गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

"रूह" बनाम "जिस्म"

आज मेरी रूह,
पूछ बैठी मेरे जिस्म से,
क्या हासिल होता है तुम्हें,
दूसरों की ही सोच कर,
या विचार कर उनकी खुशी,
लोगों की नोच-खरोच दिखती है,
तुम्हारे जिस्म पर,
फ़िर भी तुम रखते हो,
ख्याल उनकी ही उंगलियों का,
आगे कहा उसने,
जिस्म तू थक जाएगा,
ना उकताएंगे वे तेरी तकलीफ़ों से,
इतनी अनदेखी ना कर,
अपनी रूह की,
जिस्म मेरा बोला,
बड़ी ही सादगी से,
तुम्हें तो एक दिन अलग,
होना ही है मुझसे,
जब तक हूं मै तेरे साथ,
प्यार कर लेने दो मुझे सभी से,
बदले में क्या मिलेगा,
कभी सोचा नही,
और सच तो यह है रूह मेरी,
कि फ़ना तो जिस्म ही होता है,
तभी यादगार रूह  बनती है।

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