शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

"नववर्ष की शुभकामनाएं"

मिलेगा एक नया कैनवस,
और समय का,
भर लें इसपे मनचाहे,
रंग उमंग और तरंग,
हो तूलिकाएं भरी,
जोश उत्साह और विश्वास से,
जो त्रुटियां हुईं,
पिछले पन्नों  पर समय के,
उनकी चुभन को,
बना लें अपना प्रहरी,
अपनी भावनाओं और कॄत्यों का,
त्रुटियां हों यह त्रुटि नहीं,
वही त्रुटि हो दुबारा है त्रुटि यही,
प्रभु चाह रहे कुछ कर जाएं,
और सुन्दर हम सब,
तभी दे रहे एक और अवसर।
"सभी को नववर्ष की शुभकामनाएं"

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

"नववर्ष मंगलमयी हो"

हे ईश्वर,
हम सभी ने,
पूर्ण की परिक्रमा,
सूर्य की एक और।
इस परिक्रमा मे,
कुछ छूट गए,
सदा के लिए,
कुछ रह गए,
थोड़ा पीछे,
कुछ आगे आगे,
ही रहे।
पर गोल चक्कर मे,
आगे पीछे तो सब,
होता है सापेक्ष।
बस आपकी बनी रहे,
अनुकम्पा,
सभी पर,
है यही प्रार्थना।
इस नई परिक्रमा में,
सब का हो,
उत्साह नया,
जोश नया,
एक उत्सव सा,
एक अवसर सा।
और कुछ की चाह नहीं,
पर संजोए रखना प्रभु,
जो कुछ भी है हासिल।
आ पाऊं औरों,
के काम,
कर सकूं जीवन,
सार्थक अपना,
बस इतनी सी अभिलाषा।
"नववर्ष २०११ सभी  के लिए अभूतपूर्व रूप में मंगलमयी हो"

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

अधीर करते "अधर"

              अधर तेरे ये सीप से,
        और एक एक बोल मोती से,
               तिस पर मुस्कान मखमली,
         इन्हें देखूं तो छूने की चाह,
                छूं लूं तो चूम लेने की चाह,
          चूमूं तो संजो लेने की चाह,
                 पर संजो कब पाया है कोई,
          रूई के फ़ाहों सी,
                  खुशबू, सुन्दरता और हंसी।

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

"उधार आंसुओं का"

यह माना कि प्यार,
किया था बहुत तुमने मगर,
कम हम भी ना तड़पे थे उस रोज़,
जब मांगा था तुमने हिसाब आंसुओं का।
चार-छेः आंसू बहा कर,
दर्ज कर लिया बही मे तुमने  उन्हें,
और चाहते हो अब कि,
जीवन भर डूबा रहूं,
कर्ज में उन्हीं आंसुओं के।
सच तो यह था कि,
जब जब बहे आंसू तुम्हारे,
भिंचती रही मुठ्ठियां मेरी,
और समाता रहा उनमें,
बांध मेरे आंसुओं का।
पर आज खोल बैठा हूं,
मुठ्ठियां अकेले में,
और जार जार बह रहे आंसू।
शायद इस तरह,
लौटा रहा हूं उधार,
तुम्हारे आंसुओं का ।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

"ठंड" और "अलाव"

मैने पूछा ठंड से,
अकड़ तो बहुत है तुझमें,
दम रखती हो जकड़ने का सभी को,
पर डरती हो तुम भी अमीरों से,
रूपये-पैसे से और उनकी मदिरा से,
तभी तो उनकी रंगीनियों में,
तुम शामिल नही होती और,
कपड़े हों ना हों,
जिस्म उनके ठंडे नही होते,
और बेचारे गरीब,
जिनपे कपड़े तो बहुत हैं शायद,
फ़िर भी अकड़ से जाते हैं,
तुम्हारी जकड़न में,
लगता है मिली हुई हो,
तुम भी सिस्टम से,
या गोया कोई चाल है तुम्हारी
सरकार की तर्ज पर,
गरीबी मिटाने की,
कि गरीबी मिटाने से अच्छा है,
गरीब को ही मिटा दो,
उसने मेरी बात अनसुनी सी की,
और लगी रही जतन से,
शहीद करने में,
अलाव चौराहों के।

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

"टर्न ओवर........"

कुल गुब्बारे होंगे,
सौ, दो सौ, चार सौ।

वज़न सारी रेवड़ी का,
आठ दस किलो।

छोटी सी दुकान,
कुल पतंगे तीस चालीस।

सिर्फ़ रूई की बत्तियां,
सारी बमुश्किल आधा किलो।

बांसुरी सभी बजती हुई,
मगर कुल सौ डेढ़ सौ।

मिट्टी के खिलौने,
रंग-बिरंगे सजे ज़मीन पर,
कुल कीमत चार साढे चार सौ।

चूरन का ठेला,
बच्चों को ललचाता हुआ,
लागत जोड़ें तो,
रुपए डेढ़ पौने दो सौ।

चाकू छुरी तेज करता हुआ,
दिन भर में चालीस-पचास।

ऐसे ना जाने कितने,
बेचारे चलते फ़िरते,
दुकानदार,

जितना इनका,
खर्च रोज़ का,
जीवन जीने का,
उतनी तो कुल पूंजी है | 

कैसे ये जी लेते हैं,
ज़िन्दगी,
इस "टर्न ओवर" में।

काश! हो इनकी भी,
किस्मत कभी "ओवर टर्न" ।

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

"एक बार स्त्री-मन मिले तो"

अंतर तो है,
स्त्री और पुरुष
सोच में,
पर इतना व्यापक
अंतर क्यों ?
कारण अस्पष्ट सा !
अपना पराया,
इनका उनका,
लेना देना,
क्या खाया,
क्या पाया,
कहा क्या,
सुना क्या,
कब आये,
क्यों आये,
जायेंगे कब,
इनका मायका,
उनकी ससुराल,
ये ननद,
वो भौजाई,
अपनी बिटिया,
उनकी बहू,
मंहगी जेठानी,
सस्ती देवरानी,
कमाऊ देवर,
बोझ ससुर ।
पुरुष बेचारा
अव्वल तो समझ
से परे
समझे तो पागल ।
स्त्री ही स्त्री की,
मददगार क्यों नही,
हमसोच हमख्याल
क्यों नहीं ?
"एक बार स्त्री-मन
मिले तो जान पाऊं"
शायद ??

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

"रूह" बनाम "जिस्म"

आज मेरी रूह,
पूछ बैठी मेरे जिस्म से,
क्या हासिल होता है तुम्हें,
दूसरों की ही सोच कर,
या विचार कर उनकी खुशी,
लोगों की नोच-खरोच दिखती है,
तुम्हारे जिस्म पर,
फ़िर भी तुम रखते हो,
ख्याल उनकी ही उंगलियों का,
आगे कहा उसने,
जिस्म तू थक जाएगा,
ना उकताएंगे वे तेरी तकलीफ़ों से,
इतनी अनदेखी ना कर,
अपनी रूह की,
जिस्म मेरा बोला,
बड़ी ही सादगी से,
तुम्हें तो एक दिन अलग,
होना ही है मुझसे,
जब तक हूं मै तेरे साथ,
प्यार कर लेने दो मुझे सभी से,
बदले में क्या मिलेगा,
कभी सोचा नही,
और सच तो यह है रूह मेरी,
कि फ़ना तो जिस्म ही होता है,
तभी यादगार रूह  बनती है।

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

"एक इल्तिजा छोटी सी........."

आँखें मूंद लो अपनी,

तुम्हें निहारना चाहता हूँ,

चेहरा रख दो मेरी हथेलियों पे,

थोड़ा दुलराना चाहता हूँ,

नज़र भी कह रही मेरी,

भर नज़र देख लूं तुमको,

आसमाँ पे मै आज,

सितारे टांकना चाहता हूँ,

ना तुम कुछ कहो आज़,

बोलूँ ना कुछ मै भी आज़,

दिल से ही दिल को सुनना चाहता हूँ,

थोड़ी लाज़ तुम भूलो थोड़ी हिचक मै छोडूँ,

तुम्हारी बाहों में मै आज़ सिमटना चाहता हूँ।

रविवार, 12 दिसंबर 2010

"ईश्वर नही है"

ईश्वर नही है,
ऐसा लगता है जब,
मिलते हैं नवजात शिशु,
कूड़े के ढ़ेर में,
दिखते हैं अबोध बच्चे,
भूखे प्यासे भीख मांगते हुए,
और देखता हूं जब,
कच्चे परिवारों से,
बाप का साया उठते हुए,
खबर छपती है जब,
जवान बच्चों की मौत की,
कैसे ईश्वर दर्शक बन सकता है,
मासूम बच्चियों के बलात्कार का,
ईश्वर बिलकुल ही नही है मानो,
जब मूक पशु,पक्षी होते हैं ,
शिकार मनुष्य की हिंसा के,
प्रार्थना है उस ईश्वर से,
दे सबूत अपने होने का,
मॄत्यु हो सभी की,
पर समय से,
ना हो कोई अनाथ,
ना हो कोई बेचारगी,
प्रकॄति का कार्य,
लगे प्राकॄतिक ही,
अ-समय या कु-समय,
ना हो कोई घटना,
मंदिर/मस्जिद में फ़टे बम कभी,
तो विध्वंस हो भले ही खूब,
पर अंत ना हो एक भी जीवन का।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

"इन्द्र धनुष"

आज देखा उसकी कोहराई आंखों में,
बनता है एक इन्द्र धनुष,
जब वह हंस देती है,
आंखों में आंसू भरे भरे,
कैसी समानता है,
आसमान का इन्द्रधनुष भी,
बनता बारिश के बाद धूप में,
और उसकी आंखों में भी,
आंसुऒं के बाद पर,
मुस्कुराहट की धूप के साथ,
पर यह दोनों ही  इन्द्रधनुष,
क्यों बिखर जाते हैं,
कुछ ही  पलों के बाद,
काश! ऐसा होता,
दोनों ही इन्द्रधनुष ना बिखरते,
समय के साथ,
और यूं ही धूप खिली रहती,
उसके होठों पे।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

"संस्कार"

वह पल याद नही,
जब तस्वीर हटी हो आंखों से,
श्रद्धा ही श्रद्धा से ओतप्रोत है मन,
इसे प्रतिबिम्बित करने का नही कोई जतन,
अपराध तो किया है चुप रहकर,
पर ना चुप रहता तो शायद,
बड़ा अपराध हो जाता,
दोनों दशा में मेरा ही कसूर,
आज जो भी है हासिल,
आपका आशीर्वाद ही है शामिल,
पर यह भी सच है,
अगर स्थिति होती विपरीत,
शायद मै यह ना होने देता,
लोग क्या कहेंगे,
कभी सोचा नही,
आप भी ऐसा ही कहेंगे,
यह भी कभी सोचा नही,
आशीर्वाद मिलता रहे,
दूर से ही सही,
भय बस इतना है,
कोई यह ना कह दे,
कंही "संस्कार" में तो कमी नही।

"संतुलन"

अबोध था मै भी कभी,
उंगलियां भी नन्ही रही होंगी जरूर,
पर धीरे धीरे वक्त के साथ,
कब मां की उंगलियां छूटी और,
मेरी नन्ही उंगलियां बड़ी होने लगीं,
याद नही,

वक्त और बीतता गया,
मां ने अपनी पसंद के ,
दो हाथ थमा दिये और,
कहा यह जीवन संगिनी है,

ये नये हाथ ज्यादा रास आये,
सो ज्यादा मजबूती से थाम लिये,
क्रमशः स्वभाविक रूप से,
चार नन्हे हाथ और जुड़ गये,

इसी आपाधापी और ,
जीवन के बहाव में,
मां को लगा शायद,
मैं उनकी उंगलियों का स्पर्श,
भूल गया हूं,

ऐसा कदापि नही हो सकता,
पर हां थोड़ा "संतुलन" बना पाने में,
जरूर विफ़ल रहा हूं,
नई और विरासत की उंगलियों में।

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

"ये कैसी तरक्की"

आज खुद पर घिन आ गई,
जब देखा उसे मेरे  फ़ेंके हुए,
दोने-पत्तल चाटते हुए,
ये कौन सा युग है,
आदमी आदमी का जूठा,
वह भी फ़ेंका हुआ,
खा कैसे सकता है,
मगर खाते देखा,
मैने आज हज़रतगंज,
लखनऊ(तहजीबों के शहर) में,
यह माना कि उन्हें हमने,
नही किया पैदा मगर,
समाज ही जिम्मेदार है,
अगर नस्ल की फ़सल है ऐसी,
अव्वल तो हो ऐसी व्यवस्था कि,
काम मिले सभी को और फ़िर,
दाम भी मिले सभी को,
"फ़िलानथ्रॉपी" पर होते तो हैं,
सेमिनार बड़े बड़े,
मगर शायद वे सिर्फ़ कम अमीरों ,
को ही  ज्यादा अमीर बनाने के लिये,
आज सोचने पर मजबूर हूं कि,
डस्ट-बिन कूड़ा डालने के लिये है
या कूड़ा बीनने के लिये,
कंही आदमी ही आदमी को,
डस्ट-बिन में तो नही डाल रहा है,
मेरी शिक्षा-दीक्षा,अनुभव,चिंतन,
आज सब धरा का धरा रह गया,
"ये कैसी तरक्की",
 सोचने को मजबूर।

रविवार, 5 दिसंबर 2010

"तुम्हारी ये ना कैसी"

तुम्हारी ये ना कैसी,
किसी की तो ज़िन्दगी,
रूठी हो जैसे,
हंसी भी हंसी,
अपनी किस्मत पर,
कि बीच रास्ते से,
लौटी वह भी अक्सर,
अब जब पुतलियां भी मजे से हैं आंसुओ मे,
कहते हो एक बार फ़िर देखो,
आंखे उड़ेल कर,
रहम करो अब अपनी,
बार बार होने वाली जीत पर,
क्योंकि बार बार होने वाले,
सिलसिले भी थकते हैं अक्सर।

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

"खुशबू" उनकी

आंखें यूं खोली आहिस्ता से उन्होंने,
जैसे डिबिया खुली हो इत्र के फ़ाहों की,
और खुशबू फ़ैल गई।
हौले से बाल यूं लहरा दिये उन्होंने  जैसे,
केसर बिखर गए हों हवा में,
और खुशबू फ़ैल गई।
इशारों में कुछ कहने की कोशिश में,
बोल तो ना निकले पर सांसे घुली हवा में,
और खुशबू फ़ैल गई।
हवा जो चली हल्की सी,
थोड़ा पल्लू बहक गया,
और खुशबू फ़ैल गई।
मैने कैद करना चाहा उन्हें,
अपनी बांहो में,
मगर वो तो खुशबू थीं,
और खुशबू फ़ैल गई।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

"आंसू"

यूं तो जाता नही कोई,
जाता भी है पर रुलाता नही कोई,
होठों पे तेरे इतनी हंसी थी कैसे,
दूर जाने से  इतनी खुशी हो जैसे,
माना कि दरिया के दो छोर थे हम,
ना मिलें ना सही पर,
जीवन के बहाव को,
दे सकते थे गति साथ साथ,
दूर से ही सही,
पर तुमपे तो अभी "पर" हैं,
उड़ो और ऊंचा उड़ो,
मेरे "पर" तो बोझिल हैं,
मेरे ही आंसुओं से,
जो जब कभी भी निकले चुपके से,
तुम्हारे ही  लिये निकले,
पर तुम्हारे "पर" हमेशा,
सुखाते रहे मेरी नम आंखों को,
और अन्ततः हारे,मेरे ही आंसू ।