़ "


कानपुर मेडिकल कालेज के जूनियर डॉक्टर्स के साथ हुई घटना से जूनियर डॉक्टर्स के साथ साथ सभी डॉक्टर्स में भारी रोष व्याप्त हुआ | परिणाम स्वरूप देश भर की चिकित्सीय व्यवस्था प्रभावित हुई और दर्जनों मरीजों की चिकित्सा के अभाव में जान चली गई | एक छोटे से विवाद ने यह रूप ले लिया | इसके लिये जूनियर डॉक्टर्स के साथ साथ विधायक , पुलिस ,प्रशासन सभी जिम्मेदार हैं | यह घटना अवॉइड की जा सकती थी | 

मेडिकल छात्र प्रथम वर्ष से ही सफेद कोट पहन कर जूनियर डॉक्टर कहलाये जाने लगते हैं और इसमें उन्हे फख्र होता है और होना भी चाहिये | अस्पतालों में सफेद कोट पहने डॉक्टर को देखते ही पीड़ित व्यक्ति उससे एक आस , एक भरोसा , एक विश्वास की उम्मीद करने लगता है | डॉक्टर को लोग ईश्वर का दर्जा देते हैं ,यह अतिश्योक्ति नहीं है | इस भरोसे को कायम रखने के लिये डॉक्टर्स को बहुत श्रम और त्याग करना पड़ता है | डॉक्टर बनने की प्रक्रिया में लगे जूनियर डॉक्टर अपने छात्र जीवन के दौरान एक आम छात्र की तरह किसी से विवादित व्यवहार जब भी करते हैं तभी समस्या उत्पन्न होती है | समस्या बढ़ने पर / कोपभाजन का शिकार होने पर अथवा उपहास का पात्र बनने पर उस घटना को सम्पूर्ण डॉक्टर्स समुदाय से जोड़कर अनुचित लाभ लेने का प्रयत्न करते हैं | 

मेडिकल कालेजों में जब भी छात्रों का उपद्रव हुआ है ,अंत में उन्हे सभी वरिष्ठ डॉक्टर्स का समर्थन मिल जाता है | यह नहीं होना चाहिये | गुण दोष के आधार पर ही मेडिकल कालेज के प्रबंधन को निर्णय लेना चाहिये | दरअसल  सभी मेडिकल कालेजों में चिकित्सा व्यवस्था अधिकतर इन्ही जूनियर डॉक्टर्स के सहारे चलती है ,बस इसी बात का फ़ायदा उठा कर यह जूनियर डॉक्टर्स पूरे प्रबंधन को अपने इशारों पर नचाते हैं |  

जब भी इन जूनियर डॉक्टर्स का संघर्ष कालेज के आसपास , शहर में कहीं अथवा मरीजों के तीमारदारों के साथ होता है ,इनके हॉस्टल से पत्थर बाजी / बम और कट्टे चलते हैं | यह कौन से लोग हैं और यह कौन सी पढ़ाई , बिल्कुल ही समझ से परे | अगर यह छात्र पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ अपनी पढ़ाई और मरीज-सेवा में लगे होते तो कानपुर में हुई घटना में उस कालेज के आसपास के निवासी / दुकानदार तत्काल उनके समर्थन में उतर आये होते | उन लोगों से अगर इन जूनियर डॉक्टर्स के बारे में राय लीजिये तो सुनने को मिलेगा कि कोई ऐसा गलत आचरण नहीं है जो यह जूनियर डॉक्टर्स न करते हों | जब पब्लिक में इमेज खराब रहती है तब कोई आंदोलन सफल नहीं होता | कानपुर जैसी घटनायें होने के बाद जब भी विश्लेषन किया जायेगा ,गलती प्रशासन की ही नज़र आयेगी और इस मामले में पुलिस और प्रशासन से तो भयंकर चूक बरती गई है | परंतु क्या यह घटना होने से पहले ही रोका नहीं जा सकता था | 

हमारे समाज में डॉक्टर्स के प्रति धीरे धीरे सम्मान कम होता जा रहा है , यह भी डॉक्टर्स को मनन करना चाहिये कि ऐसा क्यों हो रहा है | आज लगभग प्रत्येक डॉक्टर पूरी तरह से व्यवसायिक हो चुका है | उसे मरीजों की शक्ल में अपने लोन की  'इ एम आई' दिखाई पड़ती है | दवाओं की लम्बी फेहरिस्त में सिरप / टोनिक / ताकत की दवायें महज डॉक्टर का कमीशन ही बढाती हैं ,मरीज के किसी काम की नहीं होती | यही बात पैथालोजिकल टेस्ट के बारे में भी सच है कि डॉक्टर्स अनावश्यक रूप से मरीजों के भिन्न भिन्न टेस्ट कराते हैं ,बस अपने स्वार्थ सिद्धी के लिये | पैथालोजिकल सेंटर से खुले आम रेफर करने वाले डॉक्टर को कमीशन मिलता है | अब इसके समर्थन में डॉक्टर्स कहते हैं कि सारी दुनिया पैसा कमाती है तो हम क्यों न कमायें | सही बात ,आप भी सारे सही गलत रास्ते अख्तियार कर खूब पैसे बनाओ पर फिर कभी भगवान का दर्जा पाने की बात न करें ,डॉक्टर साहब | अब जब पुलिस आपको आम आदमी की तरह पीटे तब डॉक्टर होने का विशेष दर्जा न क्लेम करें | 

महंगी महंगी एंटीबायोटिक / लाइफ सेविंग दवाओं को लिख कर भर्ती मरीज के लिये मंगवा लेना और उनका प्रयोग भी न किया जाना बहुत आम बात है | पहले बरसों लगते थे तब किसी नामी गिरामी डॉक्टर का एक बड़ा दवाखाना बनता था अब तो कालेज से निकलते ही लोन ले कर बड़ा नरसिंग होम बनाना आम बात है ,उसके बाद 'इएमआई' देने के लिये मरीज चलते फिरते 'एटीम' है ही | 

एक समय था जब शहर के सिविल सर्जन को जिले का कलेक्टर रिसीव करने अपने कक्ष से निकलता था | अब ऐसा क्या हो गया कि आम जनता का डॉक्टर्स को भगवान मान कर सम्मान करना लगभग समाप्त प्राय हो गया है | इसका केवल एक और एक ही कारण है ,डॉक्टर्स का पूरी तरह से अपने मरीजों के प्रति संवेदंशील न होना और पूर्णतया व्यवसायिक हो जाना |

इन सबसे अलग जो डॉक्टर्स अपने कार्य / मरीजों के प्रति संजीदा हैं और व्यवहार में अत्यंत मानवीय हैं ,उन्हे आज भी ईश्वर का दर्जा और अतुलनीय सम्मान प्राप्त है | 

डॉक्टर साहब ,नाम के आगे यह दो अक्षर (Dr) आपको इंसान से देवता बना देते हैं ,इसका मान और सम्मान रखें , डॉक्टर......... प्लीज़ | 

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

" रिटायरमेंट पार्टी ..............."


आज माह का अंतिम दिन है और फिर एक सहकर्मी को सेवा निवृत होना है | हर विभाग की  समय के साथ अपनी भी आयु बढ़ती जाती है | जब विभाग पुराना हो चलता है तब लगभग प्रत्येक माह के अंतिम दिन कोई न कोई रिटायर होता रहता है | रिटायर होने वाले कर्मी के साथी विदाई पार्टी के अयोजन में लगे हैं | गिफ्ट वगैरह का भी इंतज़ाम हो रहा है | रिटायर होने वाले कर्मी के धरम के आधार पर गीता / कुरान की भेंट की भी व्यवस्था की जाती है | खैर यह तो चलन / प्रचलन की बात है ,थोडा भाषण बाजी होगी ,तारीफ में कसीदे पढे जायेंगे ,कर्मी के रिटायर होने से होने वाली रिक्तता का दुख व्यक्त किया जाएगा | मुझे तो यह सब बहुत अव्यवहारिक और मेकेनिकल सा लगता है |

इतनी लम्बी सेवा व्यतीत करने के बाद व्यक्ति को अपार अनुभव हो जाता है | उसने अपने सेवाकाल में अनेक प्रकार की परिस्थितियों का सामना किया होता है | इस अनुभव को अगर कोई संस्था / विभाग बाज़ार से खरीदना चाहे तो उसे कन्सल्टेंट की एक बड़ी कीमत दे कर खरीदना पड़ता है |  जबकि यही अपार अनुभव रिटायर होने वाले व्यक्ति से विभाग को मुफ्त में मिल सकता है | ऐसे अवसर पर रिटायर होने वाले व्यक्ति से उसके जीवन की उपलब्धिया ,जिसे वह समझता हो , दस बारह ऐसी विषम परिस्थितिया जिनसे होकर वह गुजरा हो और कैसे उसने उनसे सामना किया ,इस सब के सम्बन्ध में विस्तार से सुनना चाहिये | अगर हो सके तो उसके अनुभवों का एक 'राइट अप' भी बना कर सभी में बांटना चाहिये | 

'हाइवे' पर सामने से आती कार पर अगर धूल पडी हो तो आगे के रास्ते के धूल भरे होने का अनुमान लग जाता है और अगर कार भीगी हो तो अनुमान हो जाता है कि आगे कहीं बारिश मिलने वाली है | इसी प्रकार लम्बी सेवा पूरी करने वाले व्यक्ति से जब संवाद होता है तब सेवाकाल के दौरान आगे आने वाली परिस्थितियों का स्पष्ट भान हो सकता है |

रिटायर होने वाला व्यक्ति अगर स्वस्थ है तब तो सारी बातें छोड़कर उससे बस स्वस्थ रहने के गुर ही सीखने चाहिये | कोई भी व्यक्ति किसी भी श्रेणी का कार्मिक क्यों न हो ,सभी में कुछ न कुछ गुण अवश्य होते हैं और कितना भी खराब कर्मचारी क्यों न हो ,कभी न कभी उसने विभाग हित में कार्य अवश्य किया होता है | रिटायरमेंट के अवसरों पर पर बस इन्ही गुणो और कार्यों को याद कर रिटायर होने वाले व्यक्ति से कोई न कोई सीख अवश्य प्राप्त करने का प्रयास किया जाना चाहिये |

रिटायर होने वाले व्यक्ति को ईश्वर का आभार व्यक्त करना चाहिये कि उसने अपनी सेवा अवधि भली भांति पूरी की | रिटायर होने के बाद भी वह अपनी और अपने परिवार की जरूरतों के अनुसार अनेक अन्य कार्य भी कर सकता है | रिटायरमेंट तो बस यह जताता है कि उस व्यक्ति के 'लिमिटेड ओवर मैच' के ओवर खत्म हो गए ,यह बिल्कुल भी नहीं जताता कि उस व्यक्ति की क्षमता का ह्रास हो गया |  

आज सेवा निवृत होने वाले श्री पी एन मिश्रा जी मेरे पास ही मेरे बड़े बाबू थे | उनकी मूँछे बहुत शानदार हैं | ईश्वर उन्हे स्वस्थ और दीर्घायु रखें |
 

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

" किसी 'कबूतर' का फोन है ........"


आफिस में आये एक आगंतुक के मोबाइल की घंटी बजी तो सहसा मेज पर मेरे सामने ही रखे उनके मोबाइल के स्क्रीन पर मेरी नज़र पड़ी तो देखा उस पर लिख कर आ रहा था ,'कबूतर कालिंग' | उनकी बात खत्म होने के बाद मैने कौतूहलवश पूछा ,यह कबूतर नाम क्या हुआ | उसने बताया ,अरे कुछ नहीं ,बस वह बातें ज्यादा करता रहता है ,गुटुर गूँ ,गुटुर गूँ की तरह ,बस उसका नाम कबूतर फीड कर लिया | कबूतर लिखा देख कर तुरंत ध्यान आ जाता है कि उससे बात जल्दी खत्म करनी है नहीं तो बहुत समय खराब हो जायेगा | 

यह बिल्कुल सच बात है कि अब लोग अपने मोबाइल की 'कॉन्टैक्ट लिस्ट' में लोगों के नंबर उनके नाम से कम उनके आचरण / व्यवहार के आधार पर अधिक रखते हैं | अगर आपको अपने विषय में जानकारी लेना हो कि आपके विषय में लोग क्या और कैसा सोचते हैं तो फौरन मौका पाते ही दूसरों के मोबाइल में आपका नाम किस तरह से संजोया गया है ,यह जानने की आवश्यकता है | मौका पाते ही उसके मोबाइल को अपने हाथ में लेकर अपने मोबाइल से रिंग करें और देखें कहीं आपका नाम 'खडूस' / 'बोर' / 'चालू' / 'कंजूस' इत्यादि तो नहीं लिखा आ रहा है |  

सबसे सीधा तरीका तो यही है कि जिसका नंबर फीड करना हो उसका ईमानदारी से पूरा नाम लिखा जाना चाहिये परंतु अधिकतर लोग यही चाहते हैं कि मोबाइल पर काल आने के साथ ही काल करने वाले व्यक्ति की सही मनोदशा भी तुरंत सामने आ जाये जिससे उसी के अनुसार उससे बात की जाये | बस इसी के चक्कर में लोग व्यक्ति के आचरण / व्यवहार के अनुसार नाम बदल कर फीड कर लेते हैं | कुछ लोग परिचय छिपाने के उद्देश्य से भी नाम बदल कर फीड करते हैं जिससे कि मोबाइल किसी और के हाथ लगने पर किसी के विषय में अनावश्यक जानकारी न हो जाये | एक साहब ने अपने किसी 'खास मित्र' के नाम के स्थान पर 'मिस्ड' लिखा हुआ था ,काल आने पर 'मिस्ड कालिंग' लिख कर आता था ,अटेंड कर लिया तो ठीक अन्यथा 'मिस्ड काल' स्क्रीन पर दिखता रहता था ,किसी के समझ से भी बाहर होगी यह बात |  

ऐसे विभाग की सेवा में हूँ कि प्रायः लोगों ने मौके बे मौके रात बिरात तंग भी किया और उलूल जुलूल भी सुनाया ,ऐसे में उनके नंबर के आगे NU लिख देता था और भविष्य में कभी उनका फोन नहीं उठाया (NU)। यह तब की बात है जब अटेंड करने के भी पैसे देने पड़ते थे । विभागीय फोन होने के कारण बंद नहीं कर सकता था । अब तो ऐसे लोगों से बचने के अनेक फीचर्स भी आ गए हैं । 

प्रेमी / प्रेमिका आपस में किस तरह से एक दूसरे का नाम फीड करते हैं ,देखकर विश्लेषण किया जाये तो बहुत कुछ सच सामने आ सकता है | जो साफ़ साफ़ नाम लिखेगा वह सच्चा होगा | जो छिपा कर लिखता है वह अवश्य कुछ न कुछ छिपा ले जाता है सारी दुनिया से भी और अपने प्रेमी / प्रेमिका से भी | 

बच्चे अपने माँ-बाप का नाम अपने फोन में किस प्रकार फीड करते हैं ,यह उनके आपस के सम्बंध को बखूबी दर्शाता है | कुछ बच्चे अपने पिता के नाम को 'मुगले-आज़म' भी लिख कर रखते हैं | कुछ 'बिग बॉस' ,तो कुछ 'थर्ड आई' भी लिखते हैं | 

अब जबसे 'व्हाट्सएप' आया एक समस्या और हो गई ,अगर किसी नें किसी दोस्त का नाम किसी अन्य नाम से फीड कर रखा है मसलन अपने किसी 'खास दोस्त' का नाम 'बसंत' लिख कर फीड किया है और जैसे ही बसंत जी 'व्हाट्सएप' पर आये उनकी फोटो यहाँ दिख गई और 'बसंत' के नाम पर फोटो असली वाली 'बसंती' की आ गई | तो दोस्तों थोड़ा ध्यान देने की आवश्यकता है ,बताना मेरा फ़र्ज़ था ,बाकी आप सब स्वयम् समझदार हैं | 

उपर चित्र में दर्शित मोबाइल निवेदिता का है जिसमें मेरा मोबाइल नंबर और आफिस का नंबर किस प्रकार से दर्ज़ है आप स्वयम् देख सकते हैं | ('बप्पा' मतलब 'बच्चों' के 'पप्पा' )

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

एक चीज़ होती है ........."कनेक्ट"


तमाशाई जब तमाशा दिखाता है तो तमाशा दिखाने से पहले ऐसी बातें कहता है जिससे वहाँ भीड़ में खड़े देखने वाले लोग उस तमाशाई से अपना जुड़ाव महसूस कर सकें । जैसे ,वह कहता है सभी लोग अपनी जेब से हाथ बाहर निकाल लें ,हाथ आपस में न बांधे या उसकी आँखों में लगातार न देखें । यह सब साधारण सी बातें है और उस दौरान अगर कोई इनका पालन न करें तो कोई ख़ास बात नहीं पर ऐसा नहीं होता । सभी लोग इन्ही छोटी छोटी बातों को मान कर उस तमाशाई से जुड़ाव महसूस करते हैं और इसी जुड़ाव को "कनेक्ट" कहते हैं । बहुत साधारण सी बातें ,जिन्हे मान लेने में कोई व्यय नहीं ,कोई भार नहीं और कुछ मनोरंजन ही होता है ,ऐसे "कनेक्ट" बनाने में बहुत कारगर साबित होती हैं ।

बाबा रामदेव ने बहुत सरलता से सबको दोनों हाथों के नाखून आपस में रगड़ते रहने की सलाह यह कह कर दी कि उससे उन सभी लोगो के बाल काले हो जायेंगे । देखते ही देखते जिसे देखो वह आपस में नाखून रगड़ते नज़र आने लगा ,क्या अमीर और क्या गरीब । यह "कनेक्ट" था बाबा रामदेव का ,भीड़ के साथ और यह प्रयोग रंग लाया उनके लिए ।

लालू यादव का मसखरा पन , बोलने की शैली / अंदाज़ एक तरीका हुआ करता था जनता से "कनेक्ट" स्थापित करने का और यह काफी सफल भी रहा ,जिसने उन्हें 'आई आई एम' तक लेक्चर लेने भी पहुंचा दिया ।

अन्ना हजारे की सादगी ,लकदक सफ़ेद पहनावा ,सरल बोलचाल की भाषा ,उनका जिदपना ही "कनेक्ट" था जनता के साथ । केजरीवाल ने इस "कनेक्ट" को भलीभांति पहचान लिया और सादगी के साथ जनता की उन समस्याओं को लेकर अपनी चिंता जताने लगे जिससे वह जनता के साथ सीधा सीधा जुड़ गए । जब जनता को लगता है कि उनका नेता उन्ही की तरह बिजली ,पानी, दवा, अस्पताल, घर, बसेरा ,स्कूल आदि की समस्याओं की सार्थक बात कर रहा है तब उस नेता को वो अपने बीच का ही महसूस करते हैं और यही महसूसपना "कनेक्ट" का काम करता है ।

चाय एक बहुत ही साधारण सी चीज़ है पर मोदी ने इसकी "कनेक्ट" बनाने की क्षमता को पहचान लिया और पूरे देश भर में नमो चाय की गूँज हो गई । जो जितना स्थाई "कनेक्ट" स्थापित कर ले जाता है उसी में स्थायित्व अधिक होता है । यही बात सिनेमा को और सिनेमा में हीरो को लोकप्रिय बनाने में भी होती है । अमिताभ बच्चन में आम पब्लिक अपनी छवि देखती थी और पल भर में उनसे "कनेक्ट" स्थापित हो जाता था । इस "कनेक्ट" बनाने के गुण में जो जितना माहिर वह उतना करिश्माई सिद्ध होता है ।

राहुल गांधी इसी "कनेक्ट" के खेल में सफल नहीं हो पा रहे हैं , जबकि उनकी दादी और परनाना इस फन के सिद्धहस्त सिकंदर थे ।

यह "कनेक्ट" कुछ कुछ हिप्नोटाइज़ करने जैसा तिलस्मी होता है और चिर स्थायी नहीं होता क्योंकि पोल खुलने में देर नहीं लगती । इस "कनेक्ट" का लाभ लेकर सत्ता में आने के बाद इस मौके का सही उपयोग करने वाला ही सफल राजनीति कर सकता है , जो केजरीवाल नहीं कर पा रहे हैं । 

आज संसद में मिर्ची पाउडर स्प्रे करने में भी नेताओं का 'अपनी जनता' से सीधा सीधा "कनेक्ट" स्थापित करने का ही प्रयास था । विरोध करने वाले नेता सीधा सीधा सन्देश देना चाह रहे थे कि नया राज्य बनाने वालों की वे आँखे तक फोड़ डालेंगे भले ही उसमे उनकी स्वयं की भी आंखे चली जाएँ । अब चूंकि मिर्च एक बहुत ही साधारण सी चीज़ है और उसके प्रयोग से किसी की जान तो जाने वाली नहीं परन्तु इस घटना से उन विरोध करने वाले नेताओं का अपनी जनता से एक अच्छा और सीधा "कनेक्ट" स्थापित हो गया ।

अर्णब गोस्वामी का इंटरव्यू क्यों मोह लेता है लोगों को क्योंकि उनके सवालों में आम आदमी से एक "कनेक्ट" स्थापित होता दिखाई पड़ता है ,बिलकुल सीधा और सपाट सा ,उदाहरण के तौर पर एक इंटरव्यू में जब राहुल अर्णब गोस्वामी के सीधे सवालों के जवाब नहीं दे पाते तब आम आदमी अंदर ही अंदर खुश होता है यह सोचकर कि राहुल तो बिलकुल साधारण से इंसान है जो इतना भी नहीं बता सकते ।

रही बात सिद्धांतों के सही और गलत होने की या संवैधानिक और असंवैधानिक होने की तो, वह सब तो सापेक्ष बाते हैं ,निरपेक्ष कुछ भी नहीं ।

लेखक  / लेखिकाएं / कहानीकार / उपन्यासकार / कवि / कवियित्री / शायर / शायरा / शिक्षक / शिक्षिकाएं वही सफल और प्रसिद्द हुए हैं जिन्होंने अपने पात्रों से ,अपने पाठकों से और अपने शिष्यों से एक सधा हुआ "कनेक्ट" स्थापित किया है ।

यह बात भी सच है कि जमीन से जुड़ा हुआ और वास्तविकता को जानने वाला व्यक्ति ही एक बेहतर "कनेक्ट" स्थापित कर सकता है । 

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

" पुच्ची बनाम ............चुम्मा "


'फुरसतिया' आजकल प्रतिदिन सवेरे सूरज और उनकी किरणों के बीच होने वाली बाल सुलभ अठखेलियों का वर्णन करते हैं । उसी वर्णन के क्रम में आज उन्होंने सूरज और उनकी किरणों के मध्य 'फ़्लाइंग किस' यानि 'उड़न चुम्मा' का उल्लेख कर दिया । बाद में उन्हें आभास हुआ कि पिता-पुत्री के बीच 'चुम्मा' शब्द के स्थान पर 'पुच्ची' का प्रयोग अधिक उचित है और फिर उन्होंने अपने वर्णन में अभीष्ट संशोधन भी कर दिया ।

बस यहीं से बात चल निकली कि 'चुम्मा' और 'पुच्ची' में क्या और कितना अंतर है । स्नेह दर्शाने के लिए सर्वप्रथम किसी को पुचकारा जाता है और पुचकार शब्द पुचकारने के दौरान उपजे पुच्च पुच्च की ध्वनि से ही बना है । पुचकारने दुलराने के साथ साथ किसी को स्नेहवश गाल या माथे पर चूमने को ही 'पुच्ची' लेना कहा गया है  । 'पुच्ची' पुचकार का ही लघु रूप है । इसमें वात्सल्य रस कूट कूट कर भरा हुआ है । माताएं अपनी संतान को बलैय्या ले ले कर उनकी 'पुच्ची' लेती रहती हैं और कभी खट्टी कभी मीठी 'पुच्ची' कह कर मुग्ध होती रहती हैं । 'पुच्ची' में मातृत्व लुटा देने का भाव निहित होता है । बच्चे की 'पुच्ची' लेने में जो सुख प्राप्त होता है उससे कहीं अधिक आनन्द यदि बच्चा अपनी माँ / पिता की 'पुच्ची' ले ले तो प्राप्त होता है । मासूम से बच्चे के होंठों का स्पर्श अपने गालों पर माँ पाकर हर्षविभोर हो उठती है । 'पुच्ची' एक अत्यंत मासूम और निश्छल भाव उत्पन्न करती है । इसमें लोच है । ईश्वर के होने की अनुभूति जैसी होती है ।

'चुम्मा' सीधे सीधे चूमने / चुम्बन लेने का वृहद रूप है । वयस्कों के मध्य घटित होने वाला एक सामान्य प्रेम भाव है । प्रेम के दौरान समर्पित होने का भाव इसी से प्रकट होता है । इसमें अधिकार अधिक है और निवेदन अत्यंत कम और कभी कभी 'बलात' का भाव भी इसमें निहित होता है । प्रेम प्रक्रिया पूर्ण करने में 'चुम्मा' प्रथम सोपान है ,जबकि स्नेह की श्रेणी में 'पुच्ची' अंतिम सोपान है ।

'चुम्मा' स्मृति बन बहुत समय तक मन को मन ही मन दुलराता रहता है जबकि 'पुच्ची' का भाव बस क्षणिक होता है । अंग्रेजी में अंतर स्पष्ट करें तो 'पुच्ची' 'किस्सी'  है और 'चुम्मा' एक 'किस' ।