शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

"एक सवाल मीठा सा..........."

मै तो सो रहा था,
तुम्हारी ही आँखों में,
तुमने आँखें क्यों खोली |

मै तो बुन रहा था खामोशी,
अपनी नज़रों से,
तुमने जुबान क्यों खोली |

तुम मुस्कुराई थीं,
कुछ आधा सा,
सो देखो सारे फूल,
अधखिले से |

लकीरें खींच रहीं थीं,
तितलियाँ
मन पर तेरे जिस्म की,
तुमने अँगड़ाई क्यों ली |

अधर पर नयन रखूं कि,
नयन पर अधर,
कभी तो आधे अधर,
कभी आधी आँखें क्यों खोलीं |




मंगलवार, 25 जनवरी 2011

स्व-शासन से सु-शासन तक

                                                        गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाईयां
             अंग्रेजों के जमाने में अनुशासन बहुत जबरदस्त था,समय की सख्त पाबंदी थी,स्कूलों में शिक्षा का स्तर एवं मूल्यांकन काबिले गौर था,कानून व्यव्स्था सुदॄढ़ थी,रेलवे का नेटवर्क जो वो बिछा गये बस वही है आज तक,तमाम सारी नामचीन इमारतें,शहर,बिजली  परियोजनाएं,डैम सब उनके ही द्वारा या तो निर्मित हैं या डिज़ाइन्ड हैं | यही सब   हम  सबकी जुबानी अक्सर सुना करते हैं ।
               फिर ऐसा क्या चाहिए था कि  हम लोगों ने आज़ादी के लिए तमाम तकलीफें सही ,हज़ारों लाखों जाने कुर्बान की |क्या आवश्यकता थी इस सब की  | लेकिन नहीं, वह थी पीड़ा, कि कोई दूसरा  देश हम पर राज कर रहा है, हमारा अपनी जिंदगियों पर कोई नियंत्रण नहीं था ,गुलाम कहलाते थे हम लोग, सारी दुनिया में | और उस समय के लोगों ने कल्पना की थी कि आजादी के बाद हम अपने ऊपर स्वयं  राज करेंगे और देश और देशवासियों के जीवन  का गुणात्मक विकास करेंगे | फिर ऐसा क्या हुआ कि, हम आज तक  अपने संकल्प में सफल नहीं हुए और गाहे बगाहे अभी भी  अंग्रेजों को याद कर लेते हैं |
                इसका सीधा सा एकमात्र कारण यह है कि हम लोगों ने आजादी का अर्थ  निरंकुशता ,स्वछंदता, निर्भयता समझ लिया  और देश को अपने बाप की जागीर समझ ली | इसका  (स्वराज)  सीधा सा समीकरण कुछ यूँ होना चाहिए  था --सबसे पहले स्व-अनुशासन, फिर सर्व- अनुशासन,  फिर स्व-शासन, और यह अंत में अपने  आप हो  जाता सु-शासन |
                 अगर हम गुड गवर्नेंस की बात करते हैं तो नागरिक के तौर पर हमारी भी जिम्मेदारी बनती है की हम सरकार की नीतियों का, योजनाओं का, खासकर सरकार की मंशा का समर्थन करें और यदि  नेता ,नीति,नीयत किसी पर भी शंका हो तो उसका पुरजोर विरोध करें |
                  बड़े शर्म की बात है, लोग कहते हैं, और सच भी तो है की हमें तो सड़क पर भी  चलना नही आता ,हमारे आचरण से  दूसरे  को क्या तकलीफ हो सकती है  इसका ख्याल करना नही आता | अधिकार क्या हैं हमारे  , इसका खूब भान  है हमें, दायित्वों को जैसे भूले ही रहते हैं | आज हमारे देश की सारी समस्याओं के केवल दो ही समाधान हैं एक जनसंख्या नियंत्रण और दूसरा शतप्रतिशत सभी का शिक्षित होना | सारी समस्याएँ किसी ना किसी प्रकार से इन्ही दो समाधानों से हल हो सकती हैं  | और अंत में, चूँकि हमने डेमोक्रेसी का चयन अपनी मर्जी से किया था तो उसमे निहित मूल्यों को भी संजोना होगा जिसके लिए  यही कहना उचित होगा की मतदान करते समय हम  अपने मत का प्रयोग  देश हित और जनहित में ही  करें |
इस वर्ष से "२५ जनवरी" को  "राष्ट्रीय मतदाता दिवस" के रूप में मनाया जाना घोषित किया गया है |
                            "please cast your vote , don't vote your caste"                                                                                                                                                          
                 

सोमवार, 24 जनवरी 2011

"डिजिटल" होते मानवीय रिश्ते....."

 विज्ञान ने तकनीकी रुप से   प्रगति करते हुए सभी क्षेत्रों को 'analog' से 'digital'  mode में परिवर्तित कर दिया है ।चाहे वह दूर-संचार का क्षेत्र हो,या कोई भी  डाटा ट्रांसफ़र का काम  हो,बैंकिंग के क्षेत्र  के  सारे काम ,चिकित्सा-क्षेत्र में उपकरणों के प्रयोग एवं उनकी रीडिंग सब डिजिटल हो गई है | चाहे पेट्रोल की माप हो,या  रसोई में  किसी उपकरण में मन वांछित तापक्रम सेट करना हो, हलके से हल्का या भारी से भारी वजन करना हो ,किसी भी उपकरण में पहले से इच्छित परिणाम सेट करना, सब बिलकुल बच्चे के काम जैसा आसान है | digital  mode में accuracy एक बहुत अच्छा फीचर है| युद्ध के क्षेत्र में प्रयुक्त सभी उपकरणों में accuracy एक महत्वपूर्ण पहलू है| इससे पहले analogus mode में काम  करने में अनुमान का एक महत्वपूर्ण स्थान था, परन्तु अनुमान लगाना प्रत्येक व्यक्ति की अलग अलग क्षमता पर निर्भर था | मोटे तौर पर  analogus mode में 'गुंजाइश' का अपना एक महत्त्व था जो digital mode में लुप्त हो गया |
             
इसी प्रगति के साथ कदम मिला कर चलते चलते मनुष्य भी लगता है digital mode में आ गया है| उसके लिए परस्पर सम्बन्ध  result oriented ज्यादा हो गए हैं और उसमे  सामंजस्य की गुंजाइश बिलकुल ना के बराबर | चाहे पति पत्नी के रिश्ते हो या माता पिता के सम्बन्ध बच्चों से हो ,सभी में बस  आरपार की बात दिखती है ,बिलकुल binary code की तरह, या तो 'जीरो' या 'वन' अर्थात या तो सम्बन्ध रखेंगे या नहीं रखेंगे | एक व्यक्ति दूसरे के लिए या तो परफेक्ट है या पूरी तरह जीरो ,बीच  की कोई  स्थिति नहीं | विवाह होते ही तलाक इसका एक साफ़ साफ़ उदाहरण है ,यही  रिश्ते यदि  analogus होते तो पक्की तौर पर कोई ना कोई बीच का समाधान निकलता जो पूरे  परिवार को ऐसी स्थिति से बाहर निकाल लाता  |
          
 पर अब  तो मनुष्य अपनी सोच में भी पूरी तरह से digital हो गया है | कोई कितना भी करीबी क्यों ना हो, यदि उससे इच्छित परिणाम ना मिला तब  उससे बुरा कोई नहीं ,किन परिस्थितियों में उससे ऐसा हुआ है, यह  जानने की गुंजाइश बिलकुल नहीं |यही कारण है की मनुष्य का दिल अब digital युग में brittle होता जा रहा है और फिर तो उसे पट से टूटना ही है | माँ-बाप, बच्चे के पैदा होते ही उसके लिए desired result तय कर देते हैं और जब वह  बेचारा बच्चा थोपा हुआ परिणाम नहीं दे पाता, तब पूरे परिवार का दिल टूटता है| बच्चों की ग्रोथ वेव फ़ार्म में होनी चाहिए ना की discrete bundle फार्म में | डिजिटल मशीन की तरह हम लोग पूरे जीवन की  प्रोग्रामिंग एकसाथ कर देते हैं और desired output ना मिलने पर खुद तो करप्ट होते ही हैं और पूरे सिस्टम  में अपनी अदूरदर्शिता और discreteness का वाइरस डालकर  उसे भी करप्ट कर डालते हैं|
               
भले ही  मशीन इतनी तरक्की कर जाए की मनुष्यों जैसा व्यवहार करने लग जाए, यह  परिकल्पना तो  अच्छी है, पर  कितनी भी तरक्की हो जाए ,पर (काश)  मनुष्य मनुष्य ही रहे ,उसमे संवेदनाए रहें,भावनाए रहें,और भरपूर गुंजाइश रहे ,(go और no  go जैसी tolerance  limits बिलकुल भी ना हों) तभी यह दुनिया शादाब रहेगी  शायद   |

रविवार, 23 जनवरी 2011

"जाले यादों के"

रहता हूं,
खोया खोया सा,
यूँ ही उनकी,
यादों के जालों में |

जालों पर,
लटकती रहती हैं,
बूंदें चमकती ,
उनकी शहद सी,
मुस्कान की |

बूंदें आपस में मिलें ,
तो लगती दौड़ने सी
और बदल जाती,
मुस्कान उनकी,
खिलखिलाती हँसी  में |

फूल से खिल उठते हैं,
सब ओर ,
महक उठती है,
मेरी सांसे भी |

अब तो लत सी,
हो गई है,
इस खेल की | 

पहले बूंदें बनाना,
फ़िर उन्हें,
मिलाना,

और बदलते देखना,
उनकी,
मुस्कान को,
खिलखिलाती हँसी में।




गुरुवार, 20 जनवरी 2011

एक मुलाकात ’प्याज़’ से

         इधर कई दिनों से देख रहा था कि अचानक ’प्याज़’ का कद एकदम से बढ़कर सेलिब्रिटी माफ़िक हो गया है। उसकी इज़्ज़त,कीमत बहुत ज्यादा बढ़ गई है।हर कोई उसका नाम लेने भर से ही बड़ा फ़ख्र महसूस कर रहा है और अगर कहीं किसी के पास वो आ गई ,फ़िर तो उसको रखने वाला  किसी शहंशाह से कम नहीं।
        जहां तक प्याज़ का मुझसे वास्ता है, हम बचपन से एक दूसरे के बहुत करीब रहे थे,कभी हम दोनों के बीच कुछ छुपा नहीं था ,उसने मेरी सूखी रोटी को कई कई बार अच्छे ज़ायके में बदला था।मेरी जेब में रहकर मुझे कई बार लू लगने से बचाया था, सो सोचा, ये तो मेरे बचपन की दोस्त  है,आज बड़ी सेलेब्रिटी हो गई है तो क्या हुआ, चलो उससे एक बार मिल तो लेते हैं।बस उससे मिलने की ठान ली।
          लेकिन सच है किसी बड़े आदमी की तरह ’प्याज़” से मिलना  भी आसान ना था ।अव्वल तो उसका ना पता ना ठिकाना, ना ही मेरे पास उसका कोई विज़िटिंग कार्ड था ।लेकिन हम भी कहां मानने वाले थे।मैने अपने एक कॉमन दोस्त ’लहसुन’ को पकड़ा और उससे प्याज़ का ठौर ठिकाना पूछा और कहा एक बार उससे मिलवा दो,घर में भी सब कह रहे हैं कि मै तो उसके बचपन का सुदामा हूं (वैसे कभी किसी बड़े आदमी से जान पहचान का ढॊंग नही करना चाहिये)।बहुत मुश्किल से ’प्याज़’ से  मीटिंग फ़िक्स हुई, एक फ़ाइव स्टार होटल के एअर कंडीशंड डाइनिंग रूम में।
            मैं बहुत संकोच करते हुए,अपनी सबसे अधिक कॉन्फ़ीडेंस देती पोशाक में सज कर वहां तय समय से पहले ही पहुंच गया।मन ही मन यह सोच रहा था कि बच्चों की जिद के कारण क्या क्या नहीं करना पड़ता, गलती मेरी थी, ना शेखी बघारता ना यह दिन देखना पड़ता।खैर थोड़ी देर बाद वहां ’प्याज़’ सज संवर कर अपनी सहेलियों के साथ मुझसे मिलने आ ही गई,अपने बचपन के दोस्त से इतने दिनों बाद मिलने पर मेरी आंखों में आंसू आ ही पाए थे  कि वो मु्झे चिढ़ाने के अंदाज़ में हंसते हुए बोली, तुम अभी  भी रहे, वही गंवार के गंवार।अब मुझसे मिल कर कोई रोता नही बल्कि गर्व करता है और अपने को धन्य समझता है। 
             मैने कहा मैं तो बहुत खुश हूं तुमसे मिलकर ,पर एक बात बताओ,पहले तो तुम हर आमो-खास से बहुत घुली-मिली थी, सबको उपलब्ध थीं,सबकी शादी ब्याह,गाने बजाने मे दिख जाया करती थीं, पर अचानक एक जीते हुए विधायक/सांसद की तरह अपने चुनाव क्षेत्र से गायब क्यों हो गईं।इस पर वो इतराते हुए और उंगलियां नचाते हुए बोली इसमे तुम्हें क्या परेशानी है,तुम्हारा कोई काम कहीं रुका हो तो बताओ, मेरा बहुत बड़े बड़े लोगों के यहां आना जाना लगा रहता है,उन सभी से अच्छी जान पहचान हो गई है, तुम्हारा काम हो जाएगा बस।मैने कहा नही मुझे कोई काम नही है ,मैं तो बस तुमसे मिलने आया था और यह बताना था कि तुम्हारे गायब हो जाने से गरीब आदमी का खाने-पीने का स्वाद बे-मजा हो गया है,एक तुम्हारा ही सहारा था वह भी छिन गया।और अंत में मैने यह भी कह ही दिया (मन की भड़ास निकालने के लिये) कि अमीरों से दोस्ती अच्छी नहीं ,यह किसी  के नही होते।तुमसे भी ऊब कर और तुम्हारी पूरी कीमत निकाल कर, एक दिन अचानक तुम्हे सड़ा-गला कर फ़ेंक देंगे, हम गरीबों के ही पास ,जब तुम्हारी कोई कीमत नही बचेगी। 
             लेकिन मेरे दोस्त,यह मेरा वादा है हम तब भी तुम्हें अपनाने के लिये तैयार खड़े मिलेंगे।
       

बुधवार, 12 जनवरी 2011

"सौन्दर्य से प्रथम परिचय"

जहां तक याद,
है मुझे,
थोड़ा सा मुस्कुराई,
तो तुम भी थी।
नज़रें मिली भी,
थी कई बार,
ओंठ भी लरजे,
तो थे तुम्हारे।
थिरकन भी हुई थी,
कपोलों में,
नाक पर कुछ बूंदे,
पसीने की,
उभर आई थी,
शायद  लाजवश।
डोल रही थी,
बालियां कान की,
मन की हाँ-ना का,
आभास कराती हुई।
कोशिश तो कम ही थी,
तुम्हारी सम्भालने,
की आंचल,
शायद अभिनय ही था।
साहस कर मैनें देखा तो था,
तुम्हें उस दिन,
और मन भी,
डोल उठा  था,
सच में।
पर इसमें मेरा क्या,
कसूर ? ?
ना देखता,
तो अपराध करता,
सौन्दर्य की अनदेखी का।
और सबसे बड़ा सच,
तो यह है कि,
आज  भी तुम,
चाहती हो,
देखूं मै तुम्हें,
चुपके चुपके।

सोमवार, 10 जनवरी 2011

"कुछ दिल की"



दिल से अपने पूछा,
एक बार और,
परख लूं उन्हें।
बड़ी मासूमियत से,
बोला परख ना लो,
पर कितनी बार।
मैने कहा,
शायद इस बार,
मैं ही गलत होऊं।
मेरा दिल बोला,
कितने भोले हो तुम,
अपने नरम दिल को,
हवाले करते हो उनके,
बार बार।
निचुड़ से जाते हो,
हो जाते हो,
लहु लुहान और,
परखने के फ़ेर में,
शायद तुम्ही,
परखे जाते हो,
हर बार।

शनिवार, 8 जनवरी 2011

"उम्र एक लिबास"

उम्र एक लिबास है,
जो ढक लेता है,
अनेक खामियां,
अनेक गुनाह,
उठाते हैं लोग,
ना-जायज़ फ़ायदा,
इस फ़लसफ़े का,
और करते हैं मैला,
इस लिबास को,
बात हो चाहे,
रिश्तों की, चाहे अपनों की,
उम्र की तासीर ही,
आंकते सभी,
सहमत नही कई बार मैं भी,
पर ओढ़ रखा है जो,
लिबास संस्कारों का,
मन तो कहता है,
उतार नोचो सभी लिबास,
पर समाज में कहलाऊंगा,
नंगा मैं ही ।

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

"मालगाड़ी का गार्ड"

                ट्रेन के सफ़र के दौरान जब भी कोई मालगाड़ी देखता हूं,तब उसके आखिरी डिब्बे पर बरबस निगाह पड़ जाती है।इतनी लम्बी गाड़ी के आखिरी डिब्बे में एक एकदम निपट अकेला आदमी बैठा दिखता है, चुपचाप ।सोचता हूं कैसे सफ़र कटता होगा अकेले और सफ़र भी ऐसा कि पता नही,कहां घंटों खड़ा रहना है और कब तक  वह भी  प्रायः ऐसे स्टेशनों पर, जहां ना कोई जनजीवन ना कोई दुकान।
                मालगाड़ी के इस डिब्बे में पता नहीं क्यों, रेलवे ने रोशनी का इंतज़ाम भी नही कर रखा है।कैसा भी मौसम हो,कड़कती सर्दी या घोर बारिश,बस अंधेरे में उस में अकेले कटती ज़िन्दगी।बगल से उसके एक से एक रंग-बिरंगी गाड़ियां यथा शताब्दी,दुरंतो,राजधानी धड़ाधड़ गुजरती हुई, जैसे मुंह चिढ़ाती तेज़ जिन्दगी भाग रही हो और मालगाड़ी धीरे धीरे रेंगती हुई,जैसे कैंसर का मरीज रेंगते हुए अपनी मौत का इन्तज़ार कर रहा हो। आजकल तो मोबाइल और वाकी टाकी का ज़माना आ गया ,आज से १०/१५ वर्ष पहले तो गार्ड साहब घर से जाने के बाद, कब लौटेंगे, उन्हें खुद भी पता नही होता था।
                  सच मानिये,कभी मालगाड़ी के गार्ड की ज़िन्दगी को कल्पना कर के देखें,मन अवश्य विचलित होगा।मैं तो जब भी कोई मालगाड़ी देखता हूं तो मेरा सर श्रद्धा से उस गाड़ी के गार्ड के प्रति झुक जाता है।हो सकता है एक कारण यह भी हो कि मेरे पिता जी रेलवे में मालगाड़ी के ही गार्ड थे, और मैं अब महसूस करता हूं कि उनका जीवन उस अवधि का कितना कष्टमय रहा होगा, पर उन्होंने  हम लोगों को कभी भनक भी ना लगने दी ।
            

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

"ज़िन्दगी रास्तों सी"

कभी सूनी,
कभी इतनी रौनक,
कभी श्मशान सी,
कभी उत्सव सी,
मेरी ज़िन्दगी।
जैसे रास्ते,
कभी भीड़ भरे,
कभी निर्जन,
कभी उन पर मेले,
कभी कोई ना अकेले।
जब भी उसपे कोई  गुजरा,
उसे वह अपना मान बैठा,
पर वो तो मुसाफ़िर था,
उसे ठहरना कब था।
वैसे ही यह ज़िन्दगी,
जो भी मिला इसे,
उसी को  प्यार कर बैठा,
पर वे सब तो थे,
तितली के मानिन्द,
पराग खत्म,
अनुराग खत्म।
भीड़ को तलाश,
नए रास्तों की,
और उन्हें तलाश,
नई ज़िन्दगी की ।

बुधवार, 5 जनवरी 2011

"और बच्चे बड़े हो गए"

                सेमेस्टर ब्रेक की छुट्टियों के बाद दोनों बच्चों को वापस कानपुर (आई.आई.टी)  जाना था, चूंकि सामान अधिक था,रजाई वगैरह, सो मैने कहा चलो मैं कार से छोड़ आता हूं।वहां पहुंचने के बाद खाना वगैरह खाने मे एवं चाय पीने में अभी पांच-छह ही बजे थे कि बच्चे बोल पड़े कि अब आप लोग जल्दी वापस जाइए नही तो शाम को कोहरा होने लगता है आपको ड्राइविंग में परेशानी होगी। (मुझे लगा कि बच्चे बड़े हो गए)।
                फ़ोन पर बात करते समय कभी गल्ती से भी खांसी आ गई तो तुरंत सवाल’ तबियत ठीक नही है क्या’?(मुझे लगा कि बच्चे बड़े हो गए)।
                पहले जो भी बातें बच्चों से होती थी अभी भी लगभग सारी बातें वैसे ही होती हैं बस दोनों ओर के छोर आपस में बदल गए हैं ऐसा लगता है।
                बच्चॊं का एकदम से बड़े हो जाना वैसे ही लगता है जैसे क्षण भर में ही पौ फ़टते ही रात से सुबह हो जाती है।उनकी बातें और सवाल सुनकर तो कभी कभी ऐसा लगता है कि वे बड़े हो रहे हैं और हम स्थिर से हैं।
                 मैनें पिछली छुट्टियों के दौरान उनके सामने उनकी मम्मी को थोड़ा तेज़ आवाज़ में कुछ कह दिया (कहा भी सही ही था),पर मैने देखा कि बच्चों की भाव भंगिमा एकदम बदल सी गई थी ।(मुझे लगा कि बच्चे बड़े हो गए)।
                  चार कि संख्या में, मैं, अक्सर विवाद की स्थिति में तीन-एक के मत विभाजन से जीत जाया करता था परन्तु अब उसी तीन-एक के मत विभाजन से हार जाता हूं।(मुझे लगता है  कि अब  बच्चे बड़े हो गए)।

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

"पोटली लम्हों की"

कतर रहा था,
समय को इक रोज़,
कतरे कतरे पर,
नाम तुम्हारा लिखा मिला,

वो लम्हें ,
जो बीते साथ तेरे,
सितारे से टंके हैं ,
इस जीवन में,

यूं ही गुज़र जाएगी ,
ज़िन्दगी एक रोज़,
क्यों ना लगाते चले गांठ,
प्यार की आपस में,
                                   
 फ़िर एक पोटली सी हो,
 लम्हों की प्यार भरी,  
 बस इतनी ही पूंजी बहुत,
 जीवन खर्च के लिए ।

सोमवार, 3 जनवरी 2011

"तुम पहले जैसे हो जाओ"

अबोध सौन्दर्य था,
हठ था बाल सुलभ,
अबोध थी चितवन,
आंखे निहारूं तो कपोल सुर्ख,
कपोल छूं भर लूं
तो लरज उठते थे होंठ,
चॊंच लड़ाती थी बेवजह,
गलती खुद की फ़िर भी,
मान मनउव्वल मेरे हिस्से,
हां  सहेजा हमेशा मुझे,
कॉपी राइट की ही तरह,
ओझल हुआ तो बोझिल किया,
आंसुओं से,
मगर सच तो यह है कि,
थी तुम जैसी भी,
मन  को अच्छा लगता था,
पर अचानक यह क्या हुआ,
क्यों हो गया ऐसा,
ऐसी बेरुखी,
"कारण" जो भी हो,
मै तो वह "कारण" नही,
इल्तिजा समझ लो इसे,
"तुम पहले जैसे हो जाओ"।

रविवार, 2 जनवरी 2011

"चिड़िया"

         प्रकॄति ने चिड़िया को जितना कोमल बनाया है उतना ही उसे सशक्त एवं दार्शनिक भी बनाया है।अपना जीवन चक्र चलाने के लिये उसे कठोरतम श्रम करके घोंसला बनाना पड़ता है,फ़िर उसमें अंडों की सुरक्षा भी एक अत्यन्त दुरूह कार्य (कई बार खुद की जान भी गंवानी पड़ती है) ।जब चूजे छोटे होते हैं तब चिडिया अपनी चोंच से उन्हें खाना खिलाती है।फ़िर धीरे धीरे चूजे फ़ुदकना सीखते हैं।उस समय चिड़िया का अपने चूजों के प्रति स्नेह देखकर लगता है कि वह अपने बच्चों के बगैर नही रह पाएगी।
           पर जिस दिन उसके बच्चे उड़ना सीख लेते हैं, वह चाहती है उसके बच्चे खूब दूर तक उड़ जाएं और वह उनका वापस आने का  इन्तज़ार भी  नही करती।
            ना कोई अपेक्षा, ना कोई चाह, ना कोई लालच।ऐसा ही जीवन दर्शन मनुष्य का भी होना चाहिये।बच्चों को उत्तम शिक्षा,समाज में अच्छा स्थान, बस उसके बाद ना कोई अपेक्षा हो, ना कोई माया मोह। (एक बार उन्हें पंख लगा दें फ़िर उन्हें सारे आसमान को छूने दें) ।

शनिवार, 1 जनवरी 2011

"नए साल की पहली पोस्ट"

               नए साल के इन्तज़ार में कुछ ऐसा लग रहा था कि जैसे हम ’समय’ के एक बहुत बड़े चक्कर-झूले पर बैठे हों और वह झूला हमें थोड़ी देर बाद किसी नए ठिकाने पर उतार देगा पर ऐसा तो कुछ भी नही हुआ।कुछ भी तो नया नही लग रहा है। जैसे खेत में लगा रहट दिन भर तो चलता रहता है पर पानी तो एक निश्चित स्थान पर ही गिरता रहता है बिल्कुल उसी तरह हम भी वहीं जमें हुए हैं। चारों ओर से पटाखों की आवाज़ें आ रही हैं,सड़कों पर खूब हुड़दंग हो रहा है।सारे लोग बहुत खुश हैं,समझ नही आ रहा है कि उन्हें क्या मिल गया या मिलने वाला है।
                 ये तो नई इनिंग की शुरुआत सी है,अभी तो टॉस होगा खेल होगा कोई जीतेगा कोई हारेगा।खेल के पहले ही जश्न मना लिया, पता चला खेल में फ़ुस्स।
                  सच है,नया टाइम पीरियड प्रारम्भ हुआ है,नये उत्साह,उमंग और जोश से हमें यह दौड़ लगानी है और सफ़ल ज़िन्दगी की दूरी तय करनी है।पर शुरुआत की आपाधापी में ही कहीं हम अपना स्टार्टिंग मार्क ना भूल जाएं या अपने ट्रैक से भ्रमित ना हो जाएं।मैराथन तो हज़ारों लोग एक साथ शुरु करते हैं पर अन्त में कुछ सौ-एक लोग ही उसे पूरी कर पाते हैं।भीड़ से अलग होने के लिए कुछ ’अलग’ ही करना होगा।
                      इस ’अलग’ को तय  करने का केवल एक ही बेंच मार्क है कि हर अगला दिन हमारे पिछले दिन से बेहतर होना चाहिए और यह साफ़ साफ़ दिखना चाहिए कि हमारे होने से हमारे आस पास और समाज में कुछ नया और अच्छा  हर दिन जुड़ता सा जा रहा है।
                       हम ’दायित्वों’ के बोध को ’अधिकारों’ के बोध से ऊपर रखें तो शायद बहुत कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा,इसी आशा के साथ आप सभी को नए साल की शुभकामनाएं।