रविवार, 16 जून 2013

"स्कूल कैसा हो ........तृतीय भाग "


'कन्वर्जिंग ट्रैफिक' का बोर्ड प्रायः दिख जाता है ,बड़े शहरों में ,जहां अनेक सडकें आते आते कुछ कम सडकों में विलीन हो जाती हैं । यहाँ जो ट्रैफिक प्रारम्भ से ही मुख्य धारा में आ रहा होता है वह बड़ी सरलता से आगे निकल जाता है जबकि बायें /दायें से आने वाले ट्रैफिक को बहुत प्रतीक्षा तो करनी ही पड़ती है ,उनकी गति भी अत्यंत कम हो जाती है । 

ऐसा ही कुछ दिखाई पड़ता है ,जब बच्चे कक्षा १० उत्तीर्ण कर कक्षा ११ में प्रवेश हेतु स्कूल का चयन करते हैं । बहुत अधिक संख्या में बच्चे दसवीं कक्षा उत्तीर्ण कर नामी गिरामी स्कूलों में प्रवेश पाना चाहते हैं परन्तु संख्या अधिक होने के कारण प्रायः मन वांछित स्कूलों में प्रवेश नहीं हो पाता या होता भी है तो मन पसंद विषय नहीं मिल पाते । जबकि जो बच्चे दसवीं में बहुत अच्छा परिणाम प्राप्त किये होते हैं या पहले से ही अच्छे स्कूलों में होते हैं वे मुख्य धारा के ट्रैफिक की तरह तीव्र गति से आगे बढ़ते रहते हैं । 

कक्षा ११ में स्कूल के चयन से पहले आवश्यक है विषयों का चयन और विषयों के चयन से पहले आवश्यक है ,बच्चे की क्षमता ,पसंद और लगन का आकलन । प्रत्येक माँ-बाप को अपने बच्चे की क्षमता और प्रतिभा का एकदम सही आकलन लगभग रहता है ।कक्षा दस तक आते आते बच्चे की पढ़ाई करने की क्षमता ,लगन और रुझान लगभग स्पष्ट हो ही जाता है ।अमूमन हर माँ-बाप अपने बच्चे को विज्ञान के विषय दिलाकर ही उसे आगे पढ़ाना चाहते है जो कि कतई उचित नहीं है । गणित और विज्ञान अगर उसे समझ में नहीं आता या उसे रूचिकर नहीं लगते तब यह निश्चित समझ लें कि ट्यूशन लगा कर उस बच्चे को कभी भी अच्छे बच्चों के बराबर नहीं लाया जा सकता । 

किसी भी स्कूल के परिणाम या वहां से निकलने वाले बच्चों के करियर को देखे तो पता चलता है कि बीस से पचीस प्रतिशत बच्चे ही विज्ञान के विषयों को आगे ले जा पाते हैं ,अन्य बच्चे फिर आर्ट्स या क़ानून की तरफ ही रुख कर लेते हैं । यदि कक्षा ११ के प्रारम्भ में विषय चुनते समय ही क्षमता अनुसार सही विषय चुने जाएँ और उसी के अनुसार स्कूल भी चुना जाए तब बच्चे का रुझान और लगन दोनों बने रहते है और ऐसे बच्चे आगे चल कर बहुत अच्छे परिणाम देते हैं । 

शिक्षा के इस भाग के लिए स्कूल का चयन कुछ इस प्रकार करें :

१. कक्षा दस तक के स्कूल को बिना आवश्यक कारण के परिवर्तित न करें । स्कूल बदलने पर बच्चे पर नए स्थान का मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ता है ।  

२.स्कूल के चयन से पहले वहां से उत्तीर्ण हुए बच्चों के विषय में जानकारी प्राप्त करें । भले ही बारहवीं में उनके अंक अच्छे रहे हों परन्तु उन बच्चों ने विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में कैसा प्रदर्शन किया ,यह अधिक महत्वपूर्ण है ।  

३ . आजकल कुछ स्कूल निजी कोचिंग संस्थानों से 'टाई -अप' कर लेते हैं । यह भी अच्छा प्रयोग है । इसमें बच्चे को स्कूल के समय में ही गुणवत्ता की शिक्षा मिल जाती है । उसके लिए उसे अलग से समय नहीं निकालना पड़ता है । अपनी आवश्यकता के अनुसार जहां जैसी कोचिंग हो और विगत में उसके परिणाम अच्छे रहे हो उसी के अनुसार स्कूल का चयन करना चाहिए । 

४. स्कूल ऐसा हो जहां छात्रवृत्ति / विभिन्न ओलम्पियाड / सामान्य ज्ञान /विज्ञान की प्रतियोगिताएं प्रायः आयोजित की जाती हो एवं वहां के बच्चे इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हों । 

५ .कक्षा ११ / १२ में पढ़ाई से अधिक आवश्यक है परीक्षाएं , छोटे छोटे पाठ पूर्ण होते ही उन पर आधारित विभिन्न प्रकार के प्रश्नावलियों से भी बच्चों को प्रायः सामना कराया जाना अत्यंत आवश्यक है । 

६.इस दरमियान बच्चा पढ़ाई से जूझता हुआ दिखाई पढ़ना चाहिए । कठिन परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है । 

७.समय समय पर बच्चे की क्षमता का आकलन किया जाना चाहिए । जिस विषय में वह कमजोर दिख रहा हो उसके शिक्षक से मिलकर गंभीरता से विचार विमर्श कर समाधान किया जाना चाहिए । 

८. इस स्तर पर आकर विषय के बारे में ज्ञान होने के साथ साथ आवश्यक है परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करना क्योंकि बच्चे को कितना भी अच्छा ज्ञान उस विषय का क्यों न हो परन्तु परीक्षा /प्रतियोगी परीक्षा में तो अंक ही निर्धारित करते हैं कि कौन श्रेष्ठ है । अतः स्कूल में परीक्षा में कम समय में कैसे अधिक अंक प्राप्त किया जाय इस पर भी बल दिया जाना चाहिए । 

९.बच्चे के जीवन का यह वह काल है जब बच्चा गलत संगत में पड़कर सही रास्ते से विमुख हो सकता है । अतः स्कूल में अनुशासन बहुत सख्त होना चाहिए और माँ-बाप को इस समय अपने बच्चे की हर गतिविधि पर नज़र रखने की आवश्यकता होनी चाहिए । प्रायः अपने बच्चे की बुराई सुनकर माँ-बाप यह कहते सुने जाते हैं कि उनका बच्चा ऐसा नहीं कर सकता और फिर वे बच्चे ही आगे चलकर बिगड़ जाते हैं । अगर कोई सूचना अपने बच्चे के बारे में मिलती है तब उस पर गौर कर उसकी सच्चाई का पता लगाना चाहिए और आवश्यकता के अनुसार बच्चे के साथ उस सम्बन्ध में दृढ़ता से बात करनी चाहिए । 

१०.इस अवस्था में स्कूल में शिक्षकों को बच्चे में आत्मविश्वास स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए ।      
कक्षा १२ तक आते आते बच्चे वयस्क हो जाते हैं । उनसे दोस्त बनकर उनकी उम्र में खुद को ढाल कर उनकी मनोदशा को समझते हुए ही उनसे व्यवहार कर उन्हें समझना और समझाना चाहिए । यह अवस्था अत्यंत नाजुक होती है । 

माँ-बाप को अपने बच्चों से बहुत अपेक्षाएं होती है और उससे अधिक दबाव उन बच्चों पर उन अपेक्षाओं पर खरा उतरने का होता है । 

चुने हुए सही विषय / लगन /परिश्रम इन तमाम बच्चों के आगे के भविष्य को संवार सकते  है और यही बच्चे आगे चल कर डाक्टर /इंजीनियर /कानूनविद /प्रशासनिक सेवक /उद्योगपति /वैज्ञानिक और न जाने क्या क्या बन सकते हैं । 

रविवार, 9 जून 2013

"स्कूल कैसा हो ........द्वितीय भाग "



..........कक्षा ६ में आते आते बच्चा समझदार हो जाता है । कक्षा ६ से कक्षा १० तक की पढ़ाई के दौरान ही बच्चे की अभिरुचि विकसित और परिलक्षित होती है । विज्ञान और गणित की कठिन पढ़ाई शनै शनै सामने आने लगती है । ऐसे में स्कूल ऐसा हो जहाँ शिक्षक बच्चे के कोमल मस्तिष्क में उपजे कौतूहल और असमंजस को सरल विधि से शांत कर सकें । अधिकतर बच्चे पढ़ाई में मन लगाते हैं और हमेशा अव्वल भी रहना चाहते हैं परन्तु जैसे ही उनके मन में किसी विषय / प्रश्न को लेकर दुविधा की स्थिति उत्पन्न होती है ,वह तत्काल उसका उत्तर पाना चाहते हैं । ऐसे में अगर स्कूल या घर में उन्हें उसका हल न मिला तब धीरे धीरे उस विषय से वह विमुख होने लगते हैं । बच्चे वही विषय सबसे अधिक पढ़ते हैं जो उन्हें सरलता से समझ में आ जाता है । रूचि बाद में पनपती है ,पहले विषय की सरलता ही उन्हें आकर्षित करती है । 

ऐसे में अगर शिक्षा के इस भाग के लिए स्कूल ऐसा हो तो बेहतर है :

१.शिक्षक बच्चों को किसी भी नए विषय को सरलता से समझाते हुए उसके प्रति रूचि उत्पन करें ।  

२.समय समय पर बच्चो से उनकी रूचि की जानकारी ली जाए और जिस विषय में सबसे कम रूचि हो ,उस विषय के शिक्षक के पढाने के तौर तरीकों की स्कूल प्रशासन द्वारा समीक्षा की जाए । 

३.कक्षा ८ से कक्षा १० तक के विषयों की अत्यंत गंभीरता से और समग्रता में पढ़ाई कराई जानी चाहिए । अंक प्राप्त कर लेने के उद्देश्य से पढ़ाई कभी नहीं कराई जानी चाहिए । 

४ . स्कूल चुनते समय उस स्कूल से पढ़ कर निकले हुए बच्चों के बारे में पता कर लें कि उन्होंने आगे क्या हासिल किया । अनेक स्कूल अपने यहाँ से पढ़े हुए बच्चों के रिज़ल्ट डिस्प्ले कर देते हैं ,जिसमे हर बच्चा ९५ प्रतिशत से अधिक अंक पाया हुआ होता है । ऐसे परिणाम एकदम व्यर्थ हैं अगर वह बच्चा किसी प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो पाता । 

५.जिन स्कूलों में होम वर्क बहुत अधिक मिलता है ,उन बच्चों के माँ बाप यह समझ कर बहुत प्रसन्न होते हैं कि उस स्कूल में बहुत अच्छी पढ़ाई होती है । जबकि होता बिलकुल इसके विपरीत है । कक्षा ८ तक तो होम वर्क अत्यंत न्यूनतम होना चाहिए । पढ़ाई का ढंग स्कूल में ही ऐसा हो कि बच्चे को सब समझ आ जाए और सारे अभ्यास कक्षा में ही पूरे हो जाएँ । 

६.बच्चों को पढ़ाने के दौरान मैंने अक्सर एक प्रयोग यह किया था कि मैं उनसे किसी भी विषय को पढ़ाने के बाद उनसे उस पाठ के बारे में प्रश्नपत्र बनाने को कहता था और चैलेन्ज यह होता था कि ऐसा प्रश्न पूछना कि जिसका उत्तर मैं भी न दे पाऊं । इस चैलेन्ज के चक्कर में वह अत्यंत बारीकी से पाठ पढ़ते थे और वो अपने प्रश्नों से प्रायः चैलेन्ज जीत लिया करते थे और आनंद तो सर्वाधिक तब होता था जब उनकी कल्पना के ही प्रश्न परीक्षा में आ जाते थे । स्कूलों में भी ऐसे प्रयोग किये जाने चाहिए । 

७.जिस स्कूल में कक्षा के अतिरिक्त शिक्षक से निजी तौर पर पढने को प्रेरित किया जाए ,ऐसे स्कूल में बच्चे को कभी न पढ़ाएं । शिक्षक ट्यूशन के नाम पर पैसा कमाने के उद्देश्य से कक्षा में ठीक से नहीं पढ़ाते और अपने उन ख़ास बच्चों को प्रायः परीक्षा में आने वाले प्रश्नों को 'इम्पोर्टेन्ट' के नाम पर 'आउट' भी कर दते हैं । बच्चे के अंक तो फिर अच्छे आने ही हैं और माँ-बाप समझते है उनका बच्चा बहुत अच्छा कर रहा है । आगे जाकर फिर ऐसे ही बच्चे निराश होते है और अपने माँ बाप को निराश करते भी हैं । 

८.विषय कितना भी दुष्कर हो उसमे रूचि उत्पन्न कर उसे अत्यंत सरल तरीके से पढ़ाया जाना चाहिए । इस अवस्था में बच्चा अपने विज्ञान के शिक्षक को सबसे अधिक विद्वान और ग्यानी समझता है ,और जो शिक्षक सरलता के स्थान पर उसे कठिन तरीके और भाषा से पढ़ाते हैं उनसे तो बच्चे भयभीत भी रहते हैं और उनसे कुछ भी पूछने का साहस नहीं कर पाते । बच्चे के मन में यह विश्वास होना चाहिए कि वह कितनी भी बेवकूफी की बात क्यों न पूछे ,उसे उसके प्रश्न का समाधान बगैर खिल्ली उडाये उसके शिक्षक द्वारा मिल जाएगा । विज्ञान और गणित तो संसार को सरल तरीके से समझने में सहायता करते हैं अगर यह विषय ही कठिन लगेंगे तब बच्चे इन्हें अपने आगे के जीवन में प्रयोग में कैसे लायेंगे । 

९.शिक्षा के इस भाग में स्कूलों में अनुशासन अत्यंत कठोर तरीके से लागू किया जाना चाहिए । समय का महत्व ,परस्पर मदद की भावना , शिक्षकों का सम्मान ,सत्य बोलना इन सब बातों पर कड़ाई से जोर दिया जाना चाहिए । 

१०.शिक्षकों को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे उनकी बातों को अत्यंत गंभीरता से लेते हैं और उनके आचरण को प्रायः आदर्श मानते है । घर में माँ -बाप कोई बात कितनी भी प्रबलता से कहे वह नहीं मानते और अगर वही बात स्कूल में शिक्षक कह दें तब उसे बच्चे गाँठ बाँध लेते हैं । 

               "बच्चे के भविष्य निर्माण के लिए सबसे महत्पूर्ण काल इसी भाग में निहित है । "          

बुधवार, 5 जून 2013

"............निशब्द "


'जिया' से और क्यों जिया न गया ,


दर्द शायद दिल में पिया न गया ,


ज़ख्मों से उधड़ा जिस्म इस कदर ,


आंसुओं से भी सिया न गया ,


क्यों चले जाते हैं दुनिया से ऐसे लोग ,


जवाब खुदा से भी न कभी दिया गया ||


                       
                                      "अल्लाह से भी रहा न गया तुम्हारे प्यार के बगैर शायद .......जो तुम्हें यूं मजबूर कर दिया "

रविवार, 2 जून 2013

" स्कूल कैसा हो ...............प्रथम भाग "


बच्चों की शिक्षा के चार भाग कहे जा सकते हैं :

१. नर्सरी से कक्षा ५ तक -प्रथम भाग 
२. कक्षा ६ से कक्षा १० तक -द्वितीय भाग 
३. कक्षा ११ से कक्षा १२ तक -तृतीय भाग 
४. जीवन यापन हेतु शिक्षा -अंतिम भाग 

इस पोस्ट में चर्चा प्रथम भाग की :

बच्चे की प्रथम किलकारी के साथ ही माँ बाप उसके सुनहरे भविष्य के सपने संजोने लगते हैं । अब तो दो या तीन वर्ष की आयु होते ही स्कूलों में प्रवेश की मारा मारी प्रारम्भ हो जाती है । आज की तारीख में स्कूल एक उद्योग की तरह पनप रहा है । स्कूल वालों को आपसे या आपके बच्चे से कोई सरोकार नहीं । वे भी समाज में स्थापित सबल और प्रभावशाली लोगों के बच्चों को अपने यहाँ प्रवेश दे कर अपनी ब्रांड वैल्यू बढाते हैं । आम आदमी इन्ही के चक्कर में पड़कर ऐसे स्कूलों के पीछे पड़े रहते हैं और दाखिला न मिलने पर मायूस खुद भी होते हैं और बच्चों के भाग्य को भी कोसते हैं ।  

छोटे से नन्हे मुन्नों का स्कूल कैसा भी हो ,पर ऐसा भी हो :

१. स्कूल घर से बहुत दूर न हो । इससे बच्चे की नींद भी पूरी होगी और आपकी भी । 
२. स्कूल में नैतिक शिक्षा ,अनुशासन ,व्यवहार और भाषा की शुद्धता पर विशेष ध्यान हो । 
३. क्लास छोटी छोटी हों । जिससे टीचर प्रत्येक बच्चे को नाम से जानते हों । 
४. बच्चा स्कूल से लौटने पर आपको उत्साहित मिले , वहां की बातें बताने को ,न कि आते ही अगले दिन जाने को मना करने लगे । 
५.साथ के बच्चे आर्थिक रूप से अत्यंत संपन्न परिवारों से हो सकते हैं ऐसे में स्कूल का दायित्व है कि अन्य साधारण बच्चों में अभाव की प्रवृत्ति कदापि न आने पाए । 

स्कूल में तो बच्चा मात्र ६ घंटे गुजारता है । शेष १८ घंटे स्कूल के बाहर बीतते हैं । अतः स्कूल से अधिक उत्तरदायित्व माँ बाप का होता है । ध्यान रहे स्कूल कैसा भी हो, बस कुछ सावधानियां आप भी बरते :

१. बच्चों के आगे स्कूल या टीचर की बुराई कभी न करें । 
२. प्रत्येक पी टी एम में अवश्य जाएँ और टीचर को ध्यान से सुने । उसकी बातों को इग्नोर कर अपनी बातें न थोपे । आपके बच्चे का भविष्य उसी के हाथों में हैं । अच्छे टीचर बच्चे के भावी गुणों को अपने अनुभव से शीघ्र जान लेते हैं । 
३. अगले दिन के स्कूल के लिए स्कूल बैग बच्चे से ही लगवाएं , वह कितना भी छोटा क्यों न हो ।इससे उसे अपने विषयों को पहचानने और पुस्तकों को पहचानने में मदद मिलेगी और आपका भी भरोसा उस नन्हे से बच्चे पर बढ़ता जाएगा । 
४. स्कूल से लौटने के बाद बच्चे की हर बात ध्यान से सुने । बात सार्थक हो या निरर्थक हो ,उसे समय और महत्त्व दें । 
५. बच्चे को रात्रि को जल्दी सुला दें ,सबेरे कभी उठाने में परेशानी नहीं होगी । 
६. अपना रूटीन भी बच्चे के रूटीन के अनुसार बना लें । 
७. बच्चे को स्कूल ले जाने वाले रिक्शे / ऑटो / बस का रूट आपको मालूम होना चाहिए । कभी कभार उसके पीछे पीछे भी जायें कि वह बच्चों को किस प्रकार हैंडल करता करता है और कैरी करता है । 
८.रिक्शेवाले / ऑटो वाले को जरूरत पड़ने पर भी डांटना अवाइड करें । आपके गुस्से का प्रतिकार वह बच्चे के साथ गलत व्यवहार से निकाल सकता है । 
९.बच्चे को होम वर्क कराते समय या पढ़ाते समय यह जानने की कोशिश करे कि वह कहाँ अटक रहा है । 
१०. याद करने वाली चीजों को सरल कर रोजमर्रा की घटनाओं से जोड़कर याद कराने की कशिश करें । 
११.बातचीत के दौरान बच्चा अपनी समझ से चीजों को समझाना चाहता है । उसे भी ध्यान से सुने और उसकी जिज्ञासा को शांत करने का सही प्रयास करें न कि ट़ाल दें । 
१२.आप किसी भी उम्र के क्यों न हो ,बच्चों को पढ़ाने के दौरान आप भी बहुत कुछ नया सीख सकते हैं । 

" मुझे बताने में कोई लज्जा नहीं है कि मेरी प्रारम्भिक पढ़ाई एक अच्छे कान्वेंट स्कूल में हुई थी और मुझे पहाड़े अंग्रेजी में सारे बखूबी याद थे ।' टू वन ज़ा टू' से लेकर 'टवेंटी टेन ज़ा टू-हण्ड्रेड' तक एकदम रटा पड़ा था परन्तु यह "ज़ा " क्या बला नहीं पता था । जब अनिमेष को पढ़ाने के लिए नर्सरी की टेबल की किताब देखी तब मुझे समझ आया कि अंग्रेजी के पहाड़े किस तरह टेक्स्ट फ़ार्म में लिखे जाते हैं ,जिन्हें हम लोग रट मारते थे और सच बात तो यह है कि जब यह राज़ खुला "ज़ा " वाला ,फिर जिस किसी से भी मैंने पूछा ,सही कोई न बता पाया । कुछ इस तरह होते हैं अंग्रेजी के पहाड़े : (हो सकता हो लोग जानते हो यह बात ,परन्तु मुझे नहीं पता थी ,इसीलिए शेयर कर रहा हूँ )   

two ones are two
two twos are four
two threes are six
...............................

किसी भी स्कूल के सारे बच्चे बहुत अच्छा नहीं करते । प्रत्येक स्कूल के कुछ बच्चे बहुत अच्छा करते हैं । प्रारंभिक स्कूल बहुत अच्छा मिल जाना इस बात की गारंटी कदापि नहीं है कि आपका बच्चा भविष्य को लेकर सुरक्षित हो गया है । 

बच्चों में अपार क्षमता होती है और प्रत्येक बच्चा यूनीक होता है ,उसकी इसी यूनीकनेस को बगैर ख़त्म किये बस उसे समझने की कोशिश करें और प्यार की थपकी दें ,वह बदले में आपको सितारे लाकर दे देगा आसमान से । 

"शिक्षा के द्वितीय भाग का स्कूल कैसा हो, अगली पोस्ट में ......"