सोमवार, 14 सितंबर 2020

हिन्दी दिवस पर एक प्रेम पत्र।

तुम्हारे स्पर्श में 'स्वर' है और निगाहों में 'व्यंजन'। तुम पास होती हो तो मैं भाषित होता हूँ।

तुमसे ही अलंकृत होते है यह स्वर और यह व्यंजन।रस छंद अलंकार पढ लूँ या तुम्हारा सानिध्य पा लूँ ,एक ही बात है।

अपलक देखती हो जब गद्य रचित हो जाता है और पलकें तितली बनती है जब तब काव्य बह निकलता है।

सोचता हूँ ,मैं शिरोरेखा हो जाऊं और तुम उस पर झूलती एक शीर्षक मेरे जीवन का।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

अलसाई सुबह

 सुस्त सी सुबह

ठहरा सा मौसम


अलसाई चादर

औंधी तकिया


घड़ी की टिक टिक

आंखों में चुभती सुई


अदरक में डूबी चाय

सहमा सिमटा अखबार


मन मौसम मिज़ाज

कुछ यूँ है आज।



मंगलवार, 8 सितंबर 2020

बदलते फ़लक

 बुलबुल रोज़ कहाँ गाती

शजर की नरम छांव मे


वसन्त नही ठहरता

सदा के लिए


फूल खिलने के मौसम

होते है कभी कभी


उल्लास का आलिंगन

यूँ फिर कहाँ


दोस्ती कब ठहरी है

ताउम्र


इतना गर नही जानता

फिर वो ज़िन्दगी कहाँ जानता।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

बालकनी और स्ट्रीट लैंप

 बालकनी अमूमन घर की वो जगह होती है, जो सभी को बहुत पसंद होती है। एक तो बालकनी खुद ही लटक कर आगे टंगी होती है घर के ,ऊपर से उस पर और आगे लटक कर टाइटैनिक के हीरो जैसा मजा लेने का सुख ही अलग होता है।

बालकनी से चारों ओर भरपूर नज़र जाती है। किसी को आते या जाते देखना हो तो दूर तलक आंखे चिपक सा जाती है उस के साथ और न देखना हो तो नज़रंदाज़ करना भी बहुत आसान होता है।

बालकनी का दिल और दायरा भी बहुत बड़ा होता है।जिस भी कमरे या बरामदे के सामने यह बनी होती है वहां उतने ही लोग बड़े मजे से आ जाते है जितने उस कमरे के अंदर आ सकते हैं या कभी कभी उससे भी ज्यादा।

मोहल्ले की बालकनियाँ आपस मे मिलकर इंद्रधनुष सा भी खिला जाती है अक्सर।

घरों के बीच की जमीनी दूरी भले ही ज्यादा हो पर बालकनी के रास्ते होकर यह दूरी लगभग शून्य सी हो जाती है और ऐसा लगता है जैसे बिल्डिंग भी लहरा कर एक दूसरे को आगोश में लेने को तत्पर रहती है।

अब अगर स्ट्रीट लैम्प भी बालकनी के सामने हो तो लगता है जैसे गंगा नदी के घाट पर पांव पसारे बैठे हों नदी में और तैरता हुआ एक जलता दिया वहीं आकर टिक गया हो।

"अलग अलग रोशनी के मायने भी अलग अलग होते हैं

"मोहब्बत के किस्सों में बालकनी वैसे अक्सर आखिर में उदास ही हुई है।"