यह किताब एक आत्मकथा है ऐसे शख्स की जो हर उस ऊंचाइयों में लिपटा हुआ है जिसकी चाहत भी शायद बिरले ही कर पाते होंगे । उत्तरप्रदेश पावर कॉर्पोरेशन में सहायक अभियंता के पद से प्रबंध निदेशक तक के पद की उनकी यात्रा तमाम संघर्ष , जिम्मेदारियों और चुनौतियों से भरी हैं ।
इसी किताब से -"पिता से भगवान राम की कहानियां सुनते ,भैस चराते और पेड़ों से आम तोड़ते मैंने कोचवा के स्कूल से पांचवी कक्षा तक की पढाई पूरी की । "
इसी किताब से --पिता के साथ गांव के गलियारे से गुजरते हुए मैंने एक छोटी सी बच्ची को देखा जिसका शरीर कुपोषित था,बदन पर कोई कपडा नहीं था , बाल उलझे हुए थे और उसकी नाक बह रही थी । मैं उसके लिए और कुछ नहीं तो इतना तो कर ही सकता था कि बिना घिनाये उसकी बहती हुई नाक अपनी अँगुलियों में लेकर उससे दूर फेंक दूँ । मैंने ऐसा ही क्या । पिता मुझे ऐसा करते बड़े गौर से देख रहे थे । मेरी अँगुलियों में लसटा गन्दा-गन्दा पोटा देख कर पिता ने कहा -'अच्छा बहुत गांधी न बनो ।'
इस किताब को एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद आप बिना पूरा पढ़े इसे छोड़ना नहीं चाहेंगे ।
इस किताब का लोकार्पण माननीय मुख्यमंत्री जी श्री अखिलेश यादव जी द्वारा आदरणीय मशहूर शायर मुनव्वर राणा साहब की उपस्थिति में किया गया था ।
" अपनी बेपनाह मसरूफ़ियतों के बावजूद ताजादम रहना, पराये ग़मों की चादर ओढ़े हुए मुस्कुराते रहना दुश्वार है लेकिन 'सिफर से शिखर तक' के शिल्पकार का यही तो हुनर है कि वह जंगली फूलों से शहर को आबाद करना जानता है । अँधेरे से जंग करते हुए उसे कई दहाइयां गुजर गईं हैं लेकिन आज तक न तो उसके हाथों में कंपकपाहट है और न चेहरे पर थकान । यूं तो कुछ लोग किताब लिखते हैं और कुछ खुद किताब होते हैं । उनके जीवन का हर एक दिन एक वरक होता है और हर बरस एक दास्तान । " ---मुनव्वर राणा
(लोकभारती प्रकाशन से नयी दिल्ली पटना इलाहबाद कोलकाता से प्रकाशित , मूल्य -रु २०० )