शनिवार, 30 जून 2012

" जी " क्यों लगाया ............"




जी, कुछ कहना है तुम से | इस पर वे हमेशा की तरह शिकायत और उलाहना भरे अंदाज़ में चहकी , फिर 'जी' लगाया आपने | मैंने कहा , मैं तो कब से 'जी' लगाए बैठा हूँ, पर तुम्हारा "जी है कि मानता नहीं" | क्या मतलब इसका ,उसने पूछा | मैंने कहा, 'जी' का अर्थ दिल होता है , अब जब तुमसे दिल लगा लिया है फिर तो नाम से भी 'जी' लगाना पडेगा न,  और तुम कहती हो कि 'जी' मत लगाइए |

मेरा 'जी' तो तुमसे लग गया है और तुम्हारे नाम से भी, फिर बिना 'जी' लगाये बात कैसे करें | कोई किसी से बिना जी लगाए बात कर भी कैसे सकता है ,और मेरा 'जी' तो तुम्हारी बातें सुनने को ही बेक़रार रहता है । दिल तो करता है कि तुम्हें 'जी सुनो जी' कह कर पुकारा करूं | इसी बहाने मेरे 'जी' के बीच तो रहोगी तुम | खिलखिलाते हुए वे बोली , "जी आप भी एकदम वो हैं जी" |

इतना सुनना था कि मैं 'जी ही जी' में जी उठा | अब तो मुझे उनकी हर अदा हर हरकत में अपना 'जी' नज़र आता है और 'जी ही जी' में मेरा 'जी' उनके 'जी' को अपना मान बैठा है । अब "मेरा जी उनके ही पास है" और उनके सिवाय किसी के साथ मैं 'जी' लगाता भी नहीं ।

"नाम के साथ इसीलिए जी लगाते हैं शायद कि, जिससे स्नेह या प्यार करना हो अथवा सम्मान करना हो उसके साथ जी लगा दो बस । और एक बार जी लग जाए फिर तो ईश्वर भी  मिल जाते हैं  |"

इसे 'जी' का जंजाल भी कह सकते हैं ।



                                                                  
                                                 
                                                  

           

बुधवार, 27 जून 2012

" सोने की मुद्राएँ ........."



शीर्षक देखकर लोग सोचेंगे शायद स्वर्ण मुद्राओं की बात हो रही है | परन्तु ऐसा नहीं है | आज अचानक यूँ ही ख्याल आया कि, लोग सोते समय विभिन्न प्रकार के आकार ग्रहण करते हैं और उनके सोने की मुद्रा से उनके व्यक्तित्व का सम्बन्ध अवश्य होता होगा | पूरे देश के विभिन्न धर्म संप्रदाय के १००  लोगों की सोने की मुद्रा देखकर उन पर अनुसंधान करने के बाद जो परिणाम आये वे आपके समक्ष हैं :

१.बिस्तर पर पीठ के बल और बिलकुल सीधे ,दोनों हाथ अगल बगल आराम से रखे हुए : ऐसे व्यक्ति का राज घर में चलता है | यह अपने मन की करता है | अपनी इच्छा का स्वामी | भावनात्मक बहुत कम होता है |
२.बिस्तर पर पेट के बल और बिलकुल सीधे , दोनों हाथ अगल बगल आराम से रखे हुए : ऐसा व्यक्ति भावुक अधिक होता है और प्रायः अपनी भावनाओं को लोगों के सामने प्रकट नहीं होने देता | अपने दुःख दर्द किसी से शेयर नहीं करता | 
३.दायें करवट सोने वाला : ऐसा व्यक्ति अपने दिल की बात अधिक सुनता है | मस्तिष्क द्वारा दिए गए संकेत को अनसुना कर दिल की सुन लेता है और प्रायः पश्चाताप करना पड़ता है |
४.बायीं ओर करवट ले कर सोने वाला : ऐसा व्यक्ति अधिकतर बुद्धिजीवी होता है  और चिंतन मनन अधिक करने वाला और प्रायः सोने से पहले कुछ नया सोचने वाला होता है |
५.लाईट बुझाकर सोने वाला :ऐसे व्यक्ति  को अपने परिवार से स्नेह कम होता है |
६.इसके विपरीत लाईट जली हो या बंद हो ,इसकी परवाह किये बगैर सोने वाला :ऐसे  व्यक्ति को अपने परिवार से स्नेह अधिक होता है  |
७.किसी भी दशा में घुटने मोड़कर सोने वाला : ऐसा व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता है | दूसरे लोगों  से सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई होती है |
८.पूरी तरह चादर ओढ़ कर सोने वाला : ऐसा व्यक्ति सबके सामने तो बलशाली प्रतीत हो सकता है परन्तु अन्दर से वह आत्म विश्वास से लबरेज़ नहीं होता |
९.बिस्तर पर ही सवेरे की चाय अर्थात बेड टी की आदत वाला :ऐसे व्यक्ति अच्छे स्वास्थ्य के कम होते हैं  |
१०.बगल में तकिया दबा के सोने वाला :ऐसे व्यक्ति  कल्पना प्रधान होते हैं और प्रायः कवि,लेखक या ब्लॉगर ही होते हैं  क्योंकि इतनी देर तक कम्प्यूटर पर रहते हैं ,फिर तो तकिया ही हाथ आनी है न  |

सोमवार, 25 जून 2012

" मानसिक बलात्कार ....."

बात तो काफी पुरानी हो चली है | आज फुरसतिया / खुरपेंची अनूप शुक्ला जी की बात हुई तब अचानक मैंने संतोष त्रिवेदी जी के ब्लॉग में टिप्पणी अंकित कर दी कि फ़ुरसतिया को जानने वालों में से मुझे सबसे पुराना माना जा सकता है | मैं इंजीनियरिंग कालेज में उनसे एक वर्ष जूनियर था | मैंने लिख दिया कि रैगिंग के दौरान उन्होंने मेरा मानसिक बलात्कार किया था | इस पर ब्लॉग जगत के लोगों ने जिज्ञासा व्यक्त की और खुलासा करने को आदेशित किया | इस प्रकार इस पोस्ट का जन्म हुआ |

वर्ष १९८२ में मेरा दाखिला मोतीलाल नेहरु इंजीनियरिंग कालेज इलाहाबाद में हुआ | मुझे तिलक हास्टल में रूम अलाट हुआ | १५ कमरों की विंग में मेरा कमरा सबसे पहले पड़ जाता था | उसी विंग में अनूप शुक्ला जी का भी रूम था | मेरी ब्रांच और शुक्ला साब की ब्रांच मेकेनिकल ही थी | इनके रूम के बगल में विनय अवस्थी सर का रूम था | जो इनके बैचमेट थे और बाद में इनके साले भी कहलाये | उन्ही के पड़ोस में मेरे बैच के दो दोस्त बिनोद गुप्ता और इंद्र अवस्थी भी रहते थे |ये चारों आपस में एकदम टाईट बंधे रहते थे | मैं चौकीदार की तरह विंग की शुरुआत में ही रहता था | पहले वर्ष के शुरूआती दिनों में कुछ समझ तो आता नहीं | जिसे देखो वो ही लाइन हाजिर करता रहता था | खैर मेरे विंग की रैगिंग का स्थान शुकुल (अब आगे इन्हें शुकुल ही लिखूंगा ,बहुत इज्जत दे दी अब तक ) का कमरा ही हुआ करता था | तब तक इनके बारे में इतना मालूम चल गया था कि ये बहुत पढ़ाकू टाइप के इंसान है और यू.पी. बोर्ड के रैंक होल्डर थे | पैजामे पर कमीज पहने सबसे पहले मैंने इन्हें ही देखा था | इनके कमरे में हिन्दी साहित्य हंस,सारिका ,कादम्बिनी इत्यादि प्रचुर मात्रा में पाया जाता था | 

बलात्कार का अर्थ है वह कार्य जो बल पूर्वक किसी की इच्छा के विरुद्ध किया जाये | मानसिक बलात्कार तब होता है जब आपके दिमाग में बातें कुछ और चल रही हों और पूछा कुछ और जाए या पूछने वाला जानता हो कि आपको विषय का ज्ञान नहीं है फिर भी आपसे फनी उत्तर सुनने के लिए आप पर दबाव डालता रहे | उस दौरान अधिकतर वही बातें पूछी जाती थीं जिनका सरोकार मुझसे पहले बिलकुल नहीं था और शुकुल जो अब तक ज्ञानी बन चुके थे , उन्हें भी उन बातों से ,जब वह प्रथम वर्ष में आये थे ,नहीं रहा होगा | परन्तु अब तंग तो करना था ही | मुर्गा बनाना , कमरे में वर्ल्ड टूर कराना (पूरे कमरे में हर सामान के ऊपर नीचे से निकलते हुए ,टांड पर चढ़ते हुए ,उतरने को वर्ल्ड टूर कहते थे ), शिमला बनाना , दरवाजा बंद कर पैंट उतारने को कहना ( जैसे ही आपने अपनी पैंट को हाथ लगाया ,गालियां मिलती थी ,कहते थे मैंने दरवाजे पर टंगी पैंट उतारने को कहा है ,तुम्हारी नहीं ) नाचने और गाने को कहना जो मुझे कभी नहीं आया और सबसे ज्यादा इसी वजह से मैं तनाव में रहता था और ना जाने क्या क्या | इनके दो दुलारे जूनियर थे एक बिनोद गुप्ता जिस पर ये जान छिड़कते थे ( कारण मैं आज तक नहीं जान पाया ) और दूसरे इंद्र अवस्थी | वे दोनों गाने नाचने में एकदम  उस्ताद थे और चूंकि हम सब एक ही विंग में थे सो अक्सर रैगिंग में इकट्ठे होते थे | मेरा पहला कमरा था सो उसका दरवाजा तो सबकी लात बर्दाश्त करने के लिए ही डिजाइन किया गया था | शुकुल अच्छी तरह जानते थे मुझे गाना बजाना नहीं आता पर अपने दोनों प्रिय शिष्यों के आगे मेरी किरकिरी करते और मेरा मानसिक बलात्कार ही होता था | लेकिन उसके एवज में चाय पकौड़े खूब खाने को मिले | वे दोनों इनके शिष्य मेरे आज भी बहुत अच्छे दोस्त हैं | खैर रैगिंग में तो यह सब होता ही है |

शुकुल पढने में तो अव्वल रहे ही ,लोगों की मदद को भी सदैव तत्पर रहते थे | विनय अवस्थी सर की तबियत प्रायः खराब हो जाती थी तब शुकुल ही उनका ख्याल रखते थे | शुकुल और विनय अवस्थी ने साइकिल से भारत यात्रा की थी | उस घटना से थोड़ा बहुत प्रेरित हो मैं और दिलीप गोलानी भी कालेज से प्रतापगढ़ (६५ किमी.) चले गए थे साइकिल से 'नदिया के पार ' फिल्म देखने | कालेज में अच्छा खासा हंगामा हो गया था |

तृतीय वर्ष में मेरी मारपीट एक छात्र से हो गई थी ,जो हरदोई का रहने वाला था और बदमाश भी था | बात काफी बढ़ गई थी | हास्टल से निकाले जाने की बात थी पर अंकों के आधार प़र परखने प़र प्रिंसिपल ने मुझे सपोर्ट कर दिया था | प़र उस छात्र के गैंग वाले ( लीला राम वगैरह ) मुझे मारने की योजना बना रहे थे तब शुकुल ने बीच बचाव कर वह संवेदन शील मामला निपटाया था | अब तो यादें भी थोड़ी धुंधली हो चुकी हैं |

प़र शुकुल से संवाद का सिलसिला हमेशा बना रहा | मेरे  दोनों बेटे जब कानपुर पहुँच गए तब तो वे ही दोनों के लोकल गार्जियन हो गए | परन्तु आजकल फिर फरारी काटकर जबलपुर पहुँच गए हैं प़र बच्चों का दायित्व उन्हीं का है अब भी ,ऐसा मान हम लोग निश्चिन्त रहते हैं |

फेसबुक पर मेरे कमेन्ट देखकर शुकुल अक्सर कहते तुम ब्लागिंग किया करो | उन्हीं के काफी कहने पर मैंने ब्लागिंग शुरू करी | जब उनसे कहता पढ़ कर कमेन्ट करिए तो नहीं करते थे | उस पर भी मैंने एक पोस्ट लिखी थी और आज तो अब हम दम्पति ब्लॉगर बन चुके हैं | एक बात और बता दें,  सबके ब्लॉग पर तो शुकुल कमेन्ट करते हैं , मेरी पोस्ट पर फोन द्वारा अवश्य कमेन्ट कर मौज लेते हैं |



   यह चित्र तिलक हास्टल के सामने का है । सबसे दायें मैं हूँ ,मेरे बगल शुकुल हैं (चश्में में ) ,उनके बगल में उनका दुलारा बिनोद गुप्ता और आखिरी में राजेश सर हैं ।

रविवार, 24 जून 2012

" एक ब्लॉगर बोरवेल के अन्दर........"

अभी अभी खबर आई कि गुडगाँव के मनेसर में माही को सेना ने सकुशल बाहर निकाल लिया है | ईश्वर उसे दीर्घायु करें | माही को अस्पताल ले जाया गया |

उसके वहां से जाते ही सारा जमावड़ा वहां से ख़तम हो गया | सारा झाम ताम मीडिया का और वहां की पब्लिक का वहां से ऐसे गायब हो गया जैसे गधे के सर से सींग | वह बोरवेल या कहें वह मौत का गड्ढा अभी भी खुला पड़ा है और निश्चित तौर पर खुला ही पडा रहेगा |

आजकल हिंदी ब्लॉगर कुछ ज्यादा ही खोजी प्रवृत्ति के और समाज सुधारक से हो रहे हैं | ऐसे ही एक ब्लॉगर पहुँच गए उस बोरवेल का जायजा लेने जहां माही गिर गई थी | वह वहां अपने किसी साथी ब्लागर को नहीं ले गए थे, जिससे कि यदि वहां कुछ अनुसंधान में निकलता है तब वह ही उस विषय के आदि ब्लॉगर कहलाये जा सकें | पहले उन्होंने उस गड्ढे के चारों ओर घूम घूम कर उसका मुआइना किया और यूं घूर घूर कर देख रहे थे मानो कह रहे हों, नाहक तुमने चार दिन पूरे देश को उलझाए रखा | सेना को भी परेशान किया और उस नन्ही सी जान को भी तंग किया | 

इस पर गड्ढा भी मुस्कुराता हुआ बोला , क्या बकवास करते हो | अरे !पूरा देश तो गड्ढे में कब का आ चुका है | हां ! सेना और उस बच्ची को यहाँ देख मुझे भी तकलीफ हुई | पर क्या करें | बच्चे वही करते हैं जो बड़े करते हैं | उसने देखा , पूरा का पूरा देश गड्ढे में जा रहा है ,चलो हम भी भीतर जाकर देखें , ऐसा क्या है वहां | बस इसी चक्कर में नन्ही बिटिया यहाँ आ गई | पर देखो ,मैंने उसे अभी तक महफूज़ रखा हैं यहाँ | और एक तुम लोग हो कि लड़कियों को अव्वल तो जन्म ही नहीं लेने देते और अगर वह ईश्वर की कृपा से जी जाए तब बड़ा होने पर हर मोड़ पर किसी ना किसी गड्ढे में डालने की फिराक में रहते हो |

अब तक वह ब्लॉगर महोदय उस गड्ढे की बातें सुन काफी इम्प्रेस्ड हो चुके थे और वह वहीँ से लैपटाप से फेसबुक पर अपना स्टेटस ड़ाल चुके थे 'below the earth' | अभी वह गड्ढे का सूक्ष्म अवलोकन कर ही रहे थे कि अचानक उनका पाँव फिसला और वह उस बोरवेल के भीतर गिर गए | शुरू में गड्ढा थोड़ा बड़ा था , सो वह आराम से फिसलते चले गए | पर ८/१० फीट के बाद गड्ढे का व्यास उनकी कमर के लपेट से कम था सो वह कमर के सहारे ऐसे लटक गए जैसे बचपन में माएँ अपने छोटे से बच्चे को पैर में लटका कर पाटी /शू शू कराती हैं | अब चूँकि यह ऐसे ब्लॉगर हैं जो अक्सर जोखिम उठाते रहते हैं सो हार कहाँ मानने वाले थे | वह वहीं से कोहनी के सहारे अपने को ऊपर लिफ्ट करने की कोशिश करते रहे | पर इस कोशिश में उनके अगल बगल की मिटटी धसकती रही और वह गुरुत्वाकर्षण के नियम का पालन करते हुए नीचे धरती माँ की गोद की ओर अग्रसित होते रहे |

अब तक उनके फेसबुक स्टेटस के माध्यम से लोग जान चुके थे कि कोई महान ब्लॉगर फिर से उसी बोरवेल में गिर गया है | कुछ तो बहुत खुश हुए कि चलो एक ईनामी ब्लागर कम हुआ | अरे हर ईनाम जो झपट ले जाता है | कुछ इसलिए खुश हुए कि अच्छा हुआ ,ये ब्लॉगर दूसरों की चर्चा कर अक्सर उन्हें गड्ढे में गिराता रहता है | आज खुद ही गड्ढे की महादशा को प्राप्त हो गया है | मगर फिर भी उस गड्ढे में गिरे ब्लागर की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि वह वहां से भी बिना भयभीत हुए उस अँधेरे में कविता की रचना किये जा रहा था : अन्धेरा तू इतना निर्मम क्यों , कैसे जानू मर्म तेरा ....|

लेटेस्ट अपडेट यह है कि, उस ब्लॉगर ने उस गड्ढे से बाहर निकलने से मना कर दिया है और ऐलान किया है कि जब सारे लोग  मिलकर अपने देश को गड्ढे से बाहर निकालने का प्रयास करेंगे तभी वह भी बाहर निकलने की कोशिश करेगा नहीं तो तब तक वहीं से चर्चा जारी रहेगी | 

वंदेमातरम ! सत्यमेव जयते !   


छपते छपते :"इस पोस्ट  को पब्लिश करने के बाद पता चला बेचारी नन्ही माही नहीं बच सकी | ईश्वर उसे अपने पास महफूज़ रखें |"

गुरुवार, 21 जून 2012

"रियर व्यू मिरर ........."



'रियर व्यू मिरर' एक २ गुणे ४ इंच का अदना सा आईना , बस कार की छत में अटका हुआ | कीमत उसकी बमुश्किल १०० / १५०रुपये | कार चाहे ५ लाख की हो , दस लाख की हो ,पचास लाख की हो या हो नैनो एक लाख की , बिना इस १५० रुपये के आइटम के कार चला पाना ना-मुमकिन | रियर व्यू मिरर का  इस्तेमाल यह है कि इससे पता चलता है कि आपके पीछे कौन है , कितना बड़ा है , आगे जाना चाहता है या पीछे पीछे ही चलना चाहता है | कहीं आपका कोई पीछा तो नहीं कर रहा है | अकस्मात ब्रेक लगाने से पीछे वाला टकरा तो नहीं जाएगा | दायें या बाएं मुड़ने में पीछे वाला अवरोध तो नहीं बन रहा | पीछे क्या क्या और कौन कौन छूटा जा रहा है ,वह भी दिखता है रियर व्यू मिरर में | किसी को ओवरटेक कर जब आगे बढ़ते हैं तब पीछे हो जाने वाली गाड़ी के चालक के चेहरे के भाव भी दिख जाते हैं उसमें |

अर्थात गाड़ी चलाने में आपसे आगे कौन है , इससे अधिक यह महत्वपूर्ण है कि , आपके पीछे कौन है और इसमें मदद करता है एक अदना सा "रियर व्यू मिरर "|

अब यही बात ज़िंदगी की गाड़ी चलाने में भी लागू होती है | ज़िन्दगी की रेस में कौन आपके आगे है, उतना महत्वपूर्ण नहीं है, बजाये इसके कि आपसे पीछे कौन है | अधिकतर आगे बढ़ने से रोकने वाले आपके पीछे वाले ही होते हैं जो आपकी टांग खींचते हैं | आप इत्मीनान से अपनी ज़िंदगी की गाड़ी भले ही चला रहे हों अगर पीछे वाले  ( अर्थात जो पहले कभी आपके जीवन में आ चुका हो ) का ध्यान नहीं रखेंगे ,तब वह कभी भी पीछे से आकर घातक दुर्घटना कर सकता है | अनेक घटनाओं और वृतांतों को हम पीछे छोड़ चुके होते हैं पर फिर भी वे वाकये अक्सर अचानक सामने आकर ज़िन्दगी में ऊथल पुथल मचा जाते हैं | अगर हम 'रियर व्यू मिरर' में उन्हें देखते रहें या उन पर नज़र रखते हुए उनका ध्यान रखें तब शायद ऐसी दुर्घटनाएं ना हों | पर अधिकतर ऐसा होता नहीं |

यह कहना कि दुनिया की परवाह मत करो बस आगे बढ़ते जाओ शायद तर्क संगत नहीं है | अगर ऐसा होता तब बिना 'रियर व्यू मिरर' के भी लोग कार चला लेते |

अक्सर कार चलाते समय रियर व्यू मिरर आपको तिरछा या अपने स्थान से घूमा हुआ भी मिल सकता है | ऐसा प्रायः तभी होता है जब आपके बराबर वाली सीट पर कोई खूबसूरत चेहरा विद्दमान  होता है, क्योंकि उनके लिए तो 'रियर व्यू मिरर' एक आईना भर है और हर आईना तो बस वो आईना होता है जो उनके चेहरे की तारीफ़ करता रहे और लाली होंठों क़ी बिगड़ने न दे | ये कार का 'रियर व्यू मिरर' तो तिरछा करती ही हैं, अक्सर ज़िंदगी का 'रियर व्यू मिरर' भी घुमा सा देती हैं | 

" उन सभी से क्षमा याचना सहित |"

रविवार, 17 जून 2012

" एक वृक्ष तीन तनों का ........(फादर्स-डे)"



वृक्ष जब युवा था कभी,
जड़ से उग आये थे उसके,
कोपल नए।
पहले दो निकले,
दो वर्षों के अंतराल पर,
और छः वर्षों बाद,
एक और कोपल। 
धीरे धीरे तीनों कोपल,
पनपते गए ।
उन कोपलों में ,
मौजूद थे गुण,
उस वृक्ष जैसे ही ।
पर दो कोपल बढ़ते बढ़ते ,
तिरछे हो गए,
और मुड़ गए ,
बाहर की ओर ।
तीसरा बढता गया,
सीधा चिपका,
वृक्ष से ही ।
तीनों की जड़ें जमी रही,
एक ही जगह  ।
पर तिरछे दोनों कोपल,
तने बन तन सा गए ।
ऊपर से वृक्ष को,
दिखते रहे दोनों तिरछे तने,
क्योंकि वे तिरछे हो ,
वृक्ष की दृष्टि में बने रहे ।
बीच वाला तना,
जो तना भी न था कभी,
सीधा बढ़ता गया,
चिपके चिपके ,
और चुपके चुपके ,
उस वृक्ष से ही ।
पर ऊपर से नीचे देखने पर,
शायद चिपका तना दिखा नहीं ,
और वो वृक्ष भूल सा गया ,
अपना तीसरा तना,
जो कभी तना भी न था ।
वो भुला दिया गया तना ,
आज भी चाहता,
इतना ही बस,
जड़ें बांधे रहे ,
उस वृक्ष की ,
और मजबूती से चिपका रहे,
उसके चारों ओर ,
होकर अदृश्य ही सही |



" फादर्स डे "पर "बस यूँ ही "कुछ जो रोका न जा सका  ।

शुक्रवार, 15 जून 2012

" एक हादसा जो हुआ ही नहीं........"



शीर्षक से स्वतः स्पष्ट है कि मैं ऐसे हादसे का जिक्र करने जा रहा हूँ , जो वास्तव में घटित ही नही हुआ परन्तु उस संभावित हादसे की पीड़ा मैंने भरपूर महसूस की | ऐसा बहुत कम ही होता है कि जल्दीबाजी में मुझसे कोई सामान , कागज़ , पर्स ,चश्मा या आवश्यक दस्तावेज़ कहीं छूट जाएं या मैं रखकर भूल जाऊं | आज आफिस जाने के लिए निकला , तब भी लगभग रोज़ की तरह सभी न्यूनतम आवश्यक वस्तुओं से लैस होकर ही निकला था | कार में पेट्रोल डलवाना था सो पहले पेट्रोल पम्प पर गया | वहां से पेट्रोल डलवाकर मन ही मन मनमोहन सिंह को कोसते हुए और अपने पर्स में बचे मनमोहन सिंह को मन ही मन में गिनते हुए और 'एफ. एम.' पर चिकनी चमेली गाना सुनते हुए चला जा रहा था | चूंकि मै आफिस प्रायः समय से पहुँचता हूँ अतः जब कभी भी १०/१५ मिनट की देर हो जाए, तब कोई न कोई मिलने वाला , जो वहां प्रतीक्षारत होता है , मुझे फोन कर पूछ ही लेता है | आज मुझे पेट्रोल लेने में लगभग आधा घंटा देरी हो गई परन्तु रास्ते भर मेरे मोबाइल की घंटी नहीं बजी | मुझे लगा शायद वो भी चिकनी चमेली गाने के आनंद को कम नहीं होने देना चाहता होगा | मेरे घर से मेरे आफिस की दूरी एफ.एम. के दो गाने बराबर की है | एक और कोई नया सा गाना था , उसे सुनते सुनते मैं आफिस पहुँच गया |

लगभग एक घंटे बाद मुझे किसी से कोई आफीशियल सूचना लेने के लिए फोन करना था | मैंने अपने असिस्टेंट से कहा , जरा फोन मिला कर बात कराओ मेरी ,इसपर वो बोला ,सर फोन ( लैंड लाइन ) तो डेड लग रहा है | मैंने कहा ,कोई बात नहीं , मोबाइल से मिलाता हूँ | पर यह क्या , मोबाइल तो मेरे पास था ही नहीं | एकदम से मैं परेशान हो उठा कि मैंने कहाँ छोड़ दिया, अपना मोबाइल आज | सबसे पहले तो दिमाग में उसकी कीमत याद आई कि , वह था कितने का | फिर सोचा  न मिलने पर कौन कौन से नंबरों से हाथ धोना पडेगा | अब चूंकि सरकारी फोन था सो सोचा कि अब तो एफ. आई. आर. भी करानी पड़ेगी | कभी यह भी लग रहा था कि शायद पम्प पर छूट गया हो ,शाम को देख लूंगा | यहाँ तो सब ठीक था | पर अचानक एक सिहरन सी हुई और लगा शायद मोबाइल आज घर पर ही छूट गया | अब मेरी हालत देखने और समझने वाली थी | अब तक ३ घंटे से अधिक हो चुके थे | अगर फोन घर पर छूटा होगा तब, अब तक उसपर कई काल्स आ भी चुकी होंगी | हो सकता है 'घर' से मुझे बताने की कोशिश भी की गई हो पर मेरे आफिस का लैंड लाइन फोन तो खराब था |

अब मेरे दिमाग में केवल और केवल यह चल रहा था कि उस मोबाइल पर कौन कौन सी काल्स आई होंगी | 'घर' पर अटेंड किया गया होगा या यूं ही बजने को छोड़ दिया गया होगा|'किसने 'घर' से कौन सी बात की होगी | ऐसा कोई मामला सीरियस तो नहीं था पर बात का बतंगड़ बनने के पूरे चांसेज थे | अब तक मैं लगभग निश्चित हो गया था कि यार, आज हो गया एक हादसा | फिर भी मैंने अनेक लोगों को ,फोन किसी और के फोन से कर, बता दिया था कि आज मैं मोबाइल घर पर भूल आया हूँ शायद , अतः फोन मत करना | "पर दुर्घटना होने के लिए तो एक ही काल बहुत है" | अब मैं मन ही मन कल्पना कर रहा था कि ऐसी  स्थिति में हादसे कितने प्रकार के हो सकते हैं :

मोबाइल कहीं छूट जाए----हादसा ।
मोबाइल घर पर छूट जाए ----बड़ा हादसा ।
मोबाइल घर पर छूट जाए और आप जब लौट कर घर पहुंचे ,सारी काल्स डिलीटेड मिलें ----बहुत बड़ा हादसा ।
मोबाइल घर पर छूट जाए और आप जब लौट कर घर पहुंचे ,सारी काल्स अटेंडेड मिलें ----भूचाल ।
मोबाइल घर पर छूट जाए और आप जब लौट कर घर पहुंचे ,सारी काल्स अटेंडेड मिलें  और 'घर' म्यूट मोड पर मिले --------ज़लज़ला ।

यह सब सोच कर मैं बहुत ही परेशान हो चुका था और मन ही मन प्रार्थना कर रहा था कि भगवान ,मेरा मोबाइल कहीं भी छूटा हो पर घर पर न छूटा हो ।अरे आर्थिक नुकसान की तो भरपाई हो जायेगी पर जो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा  उसकी भरपाई मैं इस जनम में तो नही कर पाऊंगा । भगवान को याद करते करते शाम को लौटते समय पहले पेट्रोल पम्प पर गया । वहां पूछने पर वहां का अटेंडेंट  बोला, आपका मोबाइल भला यहाँ कैसे छूट सकता है । आप पैसे तो पचास  बार गिन कर देते हैं । उसके बाद पर्स जेब में रखकर दस बार अपनी जेब बाहर और भीतर से टटोलकर कन्फर्म करते हैं कि पर्स अपने स्थान पर पहुँच गया कि  नहीं । ऐसे आदमी का मोबाइल  भला कैसे छूट सकता है ।मैं मन ही मन में उसे कुछ उलटा पुलटा  बुदबुदाते हुए वहां से धीरे से अपनी कार तक पैदल ही खिसक लिया ।अब यह लगभग तय हो चुका था कि मेरा मोबाइल घर पर ही छूट गया होगा ।

घर के बाहर से ही घर के भीतर के माहौल का आकलन करते हुए मैंने घर में प्रवेश किया । सब कुछ जरूरत से ज्यादा ही सामान्य लग रहा था । फिर डरा मैं । इतनी सामान्यता तो अपशकुन है । आधा घंटा बीत गया । मुझे लगा , मैं ज़लज़ले का शिकार हो चुका हूँ ।कुछ बहाना बनाने की सोच रहा था कि अमुक काल के बारे में क्या बताना है । तब तक घर से आवाज़ आई , आपका मोबाइल रात से चार्जिंग पर लगा था और स्विच तो आफ  ही था ।डिसचार्ज  हो कर आफ पड़ा है और आप ले जाना भी भूल गए थे ।यानी कि मेरा मोबाइल सारा दिन आफ ही रहा । अब मेरे चेहरे पर चमक दुगुनी ,चौगुनी से बढ़ते हुए छः गुनी हो चुकी थी और मैंने सामान्य होते हुए कहा ,कोई बात नहीं ,आज मोबाइल भूल जाने से बड़ा आराम रहा आफिस में । सुकून से पूरा दिन कट गया ।

बात सुकून की ही तो थी ,क्योंकि उबर गए उस हादसे से, जो हुआ ही नही ।


"यह वृत्तांत श्री शिवम मिश्र जी के आदेश पर जनहित में जारी किया जा रहा है "   





मंगलवार, 12 जून 2012

" आई.आई.टी. को आई.आई.टी. ही रहने दें ....."



हमारे देश में प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए सभासद , वार्ड मेंबर ,नगरपालिका चैयरमैन,मेयर,एम.एल.सी.,एम.एल.ए.,एम.पी.और अंत में राष्ट्रपति का चुनाव कराया जाता है | अब सिब्बल साहब की थ्योरी से पूरे राष्ट्र में एक ही चुनाव कराया जाना चाहिए | उसके लिए उम्मीदवारों को मोहल्ले , जिले स्तर पर मिले  मत और पार्टी को प्रदेश और देश स्तर पर  प्राप्त मत का प्रतिशत तय करते हुए एक व्यवस्था बनानी होगी | पर शायद यह अतार्किक और अप्रासांगिक होगा ,क्योंकि गली,मोहल्ले का सभासद बनने के लिए और विधायक / सांसद बनने के लिए क्षमता और सोच बिलकुल भिन्न होती है | हो सकता है राजनीति का यह माडल शिक्षा के प्रसंग में थोड़ा उपयुक्त न प्रतीत हो रहा हो पर राजनीतिज्ञों को इसके इतर कोई बात समझ में नहीं आती |

आई.आई.टी. को अगर पूरे देश और विदेश में एक विशेष स्थान मिला हुआ है तो उसका एकमात्र कारण है उसकी निज में स्वायत्ता और स्वतंत्रता | उसकी प्रवेश परीक्षा अन्य संस्थानों से भिन्न होती है, तनिक कठिन भी होती है | परन्तु प्रश्नपत्र ऐसे नहीं होते जो बारहवीं कक्षा के स्तर के न हों | प्रत्येक प्रश्न में तनिक सूझबूझ और त्वरित सोच की आवश्यकता होती है | वर्तमान व्यवस्था में प्रत्यक बच्चा जो उसमें चयनित हो रहा है , वह निश्चित तौर पर मेधावी है तभी वहां प्रवेश पा रहा है |  और यह सदैव होता रहा है | किसी भी क्षेत्र में आई.आई.टी. का छात्र आपको अन्य सबसे भिन्न नज़र अवश्य ही आयेगा | कोई भी परीक्षा व्यवस्था दोषपूर्ण तब ठहराई जानी चाहिए जब उस व्यवस्था से मानक से नीचे के स्तर के बच्चों का चयन होने लग जाए | 

एक अन्य बात जिस पर कपिल सिब्बल को वेदना है , वह है कोचिंग संस्थानों के विषय में | आई.आई.टी. की तैयारी कराने वाली जितनी भी कोचिंग है , वे सभी बहुत अच्छा कार्य कर रही हैं | स्कूल स्तर पर अच्छे शिक्षकों का आभाव है | बच्चों को कोचिंग की आवश्यकता दो कारणों से होती है , पहला, वहां से उन्हें किसी भी परीक्षा के पैटर्न के बारे में जानकारी मिलती है, दूसरा किसी भी प्रश्न को हल करने में जब कभी कोई अड़चन आती है तब तुरंत समाधान मिल जाता है | हाँ ! कोचिंग का अनुभव उन माँ-बाप को अवश्य बुरा होता होगा या होता है जो कोचिंग को एक ऐसी फैक्ट्री मान बैठते हैं जहाँ रा मटीरियल डालने पर एक वांछित फिनिश्ड प्राडक्ट तैयार हो निकल आता है | सभी कोचिंग संस्थान बहुत ही सिस्टमेटिक तरीके से बच्चों को तैयारी कराते हैं और यह बात भी निश्चित है कि  बच्चे का बौद्धिक और तार्किक स्तर वहां बढ़ अवश्य जाता है और अगर वह आई.आई.टी. नहीं निकाल पाता फिर भी किसी अन्य परीक्षा में अवश्य स्थान पा जाता है | अब रही बात बारहवीं कक्षा को महत्व देने की | जिन भी बच्चों का चयन किसी भी इंजीनियरिंग कालेज में हो रहा हो , बारहवीं में तो उसने अवश्य ही अच्छा किया होगा | असल समस्या उस 'लाट' की है जो कहीं चयनित भी नहीं हो पाता और बारहवीं पर भी ध्यान नहीं दे पाता |

कितने अफ़सोस की बात है कि  सिब्बल साहब उन बच्चों की चिंता अधिक कर रहे हैं जो कोचिंग के चक्कर में न कहीं चयनित हो पाते हैं न ही बारहवीं कक्षा में अच्छे अंक ला पाते हैं | ये बचा हुआ वर्ग है उन बच्चों का है , जहां तक मैं समझ पाता हूँ , संभवतः जिनमें गणित या विज्ञान के प्रति अभिरुचि कम होती है  और अगर वे दूसरे क्षेत्र में लगन से मेहनत करें तब वहां वे अधिक सफल हो सकते हैं | अब इन असफल बच्चों के कारण  (जिनका आई.आई.टी. से कोई लेना देना न है ,न होगा कभी ) आई. आई.टी. की प्रवेश परीक्षा में बदलाव कर देना मूर्खता नहीं तो और  क्या है |

अगर सच मायने में बारहवीं कक्षा के अंको को महत्त्व देना है तब वर्तमान परीक्षा पद्धति में ही पात्रता के लिए कक्षा १२ में पाए जाने वाले अंकों की न्यूनतम सीमा बढ़ा देनी चाहिए | सिब्बल साहब की व्यवस्था में ३६ भिन्न बोर्डों के बारहवीं के अंको को किस प्रकार एक अनुपात में प्रतिपादित किया जा सकेगा,विचारणीय परन्तु  संभवतः अत्यंत कठिन है |

आई.आई.टी. सदैव से एक विशेष संस्थान रहा है और वहां चयनित होने वाले बच्चों की मेधा पर किसी को संशय नहीं रहा कभी | परन्तु यदि बोर्ड के अंकों को महत्त्व देकर चयन प्रक्रिया की गई तब अवश्य ही मेधा शक के दायरे में आने लगेगी और तब यह न देश के हित में होगा और न मेधावी बच्चों के हित में |

देश / विदेश के जिन संस्थानों ने अपनी चयन प्रक्रिया सबसे भिन्न रखी है, उन्ही संस्थानों का स्थान सदैव विशेष और भिन्न रहा है |  

कोचिंग संस्थान अगर पढाने लिखाने के नाम पर कुछ मुनाफा कमा भी लेते हों  तब भी इस देश में हो रहे करोड़ों  अरबों के घोटाले के आगे उनका मुनाफ़ा अत्यंत गौण है । पढ़ाना लिखाना तो सदैव पवित्र कार्य ही रहा है और वे कोचिंग चलाकर एम्प्लोयमेंट भी जेनरेट कर रहे हैं ।हाँ! कोचिंग की आड़ में कोई अगर गैर कानूनी कार्य  यथा पेपर आउट कराना या फिक्सिंग जैसा कार्य कर रहा हो तब अवश्य उसके विरुद्ध कार्यवाही की जानी चाहिए ।


कपिल साहब सोचें ज़रा, शिक्षा को राजनीति से अलग ही रहने दें और "आई.आई.टी." को "आई. आई. टी." ही रहने दें |


गुरुवार, 7 जून 2012

" शौचालय या सोचालय......."



इस व्यस्तता भरी ज़िंदगी में अगर किसी के कुछ नितांत व्यक्तिगत पल होते हैं तो निश्चित तौर पर वे पल 'शौचालय ' में ही व्यतीत किये गए होते हैं | अब चूँकि वहां कुछ करने को तो होता नहीं ,जो कुछ होता है बस अपने आप होता है | सो सारा ध्यान अकस्मात किसी भी विषय पर चिंतन करने को तत्पर रहता है और उस चिंतन मनन से प्रायः बड़े अच्छे परिणाम निकल आते है | 

बच्चे वहां याद की हुई चीजों को पुनः दोहरा कर पक्का कर सकते हैं | मैं तो अत्यंत कठिन प्रश्नों की गुत्थी अक्सर वहीं सुलझा लेता था | शौचालय का एक प्रयोग और भी है , वो यह कि अगर आपको किसी को इग्नोर करना है और वो आपको पुकार रहा हो या मिलने चला आया हो तो फ़ौरन वहीं घुस जाइए शौचालय में और आराम से पालथी मार कर अपनी मानसिक गुत्थियां सुलझाते रहिये जब तक कि मिलने वाला या पुकारने वाला व्यक्ति वहां से चला न जाए |

कार्यालय में वैसे तो शौचालय का प्रयोग शौच के लिए तो न्यूनतम तौर पर ही होता है | हाँ ! कुछ निजी क्षण निकालने के लिए लोग अवश्य वहां प्रायः पाए जाते हैं | पर एक तथ्य तो यह बिलकुल स्पष्ट और सिद्ध है कि शौचालय में सोचने का कार्य सर्वाधिक किया जाता है | अतः मूलतः इसका नाम 'सोचालय ' ही होना चाहिए |

अब अगर यह 'सोचालय' योजना भवन का हो तो जाहिर सी बात है , जहां पूरे देश के १२५ करोड़ लोगों की दिशा दशा सुधारने हेतु नीति निर्धारण करने वाले सोचने का कार्य करते हों तब उनके 'सोचालय' का प्रकार भी उच्च कोटि का होना ही चाहिए | इन भावनाओं के आगे ३५ लाख कुछ भी नहीं | ऐसे लोगों की नीयत में कोई खोट नहीं | अरे जब चिंतन का स्थान उपयुक्त होगा तभी सही और अच्छे विचार उनके मन में उत्पन्न होंगे और बाई प्रोडक्ट के रूप में उत्पन्न उनके विकार " शौचालय'" में विलीन हो जायेंगे और उत्पन्न विचार उसी "सोचालय" में मूर्त रूप धारण करेंगे | 

अरे ! वह योजना आयोग है कोई बिन्देशरी पाठक ( बिहार वाले ) का सुलभ शौचालय  नहीं कि ५० पैसे प्रति " सोच " की दर तय कर दें और आपके भविष्य की नीव वहां तैयार क़ी जाए | पता चला है कि योजना भवन का ' सोचालय' इतना सिद्ध स्थान है कि मंद बुद्धि और मूढ़ प्रकृति के लोग भी अगर वहां प्रवेश पा जाते हैं तो उनके मन में भी एक से बढ़ कर एक नए आइडिया आ जाते हैं | अभिषेक बच्चन भी जुगाड़ लगा कर वहीं जाते होंगे ,नए नए आइडिया ढूँढने |

मंगलवार, 5 जून 2012

" दरख़्त यादों के ........"



एक पौधा नन्हा सा ,
यादों का उनकी,
उग आया ,
बिना बताये ,
बस चुपके से,
मन में मेरे ,
जब कभी सूखने को आता,
बरबस आंसू निकलते मेरे,
और फिर हो जाता,
वो हरा भरा,
धीरे धीरे वो,
बड़ा हो चला ,
और रोकने लगा,
हर आने वाली,
रोशनी और हवा को,
चाहा काट दूँ आज,
वो दरख़्त यादों का,
और सांस लूँ,
नई किरणों में ,
पर आज फिर, 
मुस्कुराती वो दिख गई,
झुरमुट में दरख़्त के,
और बोली हौले से ,
"आज तो पर्यावरण दिवस है न ",
एक बार फिर रह गया  ,
कटने से दरख़्त,
यादों का  |