क्यों और कैसे हो जाता है यह सब । सहसा विश्वास करना सरल नहीं होता कि ऐसी घटनाएं भी हो सकती हैं । सामाजिक और आर्थिक रूप से प्रतिष्ठित परिवार में कहाँ चूक हो गई । आरुषि के माँ बाप भी उसे स्वभाविक रूप से बहुत लाड प्यार से ही पालते रहे होंगे । किसी भी चीज़ की कमी से कभी उसे अखरने नहीं दिया गया होगा । मुंह से निकला भी न होगा कि 'बार्बी डॉल' से लेकर लेटेस्ट 'प्ले स्टेशन' ,'मोबाईल' ,'आई पॉड' ,'आई पैड' ,'आई फोन' इत्यादि की लाइन लगा देते रहे होंगे । फिर हुआ क्या ,क्या कम पड़ गया परवरिश में । ऐसा क्या था जो आरुषि को उसके माँ बाप नहीं दे पाये ।
बस 'समय' ही नहीं दे पाये आरुषि को उसके माँ बाप । बचपन से जब बच्चा धीरे धीरे बड़ा होता है वह अपने आस पास के लोगों से ही ज्यादा घुलता मिलता है । अगर माँ बाप बच्चे को कम समय देते हैं और नौकर ज्यादा रहता है बच्चे के संग तब बच्चा भी नौकर से ही ज्यादा घुल मिल जाता है । माँ बाप यह देख कर अत्यंत प्रसन्न होते हैं कि नौकर के संग उनका बच्चा बहुत खुश है और वह आराम से अपनी व्यस्तता बरकरार रखते हैं । माँ बाप यह सोच कर आश्वस्त रहते हैं कि बच्चा अभी छोटा है जब बड़ा होगा तब उसे अपने अनुसार समझा कर जैसा चाहेंगे बना लेंगे । बस यहीं गलती हो जाती है । शुरू से ही बच्चे के अवचेतन मस्तिष्क पर यह बात घर करने लगती है कि यह जो माँ बाप हैं इनका काम बस भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करना है और मन की बात साझा करने के लिए नौकर का ही सहारा है ।
प्रायः नौकर इस बात से बहुत खुश होते हैं जब माँ बाप किसी अन्य व्यक्ति से कहते हैं कि उनका बेबी तो उन दोनों की बात नहीं मानता पर नौकर की सब बात मान लेता है और उसके हाथों खाना भी आराम से खा लेता है । यही छोटी छोटी बातें बच्चे को माँ बाप से कोसों दूर करने लग जाती हैं । व्यस्क होते बच्चे बहुत नाजुक मोड़ से गुजरते हैं । आज कल के युग में घर में सारे सुख सुविधा के साधन मौजूद हैं । नेट और टीवी के माध्यम से अच्छा बुरा सभी सुलभ है । नौकर के लिए भी बच्चे एक सॉफ्ट टारगेट होते हैं और जब वह आश्वस्त होता है कि उस पर भरोसा बहुत है और कितना भी वह वफादार क्यों न हो ,जब वह माहौल में रंगीनियां देखता है तब उसका भी बहकना स्वाभाविक ही है ।
बचपन से ले कर व्यस्क होने तक ही बच्चे को सबसे अधिक आवश्यकता होती है माँ बाप की । ऐसे में उसे नौकर के सहारे छोड़ देना एक आत्मघाती कदम ही है । यह बात लड़के और लड़की दोनों के लिए सामान रूप से लागू होती है । बच्चे को साइकिल सिखाने के लिए उसे ऐसी साइकिल दिलाई जाती है जिसके दोनों ओर दो छोटे छोटे पहिये उसका संतुलन बनाये रखने के लिए लगे होते हैं । जब बच्चे को संतुलन बनाना आ जाता है और हम उसे चलाते हुए देख आश्वस्त हो जाते हैं कि अब उसके अगल बगल के पहिये जमीन नहीं छू रहे हैं तब ही उसे निकलवाया जाता है । बिलकुल ऐसे ही परवरिश की जानी चाहिए बच्चों की । जब तक हम आश्वस्त न हो जाएँ कि उन्हें अच्छे बुरे की समझ हो गई है तब तक हमें उनके साथ एक करीबी दोस्त की तरह ही रहना चाहिए और बच्चे में इतना विश्वास उत्पन्न कर दिया जाना चाहिए माँ बाप के प्रति कि वह उनसे कोई भी बात बिना हिचक के कह सके ।
बच्चों के संग समय बिताने से बहुत सी उलझने यूं ही सुलझ जाती हैं ।थोड़ा समय देने से अगर माँ बाप के प्रोफेशन में थोड़ी समस्या भी आती है तब भी वरीयता बच्चे को ही मिलनी चाहिए।अगर समय दे पाना सम्भव नहीं है ,फिर बच्चे को जन्म ही नहीं देना चाहिए नहीं तो फिर किसी और आरुषि को उसके माँ बाप जीने नहीं देंगे और हम लोग बस एक शब्द कह कर रह जायेंगे 'दुर्भाग्यपूर्ण' और कोसते रहेंगे पाश्चात्य सभ्यता को ।
इस घटना की सच्चाई क्या है ,पता नहीं परन्तु इतना तो अवश्य सत्य है कि आरुषि के माँ बाप भी घटना के बाद से घोर पीड़ा में ही होंगे ।