बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

" जो बिखर जाए वही गुलाब है .........."


रोज़ सवेरे पूजा के लिए ५ या ६ फूल गुलाब के तोड़ कर लाता हूँ और इन्हीं ५/६ फूलों को तोड़ने में हाथ की उंगलियाँ महक उठती हैं ।  फूल तोड़ने बहुत उत्साह से जाता हूँ परन्तु उन्हें तोड़ने में अपराध बोध सा भी होता है । जितने अच्छे वो पौधों में लगे दिखते हैं , उनसे अलग होकर उदास तो फूल भी होते हैं । अब तो मुझे लगता है पौधे भी मुझे देखकर कुछ रुष्ट सा हो जाते होंगे ।

कभी कभी तो तोड़ते समय गुलाब हथेलियों में ही बिखर जाता है । गुलाब ही एक ऐसा फूल है जो बिखरता भी पूरे मन से हैं । एक फूल बिखर इतनी पंखुड़ियां देता है जैसे उसने बिखर कर एक फूल को अनेक कर दिया हो और अपनी खुशबू चारों ओर  बिखेर दी हो ।

गुलाब के अलावा सारे फूल अपने आप टहनी से गिरते तो अवश्य हैं परन्तु अलग अलग पंखुड़ियों में बिखरते कभी नहीं अर्थात सीधी सच्ची बात ,"जो बिखर जाए वही तो गुलाब है "

जीवन में अनेक लोग मिलते हैं ,प्रेम होता भी है और नहीं भी । रिश्ते बनते हैं ,बिगड़ते हैं ,निभते हैं और टूटते भी । परन्तु कुछ लोग ऐसे होते हैं जो आप के जीवन में स्वयं को बिखेर देते हैं अथवा आप किसी दूसरे के जीवन में स्वयं को हर्षपूर्वक बिखरा जाते हैं और जो बिखरता है उसकी खुशबू सारी उम्र उस व्यक्ति को महकाती रहती है जिसके जीवन में वह स्वयं को बिखेर आता है । किसी के प्रेम में स्वयं को पंखुड़ी दर पंखुड़ी अलग कर देना ही शायद समर्पित प्यार है ।

हलकी सी बारिश में ही गुलाब बिखर उठता है और गेंदे का फूल लाटसाहब की तरह तना खडा रहता है ,ऐसा आशीष राय जी ने अपने बगीचे के हवाले से कभी लिखा था कहीं । तभी मन में यह ख्याल आया था कि  बिखरने का हुनर तो ईश्वर ने केवल गुलाब को ही दिया है ।

फिर हम भी क्यों न अपने प्रिय के जीवन में बिखर कर गुलाब सा  बन जाएँ ।

अब आपकी स्नेहिल टिप्पणियाँ मेरी पोस्ट में बिखर कर अपनी खुशबू अवश्य बिखरा जायेंगी ,इसी उम्मीद के साथ ........।  

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

" अपना घर .....सुकून भरा ......."


२२.०२.२००२ एक यादगार तिथि ,हमारे लिए । इसी दिन हमने अपने घर में विधिपूर्वक गृह प्रवेश किया था । अद्भुत तिथि के संयोग को देखते हुए हमने स्वयं ही इस तिथि को गृह प्रवेश के लिए शुभ मुहूर्त मान लिया था ,जो बाद में प्रकांड पंडितों के अनुसार वास्तव में एक अद्भुत रूप से बहुत ही शुभ मुहूर्त था । 

मूल रूप से हमारे पूर्वज प्रतापगढ़ जिले की कुंडा तहसील के एक पिछड़े से गाँव 'मद्दूपुर' के निवासी रहे । पिता जी ने अपनी पढ़ाई लिखाई लखनऊ विश्विद्यालय से की । तत्पश्चात रेलवे की सेवा में पूरे सेवाकाल में फैजाबाद जिले में ही तैनात रहे । फैजाबाद में तैनाती के दौरान ही वहीँ शहर में एक घर बना लिया । मेरी सारी पढ़ाई लिखाई फैजाबाद और उसके बाद इलाहाबाद में हुई । पढ़ाई पूरी करने के पश्चात मैंने बिजली विभाग की नौकरी ज्वाइन कर ली । 

नौकरी के दौरान अनेक स्थानों पर तैनाती रही । कभी इस शहर ,कभी उस शहर , चूँकि फैजाबाद गृह जनपद के तौर पर अंकित था ,अतः वहां तो तैनाती कभी संभव न थी । जब तक बच्चे छोटे थे तब तक तो स्थानान्तरण के लिए कभी किसी स्थान विशेष का चयन नहीं किया ,परन्तु जब बच्चे थोड़े बड़े हुए और शायद दूसरी / तीसरी कक्षा में पहुंचे तब मैंने लखनऊ शहर में स्थानान्तरण करा लिया । अभी तक तो लगभग सभी शहरों में सरकारी मकान की व्यवस्था थी और यहाँ लखनऊ में भी अच्छे सरकारी मकान थे ,परन्तु हम लोगों का दृष्टिकोण यह था कि जिस स्कूल में बच्चों का एडमिशन होगा ,वहीँ कहीं पास में किराए का घर ले कर रहेंगे । इसी योजना के तहत बच्चों का एडमिशन गोमतीनगर स्थित 'जयपुरिया स्कूल' में कराया और वहीँ पास में किराए के घर में रहने लगे । यह बात वर्ष १९९९ की है । सब कुछ ठीक ठाक चल रह था परन्तु सरकारी मकान और किसी किराए के घर में रहने में बहुत अंतर होता है । अचानक यह इच्छा प्रबल होने लगी कि अब अपना भी कोई घर होना चाहिए । 

ईश्वर की अनुकम्पा हुई ,संयोग बना और जहाँ हम लोग किराए पर रहा करते थे वहीँ समीप में ही भूमि उपलब्ध  हो गई । धीरे धीरे मकान बनना प्रारम्भ हो ही गया और २२.०२.२००२ को हमने अपनी एक छत भी पा ली । 

आज ११ वर्ष हो चुके हैं अपनी छत के नीचे रहते हुए । हमारे छोटे छोटे से बच्चे इसी छत के नीचे खेलते खेलते आज अपने जीवन निर्माण की दिशा में व्यस्त हो चुके हैं । यह मकान हमारे परिवार के लिए हमेशा इतनी खुशियों की सौगात लाया है कि बस उस परम पिता परमेश्वर को श्रद्धा से सदा नमन करने को जी करता है ।

आज तिथि २२.०२.२०१३ है और हमारे गृह प्रवेश की ११वीं वर्षगाँठ है । इस अवसर पर आप सभी की शुभकामनायें अपेक्षित हैं । 

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

" हलवा है क्या ..........."


'मीठे' को स्वादों का राजा कहा जा सकता है । मुंह में कुछ भी मीठा आते ही मन एकदम मीठा सा हो जाता है । यूं तो मिठाई के प्रकार अब सैकड़ों हो चुके हैं और नित नई नई मिठाइयों का प्रचलन प्रारम्भ होता रहता है, परन्तु सबसे सरल और प्रारंभिक मूल रूप मिठाई का हलवा ही है ।

बस थोड़ा सा सूजी , जल्दीबाजी में आटा  भी चल सकता है , थोड़ी सी शकर और पानी मिलाकर बस थोड़ी देर गैस पर गर्म किया और पल भर में ही मीठा हलवा तैयार ।

हलवा-पूरी खाना समृद्धि का द्दोतक माना जाता है । छोटे बच्चों के मुंडन संस्कार के समय प्रायः बच्चों के हाथ में हलवा पूरी पकड़ा देते हैं और बच्चा रोना भूल कर आसानी से अपने बाल उतरवा लेता है ।

अर्थात बहुत अल्प समय में ही अल्प श्रम से अल्प महत्त्व की सामग्री से दीर्घ काल तक मन खुश कर देने वाला व्यंजन तैयार हो जाता है । 

अब चूंकि इतनी सरलता से हलवा बन जाता है और इसे खाने में भी कोई मुश्किल नहीं होती । मुंह में दांत हो ,न हो ,कोई भी ,किसी भी आयु का व्यक्ति इसे आसानी से निगल लेता है । हलवा इतना गुलगुला होता है कि  किसी भी शक्ल और आकार को अख्तियार कर लेता है ।

बस इस हलवे की सरलता ने ही अनेक जुमलों को जन्म दे दिया जैसे :

१. किसी कठिन कार्य की कठिनाई को सिद्ध करने के ध्येय से कहते हैं कि , इस काम को हलवा मत समझना ।

२. निपटने , निपटाने के अंदाज़ से बात चल रही हो तब लोग अपनी मजबूती और बकैती सिद्ध करने के लिए
बोल उठते हैं ,मुझे हलवा मत समझ लेना ,इतनी आसानी से मुझे हरा नहीं पाओगे ।

३. फिल्मों में अक्सर हीरो ,विलेन की पिटाई कर उसके मुंह का हलवा बना देता है ।

४ . अभी शिवम् जी ने फेसबुक पर लिखा ,उन्हें ब्लॉग -बुलेटिन लगाना है ,कोई पोस्ट चाहिए ,जल्दी से । मेरे मुंह से निकल गया "हलवा है क्या" ।

अब तो हलवे के भी विभिन्न प्रकार हो चले हैं ,जैसे गाजर का हलवा, गोभी का हलवा , पनीर का हलवा ,आलू का हलवा , दालों का भी हलवा बनता है । हाँ , सोहन हलवा में सोहन नहीं होता ।

वैसे इस क्षेत्र में मेरा ज्ञान सीमित है । अतः अब बस करता हूँ नहीं तो  कहीं ,रेसिपी के ब्लॉग वाले लोग मेरा ही हलवा न बना दें । 

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

" ढपोरशंख ......"


एक मछुआरा समुद्र के किनारे अपने परिवार को लेकर रहता था और जीवन यापन के लिए समुद्र में मछलियाँ पकड़ता था । उसी से उसका और उसके परिवार का भरण पोषण होता था । उस मछुआरे ने सुन रखा था कि समुद्र एक देवता है और उनके पास अपार निधि है । एक दिन उसने सोचा क्यों न समुद्र देवता की अराधना करें और उनसे कोई वरदान प्राप्त कर लें , जिससे उसका और उसके गरीब परिवार का कुछ कल्याण हो जाए ।

इसी विचार से उसने समुद्र देवता की भक्ति में अराधना प्रारम्भ कर दी । कुछ दिनों पश्चात समुद्र देवता उसकी भक्ति से प्रसन्न हो गए और उन्होंने प्रसन्न हो कर उस मछुआरे को एक शंख भेंट किया । शंख देकर समुद्र देवता ने उस मछुआरे से कहा , यह शंख तुम्हारी सारी आवश्यकताएं पूर्ण करेगा । बस इसके प्रयोग में इतना ध्यान रहे कि यह शंख दिन भर में केवल एक ही बार तुम्हारी मांग पूरी करेगा उसके पश्चात इसे पुनः प्रयोग में लाने के लिए अगले दिन की प्रतीक्षा करनी होगी । मछुआरा अत्यंत प्रसन्न हुआ । परन्तु दो चार दिन बाद ही उस शंख के प्रयोग की सीमा के कारण तनिक असमंजस में पड़ गया और सोचने लगा कि काश , उस शंख के प्रयोग की कोई सीमा न होती तब कितना उत्तम होता ।

इसी विचार के साथ उस मछुआरे ने पुनः समुद्र देवता की अराधना प्रारम्भ कर दी । कुछ दिनों की पूजा के बाद समुद्र देवता पुनः प्रसन्न हो गये और उस मछुआरे के मन की इच्छा जानकार उन्होंने उसे अपने हाथों से एक दूसरा शंख प्रदान किया उससे कहा कि इसका नाम 'ढपोरशंख' है । इस शंख से तुम जो कुछ भी मांगोगे ,यह शंख उसका दुगुना तुम्हे देने की बात कहेगा और इसके प्रयोग की कोई सीमा भी नहीं है। इतना सुनते ही उस मछुआरे ने पुराना शंख समुद्र में वापस फेंक दिया और 'ढपोरशंख' को लेकर ख़ुशी ख़ुशी घर चल दिया ।

घर पहुँचते ही उसने ढपोरशंख से एक नए महल की मांग की ,सुनते ही वह शंख बोला ,एक क्या दो महल ले लो ,इस पर मछुआरा बोला ,ठीक है दो महल बना दो ।शंख फिर तपाक से बोल उठा ,दो क्या चार महल ले लो । फिर मछुआरे ने उस शंख से धन ,वैभव , सम्पदा या जिस भी वस्तु की मांग की , उस शंख ने मांगी गई मात्रा के दोगुने,चौगुने को देने की बात की परन्तु वास्तविकता में उस शंख से उस मछुआरे को हासिल कुछ नहीं हुआ ।

मछुआरा यह जान और देख कर अत्यंत कुपित हुआ और पुनः समुद्र के किनारे खड़े हो कर समुद्र देवता को याद कर प्रार्थना करने लगा । समुद्र देवता पुनः प्रकट हुए । उनसे उस मछुआरे ने अपनी व्यथा बताई ,इस पर समुद्र देवता मुस्कराते हुए बोले , जिस शंख से तुम्हारी एक इच्छा प्रतिदिन पूरी हो सकती थी , तुमने उसे तो समुद्र में फेंक दिया और दूसरा शंख, जो मैंने तुम्हे बाद में दिया, वह तो ढपोरशंख है ,केवल बोलता है ,करता कुछ नहीं है ।

यह सुनकर मछुआरे ने अपनी गलती का एहसास किया और फिर कभी बिना श्रम किये कुछ पाने की लालसा छोड़ मेहनत  कर अपना जीवन यापन प्रारम्भ कर दिया ।

"   मछुआरे का जो हुआ सो हुआ परन्तु तब से हमारे समाज में ढपोरशंखो की भरमार अवश्य हो गई ।"   

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

" जी मेल कैसे हो .........."


कभी कभी किसी से पहली मुलाकात में ही कुछ यूँ लगता है जैसे उसे सदियों से जानते हों या सदियों पुराना उससे कोई रिश्ता हो और कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें बरसों से जानते हैं फिर भी उनसे बात करने में हमेशा अजनबीपन लगता है ।

इसी को शायद ट्यूनिंग , मेंटल कॉम्पैटिबिलीटी या इम्पीडेंस मैचिंग कहते हैं । वैसे अगर एक दूसरे को थोडा समझ कर दिल से महसूस करने की कोशिश की जाए तो बात अक्सर बन सकती है पर अधिकतर हम एक दूसरे की छोटी सी बात को भी इग्नोर नहीं कर पाते और दिल मिलते मिलते बेमेल हो जाते हैं ।

आज के युग में आपस में संवाद तो 'जीमेल' से प्रति क्षण होता रहता है परन्तु 'जी' का मेल कभी नहीं हो पाता ।बेहतर होता कभी हम आपस में जी का भी मेल करा पाते ।

सच्चा प्यार हो, तब तो बिना कुछ कहे ही आपस में दो लोग एक दूसरे की बात सुन और समझ लेते हैं या यह कहा जा सकता है कि दोनों के बीच जी का मेल इतना जबरदस्त होता है कि दोनों एक दूसरे को महसूस करते हुए एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं । 

मुझसे भी कभी किसी ने कहा था , अरे कभी कभी मेल वेल कर दिया करो , मैंने पूछ लिया था किस पर ? इस पर वे बोले थे अरे ,जी मेल कर देना । मैं ठहरा अनाड़ी , मैंने सोचा इतना प्यार करते हैं मुझसे, और मेल पर मेरा 'जी' ही मांग रहे हैं ।

और यह बात ठीक भी तो है , अगर सच में कोई याद आ रहा हो तब बस अगर इतना मान लें कि उसका जी आपके निकट है और आपका जी उसके पास है तब तनिक भी ऐसा एहसास नहीं होता कि आपका प्रिय आपके समीप नहीं है ।

'जीमेल' करने से ज्यादा उत्तम है 'जी' का मेल करना और जब जी का मेल हो जाता है तब अपने प्रिय के पास जी तो अपने आप ही मेल हो जाता है ।

"अंग्रेजी शब्दों का चयन कर उनसे हिंदी अर्थ निकालने का उद्देश्य मात्र संवेदनहीन होते रिश्तों में संवेदना भरना ही है ,G Mail से पहले जी का मेल हो बस "