रविवार, 28 सितंबर 2014

" कुछ मीठा हो जाये ....."


अभिषेक / रमन ,

जन्मदिन पर क्या कहें बस खिलते रहो , खिलखिलाते रहो । शिक्षा / नौकरी के विषय में अब तो कुछ कहना शेष नहीं , उन दोनों क्षेत्रों में तुमने अपने  साथ साथ हम लोगों का भी मान बढ़ाया ही है पर कुछ ज्ञान तो देना पड़ेगा न ,नहीं तो पापा कैसे कहलाऊंगा ।

१. शारीरिक स्वस्थता और मानसिक दृढ़ता शीर्ष वरीयता पर होने चाहिए ।
२. हर अगला दिन पिछले दिन से भिन्न अर्थात कुछ तो नया होना चाहिए ।
३. जिस किसी के संपर्क में आओ उस पर तुम्हारे व्यक्तित्व का अधिक नहीं तो तनिक सा तो प्रभाव दिखना चाहिए ।
४. जितना संभव हो  समाज / देश की बेहतरी / तरक्की के लिए निरंतर प्रयास होना चाहिए । परिवार के लिए तो हर कोई करता है । सोच परिवार से ऊपर की हो ।
५. किसी भी निर्णय के दूरगामी परिणाम की व्याख्या समग्रता में बहुत आवश्यक है , वह निर्णय चाहे परिवार के सन्दर्भ में हों या समाज / देश के सम्बन्ध में हों ।
६. हासिल सब कुछ करो पर ,अपना कुछ भी मत समझो ।
७. तुम्हारी किसी भी बात अथवा कृत्य से कभी किसी के आत्मसम्मान को ठेस नहीं लगनी चाहिए ।
८. समाज में आर्थिक और शैक्षिक विषमताएं बहुत हैं । समाज के निम्नतम स्तर के लोगों की भी बेहतरी के विषय में यथासंभव सोच हो और प्रयास भी ।
९. कितनी भी उन्नति कर जाओ पर सामाजिक मर्यादाओं का भान रहे ।
१०. जीवन में सफलताओं / विफलताओं का क्रम अवश्य आता है । उनसे न कभी निराश हो और न कभी आपा खो दो ।

और अंत में सिर्फ और सिर्फ एक बात , तुम्हारी मम्मी को तुमसे अब क्या चाहिए पता है ,तुम्हे ? सिर्फ रोज़ दो मिनट की बात फोन पर ,कितने भी बिज़ी हो, कितनी भी अन्य प्राथमिकताएं हों , देश में हो या रहो विदेश में ,बस एक बार तुम लोगों की आवाज़ सुन लेती हैं तो उनका दिन पूरा हो जाता है और तुमसे बात होने पर तुम्हारी मम्मी के चेहरे पर जो संतोष और ख़ुशी झलकती है न ,उससे मेरा दिन पूरा हो जाता है । 

अब एक चॉकलेट खा लेना ,इतनी कड़वी दवा के बाद कुछ मीठा हो जाये ।

( जन्मदिन तो तुम्हारा है पर यह बातें तुम्हारे दद्दा ( अनिमेष / राजन ) के लिए भी हैं )

सोमवार, 22 सितंबर 2014

" लिखते तो अच्छा हो ,पर लिखते क्यूँ हो ......."


नज़्मों में तुम्हारी दर्द सहती रहूँ मैं क्यूँ  ,

लिखते तो अच्छा हो पर लिखते क्यूँ हो ,

मेरे एहसास बयां होते है तेरे लफ़्ज़ों से ,

पर अपने लफ़्ज़ों से मुझे यूँ भिगोते क्यूँ हो ,

मोहब्बत तो थी पर जब निभानी न थी ,

फिर इतनी मोहब्बत यूं करते क्यूँ हो ,

इज़हारे इश्क का अगर हौसला न था ,

छुप छुप के ज़ाहिर इश्क  करते क्यूँ हो ,

रहने दो मुझे मेरी ही तन्हाइयों में ,

यूं मिल मिल कर निगाहें भिगोते क्यूँ हो । 

रविवार, 21 सितंबर 2014

"बैक डेट से मोहब्बत ,क्यों नहीं ...."


                                                                             
                                                                             यदि प्रेम एक संख्या है
                                                                             तो निश्चित ही
                                                                             विषम संख्या होगी

                                                                             इसे बांटा नहीं जा सकता कभी
                                                                             दो बराबर हिस्सों में ।

हाँ ,वह एक नेक और पाक रूह थी | अंगूरी बादल सी धुँधलाई उसकी कहानी ने जबसे अपनी चुप्पी तोड़ी है , कसम से उसकी उदासियाँ अब सालने लगी हैं | स्मृति जब रीतती है तब पनीली उदासी भी रिसते रिसते एक सवाल छोड़ जाती है ,क्या मुझे तब भी मोहब्बत थी उससे |

स्वेटर बुनते हुये जब वह निगाहें उपर उठाकर भौं के बीच एक मुस्कुराता हुआ प्रश्नचिन्ह बनाती थी न ,तब मेरे सारे दुखों के बीज जन्मने से पहले ही मृतप्राय हो जाया करते थे | उसकी स्मृतियाँ अमलतास की डाली है ,जिस पर सदियों से विरासत की चली आ रही मोहब्बत की कहानियों के शब्द बनते बिगड़े मेरी नज़्म का ही रूप अख्तियार कर लेते हैं और गाहे बगाहे मुझे ही उसके राग विराग से रु-ब-रू भी कराते हैं और हैडल विद  केयर की नसीहत भी देते हैं |

अब एहसास होता है कि वह मैं ही हुआ करता था दुआ में उसकी ,जो मेरी नज़्म और मेरे कमरे का मौसम ख़ुशबुओं से लबरेज़ कर उठती थी । अक्सर वह प्रेम में होने का अर्थ और प्रेम का रसायन् बयाँ करती नहीं थकती थी | दुआ एक और की थी उसने जब स्पर्श किया था होंठ मेरे और बरबस ही निगाह में रिश्ते कुछ बन से गए थे | इच्छायें मुझे एहसास कराती तो रहीं उसकी चाहत की ,परंतु जैसे बादल धूप न बनने दे तो सर्दी कभी गुनगुनी नहीं लगती बस वैसे ही वक्त ने एक पुल न बनने दिया हमारे और उसके बीच जो उसके साया को मिला देता रूह से मेरी |

बदरा भी इंतज़ार करता है बरसने से पहले कि कोई ख्वाहिश तो करे बारिश की ,बस उसी तरह मैं भी इंतज़ार करता रहा  उम्र भर प्रेम करने से पहले प्रेम का विज्ञान समझ पाने का  | पर बदरा तो बरस गया ,मैं ही न बरस पाया ।

सच तो यह है कि बिन्दी उसके माथे की शून्य सा लगाती थी , जिसमें विलय होता रहा मैं तब और अब विलीन हो जाएगी मेरी शेष ज़िंदगी की गुज़र | ख्याल से उसके कभी बे-ख्याल हुआ हूँ ,ऐसा शायद कोई लम्हा नहीं पर हाँ ,प्रेम का गणित , प्रेम का भौतिक शास्त्र ,प्रेम की प्रकृति समझने में कुछ वक्त तो ज़ाया जरूर किया | बीज जो बो उठा था हमारे मन में उसके प्रेम का ,उसकी तलाश में अंधेरा सा हो चला है अब मेरी ज़िंदगी में । बस धड़कन जरूर धड़क रही हैं इन दिनों और शायद इनकी तो यही नियति है मौत तक |

इब्तेदा मोहब्बत की हो , इन्तेहा मोहब्बत की हो या हो फिर बेइंतहा मोहब्बत ,हर कहानी में मोहब्बत अब भी रोती है क्योंकि लौ जो जलाता है मोहब्बत की अँधेरी सुरंग में ,वही जल उठता उस लौ में ,जैसे रेत में मरता हो कोई बस गुजारिश करता हुआ ,दो बूँद पानी के लिए ।

यकीन हो चला है कि ख्वाहिश कभी पूरी न होने के कारण ही मोहब्बत करने वाले सपनो का सौदागर बनते बनते जोग में रम जाते हैं | यूं तो सिन्दूर हर औरत की आकांक्षा होती है जो उसे नदी सा प्रवाह और पवित्रता देता है । परंतु कुछ लोग उन पर गुलामी की बेड़ियाँ भी जकड़ देते हैं नाकाम इश्क की आड़ में | अच्छा हुआ वह चिड़िया बन उड़ गईं और मेरी प्रतीक्षा नहीं करी ,क्योंकि मैं तो यादों के पदचिह्न पर चलता चला ही जाऊँगा |

आज वह रास्ते याद आ गये जिन पर हम चले थे कभी संग संग ,खाते खाते कच्ची मूंगफलियाँ और एक बार इन्ही रास्तों पर सहसा एक झटके में मैने उसके  चेहरे को उसकी ही ज़ुल्फ़ों से बेनकाब करते हुये उसका मुंह चूम लिया था | तब उसने कहा था ,आसमां की ओर ताकते हुए ,सुनो बरखा ,बरस न जाओ एक बार फिर , जिससे मैं उसके आंसू न देख सकूं | उसने ढांप लिया था चेहरा अपनी हथेलियों से ।

आज अकेले सोचता हूँ तो लगता है जब वह थी तब जैसे तारों की बारात थी मेरे पास और आज तारों की घर वापसी हो गई और कर गई मुझे अजनबी मेरे ही घर में और अब घर का हर कोना डेड एंड सा लगता है | मृत्यु कहूँ या महामुक्ति अब तो बस उसी की प्रतीक्षा में एक ख्वाब जलता हुआ सा देखता रहता हूँ |

जब कभी ख्वाब का रूपांतरण उसके  चेहरे में हो जाता है तब उसकी पनीली आंखे चुभन सी पैदा करती हैं मेरे जिस्म में और अनायास होने लगती है एक तलाश कविता की | पर जब एक ख्वाब थका सा हो तो उसमे और चिता में कोई फर्क नहीं होता क्योंकि फिर दोनों ही दोनो भस्म कर डालते हैं ख्वाबों के वजूद को |

तुम्हारे बिना रिहाई आसान नहीं इस तन्हाई की कैद से | बंधक बन बैठा हूँ तुम्हारी यादों का , जो शायद जीवन यात्रा की समाप्ति पर ही अब रिहा करेगा मुझको | अब जब भी प्रेम कविता लिखता हूँ न ,वो लम्हे जिनमे उसकी याद गुजरी , डुबो ही लेते हैं मुझे अक्सर झील बन कर |

सोचता हूँ मैं ही न समझ पाया उसको  ,कितना मोहब्बत करती थी वो मुझसे | मुझे तो अब उस से मोहब्बत हो गई है 'बैक डेट' से |

"इश्क तुम्हे हो जायेगा" अनुलता जी का एक अद्भुत संकलन हैं 'प्रेम कविताओं' का । इस धरोहर का प्रत्येक शीर्षक एक पोटली है जिसमे बंद है अनमोल खजाना । बस उन्ही पोटलियों को इकठ्ठा कर एक प्रयास किया है ,एक टूटी फूटी कहानी लिखने का । (इस कहानी को अर्थ देने के लिए अनु जी की पुस्तक के सभी शीर्षकों को ही शब्द-विन्यास के रूप में प्रयुक्त किया गया है ) 

बुधवार, 17 सितंबर 2014

"कान उमेठने के लिए नहीं बने हैं ......."


जरा सी गलती पर किसी भी बच्चे के कान उमेठ देना अत्यंत साधारण सा सत्य है । ईश्वर ने कभी स्वप्न में भी न सोचा रहा होगा कि उसकी रचना का लोग इस तरह दुरुपयोग करेंगे । कान उमेठना दंड का एक प्रकार शायद इस लिए बन गया होगा क्योंकि कान उमेठने में जिसका कान होता है उसे दर्द होता है और कान उमेठने वाला उमेठने के प्रकार से दिए जाने वाले दर्द को नियंत्रित कर सकता है । इसीलिए विभिन्न प्रकार की गलती के लिए विभिन्न आयु के बच्चों के लिए विभिन्न तरीके हैं कान उमेठे जाने के ।

यूं ही विचार विमर्श से ज्ञात हुआ कि अगर बच्चा गलती करके सर झुकाये नीचे देख रहा है तब उसके कान 'क्लॉक वाइज़' उमेठने से उसका चेहरा ऊपर की ओर अपने आप उठ जाता है और अगर गलती करने के बाद भी ऊपर ही घूर रहा है तो कान 'एंटी-क्लॉक वाइज़' उमेठने से उसका चेहरा अपने आप नीचे हो जाता है | एक केमिस्ट्री के मास्साब ने बताया कि अगर कान उमेठने से आंसू भी निकल आएं तो यह रासायनिक परिवर्तन है और अगर केवल मुंह बन जाये और आंसू न निकले तो यह भौतिक परिवर्तन है ,क्योंकि कान तो छोड़े जाने के बाद पुनः अपने मूल रूप में आ जाता है । यह तो हास परिहास की बात हुई ।

कान उमेठने का उद्देश्य अगर बच्चे को गलती का एहसास कराना है तो यह कार्य बगैर कान उमेठे भी किया जा सकता है । किसी भी आयु के बच्चे को पीड़ा पहुँचाते हुए सुधार करने की अपेक्षा पूर्णतया गलत है । इस प्रकार की प्रक्रिया से बच्चों को दर्द तो अधिक नहीं होता है पर वे अपमानित हो कुंठा से भर जाते है । ऐसी कुंठाएं आगे चल कर उन्हें बुरी संगत और प्रतिशोधात्मक काम करने को अग्रसित करती हैं ।  ऐसी कोई स्थिति नहीं होती जिसमे कोई भी अपने बच्चे से सरल तरीके से बात कर उसे समझा न सके । अगर आप ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तब कहीं न कहीं दोष आप में है ।

सीधा सा मूल मन्त्र यह है कि जब आप अपने बच्चे से बात करें तब केवल उससे ही बात करें । मतलब ऐसा न हो कि आप घर का या ऑफिस का काम भी कर रहे हों , टीवी देख रहे हों , मोबाइल पर बात कर रहे हों , मेहमान नवाज़ी कर रहे हों और इन सबके साथ साथ बच्चे को भी नसीहत दे रहे हों  । बच्चे भली भांति समझते हैं कि उनके माँ बाप की वरीयताएं क्या हैं । उन्ही के अनुसार ही वे भी प्रतिक्रिया देते हैं ।

अगर बच्चे बड़े हो कर अच्छे नागरिक बनते हैं और समाज में एक आदर्श स्थापित करते हैं तो आवश्यक नहीं माँ-बाप को श्रेय दिया जाये ,परन्तु अगर बच्चे समाज के लिए अथवा परिवार के लिए समस्या बन जाते हैं तब सारा का सारा दोष माँ बाप का ही माना जाना चाहिए ।

गलती होने पर भी बच्चे को सीने से लगा कर स्नेह से समझा कर देखिये तो सही । वह अपने उसी 'कान' से आपके दिल की धड़कन सुन कर सब समझ जाएगा जिस 'कान' को आप उमेठने को बेताब रहते हैं । 

रविवार, 7 सितंबर 2014

" एक शौक ..बात करने का ..अनजान लोगों से ..."


कभी यूँ ही ज़िक्र कर बैठा था कि अगर कभी रास्ते में कोई गलत तरीके से कार चलाते हुए मिल जाता है तब उससे रोक कर पूछ ही लेता हूँ ,इतनी भी क्या जल्दी या इतना कन्फ्यूज़न क्यों । इस पर एक टिप्पणी मिली कि बहुत फुर्सत रहती है आपको रास्ते में भी । मैंने कहा ,क्या करें अनजान लोगों से बात करने का शौक जो है ।

अचानक मुझे लगा कि यह तो सच बात है । जब किसी परिचित से मिलता हूँ तो उसके बारे में चूंकि पहले से ज्ञात होता है ,अतः उसी अंदाज़ और दायरे में उससे बात होती है । परन्तु अनजान व्यक्ति ,जिससे आप कभी पहले न मिले हो ,उससे अकस्मात बात करने में बहुत आनंद एवं रोमांच होता है । एक कारण मेरे साथ यह भी हो सकता है कि चूंकि आरम्भ से ही नौकरी की प्रकृति के कारण हमेशा नए नए लोगो से ही मिलना होता रहा एवं जो भी मिला पहले अत्यंत रोष और बिगड़े अंदाज़ में ही मिला । मैं तो बड़े मजे से ऐसे लोगों की सुनता हूँ , फिर जब उनके काम हो जाते हैं तो उनके रोष रहित चेहरे और भी अच्छे लगते हैं ।

अब अचानक रास्ते में कोई कार वाला बाई ओर का इंडिकेटर देकर दायें मुड़ता मिल जाए तो उसे रोक कर पूछ ही लेता हूँ ,घर पर सब ठीक तो है । पहले तो वह मुझे घूरता  / घूरती  है ,फिर अपनी गलती देख एक मुस्कान बिखेर कर आगे बढ़ जाता / जाती है । अनजान लोगों से विवाद की स्थिति होने पर मुझे तो बहुत ही मजा आता है । पहले उन्हें समझने की कोशिश करता हूँ ,फिर समझाने की ,तब भी न माने तो चुपचाप अलग हो जाता हूँ पर शांत रह कर पूरा आनंद ले लेता हूँ । निवेदिता भी अक्सर कहती है ,"आप मुझसे लड़ते नहीं बल्कि अपना मूड ठीक करने के लिए मुझे लड़ने के लिए उकसाते हैं । "

इस बात पर भी मुझे कई बार टोका गया है घर पर, कि फोन पर किसी नए व्यक्ति से आप इतने अच्छे से बात करते हैं कि आपसे तो फोन पर ही किसी अनजान नंबर से बात करनी चाहिए । मैं कहता हूँ कि अनजान के साथ अप्रत्याशा जो बनी रहती है ।

अनजान लोगों से किसी भी विषय / संदर्भ में कई बार नई बातें पता चल जाती हैं ,जो कोई आपको जानने वाला इसलिए नहीं देता कि पता नहीं आपको अच्छा लगे या नहीं । जैसे अक्सर सफर में या पब्लिक प्लेस में जहाँ लोग मुझे नहीं पहचानते ,बिजली से सम्बंधित या बिजली चोरी के तरीके पर महत्वपूर्ण जानकारी दे डालते हैं । जब उन्हें मेरे बारे में पता चलता है तो फिर अपना नाम छिपाने लगते हैं ।

अनजान लोगों से बात करना और अबोध बच्चों से बात करना एक सामान होता है । जो कोई आपको जानता नहीं होगा वही आपसे सारी बातें सच्ची सच्ची बता देगा । 

मेरी इस फितरत पर एक टिप्पणी यह भी मिली  ,"हम भी अनजान होते तो हमारी बारी भी आ जाती ।" अनजान था तभी तो आपको इतना जाना ,जानता होता ,पहले से, तो इतनी जान पहचान न होती ।

वैसे मैं संबंधों में विषमताओं का सम्मान करता हूँ शायद इसीलिए मेरे मित्रों में भी आपस में बहुत भिन्नता है ।