गुरुवार, 31 मार्च 2011

"चवन्नी तो निकल गई मगर....."

                अरे ! सुनते हैं ,मोहित  ने चवन्नी निगल ली है ,यह कहते हुए उसकी माँ चीख पड़ी थी ,उसके पापा भी दौड़ते हुए आये और थोडा हौसला दिलाने की नीयत से बोले थे  ,नहीं नहीं मुंह  में नहीं गई होगी ,देखो नीचे कहीं गिरी होगी | घर के सारे लोग ज़मीन पर चवन्नी ढूंढने में लग गए | पर वह तो, मोहित  मुहं में डाल चुका था सो रोते हुए बोला कि ,वह  मेरे पेट में चली गई है | माँ तो बुरी तरह से रो रही थी ,किसी ने कहा उल्टा लटका कर पीठ पर धौल जमाओ,किसी ने कहा इसे खूब केले खिलाओ  ,सबेरे अपने आप बिना किसी नुकसान के निकल जाएगी | मोहित  के पापा उसे फ़ौरन डाक्टर के पास ले गए ,वहां उसका एक्स रे किया गया | चवन्नी पेट में ही थी और आराम से पेट के कोने में टिकी थी | डाक्टर अच्छा और तजुर्बे वाला था ,उसने कोई अच्छी सी दवा दी और वह चवन्नी सबेरे पेट से बाहर निकल गई, बिना कोई नुकसान किये |
                   इस बात को बीते बरसों बीत गए | मोहित  बड़ा होता  गया | पढने में मेधावी था ,उसका चयन एक अच्छे  इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया | वहां से उत्तीर्ण होते ही सरकारी महकमे में नौकरी लग गई | बड़ी ईमानदारी और लगन से वह, वहां कार्य कर रहा था ,पर चूँकि ईमानदार था, सो समाज और परिवार में अपेक्षित सम्मान और महत्त्व नहीं प्राप्त कर पा रहा था | लोगो की जबानी वह सफल नहीं था | आख़िरकार  समय के साथ मोहित  ने सफलता के गुर सीख लिए और अपेक्षित परिणाम दिखने लगा |
                     अब उसके पेट में दर्जनों पुल थे ,सड़के थी ,सीमेंट था ,सरिया थी ,करोड़ों चवन्नियां थी, पर अब चिंता करने वाला कोई माँ-बाप (बचपन वाला)  नहीं था | काश ! अब भी बचपन की तरह उसके पेट की चिंता करने वाला कोई होता ,जो उसका समय रहते एक्सरे करवा देता ,जिससे शुरुआत होते ही वह संभल जाता पर अफ़सोस अब वहां ऐसा कोई ना था और वही माँ बाप उसे  यह सब निगलते देख पूरे समाज में उसकी भूरि भूरि  प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे |
                      और परिणाम, आज वह जेल में है |
( हसन ,राजा,राडिया,कौडा ,कलमाड़ी तमाम ऐसे नाम है जिन्हें अगर उनके माँ बाप या शुभचिंतक या इर्द गिर्द के लोग ,समय रहते चवन्नी निगलने से रोक लेते तो शायद उन्हें आज यह दिन ना देखना पड़ता )

सोमवार, 28 मार्च 2011

"हाँ,मुझे अभी भी डाँट पड़ती है जब......."

.वे  सबेरे सबेरे चाय की प्याली लेकर  आएं और मैं toilet में स्थापित दिखूं |
.अखबार मेरे पढने के बाद अगर मुसा मुसा और मायूस सा मिले |
.अगर एसी बंद कर दिया ,भले ही ठण्ड से मेरी हड्डियाँ vibratory mode पर आ जाएँ |
.सफाई के बाद फर्श गीली हो और मेरे चरण स-चप्पल उन पर पड़ जाएं |
.उनके भगवान जी का कोई भी सामान बिना स्नान संपन्न किये छू भर लिया हो |
.डाइनिंग टेबल पर पहुचने की दो पुकार हो चुकी हो और मै अभी वहां उपलब्ध ना हुआ हों |
.उनकी अत्यंत प्रिय पुस्तकों को जरा भी चोट या ठेस पहुंची हो ,मेरे उपयोग के प्रकार से |
.नहाने के बाद शैम्पू का ढक्कन खुला मिले या गायब मिले ,या साबुन पर झाग लगा रह गया हो |
.उनकी पाक कला की प्रशंसा तत्काल न की गई |
१०.मेरा सॉरी बोलना तो  flirting माना जाता है |
११.ब्लागिंग की चर्चा हो रही हो और मै उनके ब्लॉग का घूँघट अनावृत ना करूँ |
१२.अगर वे फेसबुक या ब्लाग लेखन में लिप्त हैं तब वह सार्थक लेखन है ,और मैंने कहीं अपनी अर्जी लगाईं कि यार अब 'डब्बा' खाली करो तो,यह सिद्ध होता दिखता है कि आग्नेय बाण आज भी प्रचलन में है |   (डब्बा बोले तो कंप्यूटर )
                    पर कभी कभी जब मै पूरे मन से प्रयास कर  उनकी कसौटी पर लगभग ५१% से अधिक खरा उतरता हूँ ,तब वे मुझे गुड ब्याय भी बोल देती हैं ,फिर भी मै उनके ब्लाग पर जाकर टिप्पणी  नहीं करता हूँ | और जब वे इस बात पर गुस्सा करती हैं तब उन्हें उनके पासवर्ड की कसम दिला कर मना लेता हूँ |
                    इस सब के बारे में उनका कहना है कि दरअसल उन्होंने कभी quality से compromise नहीं किया है ,(मुझको छोड़ कर ) |
                    उनका ब्लाग  ( झरोखा ) :nivedita-myspace.blogspot.com

रविवार, 27 मार्च 2011

यूँ ही कोई मिल गया था सरे-राह चलते चलते"

सच हुआ ऐसा,
पहली पहली बार,
कि,
एक कशिश सी हुई,
सो कोशिश की,
कुछ कहने की,
पर कह पाना,
था मुश्किल, 
सो लिख दिया,
पर लबों को सी दिया, 
अपना ही लिखा मैंने,
पढ़ा बार बार, 
उनने ये सोचा होगा, 
या वो सोचा होगा,
जवाब आयेगा भी,
कि नहीं आएगा, 
जवाब तो आया भी, 
खुश्बू भी थी लिफाफे में,
पर ख़त में, 
फलसफा था, 
एक हकीकत का, 
उनके लफ़्ज़ों में, 
"वास्तविक जीवन का" |




"कवि हृदय नाजुक-मना होते हैं ,handle with care and keep bosom side up."
साभार :zealblogspot.com

disclaimer:इस रचना के सभी पात्र काल्पनिक हैं,वास्तविक जीवन से किसी का कोई लेना देना नहीं है| 

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

"सौन्दर्य और सुरभि"

तितलियाँ मन को,
इतना भाये  क्यूँ ,
जबकि जीना उनका,
बस पल दो पल का |
फूल रंग बिरंगे इतने,
पर होना उनका,
बस कुछ पलों का |
क्या समीर क्या नदी ,
वेग उनका  इतना कि,
उनसे मिलना भी,
बस पलक भर का |
सुरभि बिखेरे फूल ,
या बिखेरे कस्तूरी ,
पर बिखरना  उनका,
भी पल भरों का |
मन लुभाने वाले पल,
होते हैं क्षणभंगुर क्यूँ |
या नियति है यह,
सौन्दर्य और सुरभि  की |
मुलाकात एक पल की,
और दर्द जीवन भर का |

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

"रंग स्मॄतियों के"

कितने बरस बीत गए ,
और बीतेंगे अभी कितने बरस |
पर स्मृतियों के ढेर में शेष है ,
वो रंगी-पुती सलोनी  सूरत आज भी  |
क्योंकि वो विशेष है ,
दोनों ही थे उम्र की उस दहलीज पर ,
जब होशो हवास खोना ,
सब कुछ पा जाने जैसा लगता था |
और मन को कोई बस यूँ ही ,
भाने लगता था |
उसकी  एक झलक की ,
ललक लिए ,
सारे दिन घर के जीने पर ,
बस साँसों का आरोह अवरोह ,
किया करता था |
अक्सर आधे जीने से ही ,
जब वह  दिख जाया करती थी ,
मेरा तो जीना हो जाया करता था |
पर जब पूरा जीना चढ़ने पर भी ,
ना दिखती वह  बगल की मुंडेर पे ,
सच मेरा जीना जाया लगता था |
ये लुकाछिपी होती थी कुछ पलों की ,
परन्तु उन पलों में कैद रहती ,
तमाम चेष्टाएँ ,कल्पनाएँ,योजनायें ,
और इसी बीच आ गई थी होली |
कौन सा रंग उस पे फबेगा ,
कितना मैंने सोचा था |
पहले पहले उसे  रंग मै ही लगाऊँगा ,
यह भी चाहत थी मन की |
सबकी नज़रों से छुपते बचाते ,
मै पहुंचा था ,
दबे पाँव उसके पीछे |
पर यह क्या ,
उसके गाल  तो सुर्ख लाल ,
हो रहे थे बगैर रंग के ही |
मैंने पूछा था  यह कैसे ,
उसने  कहा था पिघलती  आवाज़ में ,
"आप रंग वहां घोल रहे थे ,
और उसकी सुर्खी लाज बन ,
उभर रही थी मेरे गालों पे" ,
उस प्राकृतिक लाज के रंग पर ,
मै फिर कोई और रंग ना लगा सका था |
क्योंकि  लाज का रंग ही ,
फब रहा था ,
उस पर इतना |

                                                "होली की हार्दिक शुभकामनाएं "

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

"रिश्तों के खंडहर"

अरे ! ये तो मेरे अपने हैं ,
पर क्यों अब हम,
उन्हें मीठे नहीं लगते |
रिश्तों की इमारत से,
हमने तो कोई पाया नहीं खींचा ,
हाँ अनुपात ज़रूर एक,
एक का कर लिया था |
पर शायद यह इमारत,
उनकी सपनों  की इमारत ,
का एलिवेशन बिगाड़ रही थी ,
सो बड़े प्यार से,
अपने हिस्से के पाए ,
उन्होंने खिसका लिए |
और अब जब,
हमारे रिश्तों की ,
इमारत ढही ,
तो वह भी,
उनकी ही तरफ ढही |
मेरे पाए अब भी,
जस के तस हैं ,
पर वह कहते हैं ,
यह इमारत तो,
खँडहर हो गई |
मैं कहता हूँ ,
ढही  इमारत ,
के खंडहर भी ,
ख़ूबसूरत और आकर्षक ,
लगतें है ,
अगर देखने वाला ,
उनमें बची साँसों को ,
महसूस कर पाए |  
पर शायद उन्हें तो ,
फितरत है ,
हर रोज ,
नई इमारतों की ,
और ऊब से गए है ,
ढोते ढोते बासी ,
रिश्तो को ।

बुधवार, 9 मार्च 2011

"इच्छा मॄत्यु" बनाम "शापित जीवन"

               ईश्वर या प्रकृति की सबसे असाधारण रचना यदि कोई है तो वह मनुष्य का जीवन ही है ,परन्तु चूँकि यह घटना ( बच्चे का जन्म ) सदियों से बहुत सरलता से होती आ रही सो अत्यंत साधारण सी लगती है |यह सत्य भी है और स्वभाविक भी ,कि प्रत्येक व्यक्ति सर्व प्रथम स्वयं से प्यार करता है ,अपने जीवन से प्यार करता है ,उसे खुद का होना अच्छा लगता है,उसके बाद ही किसी अन्य को वह चाह पाता है | बचपन से यदि किसी ने उसे प्यार किया होगा या प्यार दिया होगा तो निश्चित तौर पर पहले उस प्यार करने वाले व्यक्ति ने पहले खुद को उसके  होने पर चाहा होगा ,तभी उससे प्यार किया होगा |चाहे वह माँ-बाप ही क्यों ना हो |
              होश सँभालते ही या थोड़ा सा समझदार होते ही हर बच्चा अपनी जिंदगी को एक मनचाहे कलेवर में बुन लेता है ,अपने आस पास के वातावरण से भावनाओं को चुनकर ,उनसे अपनी एक काल्पनिक दुनिया बना डालता है |जो जितना भावुक होता है उसकी दुनिया उतनी ही सरल और सच्ची परन्तु अ-वास्तविक हो जाती है |अब वह धीरे धीरे अपने होने या ना-होने पर  अपने आसपास के लोगों के जीवन में अंतर ढूंढता है और यह समझने कि कोशिश करता है कि जिनके साथ वह है, उसकी ज़िन्दगी में उसका कितना महत्व है |
              यदि उसे अपेक्षित प्यार ,महत्त्व या व्यवहार नहीं मिलता है तब ,यहीं से आरम्भ होता है ,जीवन का विकल्प यानी प्रति-जीवन ,या जिस भी स्वरुप में वह है ,वहां से वह मुक्ति पाना चाहता है |जिसका अंतिम परिणाम है मृत्यु |बचपन से लेकर जीवन के अंत तक प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अनेक बार ऐसे क्षण आते हैं कि वह तत्काल उस स्थिति से निकल भागना चाहता है ,जिसमें वह होता है |कई बार वह मृत्यु को अपनाने को तैयार भी हो जाता है |अरुणा की जो स्थिति आज है ,जिस घटना की वजह से है ,उस घटना के दौरान उसने ईश्वर से जार जार यह प्रार्थना की होगी कि उसे उस शर्मनाक घटना से पहले मौत आ जाए |यानी कि इच्छा मृत्यु के लिए वह पिछले ३५ वर्षों से बाट जोह रही है |यह सच है कि जीवन -मृत्यु की अवधि निर्धारण करने का अधिकार मनुष्य को नहीं है और इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने उसके खिलाफ फैसला दिया भी ,परन्तु प्रश्न यह है कि जितनी संवेदना हमारा समाज ,कोर्ट या मीडिया घटना हो जाने के बाद दिखाता है ,पहले से क्यों ऐसी व्यवस्था बनाने पर बल नहीं दे पाता कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृति ना हो |
                पशु और मनुष्य में ईश्वर ने केवल एक अंतर दिया है और वह है विवेक का ,समझ का |पशुवत व्यवहार मिलने के बाद मनुष्य अपना जीवन शापित समझने लगता है और वह खुद से घृणा करने लगता है ,अर्थात वह मूलतः अपने अस्तित्व का ही विरोधी हो जाता है , तभी वह आत्महत्या या इच्छा मृत्यु के विषय में सोचने को विवश होता है | कहने के लिए तो यह बहुत अच्छा है की उसे जीवन से पलायन नहीं करना चाहिए ,परन्तु एक शापित जीवन जीने वाले का दर्द कोई नहीं समझ सकता |इस तरह की घटनाएँ   जैसे  रैगिंग के दौरान ,ससुराल में लड़की के साथ दुर्व्यवहार  (दहेज़ ना मिलने के कारण ) अथवा बलात्कार की घटनाएँ  ,यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि आखिर कौन सी दुनिया की हमने ख्वाहिश की थी और कहाँ यह सभ्यता हमें ले जा रही है |
                 एक अच्छे समाज की परिकल्पना के लिए हमें अपना नैतिक स्तर अत्यंत ऊँचा करना पडेगा और इसकी अवहेलना करने वालों के लिए कठोरतम दंड का प्राविधान करना ही पड़ेगा |

सोमवार, 7 मार्च 2011

"हाँ,उस दिन"

आँखें थी मृग सरीखी, 
चितवन चकोर सी, 
नाजुक कलाइयाँ, 
लच  जाती थी कभी, 
कभी खाती थी बल, 
और खिल उठी थी, 
कई बार सुनहरी चूड़ियों में |
निहारता रहा था तुम्हे मै, 
पर मूँद ली थी  पलकें तुमने,
यह मौन निमंत्रण ही था , 
तम्हारा,
आलिंगन का |
पता नहीं क्यों,
तुम्हारा स्पर्श सदा लगा यूँ,  
जैसे तुमने  कुछ कहा हो,
चुपके  से | 
और कहा था  कुछ जब, 
तो लगा था  जैसे, 
तुमने छुआ हो मुझे,
अपनी सांसो से | 
-------------------
और बस अब,
बात इत्ती सी, 
कि कर रहा  हूँ याद, 
तुम्हारी बातों को, 
और गुम  सा हो रहा  हूँ,
तुम्हारे ही स्पर्श के एहसासों  में | 






रविवार, 6 मार्च 2011

"व्यथित मन"

कोशिश की, 
 
सब को,
अपना बना लूँ,
नाकामयाब रहा |
दूसरी कोशिश, 
सबका हो जाऊं, 
नाकामयाब ही रहा |
कसूर मेरा ही होगा शायद, 
सबको अपना और,
सबका खुद को,
बनाने की चाहत में,
हर किसी पे,
न्योछावर होता गया |
चाहा था बस
सभी की पलकों में,
अपनी झलक,
या होती  मेरी पलकों में,
उन सभी की झलक,
बस दो पल भर को |
पर मिला मौन,
दो पलों  का,
सभी से |
और मै,
जीते जी,
मरता गया|

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

"क्या शीर्षक दूं"

                                                         क्योंकि  
१.दूसरों की भावनाओं को आहत करने में हमें आनंद मिलता है |
२."end justifies the means" को हम ही चरितार्थ करते हैं |
३.हमें सड़क पार करना नहीं आता ,जेब्रा लाइन का मतलब नहीं समझते |
४.रेलवे क्रासिंग  बंद होने पर ,दोनों और कौरव -पांडव की सेना की तरह आमने सामने जम जाते हैं ,और 'किसमे कितना  है दम' की तर्ज़ पर एक दूसरे को आजमा भी लेते हैं |
५.हम पान खा कर कहीं भी ऐसे थूक सकते हैं, कि उस चित्रकारी को देख एम.ऍफ़ .हुसैन साहब भी लोहा मान जाय|
६.बच्चे तो बस यूँ ही पैदा कर लेते हैं ,उनकी परवरिश या भविष्य की योजना से कोई लेना देना नहीं |"मुह तो एक है ,हाथ तो दो हैं" बस इसी के भरोसे वह जी लेगा ,यही मूल मन्त्र है |
७.अपने महापुरुषों ,अराध्य देवों की सहजता से ही निंदा कर डालते हैं |
८.बस या ट्रेन में चढ़ते समय पूरी कोशिश यह होती है कि उतरने वाला उतर ना पाए, जैसे बिना उसके यात्रा करने में कोई आनंद नहीं मिलेगा |
९.बैंक में या टिकट लेते समय या किसी भी काउंटर की  लाइन में पीछे वाले  का पूरा प्रयास यह होता है कि 
वह आगे वाले की जेब में सशरीर प्रवेश पा जाय |
१०.पांच लाख की कार खरीदते समय उसकी टेक्निकल जानकारी से ज्यादा ,इस पर जोर देते हैं कि पांच सौ का सीट कवर मुफ्त मिल रहा है कि नहीं |
११.सफ़र में बगल में बैठे सज्जन का अखबार ,तिरछी निगाहों से उनसे पहले ही पढ़ डालते हैं |
१२.हमारे राजनेताओं में देश भक्ति कूट कूट कर व्याप्त है ,परन्तु उनके वंश अथवा परिवार से कोई भी बच्चा कभी देश की सेना में भर्ती नहीं होता है |
१३.किसी भी बहस -मुबाहिस में मुद्दा गायब हो जाता है ,उससे इतर एक दूसरे की निरर्थक कमियों पर भाषण छिड़ जाता है ,चाहे वह टेलिविज़न पर हो ,रेडियो पर हो या किसी मंच पर आमने सामने हो |
१४.औरतों की वकालत करने वाली औरतें ही समाज में अभी भी 'सास बहू  ' के सम्बन्ध को 'माँ बेटी' की शक्ल में तब्दील नहीं होने देतीं |
१५.वोट देते समय 'जाति' को ही महत्त्व देते हैं ,'जातक' को नही |  
१६.ब्लाग पर टिप्पणी देने की औपचारिकता ऐसे निभाते हैं,जैसे कि शादी-विवाह में न्योता दिया जाता है कि, भाई उनके यहाँ से लिफाफा आया था सो उन्हें लौटाना ज़रूरी है ,या लिफाफा देते रहो तभी तुम्हे लिफाफा मिलेगा | गुण दोष से कोई लेना देना नहीं |
                                        "जय हिंद "