रविवार, 24 अक्टूबर 2010

"करवा चौथ" जीवन बीमा योजना

            रोज़ सबेरे उठने से पहले नींद में ही बिस्तर पर बगल में टटोल कर देखता हूं,तो श्रीमती जी गायब मिलती हैं।जाहिर है वह मुझसे पहले उठ कर दिनचर्या में लग जाती हैं और मुझे बिस्तर पर ही चाय मिल जाती है। पर आज सुबह आदतन बगल में हाथ फ़ेर कर देखा तो पाया कि   वह तो समूची की समूची बगल में बिस्तर पर ही धरी हैं।मेरा माथा ठनका कि   क्या बात है ,इस inertia का क्या कारण हैं ,सुबह सुबह ऐसी बेजान-ता क्यों। मैने sympathy और दुलार का घोल अपनी आवाज़ मे मिलाने की कोशिश करते हुए पूछ ही लिया क्या बात है,तबियत तो ठीक है।इस पर उन्होनें बड़ी गरीब सी आवाज़, पर आंखों मे चमक के साथ बताया कि   "आज मेरा करवा चौथ का उपवास है"।
            मै तुरंत full of alert मे आ गया और जैसे बचपन मे कंही भी और कभी भी ’जन मन गण’ की धुन सुनते ही माड़ लगे कपड़े की तरह कड़क हो जाता था, उसी तरह तुरंत फ़ुरती से बिस्तर छोड़ कर खड़ा हो गया और याद आ गया कि   आज तो "करवा चौथ जीवन बीमा" का प्रीमियम भरना है नही तो इस योजना मे कोई ग्रेस पीरियड भी नही होता अगर कहीं प्रीमियम भरना भूल गये तो पूरी पॉलिसी लैप्स।पिछले वर्षों तक जमा कराए गए प्रीमियम का कोई रिटर्न नही और ना ही कोई रीन्यूवल का चांस।
              अब तो सबेरे से ही उनका व्रत का प्रताप अपना असर दिखाना शुरु करने वाला था,इसका पूरा एहसास था मुझे।उनके इस व्रत का सीधा संबंध मेरी जान से था,इसका भी पल पल मुझे डेमो दिया जाने वाला था।अन्य बीमा पॉलिसीयों मे यह सुविधा होती है कि   आपने एक बार ड्यू डेट पर प्रीमियम भर दिया,फ़िर आपका काम खत्म,पर इस घरेलू योजना में प्रीमियम तो भरना ही है,सारे दिन आपको यह महसूस भी करना है और जताना भी है कि   "हां हम आप की वजह से ही जीवित हैं"। 
               मुझे समझ में नही आता कि    इस व्रत की शुरुआत पति   के दीर्घायु होने के लिए prevention के तौर पर प्रारंभ की गई थी या cure के रूप में। जो भी हो इस दिन बेचारा पति   सब दिनों की अपेक्षा maximum भयभीत, वैसे ही दिखाई पड़ता है,जैसे अयोध्या फ़ैसले के दिन शासन-प्रशासन भयभीत था,कि  कंही दंगा ना हो जाए।लेकिन यहां तो दंगा करने वाले मन ही मन आनंद मे थे कि   देखो एक ही दिन में पूरे घर को ransom पर ले रखा है।धन्य हो पत्नियों का systematic investment plan जो पूरी तरह सफ़ल रहता है वह भी exponential return के साथ।

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

"डेंगू जो हो ना सका"


 आजकल ऑफ़िस में ५-६ दिनों से सन्नाटा पसरा हुआ है। जिसे देखो सब छुट्टी पर हैं,कारण वही एक छोटा सा मच्छर, डेंगू नाम का। वैसे मच्छर का डंक इतना लंबा तो नही हो सकता  कि वह हमारे विभाग  के कर्मचारियों की मोटी खाल को भेद सके , पर फ़िर भी सबकी अर्ज़ी डेंगूफ़ाइड होने की है, तो मानना तो पड़ेगा ही,सरकारी महकमा जो ठहरा। लोग कह रहे हैं कि मौसम बदल रहा है,यह "वाइरलो" का मौसम है।चलो अब इन वाइरलों के  प्रकार भी याद करने पड़ेंगे, क्योंकि  "कोई सवाल छोटा नही होता", शायद KBC में फ़ास्टेस्ट फ़िंगर फ़र्स्ट मे यही जितवा  दे।

हालचाल लेने के लिये मैने अपने एक सहकर्मी के यहां फ़ोन किया तो उधर से जवाब मिला कि अभी ठीक नही हूं "कटलेट’ खा रहा हूं। तभी बगल से उनकी बेगम की आवाज़ धीरे से आई कि बोलो 'प्लेटलेट' कम हो गया है, उसी की दवा खा रहा हूं। फ़िर गुस्सें मे उन्ही की आवाज़ धीरे से आई कि कटलेट तो सामने से हटाओ तब तो झूठ बोल पाऊंगा। मै समझ गया यह डेंगू तो बडे काम का है ,यह तो इलू इलू करा रहा है।शहर के सारे अस्पताल,नर्सिंग होम फ़ुल हो गये हैं ( आखिर डॉक्टरों की पत्नियां भी तो लक्ष्मी जी का व्रत,उपवास रखती होंगी)। डॉक्टरों की नई गाड़िया धनतेरस पर आने के लिये बुक हो रही हैं। आपस में डॉक्टर शाम को् क्रिकेट के स्कोर की तरह पूछते हैं "कितने डेंगू- सेंचुरी हुई कि नही" उधर से जवाब आता है "जय  हो मच्छर,मरीज़ और मीडिया की, तीनों मिलकर हमारा मनी भी बढ़ा रहें है और मन भी"।
           
शाम को घर लौटा तो काम की अधिकता से (बाकी सब छुट्टी पर जो ठहरे) मै भी कुछ बुझा बुझा सा था,मेरी निजी एवं  इकलौती पत्नी ने पूछ लिया- क्या बात है, मैने कहा थोड़ा हरारत सी लग रही है शायद बुखार हो रहा है। इस पर वे बोली कि ऐसी मेरी किस्मत कहां,मेरी सभी सहेलियां सारे दिन डेंगू , ब्लड टेस्ट,वाइरल फ़ीवर की किस्मे,प्लेटलेट्स और नई नई एंटीबायोटिक्स की बात करती है और मै अनाड़ियों की तरह चुप रहती हूं।अगर कहीं KBC में जाने का चांस मिला तो मै तो हार ही जाऊंगी ना।मैने कहा,"अगर ऐसी बात है तो,आज खोल दो घर की सारी खिड़कियां,दरवाज़े। हटा दो यह मच्छरदानी,फ़ेंक दो यह ओडोमॉस,ऑलआउट और स्वागत करो "डेंगू"  महराज का।
             
पर हमारी किस्मत तो हमसे ऐसे रूठती है जैसे कलमाड़ी से शीला दीक्षित। इतना उपक्रम करने पर भी डेंगू महाराज हमारे ऊपर आसीन नही हुए और हमे हरारत से ही संतोष करना पड़ा और अब कल ऑफ़िस फ़िर  जाना पड़ेगा,ना कटलेट ही मिला ना प्लेटलेट।

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

"एक महकमा बिजली का"

                       असतो मा सदगमय॥ तमसो मा ज्योतिर्गमय॥ मॄत्योर्मामॄतमगमय॥
             अंधेरे और उजाले में बहुत व्यापक अंतर है। एक नन्ही सी प्रकाश की किरण मीलों दूर तक अंधियारा हर लेती है।तमस असत्य और मॄत अवस्था का परिचायक माना गया है,इसीलिये ईश्वर से मनुष्य प्रार्थना करता है कि उसे सदैव वह मार्ग दिखाई पड़े, जिस पर चल कर वह सच्चाई और ज्ञान  की ज्योति पा सके।मनुष्य ने विज्ञान  की दुनिया में सबसे बड़ा चमत्कार बिजली के आविष्कार के रूप मे ही किया है।शनैः शनैः बिजली हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की सूची में पहले स्थान पर कब आ गई, पता ही नही चला।बिजली की विशेषता है कि  वह खुद तो नही दिखाई पड़ती, पर उसी की वजह से सब कुछ दिख पाना संभव हो पाता है। इसका निर्माण  एक जटिल प्रक्रिया है। चूंकि आम आदमी इसके उपयोग से इतनी सरलता से घुलमिल गया है कि उसे इसकी जटिलता एवं गंभीरता का एहसास नही हो पाता है। इसके उपयोग मे इतनी भिन्नता है कि  कहीं ये चिराग रोशन करती है तो कहीं लोहा पिघलाती भी है और कहीं  लोहा काटती  है और लोहा जोड़ती भी है और चिकित्सा के क्षेत्र मे तो इसने ना जाने कितने आयाम छू लिये हैं।
                   इतने जटिल और संवेदनशील विषय "बिजली" को बनाने और सबको मुहैया कराने का काम करने वाला विभाग निश्चित तौर पर एक महत्वपूर्ण महकमा ही होगा और उसमे काम करने वाले भी यकीनी तौर पर काबिल और संवेदनशील भी होने चाहिये। काबिलियत तो किताबी तौर पर हासिल हो जाती है पर जो आपसे अपेक्षा करता है उसके प्रति  संवेदना रखना, यह महसूस करने से ही हासिल हो सकता है।गांव में और कहीं कहीं शहर में आज भी शाम को बत्ती जलने पर लोग दोनो हाथ जोड़ कर प्रणाम करते है,किसी अमुक के आने पर यदि तुरंत बत्ती बंद हो जाय तो उसे मनहूस करार दिया जाता है।यह सारी जानी समझी बातें करने का केवल इतना सा मकसद है कि जो लोग इस महकमे मे काम करते हैं उन्हे एहसास हो कि  उनके काम से कितने विशाल समुदाय के लोग कितनी दूर तक प्रभावित होते हैं।
                     बिजली से होने वाली घातक दुर्घटनायें बहुत ही गंभीर विषय है,ऐसा लगता है कि यह महकमा बिजली का तंत्र नही बल्कि   electric crematorium चला रहा है।इस पर ध्यान देने की ही नही, अपितु सभी को संवेदनशील होने की आवश्यकता है,कोई भी दु्र्घटना ऐसी नही होती जो टाली जा सकने वाली ना रही हो,लोगों मे जानकारी का अभाव भी अक्सर इसक कारण बनता है।किसी काम को ईमानदारी से करने की वजह केवल वेतन,प्रोमशन,दबदबा अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा ही नही होनी चाहिये,अपितु संवेदनशीलता भी एक मुख्य कारण होना चाहिये। आपके कर्तव्यबोध से अपरोक्ष रूप से तमाम उन लोगों का भला होता है जो आपसे उम्मीद रखते हैं और यह तो बिना फ़ौज़ की नौकरी मे रहते हुये यह देश सेवा भी है।
                   वर्तमान संसाधनो एवं परिस्थितियों मे ही रहते हुए हम बेहतर आउटपुट दे सकते है,जरूरत केवल इस बात को स्मरण रखने की है "तमसो मा ज्योतिर्गमय" की आशा लोग इसी महकमें को ही ध्यान मे रखकर करते हैं।और ऐसा करने पर यही महकमा बिजली का, महक उठेगा लोगों के दिलों की रोशनी से।
                  "शुभ दीपावली"

मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010

"मन" और "eddy currents"

           सरल भाषा में eddy current को इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं कि   जब किसी  closed conducting system को varying magenetic flux से expose कराते हैं तब उस क्लोस्ड सिसटम में विरोधी धारायें पैदा हो जाती हैं जो अपने कारक का विरोध करती हैं। किसी सिसटम से अधिकतम आउटपुट लेने के लिये इन एडी करेंट को न्यूनतम करना आवश्यक होता है।
           इसी प्रकार कोई भी  व्यक्ति  अपने में एक कम्पलीट सिस्टम है,वह जब दूसरों के सम्पर्क में आता है एवं परिवर्तनशील विचारों या different  flux of thoughts से मुखातिब होता है ,तब उसके मन में भी एडी करेंट उतपन्न हो जाती हैं जो उन बाहरी विचारों का जबरदस्त विरोध करती हैं। विग्यान की दुनिया में इस समस्या से छुटकारा पाने के लिये system को भीतर से अनेक  परतों का बना देते हैं जिससे उनमे विभिन्न परतों मे बनने वाली एडी करेंट एक दूसरे का विरोध कर परिणामी असर लगभग निष्प्राभावी कर देती हैं। इसी प्रकार मनुष्य को भी प्रयास करना चाहिये कि उसके मन में विरोधी धारायें(eddy current) कम से कम निर्मित हों,तभी वह  अधिकतम एवं अच्छा परिणाम दे सकेगा।इसके लिये मन ,चित्त को एकदम शांत एवं स्वार्थ रहित होना चाहिये, तभी उसके मन मे कोई विकार (eddy current) उत्पन्न नही होगा। उसे भी अपने मन में सभी की बातों को ध्यान से सुनना एवं परखना चाहिये फ़िर उनमे आपस में यदि  कोई विरोधाभास तथ्य होंगे तो स्वयं ही एक दूसरे को निष्प्राभ्वी कर देंगे।(lamination of thoughts as lamination of core in transformers)
            एक अन्य उदाहरण से भी इसे इस प्रकार समझ सकते हैं ,जैसे किसी कक्षा में कोई अध्यापक पढा रहा हो और पूरी कक्षा में सभी बच्चे ४ -४ के झुंड मे गोल बनाकर आपस मे बात करने लगे तो एक प्रकार से कक्षा में eddy current का निर्माण होने लगता है जो पूरी कक्षा का आउटपुट लगभग शून्य सा करदेता है।इसका समाधान करने के लिये फ़िर अध्यापक बच्चों को उनके मित्र से अलग कर बैठा देता है जिससे फ़िर eddy current बनती ही नहीं,या बनती है तो स्वयं ही दूसरे विरोध करने लगते हैं।(layered arrangement of sitting)
            किसी भी कार्य को लगन से करना,अपना दायित्व समझना,ईश्वर का ध्यान,स्मरण और सत्संग ,विवेक का उचित प्र्योग ,ये सब ही वे उपाय हैं,जिनसे हम अपने मन में बनने वाली eddy currents को न्यूनतर कर सकते है और अपना जीवन सार्थक कर सकते हैं।

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

"प्यार" का "osmosis"

          इस धरती की सारी की सारी गतिविधियों के संपन्न होने का केवल एक ही  कारण है और वह है:दो गतियों, दो स्तरो या दो स्थितियों में विभवांतर होना अथवा gradient होना,या differential होना।किसी भी सिस्टम के सारे अवयवों का प्रयास रहता है कि उनके आपस में differential of status  न्यूनतम हो या शून्य ही हो जाय।उसी की कोशिश मे static भी dynamic हो जाता है । जैसे ऊपर से नीचे वस्तुओं के गिरने का कारण ऊंचाई में अंतर होना,पानी का बहाव , हवा का बहाव,ऊष्मा का बहाव,विद्युत का बहाव अथवा सारे भौगोलिक परिवर्तन विभिन्न स्थितियों मे differential के कारण ही होते हैं।
           इसी प्रकार भावनाओं,विचारों का भी प्रवाह हो सकता है। इसी लिये हिन्दू धर्म में सत्संग को बहुत महत्व दिया गया है।बस करना केवल इतना सा है कि  एक व्यक्ति   के मन या दिल में प्यार या स्नेह,आस्था,प्रेम  इतना लबालब भरा हो कि  दूसरे व्यक्ति  के मन मे वो प्यार osmosis से प्राविहित हो जाय।
            शायद गले मिलने का चलन भी इसीलिये किया गया होगा कि  बिना कुछ बोले, सुने osmosis से ही प्रेम एक दूसरे के दिलों मे बहने लगे।इस प्रक्रिया मे उच्चरक्त चाप भी अपने आप कम रक्त चाप वाले से मिलने पर औसत हो सकता है।विज्ञानं  की जितनी भी परिभाषाएं अथवा विश्लेषण  हैं सब मनुष्य पर ही आधारित हैं।
 ओशो ने भी इसीलिये सत्संग /  संसर्ग को अत्यंत महत्व दिया था।
               कुछ लोग इसी को टच थेरेपी भी कहते हैं और जादू की झप्पी भी।

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

"लोलाराम"

        बड़ा खुश था कि   तीन दिनों की छुट्टी एकसाथ हो रही है पूरी तरह आराम होगा ।यही सोचता हुआ ऑफ़िस से घर लौट रहा था कि अचानक कार के अगले हिस्से से अजीब सी घरड़ घरड़ की आवाज़ आना शुरु हो गई।मैने कार रोकी और उसके अगले हिस्से का मुआइना करने लगा,पर पल्ले कुछ नही पड़ा।पर चूंकि हम ठहरे मेकेनेकिल इंजीनियर सो कहां मानने वाले थे,लगे रहे जूझते रहे,पर सच में कॉलेज मे पढ़ा लिखा कुछ काम ना आया।धीरे धीरे उसी आवाज़ को संगीत समझते हुए पहुचें एक नामचीन मिसत्री के पास।उसने हमारी दशा देखकर समझा आवाज़ मेरे मे से ही आ रही है,तब मैने इशारा कार के अगले हिस्से की ओर किया ।
           चहुंओर से फ़ेरे लेने के बाद उसने बेली इंस्पेक्शन किया यानी नीचे लेटकर और फ़िर देखकर बताया कि साहब इसका "लोलाराम" बदलना पड़ेगा। मै थोड़ा चौंका कि  क्या बोल रहा है फ़िर सोचा होगी कोई चीज़।मिस्त्री साहब किसी बड़े सर्जन की तरह बोले जाइए एक नया "लोलाराम" ले आइए मै बदल दूंगा। मै चल दिया "लोलाराम" की तलाश मे,मुझे क्या पता था कि वह ओ निगेटिव खून से भी जादा रेअर होगा। खैर मै जहां भी गया जिससे भी पूछा कोई ना "लोलाराम" समझ पाया ना बता पाया कि  "लोलाराम" साहब कहां मिलेंगे।            निराश होकर मैने तय किया कि अब कार के मायके यानी कि  शोरूम चला जाय जहां से मैने कार ली थी।वहां पहुंच कर मैने अपना परिचय कार मालिक और मेकेनेकिल इंजीनियर के रूप मे दिया फ़िर भी वहां कोई मुझसे इंप्रेस नही हुआ।मेरे मुंह से "लोलाराम" सुनकर उन्हे समझ मे कुछ नही आया अलबत्ता मेरी डिग्री पर शक जरूर हुआ होगा।वहां एक समझदार टूल मेकेनिक ने मुझसे कहा अच्छा आप हाथ से छूकर बताइए कि  क्या बदलने को कहा है आपके मिस्त्री ने। जब मैने उन्हे हाथ से छूकर  बताया कि  मुझे क्या चाहिये तो सबके चेहरे पर एकदम से हंसी फ़ूट पड़ी। असल मे वह था "lower arm" फ़्रंट सस्पेंशन का।                                            फ़िर क्या था मै एक हाथ मे "लोलाराम" को कॉमनवेल्थ मे मिले गोल्ड मेडल की तरह लेकर पहुंच गया अपने मिस्त्री के पास और अब मै अपने नये  लोलाराम के साथ घर लौट रहा हूं।                                                                                                                                                                          

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

रीचार्ज कूपन "समय" के

               समय को परिभाषित करना सहज नही है।स्टेफ़ेन हॉकिन्ग साहब ने तो इस पर अनेक ग्रंथ लिख डाले है,पर सरल भाषा मे दो घटनाओं के बीच के अंतराल को समय कह सकते हैं।या यूं कहा जाय कि  सारी घटनायें समय के एक बहुत बड़े कैनवस पर चित्रित होती रहती हैं।कुछेक का मानना है कि समय भी दो तरह का होता है,एक अच्छा समय,दूसरा बुरा समय।जबकि समय तो दर्पण की तरह होता है ना अच्छा,ना बुरा ,वह तो आपका ही प्रतिबिम्ब है।  पलक झपकाने से पल बीत जाता है और सांस रोक लेने से समय रुक सा जाता है।
                जीवनकाल एक निश्चित लम्बाई की  "समय"की सुरंग है।बस इसी सुरंग से गुजरते हुए मनुष्य अपने सारे कार्य सम्पादित करता रहता है और जब सुरंग खत्म समय खत्म।मगर इस सुरंग के मार्ग से गुजरते हुए  आप बीते समय की अवधि  को रीचार्ज भी कर सकते हैं ।यादें,अच्छी यादें,बचपन की यादें,मां की यादें,शरारतों की यादें,महबूब की यादों की यादें,अपनों को याद रखने की ढाढस बंधाने की यादें,नन्ही उंगलियों से तितली पकड़ कर टिफ़िन बॉक्स मे बंद कर लेने की यादें,आंख में आंसू भरे भरे हंस पड़ने की यादें और ना जाने क्या क्या ,यह सब याद आने से समय जैसे बीता हुआ सा लगता ही नही है,गोया समय को भी रीचार्ज कूपन से चार्ज कर लिया गया हो। या कह सकते है कि समय की सुरंग से गुजरते हुए अपने आस पास छोटी छोटी तमाम सुरंगे यादों की और बनती जाती हैं जिससे रास्ता तनिक और लम्बा हो जाता है।
                 हम स्नेह और दुलार का वातावरण बना कर,उनकी यादों को ही रेड कारपेट बना अपने आगे के शेष मार्ग में बिछाते हुए अपना स्वागत स्वयं क्यों ना करते चलें। फ़िर तो समय ही समय है।

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

"X" फ़ैक्टर

            एक दिन बड़ी मासूमियत से उन्होनें मुझसे कह दिया,"क्यों जी, तुम्हारे अंदर एक्स फ़ैक्टर तो है ही नही। मैं तो घबरा गया जैसे चलती स्कूटर से कोई कह दे कि   उसमें पेट्रोल तो है ही नही । मैं तो उस समय निशब्द और स्तब्ध रह गया पर थोड़ा साहस कर के उनसे पूछ ही लिया कि  मतलब क्या है? क्या वह वही पूछ रही हैं जो मैं समझ रहा हूं।मैनेे कहा यार २०--२२ साल ब्याह को हो गये,दो दो बच्चे हो गये,दोनों माशाल्लाह जवान है,हैण्डसम हैं,अच्छे प्रतिष्ठित,देश के सर्वोच्च संस्थान मे अध्धयनरत हैं,क्या यह सब बिना मेरे X फ़ैक्टर के ही हो गया।उनका कहना था कि वह सब तो ठीक है,मै मानती हूं पर आप जान लो कि आपके अंदर वह है नही।                  
                तीन चार दिन बीतने के बाद मुझे सच मे लगने लगा कि  मेरे अंदर से कुछ मिसिंग है।लगा या तो कोई आत्मा चुरा ले गया,या दिल मैं कहीं छोड़ आया,ऐसा क्या है जो वह unknown factor 'x' नही है।तमाम यार दोस्तों से पूछा कि भाई बताओ यह क्या बला है ।उन सब के अनुसार तो मेरे अंदर x क्या y,z सब कुछ है ।तमाम शोध के बाद परिणाम निकला कि   सामान्यतः अन्य लोगो से अलग थलग दिखने के लिये आपके अन्दर कुछ छिपी या unknown प्रतिभा या गुण होना चाहिये उसे ही x फ़ैक्टर कहते हैं।प्रायः ये इंटरव्यू की चीज़ होती है।मैने सोचा मै तो शेष लोगों से बहुत ही भिन्न हूं,फ़िर तो मेरे अंदर झउआ  भर एक्स फ़ैक्टर होना चाहिये।
                   जब मेरी झुंझलाहट बहुत बढ़ गई तब वे बोली यह तो देखने वाले पर निर्भर करता है कि वह क्या देखना चाहता है और अब आप मान भी लो आपके अंदर x factor नही है। थकहार कर  मैने मान ही लिया कि मेरे अंदर x फ़ैक्टर नही है और अब मैने तय कर लिया है कि जहां कही x factor मिलेगा मै उसे घोल कर पी जाऊंगा,चाहे उस के लिये मुझे EX क्यों ना होना पड़े ।

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

गूगल चाचा से एक भेंटवार्ता

         आज बस यूं ही मन के विमान पर सवार हो कर अंतरिक्ष की यात्रा कर रहा था,तभी रास्ते में एक अजीब से कद काठी के आदमी से मुलाकात हो गई, जो बहुत ठिगना पर बहुत बड़े सिर वाला था।मैनें पूछा कौन हो भाई,"वह बोला,लो कर लो बात ,मुझे नही जानते,मै हूं तुम्हारा गूगल चाचा।पिछले जन्म में मेरा नाम लाल बुझक्कड़ था।मैने कहा अच्छा बताओ कैसे हो चाचा। बस इतना मेरा कहना था कि  लगे चाचा बुक्का फ़ाड़ कर रोने,मैनें उन्हें धीरज बंधाते हुए पूछा क्या बात है चाचा?गूगल चाचा बोले,”क्या बताऊं ,शुरू शुरू मे तो मुझे बच्चों को उनके सवाल के जवाब देनें मे बहुत आनंद आता था, पर अब क्या बच्चे, क्या बड़े, सब ऐसी बातें लिखकर पूछ डालते हैं कि  मेरे पेट में गुड़गुड़ होने लगती है।
           आगे उन्होंने बताया कि  लोग अपने दिमाग का सारा कचरा मेरे पेट मे डाल देते हैं,ना किसी को कोई शर्म है, ना कोई लिहाज़ कि  चाचा से कैसे कैसे सवाल वे पूछ रहे हैं।’साबूदाना’के बनने कि विधि  से लेकर’बच्चा ना पैदा होने पाए’ तक की तरकीब मुझसे पूछ डालते हैं ।अभी कल ही एक साहब मुझसे वियग्रा का कोई नया उपयोग पूछ रहे थे, मैने भी झल्ला कर बता दिया,  तनिक सा लेकर चाय मे डाल देना बिसकुट गलेगा नही।कैसे कैसे चित्र मेरा पेट टटोल कर देखते हैं कि मै अंदर ही अंदर शर्म के मारे कसमसाता रहता हूं पर क्या करूं,यही मेरी रोज़ी रोटी है पेट का सवाल है ,बेटा ।मैने कहा चाचा पर आप तो बहुत पुण्य का काम भी कर रहे हैं,कितनो को बीमारियों की लेटेस्ट दवाओं के बारे मे जानकारी देकर,पढ़ने वाले बच्चों को उन्हे नई नई सूचनाएं एवं तकनीकी जानकारी देकर उनका काम आसान कर रहे है।रही बात लोगों के दिमाग के कचरे की, उसे हम नादानो की नादानी समझ कर माफ़ कर दीजियेगा।इस पर चाचा मूछों ही मूछों में मुसकुराते हुए आगे निकल गए धरती की पोस्टमैनी करने गूगल अर्थ का झोला लेकर।