सोमवार, 29 अगस्त 2016

"योर नोज़ इज़ वेरी टेस्टी........"

उस उदास लड़के की अंगुलियाँ अपने हाथों में लिए यूं एक एक कर मोड़ तोड़ कर वह लड़की देख टटोल रही थी मानो वहां कहीं एक प्रेशर पॉइंट हो और उसे दबाते ही उस लड़के की उदासी गायब हो जायेगी।
हुआ भी कुछ ऐसा ही। लड़के ने कहा,तुम्हारे हाथ में जादू है क्या, छूती तुम अंगुलियों को हो और गुदगुदी होंठो पर होती है ,फिर बरबस मुस्कुराने को जी चाहता है।
लड़की संयत होते हुए बोली,चलो तुम्हारे जी ने कुछ चाहा तो। इतना गंभीर निर्विकार कैसे रहते हो तुम। पता है तुम्हे मैं प्यार नहीं करती क्योंकि प्यार करने में भी एक फ्रेम होता है,फ्रेम समझते हो न दायरा। मैं तुम्हे किसी फ्रेम में नहीं बांधना चाहती। मैं तुमको जीती हूँ, तुम्हारे लिए जीती हूँ और तुमसे ही जी पाती हूँ।
लड़का एकटक उसको देखता रहा। अँगुलियों में अंगुलियाँ फंसाये फंसाये बोला, तुम्हारी अंग्रेजी मुझे समझ में कम आती है पर तुम पास होती हो तो तुम जो भी कहती हो न अंग्रेजी में, सबका तर्जुमा तुम्हारी आँखों में साफ़ नज़र आता है। हाँ जब आँखे मूँद कर कुछ कहती हो तब मुश्किल होती है।
लड़की ने उसकी हथेली में अपनी हथेली से एक भंवर सा बनाया गोया उसी भंवर में उसके संग डूबने का मन हो और फिर आँखों में ही आँखे डाल कर बोली, तुम भी कभी कुछ कहो न । चुप रह कर सब समझते तो हो पर तुम्हे सुनने का मन मेरा भी करता है न और इतना कह कर लड़की ने आँखे मींच कर उसे भींच लिया।
लड़का थोड़ी देर उसे यूं ही देखता रहा या शायद पढता रहा फिर उसने उस खूबसूरत सी लड़की की गोरी सी नाक को चूम लिया और धीरे से बोला, "योर नोज़ इज़ वेरी टेस्टी।" (उसकी संगत में इत्ती ही अंग्रेजी सीख सका था वह)
बरसों हो गए इस बात को और अब भी अक्सर आईने में अपनी नाक चूम कर लड़की उस लड़के को याद करती है और कहती है , शायद टेस्ट तुम्हारे होंठों में ही था मेरी नाक में नहीं।

शनिवार, 11 जून 2016

" शून्य के भीतर शून्य ........."


शून्य के भीतर भी ,
होते हैं बहुत सारे शून्य ,
जब जब तुम चुप रहे ,
शून्य धंसते गए ,
एक के भीतर एक ,
फिर एक और एक,
कितनी भी बातें ,
कोई और कर ले ,
शून्य में गूँज ,
फिर कभी नहीं ,
पहला शून्य गर तुम ,
खींच लो अलग ,
बस दो बोल ,
बोल तो दो ,
शून्य के पीछे शून्य ,
बहुत सारे शून्य,
दौड़े चले आएंगे,
सब एक कतार में,
करने लगेंगे अठखेलियां
वही सारे शून्य ,
बन कभी निगाहे और ,
कभी तबस्सुम तुम्हारी ।

रविवार, 10 अप्रैल 2016

" कैसा इत्तिफ़ाक़ है यह ........"


'पता है क्या हुआ , लगभग चीखते हुए अंदाज़ में मधूलिका बोली उधर से फोन पर ।' मुझे लगा फिर शायद उसने चाभी कार में ही लगी छोड़ दी और कार दरवाज़ा बंद करते ही लॉक हो गई होगी या फिर चिपका ली होगी च्युइंग गम अपने बालों में , बबल बनाया होगा उसने और फिर बबल फूट कर जा चिपका होगा उसकी माथे से नीचे लटकती लटों में ।  उसकी शैतानियां नादानियां थमती नहीं हैं कभी और ऐसा कुछ होने पर सबसे पहले मुझसे ही शेयर करती है ।

पूछा मैंने -'क्या हो गया , इतना परेशान क्यों ,सांस तो ले लो ,जो भी प्रॉब्लम है सॉल्व हो जाएगी ।' 'अरे  प्रॉब्लम नहीं , वो जो कल बताया था न आपको कि मेरी रिंग नहीं मिल रही पिछले पांच सालों से , वह मिल गई आज । किसी को भी यह बात नहीं बताई थी डर और घबराहट के कारण कि सब कहेंगे कितनी लापरवाह हूँ मैं । यह बात राघव को भी नहीं बताई कभी । राघव ने बड़े प्यार से यह रिंग मुझे शादी के बाद पहली बार मिलने पर दी थी मुझे । उसके चार पांच दिन बाद से ही यह खो गई थी । यह तो अच्छा हुआ कभी किसी ने घर में या राघव ने भी नहीं पूछा इस रिंग के बारे में । पर मन ही मन मैं बहुत परेशान थी और एक बोझ सा था मेरे ऊपर सच न बताने का । '

अभी बस ५ या ६ महीने पहले ही मेरी मुलाकात मधूलिका से एक दोस्त के यहाँ शादी के दौरान ही हुई और तबसे कुछ ज्यादा ही आपस में हमारी बातें होने लगीं । बातूनी मधुलिका बात बात में सब कह जाती है मुझसे ।

दरअसल अभी कल ही चीज़ों को सम्भाल कर रखने पर हो रही बहस के दौरान उसने बताया था -'उससे आज तक कुछ भी खोया नहीं है , सिवाय एक रिंग के ।' बताने के बाद अचानक चुप होते हुए फिर बोली वह कि यह बात तो मैंने आज तक राघव को भी नहीं बताई । अब इस बात को पांच साल हो गए हैं , रिंग तो अब मिलने वाली है नहीं और उसकी डिज़ाइन भी ठीक से याद नहीं कि चुपचाप दूसरी बनवा लें । बस आज पता नहीं क्यों आपको बता दिया । बार बार एक ही रट कि किसी और को यह बात नहीं पता , बस आप ही जान गए आज । '

मैंने कहा था -'अरे मिल जायेगी ,कहीं रखी होगी ,परेशान न हो, मिलेगी जरूर । मैंने तो ऐसे ही उसका मन हल्का करने को बोल दिया था । पर यह क्या , कल ही बात हुई और आज वह पांच सालों से खोई हुई रिंग अचानक से कपड़ों की अलमारी से कपडे निकालते समय मधूलिका के पांव के पास आ गिरी । जिसको ढूँढ़ने में उसने कितने दिन कितनी रातें घर का कोना कोना छान मारा था , वह अपने आप लुढ़क कर नीचे पाँव में आ गिरी थी ।

इसी बात से मधूलिका हैरान हो मुझे फोन कर रही थी और यह भी बार बार कह रही थी कि आपसे पहले ही शेयर किया होता तो पहले ही मिल गई होती । मजे की बात यह कि चूंकि इस रिंग के खोने का किसी को पता नहीं तो मिलने का भी क्या बताना ।

बस बार बार एक ही रट मधूलिका ने लगा रखी थी कि मैं कितना लकी हूँ उसके लिए । मैंने हँसते हुए कहा कि मुझे अपनी खोई हुई चीज़ों का लॉकर बना लो , इस पर वह बोली ,'सीक्रेट्स के लॉकर तो आप हो ही मेरे । '

पता नहीं यह इत्तिफाक है या और कुछ । 

गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

" एक रात पसरी हुई ........"

(१ )
नींद ,
मत आया करो ,
जब वो हों ख्यालों में,

सुला देना कभी ,
जब वो आना भूल जाएं ,
मुझे कभी न उठने के लिए ।

(२ )
रात ,
तुम गहराती जाओ ,
उजाला भर लिया है मैंने ,
एक जुगनू है मेरे पास ,
उनकी यादों का ।

(३ )
ख़्वाब ,
नहीं देखना अब तुम्हे ,
एक दिल ही काफी नहीं  ,
रोज़ टूटने के लिए ।

(४ )
तबस्सुम ,
मत शरीक हो ,
मेरी मायूसियों में,
मुकाम बदलने से ,
मायने बदल जाते हैं ।

"पहले रात रोज़ मुझे सुलाती थी अब वो खुद सो जाती है रोज़ मेरी गोद  में सिर रख कर । इसे निहारते निहारते कब सुबह हो जाती है पता ही नहीं चलता । यूं सोते हुए देखना रात को याद दिला जाता है तुम्हारी । फिर एक जुगनू और चमक उठता है सिरहाने मेरे । "

रविवार, 3 अप्रैल 2016

" मर के भी मुँह न तुझसे मोड़ना......... "


प्यार में जान देने की कहानियाँ बहुत हैं । फिल्में भी खूब बनी हैं । गाने तो न जाने कितने बजते रहते हैं दिन भर इन्ही भावनाओं को व्यक्त करते हुए । जब हम इन कहानियों , फिल्मों , गानों को इतना पसंद करते हैं तो वास्तव में ऐसा हो जाता है तब व्यर्थ का विलाप क्यों ।

अगर प्यार में जान देना इतना ही ख़राब / गलत है तो ऐसी फिल्मों , गानों को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए । जीवन अनमोल है ,व्यर्थ नहीं खोना चाहिए । परन्तु प्रायः जान देने वाले अपने प्रेमी या परिवार को दुःख पहुँचाने के उद्देश्य से अथवा ग्लानि के भाव से भरने के उद्देश्य से भी ऐसा कठोर कदम उठा लेते हैं ।

जान देने वाले ने किन परिस्थितियों में जान दी , कभी पता नहीं लग पाता । सच तो यह है कि वह परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि जीवन दूभर कर देती हैं । वही परिवार , समाज जो आज मरने वाले पे विलाप / पाश्चाताप करता दिख रहा ,वही उसे जीते जी मरने से भी बदतर स्थितियां उत्पन्न कर देते हैं अपने संवादों से ।

ज्ञान देना बहुत सरल है कि मरने वाले को मरना नहीं चाहिए था , मुकाबला करना चाहिए था । अपनों से अपनी बात करना चाहिए था । सच तो यह है कि यह सब प्रयत्न करने के बाद ही आत्महत्या जैसी स्थिति की नौबत आती होगी  ।

मर के भी मुंह नहीं मोड़ेंगे , तुम्हारे प्यार में तुम्हारे बगैर जी न पाएंगे ,साथ जिए हैं साथ मरेंगे ,ऐसे संवाद जब तक कानों में पड़ते रहेंगे ,ऐसा होता रहेगा । जो घटनाएं किस्सों में अमर हैं उनके लिए नए पात्र भी ऐसे ही मिलेंगे न । जब तक ऐसी कहानियों को दृष्टांत किया जाता रहेगा , शिरीन फरहाद , सोनी माहिवाल , लैला मजनू जैसे यह चरित्र वास्तव में भी जीवित होते रहेंगे ।

घटना के बाद टिप्पणी करना अत्यन्त सरल है ।अपने आसपास समाज में झाँक कर देखिये , यह जुमला रोज़ खूब सुनने को मिलेगा कि मन करता है जान दे दें ऐसी जिंदगी से तो मौत बेहतर ।

शब्द ही प्यार दर्शाते हैं और शब्द ही ज़हर घोल देते हैं जीवन में । इतना सा समझ आ जाये तो प्यार क्या दुश्मनी में भी कोई जान न दे और न ले कभी ।

मरने वाला क्यों मरा  , किसके कारण जान दी उसने । जो जीवित है वह बखूबी जानता है परन्तु सत्य कभी उजागर नहीं होता और दोष मरने वाले पर ही मढ़ दिया जाता है कि वह स्थिति का सामना नहीं कर पाया या भावुक था या सबसे सरल बात होती है कि उसके अंदर ऐसी प्रवृति थी । दुःख होता है मरने के बाद भी मरने वाले की ही छीछालेदर होती है । 

गुरुवार, 24 मार्च 2016

" लग जा गले कि फिर ........"


प्रकृति में जीवन है ,इसे प्रतिपादित करने के लिए ईश्वर ने मनुष्य को जीवन दिया । मनुष्य के कण कण और रोम रोम में जीवन ऊर्जा प्रवाहित होती रहती है । इस ऊर्जा का संचार और इसकी मात्रा मनुष्य के हृदय से ही नियंत्रित होती है । एक प्रकार से प्रत्येक मनुष्य चलता फिरता एक ऊर्जा-स्रोत है ।

कभी कभी परिस्थितिवश किसी मनुष्य के हृदय में खिन्नता , दुःख अथवा ग्लानि उत्पन्न हो जाती है । ऐसे में उसे तत्काल एक अन्य ऊर्जा  स्रोत की आवश्यकता होती है ,जिससे वह अपने क्षय की प्रतिपूर्ति कर सके । ऐसे में यदि इस व्यक्ति को कोई अपने गले से लगा कर ढाढस बंधा देता है तो वह व्यक्ति पुनः ऊर्जा से संचरित हो कर नई उमंग से जीवन जीने को तत्पर हो जाता है । गले से लगा कर आलिंगन बद्ध कर कुछ क्षणों के लिए उस व्यक्ति को ऐसे ही अपने पाश में बांधे रखना चाहिए , इससे वह व्यक्ति तत्काल संजीवनी बूटी सा प्राप्त कर लेता है । इसी के सन्दर्भ में एक पुराना गाना है , जिसमे अभिनेत्री स्वयं उदास होने के कारण किसी के गले लगना चाहती है ।


गले लगाते ही दुखी व्यक्ति को अत्यंत सुकून और भरोसा मिलता है ,जिससे वह एक भयंकर निराशा के मकड़जाल से मुक्ति पा लेता है ।

जब दो  लोगों में परस्पर प्रेम होता है , तब इसकी अभिव्यक्ति भी गले लगा कर ही की जाती है । प्रायः प्रेम की अभिव्यक्ति करने में संकोच / विलम्ब में यह अवसर निकल जाता है और बाद में पश्चाताप होता है । जिनसे प्रेम होता है उन्हें गले लगाने में देर नहीं करनी चाहिए नहीं तो कुछ इस गाने जैसा न हो जाए ।



होली अथवा ईद पर परम्परा है ,आपस में गले मिलने की , जिसमे व्यक्ति बस औपचारिकता निभाने के लिए अनमने  भाव से सामने वाले से गले मिल लेता है । अच्छा तो तब होता है जब दोनों गले मिलने वाले लोग पूरी बाँहे खोल कर एक दूसरे को अच्छे से सीने से  भींच कर सामने वाले की पीठ पर हाथ का दबाव देते हुए गले मिले । परन्तु ऐसा नहीं होता । अब तो इन अवसरों पर गले मिलने से पहले व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति का दर्जा , कपड़ा और स्तर देखता है और अनमने भाव से अपने से निम्न आर्थिक स्तर के व्यक्ति को अनदेखा  कर देता है । कुछ लोग तो बिना बांहे खोले ही  कंधे टकरा कर बस गले मिलने की रस्म अदायगी  कर लेते हैं ।

अब बात गले पड़ने की भी हो जाए । जब न चाहते हुए भी कोई जान पहचान  वाला या अनजान व्यक्ति अपनी समस्या सामने वाले के सिर कर दे और यह जानने की चेष्टा भी न करे कि वह व्यक्ति अपनी समस्या से कहीं सामने वाले को संकट में न डाल दे । इसी स्थिति को गले पड़ना भी कहते हैं । न चाहते हुए भी दूसरे की मुसीबत से सामना ही गले पड़ना कहलाता है ।

                       "दोगलों की भीड़ में सच्चे दो गलों से मिलना हो जाए अगर प्यार से तो जनम सफल हो जाए । "


बुधवार, 23 मार्च 2016

" वक्त के रहल पे..........."

अक्स कुछ यूँ था उनका कि उनसे रश्क हो गया,
न जाने कब उन्हीं से क्यूँ तब इश्क हो गया ।

आँखों ही आँखों में उस दिन जब इज़हार हो गया ,
सुर्ख गाल उनका खुद इश्के-इश्तिहार हो गया ।

नज़रें मिली उन शोख नज़रों से जब मेरा तो वुज़ू हो गया ,
उनसे इश्क थी इबादत मुझको इश्क अब इबादत से हो गया ।

कल ख्वाब की नींद में एक गुनाह ख्वाहिश सा हो गया ,
पलकों को उनकी चूम लबों से एक दास्ताँ लिख गया  ।

चंद अल्फ़ाज़ थे या थे कुछ हर्फ़ ,सब न जाने कहाँ खो गया ,
वक्त के रहल पे एहसास उनका एक किस्सा सजा  गया ।

रविवार, 3 जनवरी 2016

"अज्ञात ही ज्ञात है ,ज्ञात तो अज्ञात है .......|"


इतना हो ज्ञात अगर ,
कि अज्ञात क्या ,
रातें सारी जाग लीं ,
फिर सुबह क्या ,
दुश्मन भी हॅंस दिए ,
फिर दोस्त क्या ,
मिथ्या यह शरीर ,
फिर जगत क्या ,
ताकता तो है न ,
वह प्यार से ,
फिर गूढ़ क्या ,
और अवसान क्या ।