क्षितिज पर टिकी सुनहरी सुबह ये
और उससे भाप रौशनी की उठते हुये
जैसे अधखुले नयन हों तेरे
और पलकों की क्षितिज पर ठहरी निगाहें
हवाएं चलीं जब कुछ हौले से यूं
कुछ तो कहा है तुम्हारे लबों ने जैसे
बाहें फैलाए समेट न लूँ इन फ़िज़ाओं को
जैसे घुल जाता था मै तेरे आगोश में कभी |
#मधुर स्मृति
चित्र: साभार पीयूष , दूनगिरी