tag:blogger.com,1999:blog-85052311292910600592024-03-13T15:34:17.497+05:30"बस यूँ ही " .......अमित"शब्द भीतर रहते हैं तो सालते रहते हैं,
मुक्त होते हैं तो साहित्य बनते हैं"। मन की बाते लिखना पुराना स्वेटर उधेड़ना जैसा है,उधेड़ना तो अच्छा भी लगता है और आसान भी, पर उधेड़े हुए मन को दुबारा बुनना बहुत मुश्किल शायद...।amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.comBlogger433125tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-64107477733150488532024-02-15T06:44:00.002+05:302024-02-15T06:44:16.512+05:30चार्जिंग पॉइंट<p> मोबाइल चार्ज करना हो तो बस एक प्लग पॉइंट चाहिए होता है। वह चाहे जहां लगा हो, रेलवे प्लेटफॉर्म हो, बस अड्डा हो, फुटपाथ पर कोई बूथ हो, किसी आफिस के पैसेज में हो, टॉयलेट में हो, ट्रेन में हो, प्लेन में हो, किसी साफ जगह में हो या किसी कचरे के डब्बे के पास हो, फौरन ही लोग अपना चार्जर वहां लगाकर मोबाइल चार्ज कर लेते हैं।</p><p>मंदिर छोटा हो या बड़ा हो, पार्क में हो, पहाड़ी पर हो, पेड़ के नीचे बस एक मूर्ति हो, भव्य मंदिर हो, जरा सा मंदिर हो , गली मोहल्ले में हो, रेलवे लाइन के किनारे हो, श्मशान में हो, अस्पताल में हो, स्कूल में हो, यह सब मंदिर बस चार्जिंग पॉइंट ही होते हैं।</p><p>इन सभी मंदिरों में वोल्टेज और करंट बराबर होता है और मनुष्य को चार्ज करने की क्षमता सब मे एक जैसी होती है।</p><p>Samsung हो, apple हो, one plus हो सब चार्ज हो जाते हैं कहीं भी किसी भी पॉइंट से।</p><p>बस इत्ती सी बात है। </p><p>यह सभी धर्मों के पूजा स्थल की बात है।</p><p>जय श्री राम।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-76331208054594049032023-10-24T22:34:00.003+05:302023-10-24T22:34:37.058+05:30एक पाती....<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCYsGBw-do7KQe0zKrypT1sLhIyoVbXmIBe3FTAPLqgZTAw9NEDzgTOWaNL0YXPV4kJKn31fOy9eNZ8W_0_DJggZrX6GAPfNMHqkCXNJRbn8zln0mDUaBcuAiNdFXQMqYOZ-hUkkqv7tE5gWVpBvLiW4FJ0kHyTOPHP9JGREfLauoyYuVV0iiUtY42xaM/s1606/Screenshot_2023-10-24-22-18-06-69_6012fa4d4ddec268fc5c7112cbb265e7.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1606" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCYsGBw-do7KQe0zKrypT1sLhIyoVbXmIBe3FTAPLqgZTAw9NEDzgTOWaNL0YXPV4kJKn31fOy9eNZ8W_0_DJggZrX6GAPfNMHqkCXNJRbn8zln0mDUaBcuAiNdFXQMqYOZ-hUkkqv7tE5gWVpBvLiW4FJ0kHyTOPHP9JGREfLauoyYuVV0iiUtY42xaM/s320/Screenshot_2023-10-24-22-18-06-69_6012fa4d4ddec268fc5c7112cbb265e7.jpg" width="215" /></a></div><br /> <p></p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-19590628360717861122023-07-04T21:58:00.003+05:302023-07-04T21:58:46.598+05:30तोहफा<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjmYBzfK3YkvshHLZZIE0QJM5pVJjs4lJO6Wj-f0GhbbFunS5hGWnTLvaVOzpeMAnOna6eKMnw-SxTIJ9oGk0ZO9bUn3PbDcZgbPgOz3zGb4Ij-X4Xxc7-3Pj-RVWh-71SOt_KvMzXgUmg2Z8j050TYkhHO_umS9QOANQgjdPrC3CDnAArUzMU0t02KIgY/s2518/IMG_20230704_210819__01.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2518" data-original-width="1757" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjmYBzfK3YkvshHLZZIE0QJM5pVJjs4lJO6Wj-f0GhbbFunS5hGWnTLvaVOzpeMAnOna6eKMnw-SxTIJ9oGk0ZO9bUn3PbDcZgbPgOz3zGb4Ij-X4Xxc7-3Pj-RVWh-71SOt_KvMzXgUmg2Z8j050TYkhHO_umS9QOANQgjdPrC3CDnAArUzMU0t02KIgY/s320/IMG_20230704_210819__01.jpg" width="223" /></a></div><br /> <p></p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-18963351206230543592023-04-16T10:39:00.003+05:302023-04-16T10:39:47.055+05:30सामीप्य<p> "तुम्हारे पास आता हूँ तो साँसें भीग जाती हैं,</p><p>मुहब्बत इतनी मिलती है कि आँखें भीग जाती हैं,</p><p>तबस्सुम इत्र जैसा है हँसी बरसात जैसी है,</p><p>तुम जब भी बात करती हो तो बातें भीग जाती हैं"</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-21081894796196671032023-04-14T18:05:00.003+05:302023-04-14T18:05:32.088+05:30एक वो रात।<p> रातें रेशमी चादर सी होती हैं और तुम्हारी बातें सितारों सी । </p><p>तुम बातें करती हो न तब मैं तुम्हारे लफ़्ज़ों को अपनी हथेलियों पर सहेजता रहता हूँ और तुम्हारे सो जाने के बाद एक एक कर उन लफ़्ज़ों को टांक देता हूँ , इस रेशमी चादर पे । </p><p>फिर इन सितारों की झिलमिलाहट में बड़ी सुकून भरी नींद आ जाती है मुझे । </p><p>बीती रात न बातें थीं न सितारे और न सुकून । उस रेशमी चादर का एक हिस्सा कोरा रह गया जो दिन के उजाले में एक अलिखित कहानी बयां कर रहा ।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-33397582587713535412022-12-11T21:28:00.003+05:302022-12-11T21:58:54.030+05:30जुगनू<p><br /></p><p>तितली सी</p><p>लरजती वो</p><p>मछली सी</p><p>मचलती वो</p><p>ग़ज़ल सी</p><p>तबस्सुम थी</p><p>आंखे थी कश्ती वो</p><p>पलकें मस्तूल सी</p><p>आ बैठे वो पास जब</p><p>रोशनी हो जुगनू सी।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-71410069233292889842022-12-10T20:12:00.003+05:302022-12-10T20:12:21.086+05:30आटा चक्की<p><br /></p><p>सायकिल स्टैंड पर चढ़ा कर खड़ी करने के बाद उस पर 30 या 35 किलो का झोला गेंहू से भरा हुआ कैरियर पर रखकर एक हाथ से हैंडल और दूसरे हाथ से झोले को सहारा देते हुए आटा चक्की तक जाते थे।</p><p>चक्की पहुंच कर झोला तौलवाना होता था तराजू पर चढ़ा कर। चक्की वाला कभी तराजू दोनो पलड़ा खाली नही रखता था, तौल वाले कुछ बाट जरूर रखे होते थे। (यह कोई टोटका होता होगा दुकान में बढोत्तरी का।)</p><p>अब बाट वाला पलड़ा तो नीचे ही रहता था तो खाली पलड़े को पैर से दबा कर फिर उस पर अपना झोला रखकर तौलवाते थे फिर चक्की वाली कॉपी में लिखता था नाम और उसके आगे गेंहू का वजन।</p><p>पिसाई देने का दो रेट हुआ करता था ,जलन काटकर या बिना जलन काटे। जो आटा चक्की के दोनो पाट के बीच जल जाने से कम हो जाता था अगर उसकी भरपाई लेनी हो तो रेट ज्यादा था।</p><p>घर से हिदायत रहती थी कि अपना नम्बर किसी गेंहू के बाद ही लगाना ,और किसी अनाज के बाद नही, अन्यथा आटा खाने में खिसकेगा मतलब रोटी खाने में दांत से फिसल जाएगी और कुछ किच किच टाइप आवाज़ आती थी खाने में।</p><p>इस बीच वहां बैठ कर चक्की कैसे चलती है, एक मोटर से तमाम उपकरण गोल घूमते हुए शैफ्ट से पट्टे के माध्यम से चलते थे , कौतूहल वश देखते रहते थे। </p><p>चलती मोटर पर पट्टा चढ़ाना भी बड़ा जोखिम वाला होता था जिसे चक्की वाला बखूबी करता था।</p><p>कभी कभी बिजली ज्यादा देर न आये तो चक्की वाला बिजली वालों को खूब गन्दी गाली भी बकता था, हम भी उसकी गाली में सुकून महसूस करते थे क्योंकि समय हमारा भी खराब होता था। (तब क्या पता था कि हमे भविष्य में नौकरी भी यहीं मिलेगी।)</p><p>आटा पिसने के बाद फिर चक्की वाला ही झोला उठा कर हमारी साईकल पर लाद देता था और हम एक हाथ से झोला को सहारे देते वापस आ जाते थे। कभी कभी जब झोला बड़ा वाला हो तो साईकल की कैंची में रखकर ले जाते थे पिसवाने।</p><p>यह काम कक्षा 6 से लेकर कक्षा12 तक किया होगा जहां तक याद पड़ रहा है। </p><p>चक्की स्टार्ट होने की आवाज और उसके बाद की खटर पटर बड़ी अच्छी लगती थी।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-20919360917307154122022-11-15T21:44:00.004+05:302022-11-15T21:44:29.348+05:30लाल फ्रॉक वाली लड़की<p>गुझिया जैसी आंखें</p><p>मिश्री जैसी बातें</p><p>रेशम से बाल</p><p>नपी तुली चाल</p><p><br /></p><p>आत्म विश्वास की निगाहें</p><p>गुज़रें तो महक जाए राहें</p><p>न मुस्कुराएं तो खूबसूरत</p><p>मुस्कुरा दें तो बला की खूबसूरत</p><p><br /></p><p>दिल तो किया </p><p>लिख दें ये इबारत</p><p>हाँ तुम इत्र हो इत्र हो</p><p>बस इत्र ही हो।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-32714489438495407592022-10-02T14:36:00.008+05:302022-10-02T14:36:41.488+05:30लॉकर<p> रेहाना ,जो अभी छठी क्लास में है, अगले दिन के स्कूल के लिए अपना बैग लगाते हुए आस्मा से बोली, "मम्मी आज मैं स्विमिंग के लिए नही जाऊंगी।"</p><p>"क्यों क्या हुआ",आस्मा ने चौंकते हुए पूछा। "मम्मी, रेयान जो मेरा लॉकर पार्टनर है , वो लॉकर अच्छे से नही रखता, सारा सामान मुझे ठीक कर रखना होता। खुद कुछ करता भी नही और मुझ पर हुकुम चलाता है। मुझे नही अच्छा लगता, कल मेरा हेयर बैंड भी गुम हो गया था, फिर निकला उसके कॉस्ट्यूम से ही।"</p><p>"परेशान नही हो ,आज मैं शाम को चलती हूँ और क्लब के मैनेजर से बात करूंगी कि तुम्हारा लॉकर पार्टनर बदल जाये," आस्मा ड्रेसिंग टेबल के सामने शीशे में पीछे खड़ी रेहाना को देखते हुए बोली।</p><p>उसी दिन शाम को क्लब में जब आस्मा पहुंची तो मैनेजर के रूम में रिवॉल्विंग चेयर पर एक सोलह सत्रह वर्ष का लड़का , जिसकी अभी मूंछे भी नही आई थी ,बैठा हुआ था और कुर्सी बाएं दाएं गोल गोल घुमाते हुए मोबाइल पर गेम खेल रहा था।</p><p>"मैनेजर कहाँ है, मुझे उनसे बात करना है", पूछा आस्मा ने। "आज मैनेजर नही आएंगे इसीलिए मैं यहां आ गया हूँ, विवान नाम है मेरा", उस नवयुक ने बताया।</p><p>"तुम मैनेजर के बेटे हो , पूछा आस्मा ने।" " नही , मैं यहां के ओनर का बेटा हूँ, वो यहां नही आते कभी ,पर आज उन्हें अभी आना है यहां।" "आप मुझे बताइए क्या बात है।"</p><p> "मेरी बेटी रेहाना का लॉकर रेयान की जगह किसी और बच्चे के साथ कर सकते हैं आप,मैं आस्मा हूँ ,रेहाना की मम्मी, रेहाना आपके क्लब में शाम को रोज़ स्विमिंग के लिए आती है।" "आपने बच्चों को बैग रखने के लिए दो दो बच्चों को एक साथ लॉकर अलॉट कर रखा है शेयरिंग के लिए।" बताया आस्मा ने।</p><p>"हां तो क्या प्रॉब्लम है आपकी", पूछा विवान ने। "हमारे यहां बच्चों को अल्फाबेटिकली चूज कर दो बच्चों को एक साथ क्लब कर एक लॉकर अलॉट कर देते हैं। आपकी बेटी रेहाना को रेयान के साथ कर दिया गया है", बताया विवान ने।</p><p>"नही प्रॉब्लम कोई नही ,बस आप उसे किसी और बच्चे के साथ क्लब कर दीजिए।"</p><p>"आखिर हुआ क्या", फिर जोर देकर विवान ने पूछा।</p><p>"अरे रेयान अच्छे से अपना सामान नही रखता और रेहाना को परेशान करता कि तुम ही मेरा बैग भी अच्छे से संभालो। रेहाना शांत सी है ,कुछ बोलती नही और अपने साथ उसका भी सारा काम करती",बताया आस्मा ने। कल रेहाना का हेयर बैंड भी चला गया था रेयान के बैग में।</p><p>विवान कुछ समझा रहा था अपनी कच्ची उम्र की समझ से आस्मा को ,तभी उसके पापा आकाश वहां आ गए।</p><p>औसत कद , छरहरा व्यक्तित्व ,सांवला रंग ,तीखे नयन नक्श, सीना तना हुआ परन्तु सौम्यता के साथ भारी आवाज़ में पूछा उन्होंने, क्या परेशानी है मैडम को।</p><p>आस्मा ने सिर ऊपर उठाकर देखा तो पल भर को जड़वत हो गई, पहचाने की झूठी कोशिश करने लगी ,जबकि पहचान तो आवाज़ से ही चुकी थी। </p><p>आकाश भी एक पल को ठिठका, फिर अचानक बोला, "आस्मा तुम यहाँ कैसे"। भावभंगिमा ऐसी थी कि अगर विवान वहां नही होता तो शायद आकाश ने आस्मा को गले लगा लिया होता। आकाश के मन मे कॉलेज के दिनों की आस्मा की खुले बालों में हेयर बैंड लगाए तस्वीर उभर आई थी।</p><p>आस्मा भी धीरे से कुर्सी खींच कर बैठ गई और एकदम से आंखे मूंद ली। मुंदी आंखों से बीस साल पहले का मंजर सामने दिखने लगा था। बीएससी का केमिस्ट्री प्रैक्टिकल का पहला दिन था। एम पी गुप्ता प्रोफेसर थे। सभी बच्चों को लैब असिस्टेंट द्वारा एपरेटस बांटे जा रहे थे। पिपेट और ब्यूरेट रखने के लिए लॉकर दो दो को एक साथ दिए जा रहे थे। एक ताले की दो चाभियाँ थी , एक एक चाभी दोनो को रखनी थी।</p><p>पूरे बीएससी की क्लास में आस्मा अकेली लड़की थी। अल्फाबेटिकली उसे आकाश के साथ लॉकर जॉइंटली अलॉट कर दिया गया था।</p><p>आस्मा बहुत खूबसूरत थी ,पूरी यूनिवर्सिटी में उसकी बातें होती थी । लोग उसका सामीप्य पाने का बहाना ढूंढते रहते थे। आकाश एक मेधावी और टॉपर छात्र था। उसे आस्मा के कारण थोड़ी उलझन होती थी क्योंकि आस्मा अक्सर लॉकर की चाभी भूल जाती थी और टाइट्रेशन भी कभी समय पर पूरा नही कर पाती थी।</p><p>जहां सारे लड़के उसकी मदद को हमेशा तैयार रहते थे वहीं आस्मा बस आकाश से ही सीखना समझना चाहती थी। लेकिन आकाश आस्मा की लापरवाही से तंग आ चुका था। समान ठीक से न रखने के कारण कांच के बीकर , टेस्ट ट्यूब अक्सर उससे टूटते रहते थे , अक्सर प्रोफेसर से कहता ,"सर मेरा लॉकर पार्टनर बदल दीजिये" ,पर प्रोफेसर गुप्ता हंस कर टाल देते थे। यह बात भी सच थी कि आकाश मन ही मन उसे चाहने भी लगा था मगर पढ़ाई के आगे प्यार मोहब्बत की बात सोचना भी उसके लिए पाप था।</p><p>कितनी बार लॉकर से सामान निकालते समय दोनो के सिर आपस मे टकरा जाते थे, आकाश सॉरी बोलता था मगर आस्मा तो जैसे उसे छूने के बहाने ढूँढती थी ,अच्छा तो आकाश को भी लगता था।</p><p>बीएससी के पहले साल में ही आकाश का चयन इंजीनियरिंग कॉलेज, इलाहाबाद में हो गया। फिर कभी आस्मा से मुलाकात या कोई सम्पर्क नही हुआ।</p><p>आज अचानक वही पुरानी स्थिति ,जॉइंट लॉकर की समस्या और वो दोनो एक दूसरे के आमने सामने ,ऐसा लग रहा था जैसे कोई इबारत हूबहू दोहराई जा रही हो। </p><p>बाद में पता चला रेयान आकाश का ही दूसरा बेटा है। </p><p>"तुम इंजीनियर बनते बनते क्लब के मालिक कैसे बन गए", छेड़ा आस्मा ने। "वो फादर इनला का रियल स्टेट का बिजनेस था न , उसी को संभालने के चक्कर मे टाटा मोटर्स का जॉब बस दो साल के बाद ही छोड़ना पड़ा और यह सब जिम्मेदारी आ गई,तुम बताओ , हबी क्या करते तुम्हारे।"</p><p>"दिल के डॉक्टर है, हार्ट स्पेशलिस्ट", मुस्कुराते हुए बताया,आस्मा ने।</p><p>बड़ी देर तक दोनो हंसते मुस्कुराते रहे ,पर यह भी सच था कि दोनो की आंखों के कोर भी भीगे हुए थे।</p><p>लॉकर का झगड़ा प्यार बनने से पहले ही अधूरा जो रह गया था। आकाश की मुट्ठी कसी यूँ बंधी थी जैसे उसने पकड़ रखा हो हेयर बैंड ,आस्मा का।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-68197705206101758482022-09-24T18:35:00.002+05:302022-09-24T18:35:23.808+05:30पासपोर्ट<p> माँ जब स्वेटर बुनती है तब बीच बीच मे बालिश्त से स्वेटर की लंबाई नापती रहती है। दरअसल उस समय वो मन ही मन अपने बच्चे की ऊंचाई अन्दाजती रहती है।</p><p><br /></p><p>इतना नाप जोख कर बनाया स्वेटर भी पता नही कैसे छोटा होता जाता है या बच्चे ही मन ही मन माँ के अंदाजे हुए कद से बहुत ऊंचे हो जाते हैं।</p><p><br /></p><p>"Visa अक्सर passport से कद में ऊंचा ही होता है।"</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-9071064065271626662022-09-23T19:18:00.005+05:302022-09-23T19:18:59.465+05:30खोखला व्यक्ति<p> किसी खाली बर्तन,बाल्टी, घड़ा,गगरी,सुराही इत्यादि में पानी भरो तो जैसे जैसे पानी पूरा भरता जाता है ,उस पात्र की आवाज़ बदलती जाती है।</p><p>खाली पात्र की आवाज़ कर्कश निकलती है और ज्यों ज्यों वह भरता जाता है ,उसकी आवाज़ गम्भीर और वजनदार होती जाती है।</p><p>मनुष्य की भी यही प्रकृति और पहचान होती है। किसी व्यक्ति को जितना कम ज्ञान होता है, उस व्यक्ति की आवाज़ उतनी ही तेज और तीखी होती है। ज्यों ज्यों ज्ञान बढ़ता जाता है वह व्यक्ति शांत और गम्भीर रह कर बात करता है।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-50235774333286622532022-09-20T18:17:00.002+05:302022-09-20T18:17:38.170+05:30हॉर्स पावर<p> B.H.P. बनाम H.P.</p><p><br /></p><p>किसी मशीन/ इंजन की क्षमता हॉर्स पावर में नापी जाती है पर सामान्यतः उस की क्षमता ब्रेक हॉर्स पावर या बीएचपी में लिखी होती है। आम लोगों को भ्रम होता यह बीएचपी क्या है।</p><p>मशीन/ मोटर/ इंजन की क्षमता का पूरा उपयोग कार्य मे नही हो पाता। उसकी कुछ क्षमता की हानि पावर ट्रांसफर होने में हो जाती है। यानी मशीन वास्तविक क्षमता से कम क्षमता पर चल पाती है। यदि उस मशीन या मोटर को रोकना हो तो रोकने के लिए वही कम वाली क्षमता का प्रयोग करना पड़ेगा। यानी ब्रेक लगाने के लिए जो हॉर्स पावर लगानी पड़ेगी उतनी ही हॉर्स पावर का वास्तव में उपयोग हो पाता है। </p><p>इसी को ब्रेक हॉर्स पावर या BHP कहते हैं।</p><p><br /></p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-85409718055816436852022-05-10T21:26:00.001+05:302022-05-10T21:26:20.306+05:30नज़्म का पहरा<p> लफ्ज़ लफ्ज़ तेरा बेचैन करता रहा रात भर,</p><p>ख़त में लिख दे इन्हें या नज़्म का पहरा कर दे।</p><p><br /></p><p>तकाज़ा दिल का था फिर इल्जाम जुबां पे क्यों,</p><p>मौसम बंजर बहुत इन आँखों को अब झरना कर दे।</p><p><br /></p><p>दीदारे जुनू न रहा कोई बात नही अब 'अमित',</p><p>पलकें मचलती है बस इत्ते इल्म का सौदा कर ले।</p><p><br /></p><p>दस्तक दें जब कभी सांसें मेरी दिल पे तेरे</p><p>लबों से चूम लेना नाम मेरा इत्ता सा वादा कर ले।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-60601960434148743362022-05-10T13:04:00.001+05:302022-05-10T13:04:09.288+05:30एक लड़की पहाड़ों में।<p> वजह क्या जो उदास करती है,</p><p>ये लड़की खुद के पास रहती है, </p><p><br /></p><p>आंखे बोलती है मगर लब चुप हैं,</p><p>कुछ तो है जो भीतर घात करती है।</p><p><br /></p><p>खिलखिलाता फूल अब गुमसुम क्यो,</p><p>भवरां बन काँटों का साथ धरती है।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-14592024366978028072022-05-08T12:04:00.004+05:302022-05-08T12:14:34.821+05:30शहद सी तुम<p>दूरियां तो बहुत है दरमियां</p><p>पर मन तो दूर नही न।</p><p><br /></p><p>कुछ तुम कहो कुछ हम कहे,</p><p>बातें तो कभी खत्म न हो न।</p><p><br /></p><p>चांद वहां आसमान यहां भी,</p><p>पहलू में सिमट कभी आओ न।</p><p><br /></p><p>सांसे लो तुम पलकें गिरें यहां,</p><p>ख्वाब में रोज़ यूं ही आओ न।</p><p><br /></p><p>शहद सी तुम मिष्टी सी बातें</p><p>खुल कर कभी खिलखलाओ न।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-48748764635347761012022-04-17T08:18:00.004+05:302022-04-17T08:18:46.691+05:30हाउस कीपिंग के कुछ टिप्स<p><br /></p><p>१.घर की धूल धक्कड़ की सफाई,झाड़ू पोछा को हमेशा हाउस कीपिंग बोलिये। पिज़्ज़ा टाइप फीलिंग आती भले ही आप चिल्ला खा रहे हों।</p><p>२.झाड़ू लगाते समय साथ मे हमेशा डस्ट पैन और डस्ट बिन रखिये। छोटे छोटे टुकड़े में झाड़ू लगाइए और तुरन्त कूड़ा उठाकर डस्ट बिन भरते चलिए। ऐसा करने से ढेरों कूड़ा एक साथ बुहारना नही पड़ेगा। सफाई ज्यादा अच्छी होगी और जल्दी होगी। एक कमरे का कूड़ा दूसरे कमरे में दखल नही दे पाएगा।</p><p>३.डस्टिंग हमेशा झाड़ू से पहले करिये जिससे डस्टिंग करने में कोई आइटम शो पीस टाइप टूट टाट कर गिर जाए तो झाड़ू बुहारने में उठ जाए।</p><p>४. पोछा वाईपर में ही कपड़ा फंसा कर लगाए। खड़े खड़े पोछा लगाना सरल होता है। बैठ कर पोछा लगाने में मोबिलिटी कम होती है।</p><p>५. पोछा लगाने में समय उतना ही खर्च कीजिये जितना कामवाली समय लगाती है नही तो सुनने को मिल सकता कि इत्ती जल्दी कैसे हो गया,कोई कमरा छूट गया क्या। </p><p>६. पोछा लगाते समय कमरा बन्द रखिये और थोड़ी देर जमीन पर पसर कर आराम कर लीजिए। पोछा लगाने का मन न हो तो खाली फिनायल या लाइज़ोल छिड़क कर पोछ दीजिये। "खुशबू अच्छे अच्छे राज़ दबा देती है।"</p><p>७.झाड़ू पोछे के दौरान बीच बीच मे कमर पर हाथ जरूर रखिये थकान दिखाने के उद्देश्य से। पूछने पर दर्द का अभिनय जरूर कीजिये।</p><p>८. इस काम मे जोश कभी न दिखाइए न ही कभी तारीफ सुन कर मुदित होइये।</p><p>९.बॉस का फोन आये तो बोलिये , होल्ड करिये सर,अभी हाथ मे झाड़ू बाल्टी होल्ड किये है।</p><p>१०.झाड़ू पोछे का काम फिजिकल व्यायाम समझ कर करिये। साथ मे म्यूजिक चला लीजिये तो ज़िन्दगी आसान हो जाएगी।</p><p><br /></p><p>विशेष : बर्तन मांजने का प्रस्ताव या इच्छा जाहिर की जाए उस पक्ष से तो कभी स्वीकार न करें। यह काम सबसे मुश्किल है। इस काम के लिए उनकी तारीफ करते रहिए, कोशिश कीजिये कि बर्तन कम से कम जूठे करें आप, सुखी रहेंगे।</p><p><br /></p><p>जनहित में जारी।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-64577493558227761552021-11-08T22:12:00.005+05:302021-11-08T22:12:48.930+05:30फ़ैज़ाबाद जंक्शन<p> फैज़ाबाद जंक्शन </p><p>------------------</p><p><br /></p><p>हमारा जन्म लखनऊ में हुआ मगर लगभग जन्म के बाद से ही सारा बचपन फैज़ाबाद जिले में कक्षा 12 तक रेलवे कॉलोनी में ही बीता।</p><p>रेलवे कॉलोनी प्रायः रेलवे स्टेशन के पास ही होती है। फैज़ाबाद की रेलवे कॉलोनी दो हिस्से में बनी हुई थी एक स्टेशन के सामने के हिस्से में और दूसरी स्टेशन के पीछे, जिसे लोको कॉलोनी कहते थे।</p><p>हम लोग लोको कॉलोनी में रहते थे। शहर जाने के लिए लोको कॉलोनी से निकल कर एक पुल पार कर जाना होता था। यह पुल रेलवे पटरियों के ऊपर से होकर दोनो कॉलोनी को जोड़ता था। पुल पर गुजरते समय नीचे तमाम डिब्बे, इंजन , गाड़ियां खड़े मिलते या शंटिंग करते रहते थे।</p><p>पुल का दूसरा छोर जहां खत्म होता था, वही बोर्ड लगा था फैज़ाबाद जंक्शन का। इसी नाम पट को देखते देखते याद हो गया था कि फ़ और ज़ के नीचे नुक्ता लगता है। इसी के पास एक पीले रंग का बहुत बड़ा सा एल शेप का पानी भरने का घूमने वाला मोटा सा पाइप लगा था जिससे इंजन में पानी भरा जाता था। </p><p>कोई ट्रेन आती और रुकती तो इंजन का धुआं सारे पुल को घेर कर अंधेरा कर देता था। हम लोग अक्सर तेज़ कदमो से उसी धुंए को चीरते हुए आगे बढ़ते जाते थे।</p><p>कभी कभी प्योर स्टीम निकल कर ऊपर उठती थी एकदम सफेद ,उससे होकर गुजरने पर जाड़ों में गरम गरम अच्छा भी लगता था।</p><p>चूंकि पापा रेलवे में थे तो सफर ट्रेन से झमाझम होता था। कुछ बातें हम लोग अपने आप ही समझ लेते थे , जैसे कि चलती हुई ट्रेन में अगर डिब्बे के नीचे से पटरियां निकलने लगे तो समझो कोई स्टेशन आने वाला है। जंक्शन मतलब कोई बड़ा स्टेशन होता था।</p><p>जी आई सी में पढ़ने के दौरान घर से स्कूल पटरियों के किनारे किनारे से जाना होता था। उस समय पटरियों पर दौड़ने में कम्पटीशन होता था। एक बार मालगाड़ी के डिब्बे में चढ़ते किसी ने देख लिया तो घर पर शिकायत हो गई थी फिर दो तीन दिन तक क्या क्या सूजा रहा बताना उचित नही।</p><p>स्टीम इंजन , गार्ड का डिब्बा , वैक्यूम ब्रेक, वैक्यूम वैन इन सब का भरपूर अभ्यास और विश्लेषण उसी जमाने मे कर लिया था। सिग्नल कैसे तार से खींचने से ही अप और डाउन हो जाता था बखूबी समझते थे। </p><p>रेलवे स्टेशन पर ए एच व्हीलर से कॉमिक्स फ्री में लाकर पढ़ना एकदम आसान था गोया घर की ही दुकान हो।</p><p>अखबार में आज फैज़ाबाद जंक्शन लिखा देखकर एक अजीब सी फीलिंग हो गई आज। </p><p>आज से इसका नाम बदल कर अयोध्या कैंट कर दिया गया। जंक्शन क्यों हटा दिया पता नही। जबकि जंक्शन अमूमन वहां लिखते है जहां दो दिशाओं के अतिरिक्त भी किसी अन्य दिशा में ट्रेन का आवागमन होता है।</p><p>फैज़ाबाद इतनी जल्दी जेहन से कैसे मिटेगा पता नही।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-72933165065985843842021-10-23T08:41:00.002+05:302021-10-23T08:41:13.960+05:30सोचता हूँ अक्सर।<p> सरकारी कर्मचारी ,अधिकारी को हर दस्तखत करने से पहले यह सोचना चाहिए कि जिस विभाग में वह नौकरी कर रहा है, उसका मूल उद्देश्य और लक्ष्य क्या है, उसके उस किये जाने वाले दस्तखत से व्यक्तिविशेष अथवा विभाग के उद्देश्य पर क्या असर अथवा फर्क होगा।</p><p>बिजली विभाग उपभोक्ताओं की सेवा के लिए है। उस दस्तखत से अगर उपभोक्ता हित में कोई फर्क नही पड़ रहा अथवा लाभ नही हो रहा है तब वो दस्तखत व्यर्थ और स्याही का अपव्यय ही है।</p><p>परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से हर निर्णय अथवा निर्णय की पहल से विभाग का उद्देश्य ही सिद्ध होना चाहिए तभी विभाग का मानसिक विकास सम्भव है।</p><p>सरकारी नौकरी एक अमूल्य अवसर की प्राप्ति होती है, जिसमे होते हुए एक छोटा से छोटा कर्मचारी बहुत बड़े निर्णय अथवा छवि बनाने में अपना योगदान दे सकता है।</p><p>इन कार्मिकों के परिवारों का भी दायित्व है कि अगर कार्मिक समय से आफिस न जाता हो या समय से पहले ऑफिस से घर आ जाता हो तो उसे टोका जाना चाहिए। </p><p>होता जबकि इसके विपरीत है , परिवार के लोग बड़े उत्साह से उसकी तारीफ करते है कि ये तो आराम से दफ्तर जाते और जल्दी आ जाते है , बड़े अफसर है कोई पूछता नही।</p><p>देश के विकास और प्रगति में उस महिला का भी योगदान है जो अपने पति को आफिस के लिए अनुशासित करती है और दूसरों को देख कोई अनुचित अपेक्षा नही करती है।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-72385703110386618752021-10-16T07:02:00.004+05:302021-10-16T07:02:21.755+05:30बैंक...<p> अभी ऑफिस से लौटते समय अचानक बीच रास्ते 'फुल ट्रैफिक' में कार बंद हो गई । तमाम कोशिशों के बावजूद 'स्टार्ट' नहीं हुई । पीछे लम्बा 'जाम' लग गया । 'प्रॉब्लम' बैटरी की लग रही थी । अब नीचे उतर कर मैं कार को धकेल कर किनारे करना चाह रहा था । चूंकि बैटरी एकदम ज़ीरो हो गई थी ,कार का शीशा नीचे कर पाना असंभव हो गया ,नहीं तो शीशा नीचे कर दरवाजा बंद कर बाहर से ही एक हाथ से स्टीयरिंग पकड़ कर दूसरे हाथ से धकियाते हुए थोड़ा किनारे तक तो कर ही लेता । </p><p>अब शीशा बंद , फिर स्टीयरिंग पकड़ने के लिए दरवाजा खुला रख कर एक हाथ से स्टीयरिंग और दूसरे से धक्का लगाने में बहुत समस्या हो रही थी । पीछे से ,अगल बगल से, सब पों पों किये शोर मचाते हुए ,मुझे घूरते हुए और कार के दरवाजे को लगभग छूते हुए निकल रहे थे । इस बीच मैंने कार सर्विस वाले का नंबर ढूँढा तो वह मोबाइल में मिला ही नहीं ,लेकिन तब तक ध्यान आया उसका स्टिकर पीछे लगा था शीशे पर । उसे फोन किया तो बोला ,मैं तुरंत आ रहा हूँ ,चिंता मत करिये । पर 'ट्रैफिक' के बीच में 'रोड' के मध्य से बाएं आना भी आसान नहीं है ,ऐसी स्थिति में । </p><p>एक दो लोगों को मैंने मदद की प्रत्याशा में देखा भी ,पर सब जल्दी में निकले । इसी बीच ठीक मेरे पीछे एक कार आकर रुकी । उसमे से एक नवयुवती उतर कर मेरे पास आई और बोली ,"मैं अंदर बैठ कर स्टीयरिंग संभाल रही हूँ ,आप दरवाजा बंद कर पुश करिये ,मैं धीरे धीरे किनारे कर देती हूँ ,आप अकेले दरवाजा खुला रख कर कार को धकेल रहे हैं ,कोई रुक नहीं रहा है ,आपको चोट भी लग सकती है । " मैंने उसकी बात मान ली और मेरी कार किनारे आ गई । </p><p>उसको जाते हुए जब मैंने थैंक्स बोला तो उसने कहा ," i know you sir , you have been many times kind enough to help me out ,regarding electricity related issues,ok ,bye . पर मैं तो बिलकुल नहीं पहचान पाया था उसे । कार की बैटरी बदलवा कर अब मैं घर आ चुका हूँ।</p><p><br /></p><p>"बैंक सिर्फ रुपये पैसे का नहीं होता ,व्यवहार का भी होता है । "</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-59484469257293569902021-10-13T23:01:00.002+05:302021-10-13T23:01:45.641+05:30सफेद स्कूटी<p> </p><p><br /></p><p>"मे आई कम इन सर", बच्चे ने क्लासरूम का दरवाजा धीरे से खोलते हुए पूछा। "हां आ जाओ", बोला युगांशु ने। "दीपिका मैम चाक मांग रही , उनकी खत्म हो गई", बताया बच्चे ने।</p><p>युगांशु कक्षा नौ और दस को मैथ्स पढ़ाता था और उसी स्कूल में दीपिका उन्ही दोनो कक्षाओं को साइंस पढ़ाती थी। कक्षा नौ और दस अगल बगल के कमरों में ही लगती थी और ऐसा टाइम टेबल था कि जब एक कक्षा में युगांशु पढ़ा रहा होता था उसी पीरियड में बगल की कक्षा को दीपिका साइंस पढ़ाती थी।</p><p>युगांशु ने उस बच्चे को चाक के डिब्बे से दो चाक निकाल कर दे दी और फिर कमरा बन्द कर पढ़ाने में व्यस्त हो गया। मैथ्स को सरल कर पढ़ाने के कारण युगांशु बच्चों में और अपने कलीग में भी बहुत कम समय मे ही लोकप्रिय हो चुका था।</p><p>पढ़ने में हमेशा अव्वल रहने के कारण एम एस सी (मैथ्स) , बी एड करते ही युगांशु को केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक की नौकरी मिल गई थी , बस अफसोस इस बात का था कि उसे यह नौकरी अपने शहर सहरसा, बिहार से बहुत दूर चंडीगढ़ में मिली थी। यह शहर उसके लिए बिल्कुल नया था और कोई भी परिचित नही था।</p><p>स्कूल में इंटरवल में या कोई पीरियड खाली मिलने पर स्टाफ रूम में सभी शिक्षक मिलते थे और प्रायः लंच वगैरह साथ मे ही करते थे।</p><p>एक बार स्टाफ रूम में कॉपी चेक करते समय दीपिका उसके बगल में बैठी थी और उसने देखा कि कॉपियां तो उसके कक्षा के बच्चों की ही है। इस पर दीपिका ने युगांशु से पूछ लिया,"सर आप कक्षा नौ और दस को पढ़ाते है, उसी कक्षाओं को तो मैं साइंस पढ़ाती हूँ।"</p><p>दीपिका की तब तक कभी युगांशु से मुलाकात नही हुई थी क्योंकि स्कूल का नया सत्र शुरू हुआ था और दीपिका ने भी युगांशु की ही भांति नई नौकरी प्रारंभ की थी। दीपिका चंडीगढ़ से ही थी और उसने भी एम एस सी फिजिक्स और फिर एम एड किया था। आयु में वो युगांशु से एक वर्ष लगभग बड़ी ही थी।</p><p>युगांशु ने कॉपी चेक करते करते बोला, " हां मैं उन्हें मैथ्स पढ़ाता हूँ, बच्चे अच्छे है यहां के मगर पकाते बहुत है पूछ पूछ कर।" हूँ, बहुत तारीफ सुनी है बच्चों के मुंह से आपकी, अक्सर युगांशु सर युगांशु सर बोलते रहते है और आपकी क्लास कभी मिस नही करना चाहते। दरअसल मैं उन्हें साइंस तो पढ़ाती ही हूँ साथ मे उनकी क्लास टीचर भी हूँ", बताया दीपिका ने।</p><p>सारे स्कूल में यही दोनो शिक्षक नए नियुक्त हुए थे ,बाकी सारा स्टाफ काफी पुराना था वहां। दोनो साथ मे होते तो नवयुगल से लगते थे मगर दोनो गम्भीरता से अपना दायित्व निभा रहे थे और शिक्षण में लोकप्रिय होते जा रहे थे।</p><p>दोनो के पीरियड लगभग एक साथ ही छूटते थे तो दोनो क्लास से निकल कर ग्राउंड पार कर स्टाफ रूम तक साथ ही जाते थे। क्लास के दौरान भी चाक और डस्टर के लेन देन से बच्चे भी जान गए थे दोनो शिक्षक होने के साथ साथ एक दूसरे के दोस्त से भी हैं।</p><p> पहले छमाही परीक्षा के दौरान दोनो अक्सर बच्चों के नाम लेकर बात करते रहते कौन सा बच्चा बहुत अच्छा है या कौन टॉप करेगा। कई बच्चे जो मैथ्स में बहुत अच्छे थे उनकी साइंस उतनी अच्छी नही थी। उन पर ध्यान देने की बात होती।</p><p>धीरे धीरे दिन में स्टाफ रूम तक साथ आने जाने का सिलसिला शाम को भी घर तक जाने में तब्दील होने लगा।युगांशु स्कूल के पास में ही रहता था और पैदल ही आना जाना होता था। दीपिका का घर उसी रास्ते पर ही था मगर काफी दूर था। वो स्कूटी से आती जाती थी।</p><p>शाम को दोनो स्कूटी स्टैंड तक साथ आते फिर वहां से युगांशु को बाय बोल कर दीपिका स्कूटी से चली जाती थी।</p><p>जब कभी युगांशु पहले स्टैंड पहुंच जाता तो वहां उसकी सफेद स्कूटी , जो इकलौती सफेद स्कूटी थी वहां, को खड़ा देख रुक जाता था और उसकी प्रतीक्षा करता था।</p><p>स्टाफ रूम में दिन में दोनो अब लगभग रोज़ ही लंच साथ मे ही करने लगे थे और अक्सर एक दूसरे का लंच शेयर भी कर लेते थे। </p><p>एक दिन लंच के दौरान गलती से दीपिका ने युगांशु का गिलास उठाया और पानी पी लिया। एकदम से चौंकते हुए युगांशु ने कहा,"अरे वो मेरा जूठा गिलास है, मैंने अभी ही उससे पानी पिया है।" उसमें बचा हुआ सारा पानी तब तक दीपिका पी चुकी थी।</p><p>दोनो थोड़ी देर तक हतप्रभ सा रहे फिर लंच खत्म कर अपनी अपनी क्लास में चले गए। उस शाम को दोनो ने साथ मे जाना भी अवॉयड किया। युगांशु रात भर सोचता रहा, ऐसे क्यों हुआ या दीपिका ने जानबूझ कर किया। अभी उसके मन मे दीपिका को लेकर कोई बात नही आती थी। बस उसके साथ बात करना समय बिताना आना जाना अच्छा तो लगता था मगर उसके आगे कुछ नही।</p><p>अगले दिन लंच में दोनो फिर जब मिले तो दीपिका ने युगांशु से बोला, " अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो आई एम सॉरी ,पर गलती से ऐसा हो गया।" युगांशु भी पता नही किस सोच में था कि तुरंत उसने दीपिका का एक हाथ अपने दोनो हाथों में पकड़े पकड़े बोल दिया , नही ऐसा कुछ नही, सॉरी कहने की जरूरत नही।</p><p>उस दिन दोनो यूँ ही हाथ थामे बहुत देर तक बातें करते रहे गये।</p><p>यह सिलसिला अब रोज का हो चला था कि एक हाथ दोनो के आपस मे गुंथे होते और दूसरे हाथ से खाना खा रहे होते। अब तो दोनो में हंसी मजाक भी शुरू हो गया था। दीपिका कहती ," मैथ्स के टीचर इतने खडूस क्यों होते है, प्यार व्यार कुछ जानते ही नही।" युगांशु हंस कर कहता, वही तो सीखने आये है यहां चंडीगढ़ में , वो भी शहर वाला प्यार।"</p><p>रोज का यह क्रम था ,दिन में लंच साथ मे करना, क्लास के दौरान चाक डस्टर का लेन देन, शाम को स्टैंड पर सफेद स्कूटी का देख कर वहां रुकना और साथ मे वापस जाना तय रहता था। सफेद स्कूटी युगांशु के लिए अब गुलाब सरीखी हो चुकी थी।</p><p>स्कूल का सत्र खत्म हुआ। गर्मियों की छुट्टियों में युगांशु घर चला गया। दीपिका को तो चंडीगढ़ में ही रहना था। दोनो ने चिट्ठी के माध्यम से हालचाल लेने की बात की और विदा ले लिया अगला सत्र खुलने तक के लिए।</p><p>छुट्टियां बीती। युगांशु वापस आया और अपनी चिट्ठी का जवाब न देने की शिकायत लिए लिए सुबह सीधे स्टैंड पर गया पर वहां उसे सफेद स्कूटी नज़र नही आई। फिर अपनी क्लास में जाकर बच्चों से मिला । उनकी छुट्टियां कैसी बीती यह सब बातें की। बच्चे युगांशु से बड़े उत्साह से नही मिल रहे थे, लग रहा था जैसे कुछ बताना भी चाह रहे हों और कुछ छुपाना भी।</p><p>उस दिन नए सत्र का पहला दिन था , काफी व्यस्तता में बीता उसका। लंच में भी स्टाफ रूम नही जा पाया, अपने बैंक के काम मे व्यस्त रहा।</p><p>शाम को युगांशु फिर स्टैंड पर पहुंच कर सफेद स्कूटी ढूंढ रहा था। मगर सफेद स्कूटी वहां नही थी।</p><p>आखिर उसने हिम्मत जुटा कर स्टैंड वाले से पूछ ही लिया," सफेद स्कूटी वाली मैम नही आज क्या।"</p><p>स्टैंड वाला चौंकते और हकलाते हुए बोला, "आपको नही मालूम सर, वो जिस दिन स्कूल बंद हुआ था गर्मियों की छुट्टी के लिए उसी दिन घर जाते समय किसी ट्रक से टकराकर उनकी सफेद स्कूटी पूरी लाल हो गई थी। वो अब नही हैं।</p><p>युगांशु ने उस उदास शाम को निर्णय लिया कि दीपिका के साइंस का पीरियड भी वही लिया करेगा, इसी बहाने उन बच्चों को पढ़ाने में दीपिका को महसूस कर सकेगा।</p><p>अगले सत्र के अंत मे वार्षिक परीक्षाफल में उस स्कूल के बच्चों ने साइंस में सारे प्रदेश में अधिकतम नम्बर प्राप्त किये।</p><p>यह प्यार बच्चों का साइंस से था या शायद युगांशु का दीपिका से।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-91610109039291586852021-10-10T14:24:00.003+05:302021-10-10T14:27:38.185+05:30" हुक्का "<p> हमारे बाबा जी हुक्का पीते थे ,जिसमे नीचे पानी भरा होता है और ऊपर चिलम में तम्बाकू होती है। उसे अक्सर धोने का और फिर तम्बाकू भर कर माचिस से सुलगाने का काम हम लोगों का हुआ करता था।</p><p>हम और हमारे बड़े भाई , निर्देशन इन्ही भाईसाहब का रहता था,ने कई बार उस हुक्के पर अनुभव आजमाया था। </p><p>उसकी गुड़गुड़ाहट और फिर सफेद रंग का धुंआ मुंह से निकालने में अलग ही मजा आता था।</p><p>उनकी छोड़ी हुई अधजली बीड़ी (बालक छाप और पहलवान छाप)भी पी थी कई बार। एक बार खांसी आ गई तो पकड़ लिया ,नारकोटिक्स वालों ने नही, हमारे बेटों की दादी अम्मा ने, फिर चप्पल से मार खाई थी।</p><p>"न मार खाते तो आज हम भी उसी 'क्रूज़' पर होते।"</p><p>#सत्य_के_साथ_प्रयोग</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-78608229257348721482021-10-10T09:24:00.004+05:302021-10-10T09:24:55.138+05:30ऑटोग्राफ<div>"ऑटोग्राफ "</div><div>------------</div><div><br /></div><div>"यहाँ साइन कर दीजिए", शीशे के पीछे बैठी महिला ने फॉर्म आगे बढ़ाते हुये बोला। </div><div><br /></div><div>रेयान पासपोर्ट रिन्यूअल के लिये काफी देर से लाइन में लगा था और लाइन में लगे लगे मोबाइल पर आफिस की मेल इत्यादि भी चेक करता जा रहा था। लाइन में आगे बढ़ते बढ़ते कब काउंटर पर पहुंच गया ध्यान ही नही रहा।</div><div><br /></div><div>काउंटर पर बैठी महिला ने फॉर्म फड़फड़ाते हुये जब जोर से बोला साइन करने को तब रेयान का ध्यान उस ओर गया। उसने फॉर्म लिया और साइन कर वापस उस महिला को दे दिया। </div><div><br /></div><div>महिला ने फॉर्म चेक किया और पूरा विवरण पढ़ने के बाद एक हाथ मे कलम पकड़े पकड़े दूसरे हाथ से अपने माथे पर आ गए बालों की लट को पीछे करते हुए अपनी कुर्सी पर टिक कर हल्की मुस्कुराहट के साथ रेयान से बोली," तुम आज भी साइन करने में वैसे ही कंजूस हो, छोड़ दिया न एक साइन।"</div><div><br /></div><div>रेयान जो अभी तक मोबाइल में पूरी तरह व्यस्त था और महज औपचारिकता के लिये काउंटर पर खड़ा था, कुछ अलग सी बात सुनकर चौंक गया और सामने गौर से देखने लगा।</div><div><br /></div><div>पंद्रह सालों बाद सामने वरालिका को बैठा देख रेयान सहसा विस्मित हो गया और एक सिहरन सी दौड़ गई। संयत होते हुए बोला, "वारा तुम यहाँ , अरे वाह, इतने सालों बाद भी वैसी ही दिख रही हो।"</div><div><br /></div><div>वरालिका केबिन से निकल कर बाहर आ गई और रेयान को साथ लेकर रिसेप्शन में पड़े सोफे की तरफ ले जाते हुए बोली, "चलो कॉफी पीते है साथ मे जो अभी भी अधूरी है तब से।"</div><div><br /></div><div>सोफे पर बैठते हुए वरालिका ने एक सांस में बोल दिया ,"मैं कॉलेज से निकल दिल्ली चली गई सिविल सर्विसेज की कोचिंग में। प्रॉपर में तो चयन नही हुआ पर पासपोर्ट अफसर बन गई और अपने ही एक कलीग से शादी भी कर ली। आज एक स्टाफ एब्सेंट है तो मैं ही बैठ गई कस्टमर डीलिंग काउंटर पर।"</div><div><br /></div><div>रेयान तो उसे बेबाकी से बोलते देखे भी जा रहा था और कॉलेज का आखिरी दिन याद कर रहा था, जब सारे लड़के लड़कियां एक दूसरे से मिल रहे थे ,अड्रेस और ग्रीटिंग्स शेयर कर रहे थे। </div><div><br /></div><div>रेयान की मेकैनिकल ब्रांच में बस दो ही लड़कियां थी वरालिका और अंजली , दोनो ही पूरे बैच की आंखों का तारा हुआ करती थी। वर्कशॉप हो, लैब हो या लाइब्रेरी हो सभी जगह लड़के इन दोनों का साथ पाने के चक्कर मे रहते थे। रेयान जिसे चारो वर्ष स्कॉलरशिप मिलती थी और पढ़ने में अच्छा होने के साथ साथ बहुत ही इंट्रोवर्ट भी था। चार सालों में कभी भी उसकी इन दोनों लड़कियों से कोई बात नही हुई थी। </div><div><br /></div><div>वरालिका चाह कर भी उससे बात करने की हिम्मत नही जुटा पाई थी कभी भी क्लास में। </div><div> </div><div>कॉलेज के आखिरी दिन जब सब एक दूसरे से विदा ले रहे थे, तब रेयान लाइब्रेरी में बुक्स वापस कर रहा था , तभी वरालिका उसके पास ऑटोग्राफ बुक लेकर गई थी और बोला था, "कुछ लिख दो इस पर।"</div><div><br /></div><div>रेयान ने बड़े शुष्क शब्दों में जवाब दिया था," चार सालों में कभी तुमसे मेरी कोई बात नही हुई, कोई फीलिंग ही नही है मेरे मन मे , क्या लिख दूं ऐसे कुछ भी।"</div><div><br /></div><div>"अच्छा सिर्फ साइन ही कर दो और कैंटीन चलते हैं साथ कॉफी पियेंगे", बोला था वरालिका ने।</div><div><br /></div><div>मगर रेयान तो पढ़ाकू कीड़ा था ,कोई फीलिंग्स कभी आई ही नही उसके मन मे ,ऐसी दोस्ती या चाहत की तो साइन करना भी उसके लिए बेमानी था। मना कर दिया था उसने उस दिन वारालिका को ऑटोग्राफ देने से और कॉफी के लिये भी।</div><div><br /></div><div>कॉफी खत्म होने को थी और रेयान अभी भी पुराने दिनों की याद में खो सा गया था। वरालिका ने धीरे से कहा," उस दिन साइन दे दिया होता तो तुम्हे आज यहां साइन करने न आना पड़ता शायद।"</div><div><br /></div><div>खैर दोनो ने अपनी अपनी कॉलेज के बाद की ज़िंदगी के किस्से शेयर किए, मोबाइल नम्बरों को एक्सचेंज किया और फिर जल्दी मिलने का वादा कर अलग हो गए।</div><div><br /></div><div>"कुछ भी अधूरा रह जाये तो पूरा जरूर होता है चाहत में , वक्त जरूर लग सकता है और हां फीलिंग्स इंट्रोवर्ट में भी होती है जो सालती जरूर है बाद में।"</div><div><br /></div><div>©अमित</div>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-24401616703248191502021-10-03T12:16:00.001+05:302021-10-03T12:16:06.441+05:30हेयर बैंड<p> रेहाना ,जो अभी छठी क्लास में है, अगले दिन के स्कूल के लिए अपना बैग लगाते हुए आस्मा से बोली, "मम्मी आज मैं स्विमिंग के लिए नही जाऊंगी।"</p><p>"क्यों क्या हुआ",आस्मा ने चौंकते हुए पूछा। "मम्मी, रेयान जो मेरा लॉकर पार्टनर है , वो लॉकर अच्छे से नही रखता, सारा सामान मुझे ठीक कर रखना होता। खुद कुछ करता भी नही और मुझ पर हुकुम चलाता है। मुझे नही अच्छा लगता, कल मेरा हेयर बैंड भी गुम हो गया था, फिर निकला उसके कॉस्ट्यूम से ही।"</p><p>"परेशान नही हो ,आज मैं शाम को चलती हूँ और क्लब के मैनेजर से बात करूंगी कि तुम्हारा लॉकर पार्टनर बदल जाये," आस्मा ड्रेसिंग टेबल के सामने शीशे में पीछे खड़ी रेहाना को देखते हुए बोली।</p><p>उसी दिन शाम को क्लब में जब आस्मा पहुंची तो मैनेजर के रूम में रिवॉल्विंग चेयर पर एक सोलह सत्रह वर्ष का लड़का , जिसकी अभी मूंछे भी नही आई थी ,बैठा हुआ था और कुर्सी बाएं दाएं गोल गोल घुमाते हुए मोबाइल पर गेम खेल रहा था।</p><p>"मैनेजर कहाँ है, मुझे उनसे बात करना है", पूछा आस्मा ने। "आज मैनेजर नही आएंगे इसीलिए मैं यहां आ गया हूँ, विवान नाम है मेरा", उस नवयुक ने बताया।</p><p>"तुम मैनेजर के बेटे हो , पूछा आस्मा ने।" " नही , मैं यहां के ओनर का बेटा हूँ, वो यहां नही आते कभी ,पर आज उन्हें अभी आना है यहां।" "आप मुझे बताइए क्या बात है।"</p><p>"मेरी बेटी रेहाना का लॉकर रेयान की जगह किसी और बच्चे के साथ कर सकते हैं आप,मैं आस्मा हूँ ,रेहाना की मम्मी, रेहाना आपके क्लब में शाम को रोज़ स्विमिंग के लिए आती है।" "आपने बच्चों को बैग रखने के लिए दो दो बच्चों को एक साथ लॉकर अलॉट कर रखा है शेयरिंग के लिए।" बताया आस्मा ने।</p><p>"हां तो क्या प्रॉब्लम है आपकी", पूछा विवान ने। "हमारे यहां बच्चों को अल्फाबेटिकली चूज कर दो बच्चों को एक साथ क्लब कर एक लॉकर अलॉट कर देते हैं। आपकी बेटी रेहाना को रेयान के साथ कर दिया गया है", बताया विवान ने।</p><p>"नही प्रॉब्लम कोई नही ,बस आप उसे किसी और बच्चे के साथ क्लब कर दीजिए।"</p><p>"आखिर हुआ क्या", फिर जोर देकर विवान ने पूछा।</p><p>"अरे रेयान अच्छे से अपना सामान नही रखता और रेहाना को परेशान करता कि तुम ही मेरा बैग भी अच्छे से संभालो। रेहाना शांत सी है ,कुछ बोलती नही और अपने साथ उसका भी सारा काम करती",बताया आस्मा ने। कल रेहाना का हेयर बैंड भी चला गया था रेयान के बैग में।</p><p>विवान कुछ समझा रहा था अपनी कच्ची उम्र की समझ से आस्मा को ,तभी उसके पापा आकाश वहां आ गए।</p><p>औसत कद , छरहरा व्यक्तित्व ,सांवला रंग ,तीखे नयन नक्श, सीना तना हुआ परन्तु सौम्यता के साथ भारी आवाज़ में पूछा उन्होंने, क्या परेशानी है मैडम को।</p><p>आस्मा ने सिर ऊपर उठाकर देखा तो पल भर को जड़वत हो गई, पहचाने की झूठी कोशिश करने लगी ,जबकि पहचान तो आवाज़ से ही चुकी थी। </p><p>आकाश भी एक पल को ठिठका, फिर अचानक बोला, "आस्मा तुम यहाँ कैसे"। भावभंगिमा ऐसी थी कि अगर विवान वहां नही होता तो शायद आकाश ने आस्मा को गले लगा लिया होता। आकाश के मन मे कॉलेज के दिनों की आस्मा की खुले बालों में हेयर बैंड लगाए तस्वीर उभर आई थी।</p><p>आस्मा भी धीरे से कुर्सी खींच कर बैठ गई और एकदम से आंखे मूंद ली। मुंदी आंखों से बीस साल पहले का मंजर सामने दिखने लगा था। बीएससी का केमिस्ट्री प्रैक्टिकल का पहला दिन था। एम पी गुप्ता प्रोफेसर थे। सभी बच्चों को लैब असिस्टेंट द्वारा एपरेटस बांटे जा रहे थे। पिपेट और ब्यूरेट रखने के लिए लॉकर दो दो को एक साथ दिए जा रहे थे। एक ताले की दो चाभियाँ थी , एक एक चाभी दोनो को रखनी थी।</p><p>पूरे बीएससी की क्लास में आस्मा अकेली लड़की थी। अल्फाबेटिकली उसे आकाश के साथ लॉकर जॉइंटली अलॉट कर दिया गया था।</p><p>आस्मा बहुत खूबसूरत थी ,पूरी यूनिवर्सिटी में उसकी बातें होती थी । लोग उसका सामीप्य पाने का बहाना ढूंढते रहते थे। आकाश एक मेधावी और टॉपर छात्र था। उसे आस्मा के कारण थोड़ी उलझन होती थी क्योंकि आस्मा अक्सर लॉकर की चाभी भूल जाती थी और टाइट्रेशन भी कभी समय पर पूरा नही कर पाती थी।</p><p>जहां सारे लड़के उसकी मदद को हमेशा तैयार रहते थे वहीं आस्मा बस आकाश से ही सीखना समझना चाहती थी। लेकिन आकाश आस्मा की लापरवाही से तंग आ चुका था। समान ठीक से न रखने के कारण कांच के बीकर , टेस्ट ट्यूब अक्सर उससे टूटते रहते थे , अक्सर प्रोफेसर से कहता ,"सर मेरा लॉकर पार्टनर बदल दीजिये" ,पर प्रोफेसर गुप्ता हंस कर टाल देते थे। यह बात भी सच थी कि आकाश मन ही मन उसे चाहने भी लगा था मगर पढ़ाई के आगे प्यार मोहब्बत की बात सोचना भी उसके लिए पाप था।</p><p>कितनी बार लॉकर से सामान निकालते समय दोनो के सिर आपस मे टकरा जाते थे, आकाश सॉरी बोलता था मगर आस्मा तो जैसे उसे छूने के बहाने ढूँढती थी ,अच्छा तो आकाश को भी लगता था।</p><p>बीएससी के पहले साल में ही आकाश का चयन इंजीनियरिंग कॉलेज, इलाहाबाद में हो गया। फिर कभी आस्मा से मुलाकात या कोई सम्पर्क नही हुआ।</p><p>आज अचानक वही पुरानी स्थिति ,जॉइंट लॉकर की समस्या और वो दोनो एक दूसरे के आमने सामने ,ऐसा लग रहा था जैसे कोई इबारत हूबहू दोहराई जा रही हो। </p><p>बाद में पता चला रेयान आकाश का ही दूसरा बेटा है। </p><p>"तुम इंजीनियर बनते बनते क्लब के मालिक कैसे बन गए", छेड़ा आस्मा ने। "वो फादर इनला का रियल स्टेट का बिजनेस था न , उसी को संभालने के चक्कर मे टाटा मोटर्स का जॉब बस दो साल के बाद ही छोड़ना पड़ा और यह सब जिम्मेदारी आ गई,तुम बताओ , हबी क्या करते तुम्हारे।"</p><p>"दिल के डॉक्टर है, हार्ट स्पेशलिस्ट", मुस्कुराते हुए बताया,आस्मा ने।</p><p>बड़ी देर तक दोनो हंसते मुस्कुराते रहे ,पर यह भी सच था कि दोनो की आंखों के कोर भी भीगे हुए थे।</p><p>लॉकर का झगड़ा प्यार बनने से पहले ही अधूरा जो रह गया था। आकाश की मुट्ठी कसी यूँ बंधी थी जैसे उसने पकड़ रखा हो हेयर बैंड ,आस्मा का।</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-15019715058297471522021-09-27T11:02:00.001+05:302021-09-27T11:02:13.441+05:30तकिया<p> 'तकिया' का आविष्कार जिसने भी किया हो वह सदा स्मरणीय रहेगा।</p><p><br /></p><p>आधी तकिया मिले तो प्यार है</p><p>पूरी मिल जाये अधिकार है</p><p><br /></p><p>बीच मे आ जाये तो तकरार है</p><p>एक जब न दिखे तो इनकार है</p><p><br /></p><p>तकिया जब कभी बनी दीवार है</p><p>बाहों का तकिया फिर मनुहार है।</p><p><br /></p><p>#तकिया</p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8505231129291060059.post-52202734564489742912021-02-16T22:32:00.003+05:302021-02-16T22:32:50.990+05:30ब्लॉटिंग पेपर<p> एक सोख्ता कागज होता था पहले, ब्लॉटिंग् पेपर, रुमाल जैसा एक कागज़, परीक्षाओं में भी दिया जाता था मुफ्त। तब स्याही वाली पेन चलती थी अगर स्याही लीक कर जाए या गिर जाए तो उसी सोख्ता कागज़ से उस स्याही को सोख लेते थे।</p><p><br /></p><p>उस सोख्ता कागज पर अगर स्याही वाली पेन की निब हल्के से टच कराते थे तो स्याही की एक बूंद उस पर बन जाती थी ,फिर वह बूंद धीरे धीरे चारों ओर वृत्ताकार शेप में फैलने लगती थी। उस वृत्त की न कोई सीमा न कोई परिधि न कोई अंत होता था।</p><p><br /></p><p>"प्रेम की भी अगर कोई एक बूंद हृदय को छू जाए तो वह भी ऐसे ही चारों ओर विस्तृत होने लगता है,फिर प्रेम की न कोई परिधि न उस विस्तार का कोई अंत। परंतु हृदय भी तब सोख्ता कागज जैसा ही होना चाहिए ,जिसमे सब कुछ सोख लेने का गुण हो।"</p><p><br /></p><p><br /></p>amit kumar srivastavahttp://www.blogger.com/profile/10782338665454125720noreply@blogger.com8