बुधवार, 28 अगस्त 2013

" क्या न लिखूं ..."


'क्या लिखूं' , सोचने से बेहतर है यह सोचा जाए कि 'क्या न लिखूं' ।  

यह बिलकुल भी नहीं लिखूंगा कि रुपये के अवमूल्यन का कारण गलत आर्थिक नीतियाँ है । अंतर्राष्ट्रीय बाजार में हमारे उत्पादों का रेंज भी कम है और जो हैं भी उनकी गुणवत्ता भी मानक अनुसार नहीं है । यह भी नहीं लिखूंगा कि चार हज़ार करोड़ रुपये के लैपटाप बांटने के बजाय कोई उद्योग लगा दिया गया होता तो अधिक लाभकारी होता । जिन्हें सच में आवश्यकता है उन्हें आर्थिक एवं अन्य प्रकार की सहायता अवश्य दी जानी चाहिए परन्तु जितना धन व्यय किया जाना है उसकी भरपाई का इंतजाम पहले कर लेना आवश्यक है । रेवन्यू जेनेरेट नहीं करेंगे तो सरकारी खजाने खाली होते रहेंगे और विश्व बैंक का मुंह ताकते ताकते हम तो औंधे मुंह गिरेंगे ही  हमारा रुपया भी कहीं का नहीं रहेगा । जब तक हम उदारता बरतते रहेंगे ( वह भी उदारता कहाँ है ,वोट बैंक की राजनीति है ) और अपने खजाने को यूं ही लुटाते रहेंगे ,आर्थिक मजबूती नहीं आने वाली ।

एक छोटा सा उदाहरण : दीपावली पर पूरे देश भर में बिजली की झालरों की सजावट की जाती है ।सारे बाज़ार में चीन में निर्मित झालरें ही बिकती हैं और खूब बिकती हैं । अगर यही उद्योग हमारे यहाँ लग जाए तो क्या इस बिक्री का लाभ हमें नहीं मिलेगा।मै अर्थशास्त्री तो नहीं परन्तु इतनी छोटी सी बात तो समझ में आ ही जाती है ।  
यह भी नहीं लिखूंगा कि बहुत ऊंचे स्तर पर जो भी निर्णय लिए जाते हैं वह 'कस्टमाइज्ड' होते हैं अर्थात वह किसी बड़े घराने को या किसी वर्ग विशेष को लाभ पहुचाने के उद्देश्य से लिए जाते हैं , भले ही सरकार की आय को भारी चोट पहुँच जाए ।

यह भी नहीं लिखूंगा कि हमारा देश प्रजातंत्र से चलता है और इसमें सारा श्रेय 'संख्या' को है । जिसकी 'संख्या' ज्यादा ,वह सरकार बनाता है और राज करता है । अब अगर 'संख्या' अनपढ़ों /गंवारों की अधिक है तो स्पष्ट है कि परिणाम क्या होगा । क्या सरकारों को इस पर सोचना नहीं चाहिए , आंकड़े नहीं निकाले जाने चाहिए कि आखिर दिन प्रतिदिन 'संख्या' बढ़ किसकी रही है !

यह भी नहीं लिखूंगा कि समाज में बच्चों का मानसिक विकास इस प्रकार किया जाना चाहिए कि उनके अन्दर लड़कियों और महिलाओं के प्रति सम्मान उत्पन्न हो और किसी भी तरह से यौनिक हिंसा की घटना न होने पाए । ( इससे घृणित और कुछ नहीं हो सकता जो हम आये दिन देखते और सुनते हैं ,मुझे तो पढने में भी शर्म महसूस होती है ) । मेरा एक सुझाव है ,महिलाओं और लड़कियों को बस एक शब्द अंग्रेजी का सदैव कंठस्थ रखना चाहिए ( lest : ऐसा न हो कि ) ,हर परिस्थिति में ऐसी संभावना को अगर याद कर थोड़ा सतर्क रहे तो शत-प्रतिशत ऐसी घटनाओं से बच सकती हैं । वास्तव में लडकियां और महिलाएं कल्पना नहीं कर पाती कि उनके साथ कोई ऐसा भी कर सकता है ,बस इसीलिए दुर्घटना हो जाती है ।

यह भी नहीं लिखूंगा कि लोगों के लिए अब आवश्यक है कि अंधविश्वास छोड़ कर कठिन परिश्रम करें और इस पर विश्वास करें कि किसी भी संकट का हल उनके द्वारा कर्म करके ही निकाला जा सकता है । आसाराम बापुओ के आश्रम में जाने से हल तो नहीं निकलता परन्तु ऐसी घटनाएं अवश्य हो जाती हैं । बच्चों में बचपन से ही ईश्वर में आस्था तो अवश्य उत्पन्न होने दें परन्तु किसी साधू सन्यासी के चमत्कार से उसे सदैव दूर रखें । एक पुरानी कहावत है , "दुआओं से किश्ती नहीं चलती " ।

यह भी नहीं लिखूगा कि जो लोग समाज को बदलने की बात करते हैं उन्हें पहले स्वयं अनुकरणीय कार्य करने होंगे । बिना मतदान किये सरकारों को दोष देने वालों को दंड दिए जाने का प्राविधान होना चाहिए , नहीं तो ऐसे ही नेता चुने जाते रहेंगे और होटलों में गिरफ्तार होते रहेंगे ।

यह भी नहीं लिखूंगा कि उन्नत देश जहां पहुँच गयें हैं और जो हासिल कर चुके हैं हम वैसा अभी सोच भी नहीं पा रहे है । कितना पिछडापन , इतना पिछड़ापन वह भी मानसिक रूप से ।

अंत में यह अवश्य लिखूंगा कि किसी भी निर्णय को लेने से पहले उसके दूरगामी परिणामों के विषय में सोचना अत्यंत आवश्यक है ,छोटे छोटे लक्ष्य बनाकर ,स्वार्थपूर्ति के उद्देश्य से ,हम तरक्की नहीं कर सकते और न ही आत्मनिर्भर हो सकते हैं । 


रविवार, 25 अगस्त 2013

शनिवार, 24 अगस्त 2013

" लगातार घंटी .....अरे जल न जाए .....मुग्धा होगी "


रात को जब कभी भी दस बजे के बाद हमारे घर की काल बेल बजती थी ,वह भी लगातार ,तब निवेदिता कहती थी ,"देखिये मुग्धा होगी , यह लड़की घंटी न जला दे "। पहले हमारे यहाँ काल बेल चिड़िया की आवाज़ वाली थी ,वह घंटी दबाये रखने पर लगातार बजती थी । मुग्धा से घंटी जलने से बचाने के लिए हम लोगों ने उसे बदल कर 'डिंग डाँग' लगवा दी । उसमे एक बार बजाने पर स्विच दबाये रखो, फिर घंटी नहीं बजती । इस पर मुग्धा ने स्विच ही कई बार आन आफ कर 'डिंग डाँग' की भी ऐसी की तैसी कर डाली।गेट से घुसते ही हँसते ,चहकते और पूछते आंटी कहाँ हो ,क्या बना है ,बहुत खुशबू आ रही है ,इतना कहते कहते हमारा पूरा घर उसकी रौनक से भर जाता था और इतनी ही देर में उसकी प्रिय आंटी उसके लिए कुछ न कुछ खास कर मूंग की दाल की कचौड़ी बना डालती थीं । ( मुझे एक अरसे से नहीं मिली खाने को )

वर्ष १९९९ में जब हम लोग लखनऊ ट्रांसफ़र हो कर आये थे तब 'रेलन साहब' के घर में हम लोगों ने किराए पर रहना शुरू किया था । रेलन साहब और मुग्धा की मम्मी दोनों लोग बैंक कर्मी और उनकी दो बेटियाँ मुग्धा और चिंकी ,चारों अपने मकान में ऊपर रहते थे और हम चारों नीचे वाले हिस्से में । चिंकी तो काफी छोटी थी और शांत भी पर मुग्धा तो जैसे उसमें चंचलता कूट कूट कर भरी थी । जब भी सीढियों पर होते हुए ऊपर अपने घर जाती तब नीचे की घंटी बजाकर आंटी का हाल चाल लेना तय था। इनका यह घर हम लोगों के लिए बहुत शुभ साबित हुआ । वहीँ रहते रहते वर्ष २००२  में हम लोगों ने वहीँ पास में अपना एक घर बना लिया और फिर उसी में शिफ्ट कर गए । पर मुग्धा की घंटी के आतंक का प्रकोप कम नहीं हुआ और न ही उसका 'आंटी प्रेम' ।

अब धीरे धीरे मुग्धा का गैंग बड़ा हुआ उसमें चिंकी तो शामिल हुई ही ,उसकी एक बहन और, देहरादून से ,मेघा भी शामिल हो गई । अब तीनो अपनी आंटी के जो फैन हुए फिर क्या कहने । निवेदिता की कचौड़ियाँ तो पूरे 'रेलन परिवार' में 'वर्ल्ड-फेमस' हो गईं ।


 यह वही मुग्धा हैं जिसकी शादी में हम लोग अभी अहमदाबाद गए थे । इसने चार महीने पहले से ही हम लोगों का टिकट वगैरह करवा रखा था । इसी बीच हम लोगों की भाभी की असामयिक मृत्यु हो गई जिससे मन बहुत अशांत और विचलित था । परन्तु मुग्धा का चेहरा और उसका अपनापन याद कर हम दोनों ने शादी में जाने का निर्णय लिया । वहां इसकी गैंग की तीसरी बहन मेघा ( बहुत प्यारी सी बिटिया है यह भी ) के मियाँ जी प्रतीक ने हम लोगों को आधा गुजरात घुमाने का इंतजाम कर दिया ।

मुग्धा जितनी चंचल परन्तु समझदार ,उसे उसका जीवनसाथी भी बहुत हैंडसम और आकर्षक व्यक्तित्व वाला ही मिला । ईश्वर उसकी चंचलता और हंसी यूं ही बनाए रखें उसके गैंग की बाकी दोनों बहने भी अपने अपने जीवन में सुखी और समृद्धिशाली हों ,ऐसी ईश्वर से प्रार्थना है हम लोगों की ।

बस अब हम लोग मुग्धा और उसकी लगातार बजती घंटी दोनों को बहुत मिस करते हैं और शायद सदा करते रहेंगे । मुग्धा , अपनी आंटी को तो बोल दो , मुझे तो कचौड़ियाँ खिला दे एकाध बार ।



मंगलवार, 20 अगस्त 2013

"यादों के पिटारे से .......रक्षाबंधन "


बचपन हमारा रेलवे कॉलोनी में गुजरा । हम तीन भाई ,बहन कोई नहीं । रक्षा बंधन बहुत दिनों तक तो समझ नहीं आया । मेरे बड़े भाई कुछ ज्यादा मिस करते थे ऐसे अवसरों पर । एक बार बचपन में रक्षाबंधन के अवसर पर काफी खुश हो कर घर के बाहर घूम रहे थे ,किसी पड़ोस के बच्चे ने कह दिया ,तुम्हारे तो बहन ही नहीं है ,तुम क्यों खुश हो रहे हो ! तुमको रक्षाबंधन से क्या मतलब ! मेरे बड़े भाई रोने लगे । हमारे घर के बगल एक सिंह साहब के परिवार के लोग रहते थे । जिन्हें हम चाचा जी और चाची जी कहते थे । भाई का रोना सुनकर चाची जी  हमारे घर आ गईं और बोली ,रो मत ,तुम्हे पूनम राखी बांधेगी । पूनम उनकी छोटी बिटिया का नाम था । उस दिन के बाद से बरसों तक पूनम ने हम तीनो भाइयों के लगातार राखी बाँधी । बहुत दिनों तक वह अपनी शादी के बाद भी आती रही । परन्तु धीरे धीरे उसकी अपने ससुराल में व्यस्तता बढती गई और हम लोग भी बाहर चले गए ।

उस समय हमारे घर कथा पूजा करने आने वाले पंडित जी की बहन भी ,जिन्हें हम बुआ कहते थे , हर रक्षा बंधन पर हम सबको राखी बाँधने आया करती थीं । वह एक बड़ी सी पोटली लाती थीं । उसमे बहुत सी रंग बिरंगी राखियाँ होती थी । हम लोग अपनी मनपसंद राखी ले लेते थे । कुछ दिनों बाद पंडित जी और फिर बुआ जी का भी निधन हो गया। उनसे इतना अपनापन था कि बहुत दिनों बाद हम लोग जान पाए कि उनका हम लोगों से रिश्ता यजमानी वाला था ।

उस समय राखियाँ स्पंज वाली और बहुत बड़े बड़े फूल वाली होती थीं । उन पर सुनहरे रंग के प्लास्टिक के विभिन्न डिजायन वाले आकृतियाँ लगी होती थीं और राखी के अगले दिन हम लोग उसे हाथ में बांधे बांधे स्कूल जाया करते थे । कुछ बच्चों के हाथों में कलाई से लेकर ऊपर बांह तक राखियाँ बंधी होती थीं । मै सोचता था कितनी बहने हैं इसके और मेरी एक भी नहीं । बाद में पता चला ,वो बच्चे खुद ही इतनी सारी  राखियाँ अपने हाथों में बाँध लेते थे । उस समय राखियों की गिनती से समृद्धता का एहसास होता था ।

रक्षाबंधन के बाद एक व्रत होता है ' हलषष्ठी ' का । उसमें हमारी मम्मी एक मिटटी का गड्ढा बना कर उसमे पानी भर कर पूजा करती थीं ।उस पानी से हम लोगों का मुंह धो कर काजल लगाया जाता था और उस दिन व्रत में वह कुछ भी बोया जोता हुआ अनाज नहीं खाती थी । केवल तिन्नी का चावल और दही खाती थीं । अभी भी मम्मी यह व्रत करती हैं और अब तो उनकी बहुएं भी करती हैं ।  उस मिटटी के घेरे के कगार पर हम लोग राखी का ऊपर वाला डिजायन निकाल कर उसे सजाते थे । राखी के स्पंज को निकाल कर उसमें पानी इकट्ठा करने की असफल कोशिश करते थे ।

उस समय स्याही वाली पेन का प्रयोग होता था । कभी कभी गिरी हुई इंक को भी स्पंज से सुखा लिया करते थे । उस समय स्पंज हम लोगों के लिए एक बड़ा कौतूहल हुआ करता था ।

मेरे मामा अक्सर रक्षाबंधन पर मेरी मम्मी से राखी बंधवाने आया करते थे या हम लोग भी उनके पास जाया करते थे । बहुत विधिवत संपन्न होता था ऐसे मौके पर राखी बाँधने का आयोजन ।

"अब तो राखियाँ भी बहुत माडर्न हो चली और कलाईयाँ भी , लेकिन मायने तो इसके अभी भी वही भाई बहन के उत्कृष्ट प्यार वाले ही हैं "। 

सोमवार, 19 अगस्त 2013

"पैमाइश लफ़्ज़ों की......"


देखा है मैंने ,
अक्सर लब तुम्हारे ,
कुछ कहने से पहले ,
हो जाते हैं आड़े तिरछे,

शायद ये लब ,
करते है पहले ,
तितर बितर होते ,
लफ़्ज़ों को तरतीब में ,

फिर टांकते चलते है ,
कतरा दर कतरा ,
अपनी नज़्म सी नालिश ,
मेरे सीने पर ,

इस बेतरतीबी की ,
तरतीबी में यूँ ,
लबों की नुमाइश ,
अच्छी नहीं होती ,

कोई जरूरी तो नहीं ,
मोहब्बत में हर वक्त ,
हो पैमाइश लफ़्ज़ों की ,
उनकी पैदाइश से पहले ,

मेरी तो आज भी ,
ख्वाहिश बस वही ,
जब भी हो ,
पहलू में तुम ,

न हो नुमाइश ,
लफ़्ज़ों की ,
न हो पैमाइश ,
मानी की ।      ('मानी' - 'मायने' )

                                          "लबों पर जब भी जुम्बिश हो तो बस एक 'तबस्सुम' ठहर जाए"  

रविवार, 18 अगस्त 2013

" बुक-मार्क…… "


पुस्तक पढने का शौक तो बहुत पुराना है । बस रफ़्तार और कंसंट्रेशन घटता बढ़ता रहता है ,उस पुस्तक में अभिरुचि के अनुसार । मुझे तो पुस्तक पढ़ते समय उसमें रखा 'बुकमार्क' भी अत्यंत उपयोगी लगता है । एक एक कर के पन्ने पढ़ते जाओ और 'बुकमार्क' खिसकाते जाओ । लगता है जैसे पुस्तक में परोसे व्यंजन को खाने के लिए 'बुकमार्क' छुरी-कांटे का काम करता है । 'बुकमार्क' न हो तो सब पन्ने आपस में गड्ड -मड्ड हो जाते हैं  ,बिलकुल वैसे ही जैसे बिना छुरी-कांटे के डोसा खाया जाये तो सीधा सा पूरी-सब्जी बन जाता है ।

पुस्तक पढने का क्रम कितनी भी बार टूट जाए पर 'बुकमार्क' लगे होने पर भरोसा रहता है कि पुनः पढ़ना प्रारम्भ करने पर पुस्तक के पन्ने आपस में भ्रम नहीं उत्पन्न कर पायेंगे । 

यदि किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा पढ़ी जा रही पुस्तक हाथ में आ जाए और उस पुस्तक में कहीं पन्नो के मध्य 'बुकमार्क' लगा हो तब यह ध्यान रखना पड़ता है कि दूसरे व्यक्ति के द्वारा लगाया गया 'बुकमार्क' अपने स्थान से न हटने पाए । यदि 'बुकमार्क' न लगा हो तब यह तय नहीं हो पाता कि उस पुस्तक को कोई अन्य पढ़ भी रहा है अथवा नहीं ।  

प्रतेक व्यक्ति का जीवन भी एक पुस्तक की ही भांति होता है । वह नित नए पन्ने लिखता है जो उसके जीवन में जुड़ता जाता है । जिसे उसके आसपास के और उसके समाज के लोग पढ़ते जाते हैं । इस पुस्तक की विशेष बात यह होती है कि इसे लिखने वाला भी स्वयं इस पुस्तक को पढता रहता है । परन्तु इस पुस्तक के पन्ने हज़ारों -लाखों की संख्या में होते हैं क्योंकि व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक क्षण तमाम घटनाएं घटित होती रहती हैं और प्रत्येक घटना पर एक नया पन्ना जुड़ता रहता है । इस पुस्तक को पढने में इसे स्वयं लिखने वाला भी अक्सर गलती कर जाता है । इसमें गलती न होने देने के लिए इस जीवन रुपी पुस्तक के लिए भी एक 'बुकमार्क' की आवश्यकता होती है । 

और यह 'बुकमार्क' उसके जीवन का 'हमसफ़र' ही हो सकता है अर्थात दोनों एक दूसरे के जीवन के 'बुकमार्क' होते हैं । जैसे बचपन में हम लोग दो पुस्तकों को अगल बगल रख कर उनके प्रत्येक पन्नों को क्रमवार एक दूसरे के बीच  (बुकमार्क की तरह) रखते चले जाते थे और बाद में दोनों पुस्तको को  दोनों हाथों में ले कर उन पन्नों को क्रमवार छोड़ते थे तब बड़ा सुन्दर दृश्य उत्पन्न होता था ।बस वैसे ही जीवन में अगर हमसफ़र के प्यार का 'बुकमार्क' लग जाए तो जीवन भी महक /चहक उठता है और संवरा संवरा सा लगने लगता है ।     

अगर लोग अपने हमसफ़र को बस कुछ यूं ही अपने अपने जीवन रुपी पुस्तक का 'बुकमार्क' बना लें फिर कभी भी उन पुस्तकों को पढने में कोई भी पन्ने आपस में भ्रम नहीं उत्पन्न करेंगे और प्रत्येक नया पन्ना बहुत साफगोई से उनकी जीवन रुपी पुस्तको में जुड़ता चला जाएगा । 

बस इसीलिए 'उनको' हमने तो अपनी ज़िन्दगी का 'बुकमार्क' बना रखा है  । अब वह जब चाहे ,जहां चाहें , मेरे पन्नों को बंद कर दें बस वँही ठहर जाऊँगा और जब यही 'बुकमार्क' जीवन के अंतिम पन्ने पर लग जाएगा तो शायद सम्पूर्ण भी हो जाऊँगा । 



सोमवार, 12 अगस्त 2013

" जब सीलिंग फैन बोल उठा ...."


रात में बिस्तर पर करवटें बदल रहा था कि अचानक से कहीं से आवाज़ आई ,"क्यों नींद नहीं आ रही है क्या "। मुझे लगा निवेदिता की आवाज़ तो ऐसी खराश वाली नहीं है ,यह कौन बोला । नाईट लैम्प जला कर चारो ओर ढूंढती निगाहों से कोशिश की परन्तु नज़र कोई न आया । अचानक फिर ऊपर से छत की ओर से हँसने की आवाज़ आई । देखता क्या हूँ ,सीलिंग फैन एक तरफ तिरछा होकर मुझसे कुछ कह रहा था । मेरे तो होश उड़ गए । इस पर वह अपने पंख डोलाते हुए बोला घबराओ मत ,कई दिनों से तुम्हे एकदम अकेला देखकर मुझे तुमसे सहानुभूति हो रही है । मुझे तो आदिकाल से अनंत काल तक ,जब तक धरती पर मनुष्य रहेगा ,अकेले ही एक जगह पर फिक्स्ड रहकर अकेलापन काटने का शाप मिला हुआ है पर तुम तो पत्नी और बच्चों वाले हो ,ऐसे कैसे मनहूसों की तरह अकेले पड़े रहते हो । मैंने कहा ,नहीं नहीं बस ऐसे ही आज कुछ मन ठीक नहीं था सो अकेले ही लेट गया । इतनी देर में सीलिंग फैन ने एक मानवीय शक्ल का रूप ले लिया था । सीलिंग फैन के पेंदी में एक नोक सी निकली हुई है ,वह मुझे अब उसकी नाक लगने लगी थी । अपनी नाक तिरछी करते हुए वह बोला , देखो मुझसे तुम्हारा कुछ भी छिपा नहीं है । मैं तुम्हारे बारे में उतना जानता हूँ जितना तुम भी नहीं जानते अपने बारे में। रोज ऊपर से विहंगम दृश्य देखता हूँ तुम्हारा (बड़ा वीभत्स लगता है, ऐसा मन ही मन बोला होगा ) ।

पहले तुम कितने सलीके से रहते थे । पूरा कमरा एकदम सुव्यवस्थित रहता था । कमरे में हल्का हल्का संगीत बजता रहता था और उस पर से मंद मंद खुशबू इत्र की ,और निवेदिता से तुम्हारी चुहल होती रहती थी । बच्चे भी उछल कूद किया करते थे । चलो बच्चे तो चले गए बाहर पढने लिखने ( यही एक काम जीवन में तुमने अच्छा किया ,तुमने खैर क्या किया ,सारा श्रेय निवेदिता और उसके ईश्वर को है ) पर तुम तो अब भी उसी तरह उमंग में रह सकते हो । अब जब भी कमरे में होते हो बस फोन पर लोगों से बातें या लैपटाप लिए खटर पटर करते रहोगे और अकेले ही मुस्कुराते रहोगे । जैसे ही फोन बंद या लैपटाप बंद ,तुम्हारी सूरत भी 'भारत बंद' की तरह मनहूस हो जाती है ।

जितनी शान्ति तुम्हारे घर में रहती है इतनी तो अस्पताल में भी नहीं होती। चिंतन मंथन करना अच्छी बात होती है परन्तु मौन रखना बेवकूफी होती है । इसीलिए मैं भी कभी जोर जोर से आवाज़ करने लगता हूँ , जब तुम एकदम से उठकर देखने लगते हो कि कहीं मैं बिगड़ तो नहीं गया । मैं बिगड़ने वाला नहीं । मुझे सन्नाटा पसंद नहीं ,परन्तु तुम चुप रहोगे तो मुझे ही कुछ करना पडेगा न ।

अब तुम 'ए सी' चला लेते हो और मुझे बंद कर देते हो । तब मुझे बहुत ठण्ड लगती है । मैं जब तक चलता रहता हूँ मेरे अन्दर भी गर्मी बनी रहती है । थोड़ा 'ए सी' कम कूलिंग पर रखा करो और मेरी भी हवा ले लिया करो । जब कभी लाईट चली जाती है, तब इनवर्टर के सहारे मेरे ही दम पर रात भर चैन से सो पाते हो तुम । तब तुम्हारा 'ए सी ' खुद ही मेरी ओर अपना मुंह बाए टुकुर टुकुर ताकता रहता है ।  

और हाँ ! रात में बत्ती बंद कर सोया करो । किताब पढ़ते पढ़ते सो जाते हो ,मुझे रोशनी में उलझन लगती है और आँख खुलने पर तुम्हारी बेढंगी वीभत्स मुद्रा भी देखनी पड़ती है ।

देखो,मैं तुम्हारा फैन हूँ और तुम्हारा ही फैन रहूँगा ता-जिंदगी । मैं आदमियों की फितरत वाला नहीं हूँ जो रोज़ अपनी पसंद और ना-पसंद बदलते रहते हैं । अब तक इसकी बडबड सुनकर मैं बोर हो चुका था । सो एक गिलास पानी के लिए ही जैसे हाथ बढ़ाया ,ट्यूब लाईट के स्विच पर हाथ पड़ गया और कमरे में उजाला भर गया। देखा सीलिंग फैन तो मस्त मस्त धीरे धीरे गोल गोल घूम रहा था (जैसे मन ही मन हंस भी रहा हो ) ।परन्तु मुझे पता नहीं क्यों उसके सामने अब अजीब सा लग रहा था ,जैसे मेरी किसी ने पोल खोल दी हो ।

कितना सच सच कह गया मेरा 'फैन' सब मुझसे ।

   

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

" हवाई चप्पल "


किसी के पास कितने भी आकर्षक जूते और चप्पल क्यों न हो ,उनमे एक अदद जोड़ी चप्पल 'हवाई' अवश्य होती है । कारण बस एक ही है ...पैरों से दुर्बल को कचरने में बहुत आनंद आता है । 'हवाई' चप्पल से दुर्बल और गरीब कोई चप्पल पैरों में पहनने वाली हो ही नहीं सकती और न है । बाकी जूते चप्पल इतने महंगे होते हैं कि उन्हें पहनने के बाद पैरों से ज्यादा उनका ख्याल रखना पड़ता है ।

बचपन में नई हवाई' चप्पल का अपना एक अलग आनंद होता था । कुछ दिनों तक तो जूते पहन कर स्कूल जाते समय चप्पल को उसकी पन्नी और डिब्बे में रखकर जाया करते थे ,जिससे कि उसकी सतह का गोरापन बना रहे । मुझे 'हवाई' चप्पल की सतह की सफेदी ने हमेशा लुभाया है । अब तो सतह भी रंगीन आने लगी है परन्तु वो बात नहीं लगती ।

'हवाई' चप्पल जब अधिक पुरानी हो चलती है या कहें घिस सी जाती है तब वह बहुत पतली हो जाती है और पहनने वाले के पैरों का आकार ले लेती है । मंदिर वगैरह में अगर उतारनी पड़े ,तो कितनी भी चप्पलें वहां एक साथ क्यों न रखी हों ,अपने पैरों की छाप से आप अपनी 'हवाई' चप्पल आसानी से पहचान सकते हैं ।

बचपन में चप्पल पुरानी होने पर या कहे घिस जाने पर सतह घिसने के साथ साथ उसके स्ट्रैप के नीचे वाला 'टिकुला' भी घिस जाता था और चलते चलते चप्पल टूट जाती थी । ऐसे में उस स्ट्रैप को थोडा और नीचे खींच कर सतह के पीछे से 'टिकुले' की जगह एक आलपिन या सेफ्टीपिन आर पार पिरो दिया करते थे और चप्पल फिर उपयोग में आने लगती थी । ये बात दीगर है कि इससे उस पैर की चप्पल कसी हुई लगती थी ,जिसमें आलपिन लगी होती थी । अब दूसरे स्ट्रैप के टूटने का इंतज़ार रहता था कि वह भी टूट जाए तो एक नया स्ट्रैप डाल दिया जाये । परन्तु नए स्ट्रैप डालने बाद चप्पल पहन तो लेते थे पर अपराध बोध होता था कि देखो बेचारा स्ट्रैप तो नया है और उसे पुरानी घिसी सतह के गले मढ़ दिया ,जैसे कोई बेमेल विवाह हो जाए ..सुन्दर सी नई नवेली युवती का विवाह किसी अधिक उम्र के व्यक्ति के संग हो जाए । परन्तु सच तो यह है कि काम तो वह बेमेल चप्पल भी निभाती थी और निभ तो ऐसे विवाह भी जाते हैं ।

बारिश में या भीगी कच्ची सड़क पर हवाई चप्पल पहन कर चलते समय पहने हुए नीचे के वस्त्र . ,पायजामा ,पैंट ,लोवर इत्यादि पर मिटटी से बड़ी आकर्षक छींटे बन जाती है । उससे बचने के लिए बचपन में हम निकर पहनते थे । उससे केवल टाँगे ही गन्दी होती थी उसे धो लिया करते थे । इससे बचने का एक और तरीका ईजाद किया था हम लोगो ने । अगर अपने पैरों से छोटी चप्पल पहनी जाए तब बारिश में पीछे कपड़ों पर छीटें नहीं पड़ती थीं और अपने से बड़ी चप्पल पहन ली तब तो माडर्न आर्ट बनना तय ही रहता था । अब घरों में  कभी कभार पैरों में छोटी बड़ी चप्पल पड़ ही जाती हैं ।  

हवाई चप्पल के फायदे जो मैंने अनुभव किये :

१. सस्ती और वेदरप्रूफ ।
२.बचपन में कबड्डी खेलते समय इन्ही उतारी हुई हवाई चप्पलों से पाला बनाया करते थे ।
३ .क्रिकेट खेलने में 'बालिंग एंड' पर यही हवाई चप्पल 'नो बाल' तय करती थी ।
४ .कहीं भी छोड़ सकते हैं ..खोने पर क्षति अधिक नहीं ।
३. भीड़ भाड़  / ट्रेन में कोई उतारी हुई चप्पलों पर अपने जूते या पैर रख दे तो गंदे या ख़राब होने का डर नहीं ।
४. पार्क /मंदिर में टहलते टहलते थकने की स्थिति में उसे उतार कर उसी पर आराम से बैठ सकते हैं ।
५. राशन लेने या मिटटी का तेल लेने या गैस लेने की लाइन में लगने के विकल्प की स्थिति में चप्पल ही 'प्रोक्सी' का काम करती है और उसे इसकी कानूनी मान्यता भी प्राप्त है । लोग सहजता से इस प्रणाली को अंगीकृत कर लेते हैं ।
६.इसको पहनने में नर मादा का भेद नहीं होता । 'जेंडर बायस' से परे है यह ।
७. कभी कभार ऐसी जगहों पर स्नान / शौच करना पड़ सकता है जहां दरवाजा भीतर से बंद होने में स्वयं में असमर्थ होता है । ऐसे स्थानों पर इसे बाहर ही उतार कर अपनी भीतर की उपस्थिति दर्ज कराई जा सकती है और असहजता की स्थिति से बचा जा सकता है ।  
८.आवश्यकता पड़ने पर इसे हाथ में लेकर कभी अस्त्र और कभी शस्त्र के तौर पर प्रयोग कर सकते हैं । 

बचपन में मम्मी कहा करती थी कि अगर उतारी हुई चप्पलें आपस में एक दूसरे के ऊपर चढ़ी हुई मिले तो घर में रहने का योग कम रहता है । इसलिए प्रायः हम लोग डाट खाते थे कि उतारी हुई चप्पले अगल बगल ठीक से उतार कर रखा करें । ( पता नहीं क्या कुशल छिपा था इसमें हम लोगों का ,शायद व्यवस्थित रखने का एक तरीका रहा होगा यह )   
    
अब चूंकि समय के साथ सभी जूतों / चप्पलों के दाम तो बहुत अधिक बढ़ गए परन्तु उस अनुपात में 'हवाई' चप्पल अभी भी बहुत सस्ती है ,इसीलिए बड़े लोगों ने इसे सस्ता समझ कर पहनना छोड़ दिया और वे लोग महँगी महंगी बाथरूम स्लीपर्स पहनते है और वे इतनी 'स्लिपरी' होती हैं कि बेचारे वे बड़े लोग बाथरूम में फिसल कर अच्छा खासा पैसा हड्डी वाले डाक्टर को दे आते हैं । ( खैर मर्जी है उनकी क्योंकि पैसा है उनका ) 

'हवाई' चप्पल का नाम 'हवाई द्वीप' के नाम पर पडा । इसकी खोज मूलतः  जापानियों ने समुद्री रेत पर चलने के लिए की थी । हवाई द्वीप पर पहनी जाने के कारण इसका नाम 'हवाई' चप्पल पड़ गया । इसका हवा --हवाई से कोई लेना देना नहीं है । हां , नई नई इसे पहन कर हवा में इतरा अवश्य सकते हैं आप ।