शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

" कुछ यूँ भी ........."

       
          बचपन में आड़ी तिरछी रेखाएं खींचते खींचते कब और कैसे अक्षर ज्ञान हो जाता है और पता भी नहीं चलता है  ,बस उसी प्रकार एक दूसरे के चेहरे की लकीरें और भंगिमाएं देखते देखते हम दोनों  के हृदय में कब कवितायेँ जन्म लेने लगी ,भान  ही नहीं हुआ । आकर्षण , विकर्षण , उपेक्षा , अपेक्षा , वीतराग ये कुछ कारक हैं जो कविताओं को प्रस्फुटित करते हैं  । समर्पण की पराकाष्ठा ही शायद उपेक्षा के बीज अंकुरित करती है , और कविता को विस्तार भी यहीं से प्राप्त होता है ।
          "प्रेम की प्रकृति" जब अनिश्चय के भाव उत्पन्न करती है तब "प्रकृति प्रेम" उपजने लगता है । यह कवितायेँ कभी परस्पर प्रेम को परिभाषित करती हैं तो कभी एकाकीपन को जीने का सम्बल बनाती दिखती हैं ।
           समुद्र के किनारे रेत का घरौंदा भी बच्चे बनाते हैं तो चाहते हैं कि कभी वह घरौंदा मिटे नहीं । अपने लेख , कवितायेँ एक पुस्तक का स्वरूप ले लें और एक कृति बन जाये ,  ऐसा कौन नहीं चाहता । परन्तु संकोच यह होता है कि इतने बड़े बड़े लेखकों और कवियों की पुस्तकों के बीच शायद हम पहचान न बना पाएं । यही संकोच हमें भी था । पर  मुकेश सिन्हा  ने इस संकोच को इस पुस्तक के रूप में बहुत सहजता से परिवर्तित कर दिया ।
           बड़ी बड़ी इमारतों के सामने छोटे छोटे घरौंदे  ज्यादा देर टिक तो नहीं पाते परन्तु जब तक आँखों के सामने रहते हैं , लुभाते बहुत हैं । आप सबको यह कवितायेँ तनिक सा लुभा पाएं , बस इतना सा ख्वाब है और यह पूरा हो जाये , बस यही ख्वाहिश है ।
           कविताओं का सृजन मन को तरल भी करता है और सरल भी । शब्द भीतर रहते हैं तो सालते रहते हैं  ,  मुक्त होते हैं  तो साहित्य बनते हैं ।
           पुस्तक के आकर्षक आवरण का पूरा श्रेय हिंदी युग्म की टीम को जाता है जिन्होंने इसे इतने सुन्दर कलेवर कलेवर में प्रस्तुत किया है । अंत में सभी मित्रों का विशेष रूप से आभार , जिन्होंने समय समय पर हम दोनों की रचनाओं को सराहा और पुस्तक के रूप में संकलित  करने को प्रेरित किया ।

                                                                                                                                        --निवेदता अमित

रविवार, 22 नवंबर 2015

"कतरन .."

किसी भी सिस्टम की एफिशिएंसी 100 प्रतिशत नहीं हो सकती । सरल भाषा में एक किलो गेहूं से एक किलो आटा नहीं बन सकता । किसी कपड़े से पोशाक सिलने के उपरांत कुछ कतरने अवश्य शेष रहती हैं । रसोई में व्यंजन बनाने में भी कुछ सामग्री निष्प्रयोज्य रह जाती है । भवन निर्माण में समस्त क्रय की गई सामग्री उसमे अर्थपूर्ण रूप में प्रयुक्त नहीं होती । अब अगर कोई इन कतरनों या अप्रयुक्त सामग्रियों को देख कर उसकी अनुपयोगिता सिद्ध करता है तो यह गलत होगा ।
इसी प्रकार मस्तिष्क में उपजे भावों को शब्द रूप देने में कुछ शब्द कतरन के तौर पर शेष रह जाते हैं । अब अगर त्रुटिवश पहले यह कतरने ही किसी के समक्ष प्रस्तुत हो जाएं तो तत्काल उसे अनुपयोगी मान निरर्थक साबित करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए । प्रयास होना चाहिए यह देखने का कि शब्दों की कतरने किन भावनाओं को लिपिबद्ध करने के उपरांत शेष रह गई हैं ।

शनिवार, 14 नवंबर 2015

" बचपन......"


तितलियाँ भी,
खुद अँगुलियों में ,
जहाँ कैद होना चाहे ,
वहां बचपन होता है ।
नींद में जब ,
होंठ मुस्कुराएं ,
वहां बचपन होता है ।
शब्द जहाँ स्वयं ,
तुतलाना चाहें ,
वहां बचपन होता है ।
दूसरे के दर्द से ,
जब आंसू आ जाये ,
वहां बचपन होता है ।
ईद की सिवईयाँ ,
जेब में भर जब ,
रहीम राम को खिलाये ,
वहां बचपन होता है ।

"बचपन की मियाद जितनी , खुशियों की मियाद उसकी दुगनी तिगनी । "

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

" चौबीस खिड़कियाँ ..........."



1. पहले लोग घरों में खिड़की बनवाते हैं , फिर उन्हें बंद कर परदा और लगा देते हैं । बंद खिड़की दबी जुबान सी होती है ,जो बहुत कुछ कहना चाहती है । कभी कुछ कहने की कोशिश भी करती है तो उस खिड़की की भ्रूण हत्या कर दी जाती है , कभी न खुल पाने के लिए ।

2. हर खिड़की के पीछे एक अक्स होता है । अक्स चंचल हो तो खिड़की भी चंचल दिखती है । कोई कोई खिड़कियां बहुत खूबसूरत होती हैं पर समय के साथ यह खिलखिलाती खिड़कियां भी सयानी हो जाती हैं और फिर अक्सर उदास ।

3. खिड़कियाँ होती हैं उजाला भीतर लाने के लिए , परंतु कुछ खिड़कियों से उजाला बाहर को आता है , भीतर से । ऐसी खिड़कियां उजली उजली सी होती हैं और हवा की हल्की थपकी से भी खुल जाती हैं खुद ब खुद ,खुश्बू भरा उजास बिखेरने को ।

4. खिड़कियों पर दहलीज की बंदिशें नहीं होती । दरवाज़े जरूर दहलीज़ पर ठिठके खड़े होते हैं । दरवाज़े जो इश्क में होते है , वे तमाम उम्र बस इसी दहलीज़ को लाँघने में जाया हो जाते हैं । फिर भी हर खिड़की की तमन्ना दरवाज़ा बनने की ही होती है पर ज्यादातर खिड़कियां रोशनदान बन समय के जाले में लिपट गुम हो जाती हैं ।

5. खिड़की के पल्ले बाहर खुले , गोया दोनों हाथ बढाकर कोई भींचना चाहता हो। चकित मैं देख रहा था खुली खिड़की को बाहर से , अकस्मात दोनों पल्ले भीतर की ओर पूरे खुल गए । अब लगा जैसे आगोश में भर लेना चाहता हो कोई । इसी कश-म-कश में पर्दे ने बढ़ कर चूम लिया खिड़की को हौले से ।

6. खिड़की खोलने में जरा सी देर हो जाये तो धूप का मनचाहा हिस्सा भीतर नहीं आता ।

7. दिलों की दास्तां हो या हो किस्से मकानों के , दरमियां इतना फासला तो हो कि खिड़की की गुंजाईश रहे ।

8. 'ज़बीबा' पांचों वक्त की इबादत का सबूत तो होता ही है पर कभी कभी शिद्दत से किसी के इंतज़ार में खिड़की पे टिके माथे पर भी उभर आता है गोया वह 'इंतज़ार' मोहब्बत नहीं 'इबादत' रही हो ,उसके लिए । 
(ज़बीबा- वह निशान जो पांचों वक्त की नमाज अता करने से माथे पर उभर आता है )

9. खिड़की पर देखा आज एक इंद्रधनुष बना हुआ । धूप के एक तिकोने से टुकड़े को साथ मिल गया था , नन्हे नन्हे से जलबिन्दुओं का , जो उभर आये थे खिड़की के कांच पर । कोई गुजरा था उस ओर , शायद भीगी जुल्फें झटकते हुए ।

10. नज़रें भी नज़ारे ढूंढती हैं । ऐसे में कोई खिड़की मुकाम बन जाये तो वह खिड़की फिर बड़ी देर से खुलती है ।

11. अचानक देखा कि खिड़की के शीशे पर तमाम रंग बिरंगी बिंदियाँ चिपकी हुई है । मैंने पूछा ,अरे यह क्या है । जवाब मिला ,तुम जब देर से आते हो न और मैं रास्ता निहारते निहारते थक जाती हूँ तो क्रोध में बिंदी माथे से निकाल यहाँ लगा देती हूँ। 
"श्रृंगार इंतज़ार में जाया हो जाया करता है" और "खिड़कियां वक्त का भी हिसाब रखती हैं " , जान चुका था मैं ।

12. अद्भुत दृश्य । पौ फटने को थी । उस बंद खिड़की के बाहर तितलियाँ मंडरा रही थीं । फिर वो खिड़की खुली और खिड़की का चाँद और आसमान का सूरज आमने सामने आ गए । चाँद की लाज देख सूरज स्वयं बादलों की ओट में हो गया । 
"समय के कैनवस पर भी एक क्षितिज होता है ,जहाँ चाँद और सूरज मिलते है आपस में "। क्षितिज तो काल्पनिक ही होते है न ।


13. पार्क में बच्चे रावण के पुतले में आग लगा रहे थे । पटाखे शोर के साथ रावण की धज्जियाँ उड़ा रहे थे । हर बच्चा राम बनना चाह रहा था । यह सारा दृश्य देख रही थी वह, खिड़की से बाहर टुकुर टुकुर । इधर खिड़की के भीतर पीछे से आवाज आ रही थी , खिड़की पर सारा दिन बैठ करती क्या हो , चलो सोडा और बर्फ लाओ और कुछ नमकीन भी ।
उधर का रावण मरने को था और इधर का जीने को है । उधर धज्जियाँ उड़ रही थी , इधर उड़ने को है ।
खिड़की के दोनों ओर रावण होते हैं पर राम शायद किसी ओर भी नहीं ।

14. खिड़की बंद करने के बाद भी पल्लों के बीच दरार से रोशनी भीतर आ रही थी । मेरे यह कहने पर कि बाहर से अभी भी दिखेगा , तुमने कहा था कि यह पल्लों के बीच दरार नहीं है , यह तो खिड़की की मांग है , जैसे तुम्हारे बालों के बीच एक सीधी सपाट सी मांग बनी रहती है । तुम कहो तो इस खिड़की की मांग भी भर दूं आज । फिर तुमने मेरी एक लाल सुर्ख चोटी टांग दी थी ठीक उसी दरार के ऊपर पल्लों के , लगा था जैसे लाल सुर्ख सिन्दूर भर दिया हो तुमने मेरी मांग में । 
"सपने जब हकीकत होते दिखे पर हकीकत में वो सपने ही हों तो दुःख होता है "। आज भी उस बंद खिड़की की मांग सूनी है । ( खिड़की पर बैठ कर लिखी गई एक अधूरी कहानी । )

15. घर बदल पाना खिड़कियों के नसीब में कहाँ होता है , पर चाहत तो उसकी भी होती है कि खिड़की किसी महल की ही बनूँ ।

16. दीपावली के आसपास की ही बात होगी । घर में पुताई चल रही थी । जिस खिड़की के पास बैठ कर मैं पढ़ा करता था उस खिड़की का प्लेटफॉर्म चौड़ा सा था । मैं अपनी किताबें कतार बना उसी पर रखता था । चूंकि खिड़की बाहर खुलती थी इसलिए किताबें गिरती नहीं थी । मैंने अपनी उस खिड़की के प्लेटफॉर्म को कली चूने में नील मिलवा कर बहुत हल्के नीले से रंग में रंगवाया था । हल्के आसमानी रंग के प्लेटफॉर्म पर सजी किताबें खुली खिड़की से यूँ लगती थीं जैसे किताबों की कतार का एक सिरा खिड़की पर और दूसरा आसमान में हो । 
उस शाम अचानक तुम भी उसी खिड़की पर आ कर बैठ गई थीं । दो प्याले चाय के मैं लेकर आया था और उसी प्लेटफॉर्म पर रख दिया था । जब प्याले उठाये चाय पीने के लिए तो देखा ,वहां दो छल्ले से बन गए थे ,प्याले के चाय लगे पेंदे से । तुम्हे बहुत अफ़सोस हुआ था कि साफ सुथरी नई नई रंग रोगन की गई खिड़की पर निशान पड़ गए थे ।
तुम्हारे जाने के बाद मैंने उस प्लेटफॉर्म पर अख़बार बिछा उस पर किताबें सजा दी थीं ।
आज मुद्दतों बाद यह खिड़की खोली और अख़बार हटाया तो देखा वो दोनों छल्लों के निशान , जो बन गए थे प्यालों से ,आज भी वहीं मौजूद है । "कुछ निशान अलिखित कहानियों के शीर्षक से होते हैं । " खिड़की पर बैठ लिखी गई एक अधूरी कहानी । 

17. अरसे बाद उन तंग गलियों से गुजरना हुआ । भुलाते भुलाते भी 'वह खिड़की' याद आ गई । नज़र उठा कर देखा तो बंद थी कुछ यूं ,जैसे बरसों से खुली न हो । खिड़की के बाहर एक छत्ता लटक रहा था शहद का । मन में हंसी आ गई कि यह मधुमक्खियां भी जानती है कि शहद बना बनाया कहाँ मिलेगा ।

18. "खिड़कियाँ" दूरबीन सी होती हैं । भीतर से बाहर देखने पर सब कुछ यथार्थ से बड़ा और बाहर से भीतर देखने पर यथार्थ अपने से भी छोटा ही दिखता है । इसीलिए खिड़कियों से लिए गए निर्णय भ्रामक होते हैं ।

19. वक्त के सफे पर ज़िन्दगी रोजनामचा लिखती रहती है । मैंने इस सफे पर हाशिये के बाईं ओर कुछ हिस्सा छोड़ रखा था तुम्हारे लिए , जो कोरा ही रह गया और वहां अब छाया रहता है बस गहरा सन्नाटा । "वक्त और पैसा जिसके लिए जुटाओ उस पर न खर्च हो तो दम घुटता है ।" आज अपनी आँखों से उलीच रहा हूँ जुटाया हुआ वक्त खिड़की से बाहर कि शायद जब वक्त ही न होगा तो ज़िन्दगी भी मायूस न होगी । इसी खिड़की से कभी लम्हा लम्हा चुरा वक्त जुटाया था हमने ।

20. अंग अंग श्रृंगार कर जब आइना देखा तो देखने वाली अपनी ही निगाहें उनकी सी नज़र आई और एक सिहरन सी दौड़ गई पूरे जिस्म में । माथे की बिंदी , कलाइयों में चूड़ियाँ , पांव में पायल , आँख में काजल ,होंठों पर लाली और न जाने कितने आभूषण ,इन सबसे स्वयं को अलंकृत करते समय इनके अनावरण का बोध भी होता रहता है जो कभी हाथों को शिथिल भी करता है कभी रोमांचित कर गति दे देता है । यह श्रृंगार आज फिर खिड़की खुली रख अपने चाँद का वरण करने को आतुर है । सौंदर्य के वरण और श्रृंगार के अनावरण का साक्षी सदियों से खिड़कियां ही तो रही हैं । कभी कभी इसे करवा चौथ भी कहते हैं ।

21. खिड़कियाँ गुल्लक सी होती हैं । कितना वक्त जमा कर लेती हैं अपने में धीरे धीरे। आज एक पुराना गुल्लक ऐसा ही हाथ में आया तो वक्त की अमीरी का एहसास करा गया ।

22. खिड़कियां बंद हों तो तारीखें आजाद रहती हैं और खुल जाएं तो तारीखें कैद हो जाती हैं । आज फिर एक तारीख कैद हो गई अरसे बाद उस खुली खिड़की में ।

23. कागज़ हो , दीवारे हों या हो वक्त , इनका सूनापन भरने के लिए बस आड़ी / बेड़ी लकीरें खींचता रहता हूँ , यहाँ वहां । यह लकीरों के चारखाने फिर खिड़कियों सा नज़र आने लगते हैं , जिनमे तुम्हारा ही अक्स उभर कर ठहर जाता है । फिर यह लकीरों की खिड़कियां , जैसे हों फ्रेम की हुई तस्वीर तुम्हारी , सारा सूनापन भर देती है और बरबस खींच देती हैं एक खुशनुमा लकीर मेरे चेहरे पर ।

24. अभी खिड़की खोल रहा था तो पल्ले कसमसा सा गए । जल्दी नहीं खुले । थपकी दे कर खोलना पड़ा । रात बारिश में भीग कर शायद दोनों आपस में मिल एक हो गए थे । "यह खिड़कियां भी न , वही याद दिला जाती है जिन्हें हम कब से भूले पड़े थे ।

रविवार, 20 सितंबर 2015

" अपनी बीबी की तारीफ ......."



अभी अभी पता चला कि आज अपनी बीबी की तारीफ करने का दिन है । 'सोशल मीडिया' पर बहुत 'एक्टिव' रहने में यह भी भय रहता है कि जो काम बाकी लोगों ने कर दिया और आपने नहीं किया या बाद में किया तो लगता है जैसे 'आई आई टी' में 'सेलेक्शन' तो हो गया पर 'रैंक' बहुत आखिर की आई ,यानी होना न होना बराबर । जैसे ही पता चला कि आज तारीफ़ करनी है ,अपनी बीबी की तो सोचने लगा (निवेदिता) अपनी बीबी के बारे में । मेरे अनुसार तारीफ जिसकी करनी हो वह एक अलग थलग दिखने वाला शख्स सा तो होना चाहिए । मैं तो इन्हे अलग कर देख ही नहीं पाता । जिसे अपनी तारीफ करना नहीं आता , वह अपनी बीबी की तारीफ नहीं कर सकता और मुझे आत्मप्रशंसा करना नहीं आता ।

अक्सर मैने अपने दोस्तों को अपनी बीबियों की तारीफ उनके सामने ही करते देखा है ,परन्तु मुझे लगता है जैसे वह किसी स्वार्थवश या दिखावे के तौर पर ही करते हैं और उस समय उनकी बीबियाँ भी मुझे असहज ही लगती हैं । यह बात और है कि मुझे सुनने को मिल जाता है कि एक आप हैं कि आपके मुंह से दो बोल नहीं फूटते , फिर भी मै चुप रह जाता हूँ । कैसे कहूँ कि मेरा विवेक ,मेरी शक्ति ,मेरा सामर्थ्य ( जो तुम हो ) बहुत अच्छा है ।

आज अवसर है तो  लिख कर ही तारीफ़ कर देता हूँ कि मेरे बेटों की माँ बहुत प्यारी है । तुम तो (मेरी बीबी ) मुझसे मानसिक तौर पर 'वाई फाई' से और 'ब्लू टूथ' से 'वेल कनेक्टेड' हो , अक्सर कुछ कहने से पहले ही सब समझ लेती हो और जहाँ तक बात एक दूसरे को अपनी नज़र में बसा कर रखने की है ,उसमे तो हमारी आँखें आपस में 'ऑप्टिकल फाइबर' से 'कनेक्टेड' ही है ,सपना भी रात को मैं देखता हूँ तो सुबह उसे बताती तुम हो ।

यूँ ही खिलखिलाहट बनी रहे ,क्योंकि इसी खिलखिलाहट को देख कर ही 'हम तीनो' भी खिल उठते हैं । 

रविवार, 14 जून 2015

" सिफ़र से शिखर तक ......."

यह किताब एक आत्मकथा है ऐसे शख्स की जो हर उस ऊंचाइयों  में लिपटा हुआ है जिसकी चाहत भी शायद बिरले ही कर पाते होंगे । उत्तरप्रदेश पावर कॉर्पोरेशन में सहायक अभियंता के पद से प्रबंध निदेशक तक के पद की उनकी यात्रा तमाम संघर्ष , जिम्मेदारियों और चुनौतियों से भरी हैं ।



इसी किताब से -"पिता से भगवान राम की कहानियां सुनते ,भैस चराते और पेड़ों से आम तोड़ते मैंने कोचवा के स्कूल से पांचवी कक्षा तक की पढाई पूरी की । "


इसी किताब से --पिता के साथ गांव के गलियारे से गुजरते हुए मैंने एक छोटी सी बच्ची को देखा जिसका शरीर कुपोषित था,बदन पर कोई कपडा नहीं था , बाल उलझे हुए थे और उसकी नाक बह रही थी । मैं उसके लिए और कुछ नहीं तो इतना तो कर ही सकता था कि बिना घिनाये उसकी बहती हुई नाक अपनी अँगुलियों में लेकर उससे दूर फेंक दूँ । मैंने ऐसा ही क्या । पिता मुझे ऐसा करते बड़े गौर से देख रहे थे । मेरी अँगुलियों में लसटा  गन्दा-गन्दा पोटा देख कर पिता ने कहा -'अच्छा बहुत गांधी न बनो ।'


इस किताब को एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद आप बिना पूरा पढ़े इसे छोड़ना नहीं चाहेंगे । 


इस किताब का लोकार्पण माननीय मुख्यमंत्री जी श्री अखिलेश यादव जी द्वारा आदरणीय मशहूर शायर मुनव्वर राणा साहब की उपस्थिति में किया गया था । 

" अपनी बेपनाह मसरूफ़ियतों के बावजूद ताजादम रहना, पराये ग़मों की चादर ओढ़े हुए मुस्कुराते रहना दुश्वार है लेकिन 'सिफर से शिखर तक' के शिल्पकार का यही तो हुनर है कि वह जंगली फूलों से शहर को आबाद करना जानता है । अँधेरे से जंग करते हुए उसे कई दहाइयां गुजर गईं हैं लेकिन आज तक न तो उसके हाथों में कंपकपाहट है और न चेहरे पर थकान । यूं तो कुछ लोग किताब लिखते हैं और कुछ खुद किताब होते हैं । उनके जीवन का हर एक दिन एक वरक होता है और हर बरस एक दास्तान । " ---मुनव्वर राणा 


(लोकभारती प्रकाशन से नयी दिल्ली पटना इलाहबाद कोलकाता से प्रकाशित , मूल्य -रु २०० )

शनिवार, 30 मई 2015

" चाँदी का वर्क ....."


आहिस्ता से भीतर आई ,
एक मंद बहार सी तुम ,
ख्यालों में कुछ और था ,
बेख्याली में दखल तुम ,
लफ्ज़ होंठों पे सजे यूँ ,
सरगम सजी हो जैसे सितार पे ,
पलकें उठाईं थीं ऊपर तुमने ,
अवाक मैं निर्वात आलम ,
आफताब सी दमक ,
और माहताब सा चेहरा ,
काजल की लकीर ,
ज्यों शाख हो नजमों की ,
तितली सी पलकें ,
और चाँद सी तबस्सुम ,
गोया वर्क हो ,
चांदी की जैसे ,
खुदा के नूर पे ।

मंगलवार, 19 मई 2015

" रोज़ रात टूटता हूँ "


सवेरे चिपका कर 
नकली हंसी का मुखौटा 
बैठ जाता हूँ 
ज़िन्दगी की हाट में 
महसूस करता हूँ 
लोगों की मुस्कराहट का स्पर्श । 

दिन ढले तक 
आंका जाता हूँ 
मेरी हंसी के मुताबिक 
हर किसी के तय किये दामों में 
आसान नहीं होता 
यूं सुबह शाम 
बेदिल लिबास बदलना 
पर बदलता हूँ 
बदलाव नियति है न । 

रोज़ रात 
समेटता हूँ तन्हा 
फिर वही बिखरी ज़िन्दगी 
जोड़ता हूँ टूटन 
किसी की ख़ुशी की खातिर 
गिरता हूँ फिर
बन कर 'एक टूटता तारा ' ॥ 
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मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

" हैशटैग....."


हैशटैग सा ,
हो गई थी तुम ,
प्रसंग होता मैं ,
सन्दर्भ रहती तुम  ।

सूखे पत्ते हों या,
हो कटी पतंग ,
उन्हें कोई अब
हैशटैग नहीं करता ।

बालकनी पे खुलते ,
खिड़की के वो पल्ले  ,
जैसे हो एक जोड़ी ,
निगाहें तुम्हारी ।

स्मृतियाँ नहीं ,
बनती मञ्जूषा ,
जानता अगर ,
तो क्यों सहेजता ।

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

" पुस्तक मेला और हम ......."



बीती रात मैं पुस्तक मेले में गया था | एकदम सन्नाटा पसरा था वहां | सभी स्टाल बंद और ढके मुंदे थे ,कुछ हार्डबोर्ड से और कुछ तिरपाल से | यूं ही एक स्टाल के बगर से गुजर रहा था (जिसके बाहर लिखा था "हिन्दी की बेस्ट सेलर्स ) तो लगा जैसे भीतर कोई बाते कर रहा हों | ठहर कर आदतन उनकी बातें सुनने का प्रयास करने लगा | 

एक मीठी सी पर उदास आवाज़ में कोई अपनी व्यथा सुना रहा था ,उसने पल्लू से अपने कई बार साफ किया चेहरा मेरा ,थोड़ा देखा फिर सीने से लगाया पर अपने संग ले नहीं गई | तब तक शोख आवाज़ में कोई और बोल पड़ा ,तुम्हे तो सबसे आगे जगह मिली है ,सज धज कर रंगीन आवरण में टिकी रहती हो ,बस इसीलिये हर कोई हाथों हाथ लिये रहता है | वहीं भारी आवाज़ में कोई बोला कि मेरा वज़न इतना ज्यादा कर दिया है कि नाजुक कलाइयों वाले मुझे छूते ही नहीं कि कहीं मुचक न जाये कलाई उनकी | लो कर लो बात ,बोल उठी एक पतली सी एकदम महीन आवाज़ ,मुझे तो इतना छरहरा बना रखा है कि लोग विग्यापन समझ बिना पूछे संग ले जाने लगते हैं | एक सयानी सी आवाज़ उन सब को समझा रही थी ,बहुत दुनिया देखी है हमने , अगर बाजार में चलना है तो थोड़ा बन ठन के तो रहना पड़ेगा और भीतर थोड़ा अत्याचार / व्यभिचार , लाचार हरकतें भी जरूरी हैं तभी गाड़ी चल पाती है | आगे वृद्ध आवाज़ में सुनाई पड़ा कि जैसे जिंदा जिस्म ही हरकत कर सकता है वैसे ही अगर हमारे अंदर जिस्मानी नुमाइश न हो तो फिर खुद को मुर्दा ही समझो | जो भी यहाँ से धडा धड़ निकल रही है और लोग हाथों हाथ ले रहे हैं उनमे प्रेम कम तिरस्कार अधिक और सम्बंध कम विच्छेद अधिक है | 

सुनते सुनते जब मैं और करीब जाने लगा उनके ,सहसा कोई बोल पड़ा ,कोई है कोई है ,इस पर सारी आवाज़ें बंद हो गई ,वैसे ही जैसे घूंघट के भीतर से ही अगर सास के आने की आहट मिल जाये तो बहुएं उसकी बुराई करना बंद कर देती हैं | 

दरअसल यह सब किताबें ही थी तो रात में जीवंत हो उठी थी और आपस में बतिया रही थी | पता नहीं क्यों मुझे सारी किताबें परस्पर ईर्ष्यालु सी लगीं |