किसी भी सिस्टम की एफिशिएंसी 100 प्रतिशत नहीं हो सकती । सरल भाषा में एक किलो गेहूं से एक किलो आटा नहीं बन सकता । किसी कपड़े से पोशाक सिलने के उपरांत कुछ कतरने अवश्य शेष रहती हैं । रसोई में व्यंजन बनाने में भी कुछ सामग्री निष्प्रयोज्य रह जाती है । भवन निर्माण में समस्त क्रय की गई सामग्री उसमे अर्थपूर्ण रूप में प्रयुक्त नहीं होती । अब अगर कोई इन कतरनों या अप्रयुक्त सामग्रियों को देख कर उसकी अनुपयोगिता सिद्ध करता है तो यह गलत होगा ।
इसी प्रकार मस्तिष्क में उपजे भावों को शब्द रूप देने में कुछ शब्द कतरन के तौर पर शेष रह जाते हैं । अब अगर त्रुटिवश पहले यह कतरने ही किसी के समक्ष प्रस्तुत हो जाएं तो तत्काल उसे अनुपयोगी मान निरर्थक साबित करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए । प्रयास होना चाहिए यह देखने का कि शब्दों की कतरने किन भावनाओं को लिपिबद्ध करने के उपरांत शेष रह गई हैं ।