मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

ऊन के गोले

 बेटा इधर आना जरा, आवाज़ दी बगल वाली चाची ने। स्कूल जाने के लिये घर से निकला ही था, बस्ता कंधे पर टांगे हुये। यह बात होगी जब हम छठी या सातवीं कक्षा में होंगे।

अपने पास बुलाकर चाची जी ने हमारे नये बने स्वेटर में नीचे से हाथ डाला और दो मिनट तक बुनाई की डिज़ाइन देखती रही फिर किसी से बोली , एकदम नई डिज़ाइन है, इनकी मम्मी बहुत अच्छा स्वेटर बुनती है। यह डिज़ाइन अभी 'सरिता' में निकली थी वही वाली है। ( तब सरिता , मुक्ता , मनोरमा और गृहशोभा में जाड़ों में बुनाई विशेषांक आते थे।)

उन दिनों यह अक्सर होता था कि मोहल्ले में कोई भी चाची बच्चों को अपने पास बुलाकर खड़े खड़े वहीं पहने हुए स्वेटर का पूरा अनुसंधान कर डालती थी।

दरअसल एक यह चलन भी था कि कोई जल्दी किसी को बुनाई बताता भी नही था , लेकिन लोग डिज़ाइन को अलट पलट देख कर डिकोड कर ही लेते थे।

एक बार तो मोहल्ले में ही सामने खेल रहे थे , किसी चाची ने बुलाया और दोनो हाथ हमारे फैला कर उसमे ऊन का लच्छा फंसा दिया और खुद उसका गोला बनाने लगीं। ऐसी सेवाएं 5 या 10 मिनट वाली पूरे मोहल्ले में कोई भी हम बच्चों से ले सकता था।

पहले फेरी वाले ऊन बेचने आते थे। खूब सारे रंग बिरंगे और मोहल्ले में सारी महिलाएं खरीदती थीं। फिर बाद में फॉलो अप भी होता था कि वो गुलाबी वाला स्वेटर बन गया तुम्हारा, हाँ लगभग बन गया बस अब गला घटा रहे या आस्तीन जोड़ना है बस ,यह जवाब होता था।

हाथ के बुने स्वेटर ही पहनते थे हम लोग बचपन मे। नये स्वेटर के लालच में बहुत देर रात तक पढ़ते थे क्योंकि मम्मी बोलती थी ,जब तक पढ़ते रहोगे हम बुनाई करते रहेंगे। हमे याद है दो दो दिन में एक पूरा स्वेटर बुन जाता था हम लोगों के लिए।

हमे शौक था कि स्वेटर पर हमारा नाम भी लिखा हो बुनाई से ही, उन दिनों यह बड़ी बात थी और कौशल भी। मम्मी ने बनाया था फिर।

बेल ( सीने पर चौड़ी पट्टी सी )की डिज़ाइन वाला स्वेटर बहुत पॉपुलर हुआ था। ऊन के गोले ounce में आते थे, यह वजन की माप थी। सबसे सॉफ्ट ऊन कैशमिलान नाम से आता था। लोग ऊन को गाल से लगाकर उसकी सॉफ्टनेस चेक करते थे।

मोहल्ले में सलाइयाँ बुनने वाली बहुत उधार मांगी जाती थी, इस घर से उस घर।  बॉर्डर बुना जाता था 12 या 14 नम्बर की सलाई से और बाकी स्वेटर कम नम्बर की सलाई से।

हाथ के बुने दस्तानों की बात ही कुछ और थी।

अब तो जमाना प्लग एंड प्ले वाला हो चुका है, क्लिक एंड यूज़, कुछ भी, बस मोबाइल में डेटा हो और अंटी में पैसा हो।


शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

मुख़्तसर सी बात

 मुख्तसर सी बात थी

मगर इसी बात में तो बात है


भीड़ भरी ज़िन्दगी में

चंद लम्हों की मुलाकात थी


उन लम्हों में बसी साँसे तेरी

हर एक साँस थी धड़कन मेरी


सकुचाती थी हथेलियाँ मेरी

उनमें धड़कती रहीअंगुलियाँ तेरी


वक्त गुज़रा फिर

जिंदगी की शाम हुई

मुड़ कर न देखा

उन लम्हों ने दुबारा।


😊

मंगलवार, 10 दिसंबर 2024

"आटा पिसाई"


सायकिल स्टैंड पर चढ़ा कर खड़ी करने के बाद उस पर 30 या 35 किलो का झोला गेंहू से भरा हुआ  कैरियर पर रखकर एक हाथ से हैंडल और दूसरे हाथ से झोले को सहारा देते हुए आटा चक्की तक जाते थे।

चक्की पहुंच कर झोला तौलवाना होता था तराजू पर चढ़ा कर। चक्की वाला कभी तराजू दोनो पलड़ा खाली नही रखता था, तौल वाले कुछ बाट जरूर रखे होते थे। (यह कोई टोटका होता होगा दुकान में बढोत्तरी का।)

अब बाट वाला पलड़ा तो नीचे ही रहता था तो खाली पलड़े को पैर से दबा कर फिर उस पर अपना झोला रखकर तौलवाते थे फिर चक्की वाली कॉपी में लिखता था नाम और उसके आगे गेंहू का वजन।

पिसाई देने का दो रेट हुआ करता था ,जलन काटकर या बिना जलन काटे। जो आटा चक्की के दोनो पाट के बीच जल जाने से कम हो जाता था अगर उसकी भरपाई लेनी हो तो रेट ज्यादा था।

घर से हिदायत रहती थी कि अपना नम्बर किसी गेंहू के बाद ही लगाना ,और किसी अनाज के बाद नही, अन्यथा आटा खाने में खिसकेगा मतलब रोटी खाने में दांत से फिसल जाएगी और कुछ किच किच टाइप आवाज़ आती थी खाने में।

इस बीच वहां बैठ कर चक्की कैसे चलती है, एक मोटर से तमाम उपकरण गोल घूमते हुए शैफ्ट से पट्टे के माध्यम से चलते थे , कौतूहल वश देखते रहते थे। 

चलती मोटर पर पट्टा चढ़ाना भी बड़ा जोखिम वाला होता था जिसे चक्की वाला बखूबी करता था।

कभी कभी बिजली ज्यादा देर न आये तो चक्की वाला बिजली वालों को खूब गन्दी गाली भी बकता था, हम भी उसकी गाली में सुकून महसूस करते थे क्योंकि समय हमारा भी खराब होता था। (तब क्या पता था कि हमे भविष्य में नौकरी भी यहीं मिलेगी।)

आटा पिसने के बाद फिर चक्की वाला ही झोला उठा कर हमारी साईकल पर लाद देता था और हम एक हाथ से झोला को सहारे देते वापस आ जाते थे। कभी कभी जब झोला बड़ा वाला हो तो साईकल की कैंची में रखकर ले जाते थे पिसवाने।

यह काम कक्षा 6 से लेकर कक्षा12 तक किया होगा जहां तक याद पड़ रहा है। 

चक्की स्टार्ट होने की आवाज और उसके बाद की खटर पटर बड़ी अच्छी लगती थी।

गुरुवार, 19 सितंबर 2024

नक्षत्र ने कहा।

तुम एक पहाड़ हो मेरे लिए।

जिसकी पीठ से लिपट मुझे थोड़ी देर सिसकना था। इन सिसकियों में कुछ ठण्डी आहें शामिल थी जिन्हें आंसुओं से गर्म करना था ताकि वे चाहतों के समन्दर में गिरने से पहले ही उड़ जाए।

मैं आंसूओं को बादल बनाना चाहती थी उसके लिए मैंने तुम्हारी पीठ चुनी तुम मेरे जीवन के पहले वो शख्स थे जिसकी रीढ़ की हड्डी झुकी हुई नही थी इसलिए मन में कहीं एक गहरी आश्वस्ति थी कि तुम्हारे आलम्बन से मेरी गति पर कोई प्रभाव नही पड़ेगा तुम्हारा पास अपेक्षाओं का शुष्क जंगल भी नही था इसलिए मैंने मन के अरण्य की कतर ब्योंत कर एक साफ रास्ता तुम तलक आने का बनाया। 

अमूमन पीठ का आलम्बन पलायन की ध्वनि देता है या फिर इसमें किसी को रोके जाने का आग्रह शामिल हुआ दिखता है मगर तुम्हारे साथ दोनो बातें नही थी। 

तुम्हारी पीठ चट्टान की तरह दृढ़ मगर ग्लेशियर की तरह ठण्डी थी मेरे कान के पहले स्पर्श ने ये साफ तौर पर जान लिया था कि तुम्हारे अंदर की दुनिया बेहद साफ़ सुथरी किस्म की है वहां राग के झूले नही पड़े थे वहां बस कुछ विभाजन थे और उन विभाजन के जरिए अलग अलग हिस्सों में तनाव,ख़ुशी और तटस्थता को एक साथ देखा जा सकता था।

तुम्हारे अंदर दाखिल होते वक्त मुझे पता चला कि जीवन में प्लस और माइनस के अलावा भी एक चुम्बकीय क्षेत्र होता है जिसकी सघनता में दिशाबोध तय करना सबसे मुश्किल काम होता है तुमसे जुड़कर मैं समय का बोध भूल गई थी संयोगवश ऊर्जा का एक ऐसा परिपथ बना कि यात्रा युगबोध से मुक्त हो गई नि:सन्देह वो कुछ पल मेरे जीवन के सबसे अधिक चैतन्य क्षण है जिनमें मैं पूरी तरह होश में थी।

तुम पहाड़ थे तो मैं एक आवारा नदी मुझे शिखर से नीचे उतरना ही था सो एकदिन बिना इच्छा के भी मैं घाटी में उतर आई मगर मगर मेरी नमी अभी भी तुम्हारी पीठ पर टंगी है इनदिनों जब मैं यादों की गर्मी में झुलस कर एकदम शुष्क हो गई हूँ तो मैं चाहती हूँ तुम मेरी नमी को बारिशों के हाथों भेज दो मैं रोज़ बादलों से तुम्हारे खत के बारें में पूछती हूँ इस दौर के बादल बड़े मसखरे है वो कहते है उनके पास बिन पते की चिट्ठियां है उनमें से खुद का खत छाँट लो! अब तुम्ही बताओं जब तुम्हारी लिखावट पलकों के ऊपर दर्ज है मैं कैसे पता करूँ कि कौन सा खत मेरे लिए है?

तोहफा शब्दों का।

मैं यह तो नहीं कह सकती कि वो भविष्य दृष्टा हैं, मगर वह कालबोध से मुक्त ज़रूर हैं। 

इसलिए उनकी बातों में एक चैतन्यता हमेशा विद्यमान रहती है। उनको सुनते हुए मैं निहितार्थ विकसित नहीं करती, मगर मैं सिलसिलेवार ढंग से उनकी बातों को एक जगह तह लगाकर ज़रूर रखती जाती हूं। 

जब मैं बहुत व्यस्त होती हूं तब उनकी बातों की तह खोलकर पढ़ती हूं। ख़ालीपन में न वो और न उनकी बातें समझ में आती हैं। 

ख़ालीपन में उनके प्रति स्नेह महसूस होता है और व्यस्तता में उसके प्रति आदर पैदा होता है।

शनिवार, 7 सितंबर 2024

गूगल मैप और रास्ता

आजकल कहीं जाना हो और रास्ता न पता हो पहले से तो लोग गूगल मैप के सहारे गंतव्य तक पहुंच जाते हैं।

हम व्यक्तिगत रूप से इसका इस्तेमाल लगभग नही ही करते हैं। अपने शहर में तो लगभग सभी जगहों की खाक छान रखी है तो मुश्किल नही होती कोई और अगर कुछ नए लैंडमार्क भ्रम की स्थिति पैदा करते भी है तो बस शीशा डाउन कर किसी भी अजनबी से पूछ लेते हैं।

अगर किसी का घर पता करना हो तो उस क्षेत्र में कोई आयरन करने वाला ठीहा जैसे ही दिखे वहां पूछ लें एकदम सही-पता पता चल जाएगा।

कोई होटल रेस्त्रां पता करना हो तो वहां कहीं पान सिगरेट की गुमटी ढूंढ कर उससे पता किया जा सकता।

किसी सरकारी इमारत , बैंक आदि का पता करना हो तो वहां घूमते हुए रिक्शे वाले से पूछ सकते।

रास्ता पूछने पर बताने वाला व्यक्ति रास्ता ही नही बताता बल्कि उसके साथ तमाम जानकारियां मुफ्त में दे देता है।

मुफ्त की जानकारियां कुछ इस तरह की होती हैं :

●अरे वहां तक गाड़ी नही जा पाएगी आप इधर ही कहीं लगा दीजिये।

●आप इधर से न जाकर पीछे से जाइये पास पड़ेगा और इधर का रास्ता बहुत खराब है।

●यह दफ्तर पिछले महीने ही मुख्यालय वाली बिल्डिंग में शिफ्ट हो गया है। लगता है आप बहुत दिनों बाद आये हैं।

●यहां मकान नम्बरो की सीरीज अजीब सी है कुछ odd even टाइप,ऐसे नही मिलेगा। कहाँ काम करते हैं, अच्छा वो बिजली वाले ,अरे उनके घर के पास एक सीढ़ी वाला ठेला खड़ा होगा।

●अच्छा वो मास्साब जिनके यहां बच्चे ट्यूशन पढ़ने आते हैं।

●जिनके यहां कोई फंक्शन है आज।

और भी तमाम इनपुट मिल जाते एकदम मुफ्त।

वैसे भी अजनबियों से रास्ता पूछने में एक नया अनुभव होता है।उस शहर के लोगों का मिजाज़ कैसा है साफ पता चल जाता है। 

कभी इसी तरह मुझसे भी कभी कोई रास्ता पूछता है तो बड़े इत्मीनान से उसे रास्ता जरूर बता देता हूँ , अगर मुझे नही पता होता तो आसपास के लोगों से पूछकर उसे बता देता हूँ।


छोटी सी ज़िंदगी मे ऐसी भी क्या हड़बड़ी कि किसी को हम रास्ता/ पता बताने में भी समय की दुहाई देते हुए उसे मना कर देते हैं।

रविवार, 1 सितंबर 2024

आकार

 बारिश की बूंदे जितनी नन्ही सी होती है , वो कार के शीशे पर अधिकतम समय तक के लिए ठहरती हैं। आकार बड़ा होते ही ढुलक कर फ़ना हो जाती हैं।

"छोटी छोटी बातें ज्यादा देर तक मन को विचलित अथवा प्रफुल्लित करती हैं।"

"बड़ी बातें या तो क्रोध की अग्नि में स्वाहा हो जाती है और अगर बात प्रशंसा की हो तो वे घमंड पैदा करती हैं, जिसे भी अंत मे चूर होना ही होता है।"