सोमवार, 8 नवंबर 2021

फ़ैज़ाबाद जंक्शन

 फैज़ाबाद जंक्शन 

------------------


हमारा जन्म लखनऊ में हुआ मगर लगभग जन्म के बाद से ही सारा बचपन फैज़ाबाद जिले में कक्षा 12 तक रेलवे कॉलोनी में ही बीता।

रेलवे कॉलोनी प्रायः रेलवे स्टेशन के पास ही होती है। फैज़ाबाद की रेलवे कॉलोनी दो हिस्से में बनी हुई थी एक स्टेशन के सामने के हिस्से में और दूसरी स्टेशन के पीछे, जिसे लोको कॉलोनी कहते थे।

हम लोग लोको कॉलोनी में रहते थे। शहर जाने के लिए लोको कॉलोनी से निकल कर एक पुल पार कर जाना होता था। यह पुल रेलवे पटरियों के ऊपर से होकर दोनो कॉलोनी को जोड़ता था। पुल पर गुजरते समय नीचे तमाम डिब्बे, इंजन , गाड़ियां खड़े मिलते या शंटिंग करते रहते थे।

पुल का दूसरा छोर जहां खत्म होता था,  वही बोर्ड लगा था फैज़ाबाद जंक्शन का। इसी नाम पट को देखते देखते याद हो गया था कि फ़ और ज़ के नीचे नुक्ता लगता है। इसी के पास एक पीले रंग का बहुत बड़ा सा एल शेप का पानी भरने का घूमने वाला मोटा सा पाइप लगा था जिससे इंजन में पानी भरा जाता था। 

कोई ट्रेन आती और रुकती तो इंजन का धुआं सारे पुल को घेर कर अंधेरा कर देता था। हम लोग अक्सर तेज़ कदमो से उसी धुंए को चीरते हुए आगे बढ़ते जाते थे।

कभी कभी प्योर स्टीम निकल कर ऊपर उठती थी एकदम सफेद ,उससे होकर गुजरने पर जाड़ों में गरम गरम अच्छा भी लगता था।

चूंकि पापा रेलवे में थे तो सफर ट्रेन से झमाझम होता था। कुछ बातें हम लोग अपने आप ही समझ लेते थे , जैसे कि चलती हुई ट्रेन में अगर डिब्बे के नीचे से पटरियां निकलने लगे तो समझो कोई स्टेशन आने वाला है। जंक्शन मतलब कोई बड़ा स्टेशन होता था।

जी आई सी में पढ़ने के दौरान घर से स्कूल पटरियों के किनारे किनारे से जाना होता था। उस समय पटरियों पर दौड़ने में कम्पटीशन होता था। एक बार मालगाड़ी के डिब्बे में चढ़ते किसी ने देख लिया तो घर पर शिकायत हो गई थी फिर दो तीन दिन तक क्या क्या सूजा रहा बताना उचित नही।

स्टीम इंजन , गार्ड का डिब्बा , वैक्यूम ब्रेक, वैक्यूम वैन इन सब का भरपूर अभ्यास और विश्लेषण उसी जमाने मे कर लिया था। सिग्नल कैसे तार से खींचने से ही अप और डाउन हो जाता था बखूबी समझते थे। 

रेलवे स्टेशन पर ए एच व्हीलर से कॉमिक्स फ्री में लाकर पढ़ना एकदम आसान था गोया घर की ही दुकान हो।

अखबार में आज फैज़ाबाद जंक्शन लिखा देखकर एक अजीब सी फीलिंग हो गई आज। 

आज से इसका नाम बदल कर अयोध्या कैंट कर दिया गया। जंक्शन क्यों हटा दिया पता नही। जबकि जंक्शन अमूमन वहां लिखते है जहां दो दिशाओं के अतिरिक्त भी किसी अन्य दिशा में ट्रेन का आवागमन होता है।

फैज़ाबाद इतनी जल्दी जेहन से कैसे मिटेगा पता नही।

शनिवार, 23 अक्टूबर 2021

सोचता हूँ अक्सर।

 सरकारी कर्मचारी ,अधिकारी को हर दस्तखत करने से पहले यह सोचना चाहिए कि जिस विभाग में वह नौकरी कर रहा है, उसका मूल उद्देश्य और लक्ष्य क्या है,  उसके उस किये जाने वाले दस्तखत से व्यक्तिविशेष अथवा विभाग के उद्देश्य पर क्या असर अथवा फर्क होगा।

बिजली विभाग उपभोक्ताओं की सेवा के लिए है। उस दस्तखत से अगर उपभोक्ता हित में कोई फर्क नही पड़ रहा अथवा लाभ नही हो रहा है तब वो दस्तखत व्यर्थ और स्याही का अपव्यय ही है।

परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से हर निर्णय अथवा निर्णय की पहल से विभाग का उद्देश्य ही सिद्ध होना चाहिए तभी विभाग का मानसिक विकास सम्भव है।

सरकारी नौकरी एक अमूल्य अवसर की प्राप्ति होती है, जिसमे होते हुए एक छोटा से छोटा कर्मचारी बहुत बड़े निर्णय अथवा छवि बनाने में अपना योगदान दे सकता है।

इन कार्मिकों के परिवारों का भी दायित्व है कि अगर कार्मिक समय से आफिस न जाता हो या समय से पहले ऑफिस से घर आ जाता हो तो उसे टोका जाना चाहिए। 

होता जबकि इसके विपरीत है , परिवार के लोग बड़े उत्साह से उसकी तारीफ करते है कि ये तो आराम से दफ्तर जाते और जल्दी आ जाते है , बड़े अफसर है कोई पूछता नही।

देश के विकास और प्रगति में उस महिला का भी योगदान है जो अपने पति को आफिस के लिए अनुशासित करती है और दूसरों को देख कोई अनुचित अपेक्षा नही करती है।

शनिवार, 16 अक्टूबर 2021

बैंक...

 अभी ऑफिस से लौटते समय अचानक बीच रास्ते 'फुल ट्रैफिक' में कार बंद हो गई । तमाम कोशिशों के बावजूद 'स्टार्ट' नहीं हुई । पीछे लम्बा 'जाम' लग गया । 'प्रॉब्लम' बैटरी की लग रही थी । अब नीचे उतर कर मैं कार को धकेल कर किनारे करना चाह रहा था । चूंकि बैटरी एकदम ज़ीरो हो गई थी ,कार का शीशा नीचे कर पाना असंभव हो गया ,नहीं तो शीशा नीचे कर दरवाजा बंद कर बाहर से ही एक हाथ से स्टीयरिंग पकड़ कर दूसरे हाथ से धकियाते हुए थोड़ा किनारे तक तो कर ही लेता । 

अब शीशा बंद , फिर स्टीयरिंग पकड़ने के लिए दरवाजा खुला रख कर एक हाथ से स्टीयरिंग और दूसरे से धक्का लगाने में बहुत समस्या हो रही थी । पीछे से ,अगल बगल से, सब पों पों किये शोर मचाते हुए ,मुझे घूरते हुए और कार के दरवाजे को लगभग छूते हुए निकल रहे थे । इस बीच मैंने कार सर्विस वाले का नंबर ढूँढा तो वह मोबाइल में मिला ही नहीं ,लेकिन तब तक ध्यान आया उसका स्टिकर पीछे लगा था शीशे पर । उसे फोन किया तो बोला ,मैं तुरंत आ रहा हूँ ,चिंता मत करिये । पर 'ट्रैफिक' के बीच में 'रोड' के मध्य से बाएं आना भी आसान नहीं है ,ऐसी स्थिति में । 

एक दो लोगों को मैंने मदद की प्रत्याशा में देखा भी ,पर सब जल्दी में निकले । इसी बीच ठीक मेरे पीछे एक कार आकर रुकी । उसमे से एक नवयुवती उतर कर मेरे पास आई और बोली ,"मैं अंदर बैठ कर स्टीयरिंग संभाल रही हूँ ,आप दरवाजा बंद कर पुश करिये ,मैं धीरे धीरे किनारे कर देती हूँ ,आप अकेले दरवाजा खुला रख कर कार को धकेल रहे हैं ,कोई रुक नहीं रहा है ,आपको चोट भी लग सकती है । "  मैंने उसकी बात मान ली और मेरी कार किनारे आ गई । 

उसको जाते हुए जब मैंने थैंक्स बोला तो उसने कहा ," i know you sir , you have been many times kind enough to help me out ,regarding electricity related issues,ok ,bye . पर मैं तो बिलकुल नहीं पहचान पाया था उसे ।  कार की बैटरी बदलवा कर अब मैं घर आ चुका हूँ।


"बैंक सिर्फ रुपये पैसे का नहीं होता  ,व्यवहार का भी होता है । "

बुधवार, 13 अक्टूबर 2021

सफेद स्कूटी

 


"मे आई कम इन सर", बच्चे ने क्लासरूम का दरवाजा धीरे से खोलते हुए पूछा। "हां आ जाओ", बोला युगांशु ने। "दीपिका मैम चाक मांग रही , उनकी खत्म हो गई",  बताया बच्चे ने।

युगांशु कक्षा नौ और दस को मैथ्स पढ़ाता था और उसी स्कूल में दीपिका उन्ही दोनो कक्षाओं को साइंस पढ़ाती थी। कक्षा नौ और दस अगल बगल के कमरों में ही लगती थी और ऐसा टाइम टेबल  था कि जब एक कक्षा में युगांशु पढ़ा रहा होता था उसी पीरियड में बगल की कक्षा को दीपिका साइंस पढ़ाती थी।

युगांशु ने उस बच्चे को चाक के डिब्बे से दो चाक निकाल कर दे दी और फिर कमरा बन्द कर पढ़ाने में व्यस्त हो गया। मैथ्स को सरल कर पढ़ाने के कारण युगांशु बच्चों में और अपने कलीग में भी बहुत कम समय मे ही लोकप्रिय हो चुका था।

पढ़ने में हमेशा अव्वल रहने के कारण एम एस सी (मैथ्स) , बी एड करते ही युगांशु को केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक की नौकरी मिल गई थी , बस अफसोस इस बात का था कि उसे यह नौकरी अपने शहर सहरसा, बिहार से बहुत दूर चंडीगढ़ में मिली थी। यह शहर उसके लिए बिल्कुल नया था और कोई भी परिचित नही था।

स्कूल में इंटरवल में या कोई पीरियड खाली मिलने पर स्टाफ रूम में सभी शिक्षक मिलते थे और प्रायः लंच वगैरह साथ मे ही करते थे।

एक बार स्टाफ रूम में कॉपी चेक करते समय दीपिका उसके बगल में बैठी थी और उसने देखा कि कॉपियां तो उसके कक्षा के बच्चों की ही है। इस पर दीपिका ने युगांशु से पूछ लिया,"सर आप कक्षा नौ और दस को पढ़ाते है, उसी कक्षाओं को तो मैं साइंस पढ़ाती हूँ।"

दीपिका की तब तक कभी युगांशु से मुलाकात नही हुई थी क्योंकि स्कूल का नया सत्र शुरू हुआ था और दीपिका ने भी युगांशु की ही भांति नई नौकरी प्रारंभ की थी। दीपिका चंडीगढ़ से ही थी और उसने भी एम एस सी फिजिक्स और फिर एम एड किया था। आयु में वो युगांशु से एक वर्ष लगभग बड़ी ही थी।

युगांशु ने कॉपी चेक करते करते बोला, " हां मैं उन्हें मैथ्स पढ़ाता हूँ, बच्चे अच्छे है यहां के मगर पकाते बहुत है पूछ पूछ कर।" हूँ, बहुत तारीफ सुनी है बच्चों के मुंह से आपकी, अक्सर युगांशु सर युगांशु सर बोलते रहते है और आपकी क्लास कभी मिस नही करना चाहते। दरअसल मैं उन्हें साइंस तो पढ़ाती ही हूँ साथ मे उनकी क्लास टीचर भी हूँ", बताया दीपिका ने।

सारे स्कूल में यही दोनो शिक्षक नए नियुक्त हुए थे ,बाकी सारा स्टाफ काफी पुराना था वहां। दोनो साथ मे होते तो नवयुगल से लगते थे मगर दोनो गम्भीरता से अपना दायित्व निभा रहे थे और शिक्षण में लोकप्रिय होते जा रहे थे।

दोनो के पीरियड लगभग एक साथ ही छूटते थे तो दोनो क्लास से निकल कर ग्राउंड पार कर स्टाफ रूम तक साथ ही जाते थे। क्लास के दौरान भी चाक और डस्टर के लेन देन से बच्चे भी जान गए थे दोनो शिक्षक होने के साथ साथ एक दूसरे के दोस्त से भी हैं।

 पहले छमाही परीक्षा के दौरान दोनो अक्सर बच्चों के नाम लेकर बात करते रहते कौन सा बच्चा बहुत अच्छा है या कौन टॉप करेगा। कई बच्चे जो मैथ्स में बहुत अच्छे थे उनकी साइंस उतनी अच्छी नही थी। उन पर ध्यान देने की बात होती।

धीरे धीरे दिन में स्टाफ रूम तक साथ आने जाने का सिलसिला शाम को भी घर तक जाने में तब्दील होने लगा।युगांशु स्कूल के पास में ही रहता था और पैदल ही आना जाना होता था। दीपिका का घर उसी रास्ते पर ही था मगर काफी दूर था। वो स्कूटी से आती जाती थी।

शाम को दोनो स्कूटी स्टैंड तक साथ आते फिर वहां से युगांशु को बाय बोल कर दीपिका स्कूटी से चली जाती थी।

जब कभी युगांशु पहले स्टैंड पहुंच जाता तो वहां उसकी सफेद स्कूटी , जो  इकलौती सफेद स्कूटी थी वहां, को खड़ा देख रुक जाता था और उसकी प्रतीक्षा करता था।

स्टाफ रूम में दिन में दोनो अब लगभग रोज़ ही लंच साथ मे ही करने लगे थे और अक्सर एक दूसरे का लंच शेयर भी कर लेते थे। 

एक दिन लंच के दौरान गलती से दीपिका ने युगांशु का गिलास उठाया और पानी पी लिया। एकदम से चौंकते हुए युगांशु ने कहा,"अरे वो मेरा जूठा गिलास है, मैंने अभी ही उससे पानी पिया है।" उसमें बचा हुआ सारा पानी तब तक दीपिका पी चुकी थी।

दोनो थोड़ी देर तक हतप्रभ सा रहे फिर लंच खत्म कर अपनी अपनी क्लास में चले गए। उस शाम को दोनो ने साथ मे जाना भी अवॉयड किया। युगांशु रात भर सोचता रहा, ऐसे क्यों हुआ या दीपिका ने जानबूझ कर किया। अभी उसके मन मे दीपिका को लेकर कोई बात नही आती थी। बस उसके साथ बात करना समय बिताना आना जाना अच्छा तो लगता था मगर उसके आगे कुछ नही।

अगले दिन लंच में दोनो फिर जब मिले तो दीपिका ने युगांशु से बोला, " अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो आई एम सॉरी ,पर गलती से ऐसा हो गया।" युगांशु भी पता नही किस सोच में था कि तुरंत उसने दीपिका का एक हाथ अपने दोनो हाथों में पकड़े पकड़े बोल दिया , नही ऐसा कुछ नही, सॉरी कहने की जरूरत नही।

उस दिन दोनो यूँ ही हाथ थामे बहुत देर तक बातें करते रहे गये।

यह सिलसिला अब रोज का हो चला था कि एक हाथ दोनो के आपस मे गुंथे होते और दूसरे हाथ से खाना खा रहे होते। अब तो दोनो में हंसी मजाक भी शुरू हो गया था। दीपिका कहती ," मैथ्स के टीचर इतने खडूस क्यों होते है, प्यार व्यार कुछ जानते ही नही।"  युगांशु हंस कर कहता, वही तो सीखने आये है यहां चंडीगढ़ में , वो भी शहर वाला प्यार।"

रोज का यह क्रम था ,दिन में लंच साथ मे करना, क्लास के दौरान चाक डस्टर का लेन देन, शाम को स्टैंड पर सफेद स्कूटी का देख कर वहां रुकना और साथ मे वापस जाना तय रहता था। सफेद स्कूटी युगांशु के लिए अब गुलाब सरीखी हो चुकी थी।

स्कूल का सत्र खत्म हुआ। गर्मियों की छुट्टियों में युगांशु घर चला गया। दीपिका को तो चंडीगढ़ में ही रहना था। दोनो ने चिट्ठी के माध्यम से हालचाल लेने की बात की और विदा ले लिया अगला सत्र खुलने तक के लिए।

छुट्टियां बीती। युगांशु वापस आया और अपनी चिट्ठी का जवाब न देने की शिकायत लिए लिए सुबह सीधे स्टैंड पर गया पर वहां उसे सफेद स्कूटी नज़र नही आई। फिर अपनी क्लास में जाकर बच्चों से मिला । उनकी छुट्टियां कैसी बीती यह सब बातें की। बच्चे युगांशु से बड़े उत्साह से नही मिल रहे थे, लग रहा था जैसे कुछ बताना भी चाह रहे हों और कुछ छुपाना भी।

उस दिन नए सत्र का पहला दिन था , काफी व्यस्तता में बीता उसका। लंच में भी स्टाफ रूम नही जा पाया, अपने बैंक के काम मे व्यस्त रहा।

शाम को युगांशु फिर स्टैंड पर पहुंच कर सफेद स्कूटी ढूंढ रहा था। मगर सफेद स्कूटी वहां नही थी।

आखिर उसने हिम्मत जुटा कर स्टैंड वाले से पूछ ही लिया,"  सफेद स्कूटी वाली मैम नही आज क्या।"

स्टैंड वाला चौंकते और हकलाते हुए बोला, "आपको नही मालूम सर, वो जिस दिन स्कूल बंद हुआ था गर्मियों की छुट्टी के लिए उसी दिन घर जाते समय किसी ट्रक से टकराकर उनकी सफेद स्कूटी पूरी लाल हो गई थी। वो अब नही हैं।

युगांशु ने उस उदास शाम को निर्णय लिया कि दीपिका के साइंस का पीरियड भी वही लिया करेगा, इसी बहाने उन बच्चों को पढ़ाने में दीपिका को महसूस कर सकेगा।

अगले सत्र के अंत मे वार्षिक परीक्षाफल में उस स्कूल के बच्चों ने साइंस में सारे प्रदेश में अधिकतम नम्बर प्राप्त किये।

यह प्यार बच्चों का साइंस से  था या शायद युगांशु का दीपिका से।

रविवार, 10 अक्टूबर 2021

" हुक्का "

 हमारे बाबा जी हुक्का पीते थे ,जिसमे नीचे पानी भरा होता है और ऊपर चिलम में तम्बाकू होती है। उसे अक्सर धोने का और फिर तम्बाकू भर कर माचिस से सुलगाने का काम हम लोगों का हुआ करता था।

हम और हमारे बड़े भाई , निर्देशन इन्ही भाईसाहब का रहता था,ने कई बार उस हुक्के पर अनुभव आजमाया था। 

उसकी गुड़गुड़ाहट और फिर सफेद रंग का धुंआ मुंह से निकालने में अलग ही मजा आता था।

उनकी छोड़ी हुई अधजली बीड़ी (बालक छाप और पहलवान छाप)भी पी थी कई बार। एक बार खांसी आ गई तो पकड़ लिया ,नारकोटिक्स वालों ने नही, हमारे बेटों की दादी अम्मा ने, फिर चप्पल से मार खाई थी।

"न मार खाते तो आज हम भी उसी 'क्रूज़' पर होते।"

#सत्य_के_साथ_प्रयोग

ऑटोग्राफ

"ऑटोग्राफ "
------------

"यहाँ साइन कर दीजिए", शीशे के पीछे बैठी महिला ने फॉर्म आगे बढ़ाते हुये बोला। 

रेयान पासपोर्ट रिन्यूअल के लिये काफी देर से लाइन में लगा था और लाइन में लगे लगे मोबाइल पर आफिस की मेल इत्यादि भी चेक करता जा रहा था। लाइन में आगे बढ़ते बढ़ते कब काउंटर पर पहुंच गया ध्यान ही नही रहा।

काउंटर पर बैठी महिला ने फॉर्म फड़फड़ाते हुये जब जोर से बोला साइन करने को तब रेयान का ध्यान उस ओर गया। उसने फॉर्म लिया और साइन कर वापस उस महिला को दे दिया। 

महिला ने फॉर्म चेक किया और पूरा विवरण पढ़ने के बाद एक हाथ मे कलम पकड़े पकड़े दूसरे हाथ से अपने माथे पर आ गए बालों की लट को पीछे करते हुए अपनी कुर्सी पर  टिक कर हल्की मुस्कुराहट के साथ रेयान से बोली," तुम आज भी साइन करने में वैसे ही कंजूस हो, छोड़ दिया न एक साइन।"

रेयान जो अभी तक मोबाइल में पूरी तरह व्यस्त था और महज औपचारिकता के लिये काउंटर पर खड़ा था, कुछ अलग सी बात सुनकर चौंक गया और सामने गौर से देखने लगा।

पंद्रह सालों बाद सामने वरालिका को बैठा देख रेयान सहसा विस्मित हो गया और एक सिहरन सी दौड़ गई। संयत होते हुए बोला, "वारा तुम यहाँ , अरे वाह, इतने सालों बाद भी वैसी ही दिख रही हो।"

वरालिका केबिन से निकल कर बाहर आ गई और रेयान को साथ लेकर रिसेप्शन में पड़े सोफे की तरफ ले जाते हुए बोली, "चलो कॉफी पीते है साथ मे जो अभी भी अधूरी है तब से।"

सोफे पर बैठते हुए वरालिका ने एक सांस में बोल दिया ,"मैं कॉलेज से निकल दिल्ली चली गई सिविल सर्विसेज की कोचिंग में। प्रॉपर में तो चयन नही हुआ पर पासपोर्ट अफसर बन गई और अपने ही एक कलीग से शादी भी कर ली। आज एक स्टाफ एब्सेंट है तो मैं ही बैठ गई कस्टमर डीलिंग काउंटर पर।"

रेयान तो उसे बेबाकी से बोलते देखे भी जा रहा था और  कॉलेज का आखिरी दिन याद कर रहा था, जब सारे लड़के लड़कियां एक दूसरे से मिल रहे थे ,अड्रेस और ग्रीटिंग्स शेयर कर रहे थे। 

रेयान की मेकैनिकल ब्रांच में बस दो ही लड़कियां थी वरालिका और अंजली , दोनो ही पूरे बैच की आंखों का तारा हुआ करती थी। वर्कशॉप हो, लैब हो या लाइब्रेरी हो सभी जगह लड़के इन दोनों का साथ पाने के चक्कर मे रहते थे। रेयान जिसे चारो वर्ष स्कॉलरशिप मिलती थी और पढ़ने में अच्छा होने के साथ साथ बहुत ही इंट्रोवर्ट भी था। चार सालों में कभी भी उसकी इन दोनों लड़कियों से कोई बात नही हुई थी। 

वरालिका चाह कर भी उससे बात करने की हिम्मत नही जुटा पाई थी कभी भी क्लास में। 
 
कॉलेज के आखिरी दिन जब सब एक दूसरे से विदा ले रहे थे, तब रेयान लाइब्रेरी में बुक्स वापस कर रहा था , तभी वरालिका उसके पास ऑटोग्राफ बुक लेकर गई थी और बोला था, "कुछ लिख दो इस पर।"

रेयान ने बड़े शुष्क शब्दों में जवाब दिया था," चार सालों में कभी तुमसे मेरी कोई बात नही हुई, कोई फीलिंग ही नही है मेरे मन मे , क्या लिख दूं ऐसे कुछ भी।"

"अच्छा सिर्फ साइन ही कर दो और कैंटीन चलते हैं साथ कॉफी पियेंगे", बोला था वरालिका ने।

मगर रेयान तो पढ़ाकू कीड़ा था ,कोई फीलिंग्स कभी आई ही नही उसके मन मे ,ऐसी दोस्ती या चाहत की तो साइन करना भी उसके लिए बेमानी था। मना कर दिया था उसने उस दिन वारालिका को ऑटोग्राफ देने से और कॉफी के लिये भी।

कॉफी खत्म होने को थी और रेयान अभी भी पुराने दिनों की याद में खो सा गया था। वरालिका ने धीरे से कहा," उस दिन साइन दे दिया होता तो तुम्हे आज यहां साइन करने न आना पड़ता शायद।"

खैर दोनो ने अपनी अपनी कॉलेज के बाद की ज़िंदगी के किस्से शेयर किए, मोबाइल नम्बरों को एक्सचेंज किया और फिर जल्दी मिलने का वादा कर अलग हो गए।

"कुछ भी अधूरा रह जाये तो पूरा जरूर होता है चाहत में , वक्त जरूर लग सकता है और हां फीलिंग्स इंट्रोवर्ट में भी होती है जो सालती जरूर है बाद में।"

©अमित

रविवार, 3 अक्टूबर 2021

हेयर बैंड

 रेहाना ,जो अभी छठी क्लास में है,  अगले दिन के स्कूल के लिए अपना बैग लगाते हुए आस्मा से बोली, "मम्मी आज मैं स्विमिंग के लिए नही जाऊंगी।"

"क्यों क्या हुआ",आस्मा ने चौंकते हुए पूछा। "मम्मी, रेयान जो मेरा लॉकर पार्टनर है , वो लॉकर अच्छे से नही रखता, सारा सामान मुझे ठीक कर रखना होता। खुद कुछ करता भी नही और मुझ पर हुकुम चलाता है। मुझे नही अच्छा लगता, कल मेरा हेयर बैंड भी गुम हो गया था, फिर निकला उसके कॉस्ट्यूम से ही।"

"परेशान नही हो ,आज मैं शाम को चलती हूँ और क्लब के  मैनेजर से बात करूंगी कि तुम्हारा लॉकर पार्टनर बदल जाये," आस्मा ड्रेसिंग टेबल के सामने शीशे में पीछे खड़ी रेहाना को देखते हुए बोली।

उसी दिन शाम को क्लब में जब आस्मा पहुंची तो मैनेजर के रूम में रिवॉल्विंग चेयर पर एक सोलह सत्रह वर्ष का लड़का , जिसकी अभी मूंछे भी नही आई थी ,बैठा हुआ था और कुर्सी बाएं दाएं गोल गोल घुमाते हुए मोबाइल पर गेम खेल रहा था।

"मैनेजर कहाँ है, मुझे उनसे बात करना है", पूछा आस्मा ने। "आज मैनेजर नही आएंगे इसीलिए मैं यहां आ गया हूँ, विवान नाम है मेरा", उस नवयुक ने बताया।

"तुम मैनेजर के बेटे हो , पूछा आस्मा ने।" " नही , मैं यहां के ओनर का बेटा हूँ, वो यहां नही आते कभी ,पर आज उन्हें अभी आना है यहां।" "आप मुझे बताइए क्या बात है।"

"मेरी बेटी रेहाना का लॉकर रेयान की जगह किसी और बच्चे के साथ कर सकते हैं आप,मैं आस्मा हूँ ,रेहाना की मम्मी, रेहाना आपके क्लब में शाम को रोज़ स्विमिंग के लिए आती है।" "आपने बच्चों को बैग रखने के लिए दो दो बच्चों को एक साथ लॉकर अलॉट कर रखा है शेयरिंग के लिए।" बताया आस्मा ने।

"हां तो क्या प्रॉब्लम है आपकी", पूछा विवान ने। "हमारे यहां बच्चों को अल्फाबेटिकली चूज कर दो बच्चों को एक साथ क्लब कर एक लॉकर अलॉट कर देते हैं। आपकी बेटी रेहाना को रेयान के साथ कर दिया गया है", बताया विवान ने।

"नही प्रॉब्लम कोई नही ,बस आप उसे किसी और बच्चे के साथ क्लब कर दीजिए।"

"आखिर हुआ क्या", फिर जोर देकर विवान ने पूछा।

"अरे रेयान अच्छे से अपना सामान नही रखता और रेहाना को परेशान करता कि तुम ही मेरा बैग भी अच्छे से संभालो। रेहाना शांत सी है ,कुछ बोलती नही और अपने साथ उसका भी सारा काम करती",बताया आस्मा ने। कल रेहाना का हेयर बैंड भी चला गया था रेयान के बैग में।

विवान कुछ समझा रहा था अपनी कच्ची उम्र की समझ से आस्मा को ,तभी उसके पापा आकाश वहां आ गए।

औसत कद , छरहरा व्यक्तित्व ,सांवला रंग ,तीखे नयन नक्श, सीना तना हुआ परन्तु सौम्यता के साथ भारी आवाज़ में पूछा उन्होंने, क्या परेशानी है मैडम को।

आस्मा ने सिर ऊपर उठाकर देखा तो पल भर को जड़वत हो गई, पहचाने की झूठी कोशिश करने लगी ,जबकि पहचान तो आवाज़ से ही चुकी थी। 

आकाश भी एक पल को ठिठका, फिर अचानक बोला, "आस्मा तुम यहाँ कैसे"। भावभंगिमा ऐसी थी कि अगर विवान वहां नही होता तो शायद आकाश ने आस्मा को गले लगा लिया होता। आकाश के मन मे कॉलेज के दिनों की आस्मा की खुले बालों में हेयर बैंड लगाए तस्वीर उभर आई थी।

आस्मा भी धीरे से कुर्सी खींच कर बैठ गई और एकदम से आंखे मूंद ली। मुंदी आंखों से बीस साल पहले का मंजर सामने दिखने लगा था। बीएससी का केमिस्ट्री प्रैक्टिकल का पहला दिन था। एम पी गुप्ता प्रोफेसर थे। सभी बच्चों को लैब असिस्टेंट द्वारा एपरेटस बांटे जा रहे थे। पिपेट और ब्यूरेट रखने के लिए लॉकर दो दो को एक साथ दिए जा रहे थे। एक ताले की दो चाभियाँ थी , एक एक चाभी दोनो को रखनी थी।

पूरे बीएससी की क्लास में आस्मा अकेली लड़की थी। अल्फाबेटिकली उसे आकाश के साथ लॉकर जॉइंटली अलॉट कर दिया गया था।

आस्मा बहुत खूबसूरत थी ,पूरी यूनिवर्सिटी में उसकी बातें होती थी । लोग उसका सामीप्य पाने का बहाना ढूंढते रहते थे। आकाश एक मेधावी और टॉपर छात्र था। उसे आस्मा के कारण थोड़ी उलझन होती थी क्योंकि आस्मा अक्सर लॉकर की चाभी भूल जाती थी और टाइट्रेशन भी कभी समय पर पूरा नही कर पाती थी।

जहां सारे लड़के उसकी मदद को हमेशा तैयार रहते थे वहीं आस्मा बस आकाश से ही सीखना समझना चाहती थी। लेकिन आकाश आस्मा की लापरवाही से तंग आ चुका था। समान ठीक से न रखने के कारण  कांच के बीकर , टेस्ट ट्यूब अक्सर उससे टूटते रहते थे , अक्सर प्रोफेसर से कहता ,"सर मेरा लॉकर पार्टनर बदल दीजिये" ,पर प्रोफेसर गुप्ता हंस कर टाल देते थे। यह बात भी सच थी कि आकाश मन ही मन उसे चाहने भी लगा था मगर पढ़ाई के आगे प्यार मोहब्बत की बात सोचना भी उसके लिए पाप था।

कितनी बार लॉकर से सामान निकालते समय दोनो के सिर आपस मे टकरा जाते थे, आकाश सॉरी बोलता था मगर आस्मा तो जैसे उसे छूने के बहाने ढूँढती थी ,अच्छा तो आकाश को भी लगता था।

बीएससी के पहले साल में ही आकाश का चयन इंजीनियरिंग कॉलेज, इलाहाबाद में हो गया। फिर कभी आस्मा से मुलाकात या कोई सम्पर्क नही हुआ।

आज अचानक वही पुरानी स्थिति ,जॉइंट लॉकर की समस्या और वो दोनो एक दूसरे के आमने सामने ,ऐसा लग रहा था जैसे कोई इबारत हूबहू दोहराई जा रही हो। 

बाद में पता चला रेयान आकाश का ही दूसरा बेटा है। 

"तुम इंजीनियर बनते बनते क्लब के मालिक कैसे बन गए", छेड़ा आस्मा ने। "वो फादर इनला का रियल स्टेट का बिजनेस था न , उसी को संभालने के चक्कर मे टाटा मोटर्स का जॉब बस दो साल के बाद ही छोड़ना पड़ा और यह सब जिम्मेदारी आ गई,तुम बताओ , हबी क्या करते तुम्हारे।"

"दिल के डॉक्टर है, हार्ट स्पेशलिस्ट", मुस्कुराते हुए बताया,आस्मा ने।

बड़ी देर तक दोनो हंसते मुस्कुराते रहे ,पर यह भी सच था कि दोनो की आंखों के कोर भी भीगे हुए थे।

लॉकर का झगड़ा प्यार बनने से पहले ही अधूरा जो रह गया था। आकाश की मुट्ठी कसी यूँ बंधी थी जैसे उसने पकड़ रखा हो हेयर बैंड ,आस्मा का।

सोमवार, 27 सितंबर 2021

तकिया

 'तकिया' का आविष्कार जिसने भी किया हो वह सदा स्मरणीय रहेगा।


आधी तकिया मिले तो प्यार है

पूरी मिल जाये अधिकार है


बीच मे आ जाये तो तकरार है

एक जब न  दिखे तो इनकार है


तकिया जब कभी बनी दीवार है

बाहों का तकिया फिर मनुहार है।


#तकिया

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

ब्लॉटिंग पेपर

 एक सोख्ता कागज होता था पहले, ब्लॉटिंग् पेपर, रुमाल जैसा एक कागज़, परीक्षाओं में भी दिया जाता था मुफ्त। तब स्याही वाली पेन चलती थी अगर स्याही लीक कर जाए या गिर जाए तो उसी सोख्ता कागज़ से उस स्याही को सोख लेते थे।


उस सोख्ता कागज पर अगर स्याही वाली पेन की निब हल्के से टच कराते थे तो स्याही की एक बूंद उस पर बन जाती थी ,फिर वह बूंद धीरे धीरे चारों ओर वृत्ताकार शेप में फैलने लगती थी। उस वृत्त की न कोई सीमा न कोई परिधि न कोई अंत होता था।


"प्रेम की भी अगर कोई एक बूंद  हृदय को छू जाए तो वह भी  ऐसे ही चारों ओर विस्तृत होने लगता है,फिर  प्रेम की न कोई परिधि न उस विस्तार का कोई अंत। परंतु  हृदय  भी तब सोख्ता कागज जैसा ही होना चाहिए ,जिसमे सब कुछ सोख लेने का गुण हो।"



बसन्त पंचमी

 विद्या माँ की कसम

--------------------

बचपन मे ,या लगभग जब तक पढ़ाई की ,यहां तक कि इंजीनियरिंग कॉलेज तक ,जब कोई कागज,कॉपी,किताब जमीन पर गिर जाती थी तो उसे तुरंत उठा कर चूम कर माथे से लगा कर मेज पर रख लेते थे। यह स्वभावतः अपने आप बिना कुछ सोचे और तत्काल हो जाता था।


बातचीत में अक्सर किसी बात पर जोर देने या अपनी बात का विश्वास दिलाने के लिए जब भी कसम खाई ,विद्या माँ की ही कसम खाई।


विद्या माँ के प्रति सम्मान और उनके अपमान से उपजे कोप से भय का प्रतीक  होता था ,यह कसम खाना और कॉपी किताब को चूमना। 😊


विद्या माँ की जय।



शेषफल प्रमेय

 समोसे खाओ तो चटनी बच जाती है,मूंगफली खाओ तो नमक बचा रह जाता है। डोसा , इडली खाओ तो साम्भर बचा रह जाता है। पिज़ा खाओ तो पिचकू  से सैशे में  सॉस बची रह जाती है।


सोकर उठो तो ख्वाब शेष रह जाते हैं, मंज़िल तक पहुँचों तो रास्ते शेष रह जाते हैं, निगाहें मिल जायें तो बातें शेष  रह जाती है।


"जो शेष रह जाता है वही शाश्वत है।"

शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

चुम्बन दिवस


 रेखा जब वृत्त को चूमती है तब स्पर्श रेखा कहलाती है। जब और भीतर उतरती है वृत्त के ,तो ज्या कहलाती है और जब यही रेखा केंद्र से होकर गुजरती है तो व्यास बन वृत्त को दो हिस्सों में विभाजित कर देती है।


चुम्बन जब तक स्पर्शरत होता है दोनो का अस्तित्व बना रहता है। ज्यों ज्यों स्पर्श प्रगाढ़ होता जाता है , सीमा लांघते लांघते अन्ततः फिर  वृत्त के दो हिस्से हो जाते है, एक जिसे चूमा गया हो और दूसरा जो इस चुम्बन से परे रह गया हो।


"स्पर्श रेखा अगर वृत्त का आलिंगन करते हुये वृत्त की परिधि सी ही हो जाये तो वह चुम्बन सर्वश्रेष्ठ होता है, इसमे दोनो का वजूद परस्पर विभाजित नही होता।"


#किस #डे