बचपन में आड़ी तिरछी रेखाएं खींचते खींचते कब और कैसे अक्षर ज्ञान हो जाता है और पता भी नहीं चलता है ,बस उसी प्रकार एक दूसरे के चेहरे की लकीरें और भंगिमाएं देखते देखते हम दोनों के हृदय में कब कवितायेँ जन्म लेने लगी ,भान ही नहीं हुआ । आकर्षण , विकर्षण , उपेक्षा , अपेक्षा , वीतराग ये कुछ कारक हैं जो कविताओं को प्रस्फुटित करते हैं । समर्पण की पराकाष्ठा ही शायद उपेक्षा के बीज अंकुरित करती है , और कविता को विस्तार भी यहीं से प्राप्त होता है ।
"प्रेम की प्रकृति" जब अनिश्चय के भाव उत्पन्न करती है तब "प्रकृति प्रेम" उपजने लगता है । यह कवितायेँ कभी परस्पर प्रेम को परिभाषित करती हैं तो कभी एकाकीपन को जीने का सम्बल बनाती दिखती हैं ।
समुद्र के किनारे रेत का घरौंदा भी बच्चे बनाते हैं तो चाहते हैं कि कभी वह घरौंदा मिटे नहीं । अपने लेख , कवितायेँ एक पुस्तक का स्वरूप ले लें और एक कृति बन जाये , ऐसा कौन नहीं चाहता । परन्तु संकोच यह होता है कि इतने बड़े बड़े लेखकों और कवियों की पुस्तकों के बीच शायद हम पहचान न बना पाएं । यही संकोच हमें भी था । पर मुकेश सिन्हा ने इस संकोच को इस पुस्तक के रूप में बहुत सहजता से परिवर्तित कर दिया ।
बड़ी बड़ी इमारतों के सामने छोटे छोटे घरौंदे ज्यादा देर टिक तो नहीं पाते परन्तु जब तक आँखों के सामने रहते हैं , लुभाते बहुत हैं । आप सबको यह कवितायेँ तनिक सा लुभा पाएं , बस इतना सा ख्वाब है और यह पूरा हो जाये , बस यही ख्वाहिश है ।
कविताओं का सृजन मन को तरल भी करता है और सरल भी । शब्द भीतर रहते हैं तो सालते रहते हैं , मुक्त होते हैं तो साहित्य बनते हैं ।
पुस्तक के आकर्षक आवरण का पूरा श्रेय हिंदी युग्म की टीम को जाता है जिन्होंने इसे इतने सुन्दर कलेवर कलेवर में प्रस्तुत किया है । अंत में सभी मित्रों का विशेष रूप से आभार , जिन्होंने समय समय पर हम दोनों की रचनाओं को सराहा और पुस्तक के रूप में संकलित करने को प्रेरित किया ।
--निवेदता अमित
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