गुरुवार, 27 मार्च 2014

"बेखयाल लम्हा एक ..........."


ख़यालों में तुम्हारे ,
कुछ बेखयाल यूँ थे ,
कि सुर्ख़ियाँ तुम्हारी ,
हम संजोया किए थे ,

वो अक्स था तुम्हारा ,
कि था वह तसव्वुर ,
पलकों को पलकों से ,
यूँ मूंदा किये थे ,

आहट जब हुई ,
ख़ामोशी की तुम्हारी ,
सिहर से गए हम ,
चढ गई थी खुमारी ,

और झांका तुमने जब ,
अंधेरों को रोशनी मिल गई ,
गुमशुदा बैठे थे तन्हा,
लम्हों को ताज़गी मिल गई | 

शनिवार, 22 मार्च 2014

" बिजली और मानवीय संबंधो की 'फाल्ट एनालिसिस' ......."


एक लम्बे अरसे से लोगों को बिजली देने के काम के सरकारी तंत्र में अटका सा हुआ हूँ । फिर भी 'जहाँ हूँ जैसे हूँ' के आधार पर मुस्तैद रहते हुए भरसक कोशिश रहती है कि लोगों के काम आ सकूँ । इस दौरान बिजली आपूर्ति में होने वाले बहुत से 'फाल्ट' देखे ,सैकड़ों तरह के 'फाल्ट' और उनसे उपजी सैकड़ों तरह की 'परिस्थितियां' ।  उन सभी 'फाल्ट' को दूर कर प्रायः विद्युत् कर्मी तत्काल बिजली चालू करने का प्रयास करते हैं ।  परन्तु मेरा ध्यान हमेशा उन फाल्ट के उत्पन्न होने के कारणों पर ही केंद्रित रहा । मैंने लगभग सभी तरह के फाल्ट के कारणों का पता लगाने का प्रयास किया जिससे तंत्र में ऐसे सुधार कर लिए जाएँ कि उन फाल्ट्स की पुनरावृत्ति न होने पाये ।

फाल्ट्स जो प्रायः देखने को मिलते हैं जैसे  तार का टूटना , जम्पर का जलना , फ्यूज़ उड़ना , ट्रांसफार्मर का क्षति ग्रस्त होना , खम्भे से केबिल का सिरा जल जाना , मुख्य केबल का जल जाना , उपकेंद्रों पर ब्रेकर का क्षतिग्रस्त होना ,इत्यादि । इन सभी प्रकार के फाल्ट्स में मुख्य भूमिका 'करेंट' की रहती है ।

'करेंट' की विशेषता यह है कि जैसे भगवान् अपने भक्तों से प्रसन्न हो कर उनके बुलावे पर नंगे पाँव दौड़े चले आते हैं बस उसी तरह 'करेंट' से भी जो कोई जुड़ जाता  है और जितना भी चाहता है , 'करेंट' दौड़ कर उसकी इच्छा पूरी करता है और इच्छा पूरी की इसी भागा दौड़ी में 'करेंट' को दौड़ने के लिए अगर उचित पथ नहीं उपलब्ध रहता है तो वह अपना रास्ता ही तोड़ देता  है ,जिसे 'ओवरलोडिंग' कहते हैं और अगर रास्ता तो है परन्तु रास्ता सुगम नहीं है और 'करेंट' को इस रास्ते से कूद फांद कर चलना पड़ रहा है तब 'करेंट' उस कूद फांद वाले मोड़ को लांघने के प्रयास में फिर अपना रास्ता ही जला डालता है जिसे 'लूज़ कनेक्शन' कहते हैं ।   

जितने तरह के भी फॉल्ट होते हैं  वह सभी इन्ही दो फाल्ट्स की उत्पत्ति से ही उत्पन्न होते हैं । इन दो फाल्ट्स के अतिरिक्त बिजली के तंत्र में कोई अन्य फाल्ट नहीं होता । तकनीकी रूप से अगर  कहें तो यदि सभी उपकरण उचित क्षमता के हों और अपनी निर्धारित सीमा से अधिक अधिभारित न हों तो बिजली के बाधित होने का कोई कारण ही नहीं उत्पन्न हो सकता परन्तु कुछ संसाधनों का अभाव और बहुत कुछ समग्रता में योजनाओं का अभाव इन 'ओवरलोडिंग' और 'लूज़ कनेक्शन' का कारण बनते हैं ।

समाज में , परिवार में , दो व्यक्तियों के बीच , पति पत्नी के बीच अथवा  प्रेमी प्रेमिका के बीच के संबंधों में प्रायः उत्पन्न होने वाले दोष के कारणों का अगर परिक्षण किया जाए तो इसके परिणाम भी बिजली व्यवस्था में पाये जाने वाले दोष के कारणो जैसे ही प्राप्त होते हैं ,वही दो कारण 'ओवरलोडिंग' और 'लूज़ कनेक्शन' । 

'लूज़ कनेक्शन'----संवाद की स्थिति में अगर दोनों एक दूसरे को ध्यानपूर्वक नहीं सुन रहे हों अथवा बौद्धिक स्तर में अंतर होने के कारण संवाद सुगम न हो पा रहा हो तो बिजली के तंत्र में होने वाले 'लूज़ कनेक्शन' की सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है । जैसे 'फैक्स' भेजने से पहले 'फैक्स टोन' का मिलना आवशयक है उसी तरह संवाद के सफल होने के लिए दो व्यक्तियों का आपस में उचित बौद्धिक जोड़ होना नितांत आवश्यक है । इसके न होने पर भावनाओं का उचित सम्प्रेषण नहीं हो पाता और नाहक ही विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है ।ऐसी स्थिति में संवाद तो होता है परन्तु 'कनेशन लूज़' होने के कारण तापक्रम इतना बढ़ जाता है कि सम्बन्ध ,संवाद समाप्त होते होते स्वयं ही समाप्तप्राय होने लगते हैं ।  

'ओवरलोडिंग'-------व्यक्ति के मस्तिष्क में सदैव एक से विचार अथवा भाव नहीं होते । कभी उसके मन मस्तिष्क में अनेक कल्पनाएं , योजनाएं , चिंताएं अथवा भय व्याप्त रहता है और कभी उसका मस्तिष्क विचार शून्य भी हो जाता है । मस्तिष्क की अधिभारिता की स्थिति में उस पर जरा सा भी दबाव और पड़ने पर मस्तिष्क अपनी कार्यशीलता खोने लगता है और अनाप शनाप तरीके से व्यवहार करने लगता है । संवाद करने से पहले एक दूसरे के मन / मस्तिष्क की स्थिति को समझने की बहुत आवश्यकता होती है । इसी के अभाव में संवाद विफल तो होता ही है ,व्यक्ति अधिभारिता के कारण असामान्य प्रकृति का होने लगता है और असमय मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है । इसी को ही 'ओवरलोडिंग' कहा जा सकता है ।

आपसी सम्बन्धों को मधुर और सफल रखने के लिए नितांत आवश्यक है कि एक दूसरे के मस्तिष्क को अधिभारित नहीं होने देना चाहिए और यदि किसी कारणवश मस्तिष्क अधिभारित है तब पहले उस अधिभारिता को स्नेह पूर्वक समझ कर दूर करना चाहिए और तभी संवाद स्थापित करना चाहिए । इसके अतिरिक्त संवाद के दौरान 'कनेक्शन' कदापि 'लूज़' नहीं होने देना चाहिए । 

मंगलवार, 18 मार्च 2014

" खोखली गुझिया............"


गुझिया की प्लेट बढ़ाई जा रही थी । सभी लोग क्रम से एक एक कर के ले रहे थे । मौका था एक दोस्त के यहाँ होली मिलन के कार्यक्रम का । मेरे पास आते आते प्लेट में एक अंतिम गुझिया बची थी ( अन्य कोई विकल्प नहीं था ,नोटा की भांति ) , मैंने उठाया तो ,आकार के अनुपात में वह अंतिम गुझिया बहुत हलकी लगी मुझे । मैंने तारीफ़ करी कि अरे यह गुझिया तो बहुत हल्की है और खाने के लिए मुँह में डाला ही था कि वह गुझिया तो दांत के हलके स्पर्श मात्र से ही पिचक कर फूट गई । पुनः हाथों में बटोर कर उसका निरीक्षण किया तो पाया कि वह गुझिया भीतर से खोखली थी । मन ही मन अपनी किस्मत को कोसते हुए मैं उस गुझिया को हाथ में लिए ताकने लगा ।

मुझे वह खोखली गुझिया अचानक से कभी अपना खाली बटुआ तो कभी नेताओं के खोखले वादे तो कभी युवाओं के खोखले इरादे सदृश लगने लगी । गुझिया बाहर से किसी से कम न थी , एकदम सुडौल और आकर्षक ,पर भीतर से एकदम खोखली । सहसा मुझे लगा यह गुझिया ही क्यों ,यहाँ तो सब कुछ इसी की तरह खोखला है । जो लोग सामने बैठे हँस रहे हैं ,उनकी हँसी खोखली है । जिस विषय पर जो चर्चा हो रही है ,वह चर्चा क्या वह विषय ही खोखला है । बार बार जम्हाई लेता मित्र ,जिसके यहाँ सब एकत्र हैं , जब दुबारा चाय को पूछ रहा है तब उसका निमंत्रण ही खोखला है ।

अच्छे खासे सफ़ेद मोटे मोटे मोती जैसे दांत में जब दर्द प्रारम्भ हुआ ,तब डाक्टर को दिखाया तो डॉक्टर बोला ,आपका दांत ही खोखला है । जिसकी जीवन भर सेवा की  ,देखभाल की ,वह दांत ही भीतर भीतर बैर रखता रहा मुझसे और खोखला हो गया । माँ-बाप बचपन से लेकर आत्म निर्भर बनाने तक जिन बच्चों को लाड प्यार करते रहते हैं  ,बाद में पता चलता है , बच्चों के भीतर उन माँ-बाप के प्रति सम्मान / प्यार खोखला है ।

एक लम्बी घनिष्ठ मित्रता के बाद कभी सहायता की आवश्यकता पड़ने पर ज्ञात होता है कि वह मित्रता ही खोखली थी । अच्छी अच्छी और ईमानदारी की बाते करने वाले लोग हर सरकारी विभाग में खूब मिलते हैं फिर भी उन विभागों की छवि / कार्यप्रणाली क्यों इतनी ख़राब होती है ,एक ही उत्तर ,सब भीतर से खोखले हैं ।

'आवरण संस्कृति ' का जमाना है । जो जितना बाहर से आकर्षक वह भीतर से उतना ही खोखला निकलता है । महिलाओं के सशक्तिकरण की बात करने वाले लोग ही बड़े बड़े 'एन जी ओ' में ,अनेक नारीवादी संस्थाओं में लम्बे लम्बे भाषण देते हैं और अधिक से अधिक यही लोग महिलाओं के शोषण में लिप्त पाये जाते हैं । खोखला चरित्र आज कल चरम पर है और बाज़ार में इसी की धूम है । जो जितना संस्कारी वही अत्यधिक व्यभिचारी कैसे पाया जाता है । ऐसे खोखले संस्कारों की तिलांजलि देनी होगी ।

समाचार पत्रों में , मीडिया में दिखाए जाने वाले सारे के सारे विज्ञापन भीतर से खोखले होते हैं , सरासर झूठ को रंगीनियों में लपेट कर परोसते रहते हैं बस । गली गली खुलने वाले इंजीनियरिंग और एमबीए के स्कूल / कालेज खोखली डिग्री और डिप्लोमा बाँट रहे हैं और बच्चों के भविष्य को साथ ही साथ उनके माँ-बाप के बटुओं को भी खोखला कर रहे हैं ।

आज युवाओं के सपने खोखले हैं ,बिलकुल वैसे ही जैसे उनके वालेट में रखे ढेरों क्रेडिट कार्ड भीतर से खोखले होते हैं । फेसबुक पर स्टेटस की पड़ताल करो तो स्टेटस खोखले निकलते हैं ।

चुनावों का मौसम है ,हर नेता चाशनी लगा कर आश्वासनों और विकास के वायदों की मोटी मोटी गुझिया परोस रहा है और यकीन जानिये ,यह सारी की सारी गुझिया खोखली ही निकलने वाली हैं ।

                  फिर भी होली के शुभ अवसर पर शुभकामनाएं तो बनती हैं । ( भले ही भीतर से खोखली हों ) 

मंगलवार, 11 मार्च 2014

" मर्जी से ........mercy तक "


घर,परिवार,समाज,संस्थाओं, विद्यालयों अथवा राजनैतिक दलों तक में यही संस्कार स्थापित किये जाने पर बल दिया जाता है कि सभी स्थानों पर छोटे लोग,आयु अथवा पद में,अपने से बड़ों का सम्मान करें एवं यथासम्भव बड़ों से सलाह , मशवरा करने के उपरान्त ही कोई कार्य करें । एक सीमा से अधिक सम्मान करने से और सदैव सलाह मांगने से धीरे धीरे वह "सलाह" कब उन बड़ों की 'मर्जी' में परिवर्तित हो जाती है ,पता ही नहीं चलता ।

'सलाह' और 'मर्जी' में बहुत अंतर है ,परन्तु 'सलाह' देने वाला व्यक्ति अपने पद ,आयु और सम्बन्ध का दुरूपयोग कर 'सलाह' के स्थान पर धीरे धीरे अपनी 'मर्जी' व्यक्त करना कब प्रारम्भ कर देता है , ज्ञात ही नहीं रहता ।

दूसरे की 'मर्जी' के अनुसार कार्य करने वाला व्यक्ति कभी भी अपने कार्य को आत्मविश्वास और निर्भीकता से नहीं कर पाता । बच्चों में तो ख़ास कर निर्भरता इतनी अधिक बढ़ जाती है कि उपयुक्त 'सलाह' अथवा मशवरा के आभाव में वह लाचार से हो जाते हैं , जो उनके स्वतन्त्र रूप से विकसित होने में बाधा बनता है । बात बात में अपनी 'मर्जी' व्यक्त करने वाला व्यक्ति परोक्ष रूप से स्वयं को स्वयं-भू समझने लगता है ।

यही 'मर्जी' जब परम और चरम स्थिति को प्राप्त करती है तब 'mercy' में परिवर्तित हो जाती है । जब कोई किसी को हानि पहुचा पाने की स्थिति से उबारने की क्षमता रखता हो तब वह व्यक्ति 'mercy' की शक्ति रखने वाला माना जाता है । 'mercy' की पराकाष्ठा के तौर पर राष्ट्रपति महोदय को मृत्यु दंड पाये व्यक्ति को 'mercy' दे कर उक्त दंड से माफ़ करने का अधिकार है ।

शादी ,ब्याह में भी पहले लड़के वालों की 'मर्जी' चलती थी ,जो अभी भी कायम है और गरीब परिवारों की लड़कियों की शादियां तो सदा से लड़के वालों की 'मर्सी' पर ही टिकी रही हैं । प्रेम करने वाले भी पहले एक दूसरे की 'मर्जी' का ख्याल रखते हैं । धीरे धीरे जब प्रेम कमतर होने लगता है तब बस जितनी जिसकी 'मर्सी' बस उतना ही प्रेम बिखर पाता है ।

अब जब लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं , तब सबसे अधिक राय ,मशवरा सभी सीटों पर प्रत्याशियों को टिकट दिये जाने को ले कर हो रहा है । अभी तक टिकट आला कमान की 'मर्जी' से मिलता था ,अबकी लग रहा है ,इस 'मर्जी' ने 'mercy' का स्थान ले लिया है । लाल जी टंडन , मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह के हाव भाव देख कर तो यही लगता है । अब 'mercy' पता नहीं किसकी , कहीं मोदी की तो नहीं । कमोबेश यही हाल सभी पार्टियों का है , कहीं लालू की 'मर्सी' है तो कहीं केजरी की ,तो कहीं सोनिया की । सलाह उस व्यक्ति से ही ली जानी चाहिए जिसे सलाह, मर्जी और मर्सी में स्पष्ट रूप से अंतर ज्ञात हो ।

अब शायद मैंने  'सलाह' , 'मर्जी' और 'मर्सी' में अंतर स्पष्ट कर दिया है । 'आत्मविश्वास' आखिर इतना अधिक क्यों न हो जैसा कि अत्यंत मशहूर निम्न पंक्तियों में उल्ल्लखित है :

                                                   "खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले ,
                                                     खुदा बन्दे से खुद पूछे कि बता तेरी रज़ा क्या है "।


(यह पोस्ट मैंने अपने एक मित्र के आग्रह पर लिखी है )

गुरुवार, 6 मार्च 2014

" कुछ तो है ........."


कुछ तो है.........

नैना खिलखिलाते हैं ,

अधर मिचमिचाते हैं ,

कपोल भिंचे जाते हैं ,

स्याह लटें डोलती हैं ,

कुछ तो है.........

बालियां बोलती हैं ,

बिंदिया बहकती है ,

आवाज़ महकती है ,

कनखियाँ घूरती हैं ,

कुछ तो है........

मन कुरेदता है ,

तन सिमेटता है ,

राहें डोलती हैं ,

बाहें खोलती हैं ,

कुछ तो है.........

रोते रोते हंसती हैं ,

हँसते हँसते रोती हैं ,

कसमें कसमसाती हैं ,

स्मृतियाँ उभर आती हैं ।

कुछ तो है..........

बुधवार, 5 मार्च 2014

" डॉक्टर्स ........प्लीज़ "


कानपुर मेडिकल कालेज के जूनियर डॉक्टर्स के साथ हुई घटना से जूनियर डॉक्टर्स के साथ साथ सभी डॉक्टर्स में भारी रोष व्याप्त हुआ | परिणाम स्वरूप देश भर की चिकित्सीय व्यवस्था प्रभावित हुई और दर्जनों मरीजों की चिकित्सा के अभाव में जान चली गई | एक छोटे से विवाद ने यह रूप ले लिया | इसके लिये जूनियर डॉक्टर्स के साथ साथ विधायक , पुलिस ,प्रशासन सभी जिम्मेदार हैं | यह घटना अवॉइड की जा सकती थी | 

मेडिकल छात्र प्रथम वर्ष से ही सफेद कोट पहन कर जूनियर डॉक्टर कहलाये जाने लगते हैं और इसमें उन्हे फख्र होता है और होना भी चाहिये | अस्पतालों में सफेद कोट पहने डॉक्टर को देखते ही पीड़ित व्यक्ति उससे एक आस , एक भरोसा , एक विश्वास की उम्मीद करने लगता है | डॉक्टर को लोग ईश्वर का दर्जा देते हैं ,यह अतिश्योक्ति नहीं है | इस भरोसे को कायम रखने के लिये डॉक्टर्स को बहुत श्रम और त्याग करना पड़ता है | डॉक्टर बनने की प्रक्रिया में लगे जूनियर डॉक्टर अपने छात्र जीवन के दौरान एक आम छात्र की तरह किसी से विवादित व्यवहार जब भी करते हैं तभी समस्या उत्पन्न होती है | समस्या बढ़ने पर / कोपभाजन का शिकार होने पर अथवा उपहास का पात्र बनने पर उस घटना को सम्पूर्ण डॉक्टर्स समुदाय से जोड़कर अनुचित लाभ लेने का प्रयत्न करते हैं | 

मेडिकल कालेजों में जब भी छात्रों का उपद्रव हुआ है ,अंत में उन्हे सभी वरिष्ठ डॉक्टर्स का समर्थन मिल जाता है | यह नहीं होना चाहिये | गुण दोष के आधार पर ही मेडिकल कालेज के प्रबंधन को निर्णय लेना चाहिये | दरअसल  सभी मेडिकल कालेजों में चिकित्सा व्यवस्था अधिकतर इन्ही जूनियर डॉक्टर्स के सहारे चलती है ,बस इसी बात का फ़ायदा उठा कर यह जूनियर डॉक्टर्स पूरे प्रबंधन को अपने इशारों पर नचाते हैं |  

जब भी इन जूनियर डॉक्टर्स का संघर्ष कालेज के आसपास , शहर में कहीं अथवा मरीजों के तीमारदारों के साथ होता है ,इनके हॉस्टल से पत्थर बाजी / बम और कट्टे चलते हैं | यह कौन से लोग हैं और यह कौन सी पढ़ाई , बिल्कुल ही समझ से परे | अगर यह छात्र पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ अपनी पढ़ाई और मरीज-सेवा में लगे होते तो कानपुर में हुई घटना में उस कालेज के आसपास के निवासी / दुकानदार तत्काल उनके समर्थन में उतर आये होते | उन लोगों से अगर इन जूनियर डॉक्टर्स के बारे में राय लीजिये तो सुनने को मिलेगा कि कोई ऐसा गलत आचरण नहीं है जो यह जूनियर डॉक्टर्स न करते हों | जब पब्लिक में इमेज खराब रहती है तब कोई आंदोलन सफल नहीं होता | कानपुर जैसी घटनायें होने के बाद जब भी विश्लेषन किया जायेगा ,गलती प्रशासन की ही नज़र आयेगी और इस मामले में पुलिस और प्रशासन से तो भयंकर चूक बरती गई है | परंतु क्या यह घटना होने से पहले ही रोका नहीं जा सकता था | 

हमारे समाज में डॉक्टर्स के प्रति धीरे धीरे सम्मान कम होता जा रहा है , यह भी डॉक्टर्स को मनन करना चाहिये कि ऐसा क्यों हो रहा है | आज लगभग प्रत्येक डॉक्टर पूरी तरह से व्यवसायिक हो चुका है | उसे मरीजों की शक्ल में अपने लोन की  'इ एम आई' दिखाई पड़ती है | दवाओं की लम्बी फेहरिस्त में सिरप / टोनिक / ताकत की दवायें महज डॉक्टर का कमीशन ही बढाती हैं ,मरीज के किसी काम की नहीं होती | यही बात पैथालोजिकल टेस्ट के बारे में भी सच है कि डॉक्टर्स अनावश्यक रूप से मरीजों के भिन्न भिन्न टेस्ट कराते हैं ,बस अपने स्वार्थ सिद्धी के लिये | पैथालोजिकल सेंटर से खुले आम रेफर करने वाले डॉक्टर को कमीशन मिलता है | अब इसके समर्थन में डॉक्टर्स कहते हैं कि सारी दुनिया पैसा कमाती है तो हम क्यों न कमायें | सही बात ,आप भी सारे सही गलत रास्ते अख्तियार कर खूब पैसे बनाओ पर फिर कभी भगवान का दर्जा पाने की बात न करें ,डॉक्टर साहब | अब जब पुलिस आपको आम आदमी की तरह पीटे तब डॉक्टर होने का विशेष दर्जा न क्लेम करें | 

महंगी महंगी एंटीबायोटिक / लाइफ सेविंग दवाओं को लिख कर भर्ती मरीज के लिये मंगवा लेना और उनका प्रयोग भी न किया जाना बहुत आम बात है | पहले बरसों लगते थे तब किसी नामी गिरामी डॉक्टर का एक बड़ा दवाखाना बनता था अब तो कालेज से निकलते ही लोन ले कर बड़ा नरसिंग होम बनाना आम बात है ,उसके बाद 'इएमआई' देने के लिये मरीज चलते फिरते 'एटीम' है ही | 

एक समय था जब शहर के सिविल सर्जन को जिले का कलेक्टर रिसीव करने अपने कक्ष से निकलता था | अब ऐसा क्या हो गया कि आम जनता का डॉक्टर्स को भगवान मान कर सम्मान करना लगभग समाप्त प्राय हो गया है | इसका केवल एक और एक ही कारण है ,डॉक्टर्स का पूरी तरह से अपने मरीजों के प्रति संवेदंशील न होना और पूर्णतया व्यवसायिक हो जाना |

इन सबसे अलग जो डॉक्टर्स अपने कार्य / मरीजों के प्रति संजीदा हैं और व्यवहार में अत्यंत मानवीय हैं ,उन्हे आज भी ईश्वर का दर्जा और अतुलनीय सम्मान प्राप्त है | 

डॉक्टर साहब ,नाम के आगे यह दो अक्षर (Dr) आपको इंसान से देवता बना देते हैं ,इसका मान और सम्मान रखें , डॉक्टर......... प्लीज़ |