जो भी शाम कभी अच्छी लगी , घुल ही गई किसी रात में।
रात को गर निथारा जाय तो न जाने कितनी अशर्फियाँ हाथ लग जायेंगी।
"शाम जब प्रेम में होकर रात में घुलती है तब अशर्फी बन जाती है।"
"शब्द भीतर रहते हैं तो सालते रहते हैं, मुक्त होते हैं तो साहित्य बनते हैं"। मन की बाते लिखना पुराना स्वेटर उधेड़ना जैसा है,उधेड़ना तो अच्छा भी लगता है और आसान भी, पर उधेड़े हुए मन को दुबारा बुनना बहुत मुश्किल शायद...।
जो भी शाम कभी अच्छी लगी , घुल ही गई किसी रात में।
रात को गर निथारा जाय तो न जाने कितनी अशर्फियाँ हाथ लग जायेंगी।
"शाम जब प्रेम में होकर रात में घुलती है तब अशर्फी बन जाती है।"
"पलकें जब झुकी , प्रेम तब भाषित हुआ,
नयन तब नम हुये , भाषित जब मौन हुआ।"
अर्थात आशय अथवा अभिप्राय उस स्थिति से है जब प्रेमिका लाजवश बार बार प्रेमी के पूछने पर प्रेम की प्रगाढ़ स्थिति में होने को स्वीकार करने को कुछ बोलने के स्थान पर बस पलकें झुका लेती है और यही प्रेम की भाषा है।
फिर कभी किसी अन्य अवसर पर प्रेमिका प्रेमी से उसके न मिलने के कारण प्रश्न करती है तब प्रेमी मौन रह कर ही अपनी असमर्थता जताता है जिससे प्रेमिका के नयन आर्द्र हो उठते हैं।
यह बस प्रेम और उलाहना का छोटा सा संवाद है।
पंखे का रेगुलेटर अगर पांच ( मैक्सिमम ) पर हो और तब भी आपको हवा कम लग रही हो तो ऐसे में अनजाने में आप रेगुलेटर को एक टर्न और दे देते हैं। ऐसा करने से वो जीरो पर चला जाता है। ऐसे में पंख बन्द हो जाता है।
अब आप फिर जीरो के बाद एक दो तीन चार पर पहुंचते हुये पांच पर पहुंचते है और पंखा फिर फुल स्पीड पर आ जाता है।
एक तरीका यह भी था कि जब पांच से आगे घुमाने पर ज़ीरो आ गया था तो वहीं से वापस उल्टा घुमाते तो तुरन्त पांच आ जाता और एक दो तीन चार से होकर न गुजरता पड़ता।
"यही जीवन का सिद्धांत है कभी कभी शीर्ष पर पहुंचने के बाद अगर गलती से स्थिति शून्य की सी आ जाये तो तुरंत एक कदम पीछे हट जाने से पुनः शीर्ष स्थिति प्राप्त हो सकती है। लेकिन लोग पीछे हटना स्वीकार नही करते और आगे बढ़ने के उपक्रम में पूरी कवायद एक दो तीन चार की करने में जीवन व्यर्थ कर जाते हैं।"
माँ के लिए उसके बच्चे का जन्मदिन मात्र एक तिथि नही होता है। उस दिन वो पुनः हर्ष मिश्रित प्रसव पीड़ा से गुजरती है।
एक बच्चे को जन्म देने में वो कई बार माँ बनती है। पहली बार वो उस दिन बनती है जिस दिन prega news से न्यूज़ मिलती है। दूसरी बार तब बनती है जब वो अल्ट्रा साउंड में उसकी धड़कन देखती है। तीसरी बार तब बनती है जब वो भीतर से पांव मारता है। इस दौरान वो रोज दिन में कल्पनाओं में खोई रहती है।
जिस दिन बच्चे का जन्म होता है उस दिन उसे ईश्वर के होने का पूरा विश्वास हो जाता है क्योंकि उस दिन वो अपनी ज़िंदगी से एक नई जिंदगी बना चुकी होती है जिस पर उसे सहसा विश्वास नही होता है।
बच्चे के जन्म के बाद जब माँ की आंखे अपने बच्चे को देखती है तो वो ईश्वर के दिये उस खिलौने को निहारते हुए उसके चेहरे को गौर से देख कर निहाल हुई जाती है।
बरसों बाद तक भी बच्चा कितना बड़ा भी क्यों न हो जाये माँ वह पल, दिन नही भूलती। विशेषकर जन्मदिन के दिन तो वो जन्मदिन सबके लिए बस एक उत्सव उल्लास का होता है परंतु माँ के मन मे एक पूरा चलचित्र चल रहा होता है और यह हर साल होता है।
बच्चा कितना भी वयस्क क्यों न हो जाय और बाद में वो स्वयं भी एक बच्चे का पापा क्यों न बन जाये फिर भी उसकी माँ के लिए कम से कम उस दिन वो नवजात ही होता है।
यह अद्भुत एहसास करने का हुनर कुदरत ने बस माँ को ही दिया है। बच्चे इसे amazon या flipcart की डिलीवरी से ज्यादा कुछ नही समझते। इसमे उनका दोष नही है , ईश्वर ने यह भाव उन्हें दिया ही नही है।
आज अनिमेष का जन्मदिन है।
इसी दिन हम दो से तीन हुए थे। 😊
जितने भी काउंटर पब्लिक डीलिंग के होते हैं जैसे रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन, बैंक, हाउस टैक्स, वाटर टैक्स, बिजली टेलीफोन के बिल जमा करने वाले या किसी भी अभिलेखों में updation कराने वाले काउंटर, इन सभी जगहों पर काउंटर पर बैठा व्यक्ति अपने सामने डेस्क टॉप पर काम करता रहता है।
काउंटर के इधर से व्यक्ति अपना विवरण बोलता रहता है, जिसे काउंटर वाला व्यक्ति सिस्टम में फीड करता है।
काउंटर के इधर वाले व्यक्ति को पता नही चलता कि उसके विवरण के विषय मे सिस्टम पर बैठा व्यक्ति क्या फीड कर रहा है। कई बार तो वह उचक कर देखना चाहता कि विवरण कहीं गलत तो नही भरा गया है।
उचित होगा कि उस सिस्टम से जुड़ी एक स्क्रीन काउंटर पर बाहर की तरफ करके लगाया जाना चाहिए जिससे कि जो भी आंकड़े, विवरण सिस्टम पर फीड किया जा रहा हो उसे सम्बंधित व्यक्ति स्वयं भी देखता रहे और कोई त्रुटि होने पर उसे इंगित कर सके।
कई बार आधार नम्बर या पैन नम्बर जोर जोर से चिल्ला कर बोलने पर भी काउंटर वाला व्यक्ति गलत ही पंच कर देता है।हाउस टैक्स वाटर टैक्स जमा करते समय (online जमा करने वालों की बात नही हो रही, वैसे कभी कभी त्रुटि उसमे भी रहती है) पिछला विवरण देखने की भी उत्सुकता रहती है जिसके विषय मे प्रायः वृद्ध लोग जोर जोर से पूछते रहते हैं पर काउंटर वाला व्यक्ति झुंझला कर बताता कुछ नही।
यदि एक अतिरिक्त स्क्रीन बाहर की तरफ रुख कर लगी हो तो किसी भी क्वेरी का जवाब वो बिना बोले बस कर्सर को हिला डुला कर पूछी गई जानकारी के ऊपर रख कर शंका का निवारण कर सकता है।
यह अतिरिक्त स्क्रीन थोड़ा बड़ी हो और इसके फॉन्ट साइज़ भी बड़े हों।
छोटी सी व्यवस्था से बड़ा समाधान निकल सकता है।
मेरा जन्म अवश्य लखनऊ में हुआ पर जन्म के पश्चात से सारा जीवन फैज़ाबाद में ही बीता। पापा वहीं पोस्टेड हुए और फिर वहीं बस गए।
फैज़ाबाद एक साफ सुथरा शांत और अप्रगतिशील शहर हुआ करता था। कारण 123 किमी की दूरी पर लखनऊ स्थित होने से वहां विकास न हो सका।
लगभग सभी प्रकार की जरूरतें और मनोरंजन लखनऊ आकर लोग पूरा कर लेते थे। ट्रेन और बस से वेल कनेक्टेड था बहुत पहले से। एक ट्रेन सियालदह एक्सप्रेस बहुत ही सुविधजनक थी। सुबह 6 बजे बैठो और बस 9 बजे लखनऊ। शाम को लखनऊ से 630 बजे बैठो और 930 बजे फैज़ाबाद।
लोग सिनेमा देखने लखनऊ जाया करते थे। हम भी 'ब्लू लैगून' देखने आए थे एक बार।😊 अंग्रेजी फ़िल्म फैज़ाबाद में नही लगती थीं।
चूंकि पापा रेलवे में थे तो ट्रेन तो घर की बात थी। फर्स्ट क्लास में बैठ जाते थे और सारे टीटी चाचा जी हुआ करते थे।(अब तो यह फर्स्ट क्लास होता ही नही,खतम कर दिया गया। ) तिफाक से हम और हमारे बड़े भाई थोड़ा पढ़ने लिखने में अच्छे थे तो रेल महकमे में लोग इसी बात से जानते थे। खैर।
तब तमाम रिश्तेदार अक्सर घर मे आया करते थे। उस समय आजकल की तरह कोई किसी के आने पर तुरन्त उसके वापस जाने का प्लान नही पूछता था। अब कोई आया है तो कम से कम एक हफ्ता तो रुकना लाजिमी था।
खासकर बुआ फूफा आते थे या नाना जी आते थे, मौसी मौसा, मामा मामी ,बड़े पापा यही लोग आते थे। इन लोगो के आने पर अयोध्या घूमने का प्लान जरूर बनता था।
अब इन लोगों को अयोध्या लेकर जाने की जिम्मेदारी मेरी होती थी। इतनी बार अयोध्या गया हूँ कि वहां की गली गली से वाकिफ था। इतना तो वहां के पंडा भी नही घूमते थे उस समय वहां।
मेरा एक दोस्त अखिलेश भी वही से था। उसके घर भी जाना होता था। कैंची सायकिल चलाते हुए अयोध्या तक हो आते थे।😊
मेरे नाना जी कभी अयोध्या को अयोध्या नही कहते थे, हमेशा अजोध्या जी कहते थे और जब भी घर आते थे उनका वहां जाना निश्चित था। वहां से वो दोने में बेसन के लड्डू का प्रसाद लाते थे। उसी दोने में कोने पर गाढ़े लाल रंग का टीका लगा होता था,उसे हम लोग अपने माथे पर लगा लिया करते थे। नाना जी सुल्तानपुर से आते थे , सुल्तानपुर को वो सुल्तापुर बोलते थे।
अयोध्या में जहां विवाद था वहां हमेशा कीर्तन होता रहता था। कनक भवन , जन्मभूमि ,सीता रसोई, राम की पैड़ी , मानस मंदिर, तुलसी उद्यान सब जगहों पर सैकड़ों बार तो गया ही हूं।
1993 में जब ट्रांसफर होकर उत्तरकाशी गया तो लोग यह जानकर कि मैं फैज़ाबाद से हूँ यानी अयोध्या वाला फैज़ाबाद तो लोग पैर छूने लगते थे मेरा। ताजी ताजी 1992 की घटना का असर था वह।
जितनी आस्था बाहर देखने को मिली अयोध्या के प्रति ,स्थानीय लोग उतना महत्व नही देते दिखते थे।
फिर समय ने करवट बदला और आज स्थिति सामने है।
आस्था का सम्मान हो रहा है। बहुत अच्छा है। फैज़ाबाद अयोध्या का स्थानीय स्तर पर विकास भी हो जाएगा अब ऐसी आशा दिख तो रही है।
साइकिलिंग/स्विमिंग/मेडिटेशन
--------------------------------
साइकिलिंग करते समय मस्तिष्क बैलेंस बनाता है। जब गति मिल जाती है और बैलेंस बन चुका होता है, तब सायकिल अपने आप चलती रहती है और फिर मस्तिष्क खाली हो जाता है। उस क्षण फिर मस्तिष्क में दुनिया भर की बातें उपजती रहती है और मन मस्तिष्क शून्य नही रहता है। साईकल चलती रहती है और मस्तिष्क भी इधर उधर विचारों में चलता रहता है।
स्विमिंग करते समय मस्तिष्क का सारा ध्यान सांस लेने और छोड़ने में लगा रहता है। चूंकि इसमे जरा सा चूक होने पर जान का जोखिम है तो मस्तिष्क में और कोई विचार आता ही नही है और स्थिति एकदम विचार शून्य सी होती है।
मेडिटेशन करते समय प्रयास ही यही रहता है कि मस्तिष्क विचार शून्य हो जाये और इसी बात का विचार आता रहता कि कैसे भी कोई विचार न आये। चूंकि यह अवस्था सबसे सहज होती है तो इस स्थिति में विचार शून्य होना सबसे कठिन भी है।
निष्कर्ष : जिस कार्य मे जोखिम की मात्रा जितनी अधिक होगी उस कार्य मे मस्तिष्क सबसे अधिक विचार शून्य होगा क्योंकि उसमे फिर और कुछ नही सूझता है।
तुलना करें तो स्विमिंग करना इस दृष्टिकोण से साइकिलिंग से बेहतर है।
अब अगर साइकिलिंग करने में थोड़ा जोखिम जोड़ लिया जाय तो बात बन सकती है। यदि साइकिलिंग करते समय दोनो हाथ छोड़ कर साइकिलिंग की जाये तो फिर जोखिम बढ़ जाने के कारण मस्तिष्क में और कोई विचार नही आता है और मेंडिटेशन की गति प्राप्त होती है।
"किसी भी कार्य को करते समय यदि आप उसमे जोखिम की मात्रा बढ़ाते जाए तो उस कार्य को करते समय मेडिटेशन की स्थिति स्वयं बनती जाती है। फिर अलग से कोई मेडिटेशन करने की आवश्यकता नही होती है।"
मम्मी का फोन आया आज। जन्मदिन wish करने के लिए तो एक पूरी कहानी सुना दी हमारे जनम की।
उस रात बहुत पानी बरस रहा था। नरही , लखनऊ में पापा मम्मी रहते थे। हजरतगंज पूरा डूब सा गया था। रिक्शे का पूरा पहिया पानी मे डूब कर चल रहा था। 31 जुलाई को शाम 6 बजे रिक्शे से नरही से चौपड़ अस्पताल, जो कॉफ़ी हाउस की बिल्डिंग के बगल में थोड़ा भीतर जा कर है, मम्मी पहुंची। वहां अगले दिन पहली अगस्त को सुबह हम 10.15 को सामान्य प्रसव से पैदा हुए।
हम एकदम कोयले की तरह काले थे और मम्मी एकदम सफेद हैं। मम्मी ने हमको गोद मे लेने से ही मना किया और नर्स से कंफर्म किया यही हुआ है हमे।
नर्स ने हामी भरी तो गोद मे पहुंच गए उनकी। मम्मी ने ही बताया आज कि थोड़ी देर बाद में हमारी बुआ वहीं आई तो नर्स ने हमे बुआ की गोद मे दे दिया, वहां पहुंचते ही हमने बुआ के दोनो गाल पकड़ लिए। बुआ बोली, ई बहुत मुरहा होए बाद मा।
पता नही ,यह सही निकला की गलत। (मुरहा माने फ्लर्ट)
मम्मी की जिठानी को भी हमसे एक हफ्ते पहले बेटा हुआ था यानी हमारे कजिन। वो एकदम सफेद गोरे। जबकि ताई जी सांवली थी।
अब जब भी मम्मी और ताई जी अपना अपना ललना गोद में लेकर कभी बैठती तो रिश्तेदार अक्सर पूछते , तुम लोग एक दूसरे का बच्चा काहे लिए बैठी हो ,अपना अपना लो।
"उस समय हमको समझ होती तो फौरन रंग भेद का प्रकरण बना कर status लगाते फेसबुक पर।"
कारण रंगभेद का यह था कि मेरे पापा सांवले हैं और ताऊ जी गोरे थे।
बचपन मे काफी दिनों तक हमे कल्लू कहा गया, प्यार से ही सही। अच्छा हमे तब समझ ही नही थी कि काला गोरा क्या होता है।
"हम तब भी अपने को हीरो समझते थे और आज भी समझते हैं।"
दुनिया मेरे ठेंगे पे।