मंगलवार, 29 नवंबर 2011

"वर्गमूल"

      
          किसी भी संख्या (कितनी भी बड़ी क्यों ना हो ) के वर्गमूल के वर्गमूल की उत्तरोत्तर गणना करते जाने पर अंत में ०१ की संख्या प्राप्त होती है |
          आश्चर्य की बात है ,किसी भी संख्या के प्रयोग करने पर अंत में मूल ०१ की संख्या ही प्राप्त होती है | भले ही प्रारम्भ में वह संख्या कितनी भी आकर्षक रही हो ,जैसे सभी अंक समान हो ,सभी अंक चढ़ते क्रम में हो या उतरते क्रम में हो ,सम हो ,विषम हो ,सभी के वर्गमूल के वर्गमूल करते जाने पर अंत में ०१ की ही संख्या प्राप्त होती है | चूँकि यह अंको की विशेषता है , अतः सिद्ध हो जाता है कि सभी अंकों का मूल एक समान है और ०१ ही है |
          इतनी छोटी सी बात हम सहजता से नहीं समझ पाते कि , यही बात तो मनुष्य जीवन पर भी लागू होती है | किसी का जीवन कितना ही आकर्षक क्यों ना हो ,या अनाकर्षक हो ,व्यक्ति किसी भी जाति , धर्म , समुदाय ,वर्ग या स्तर का हो ,सभी के मूल में उसकी आत्मा ही होती है ,जो सभी की एक समान होती है |
          सम्मान ,प्यार एवं  महत्त्व उसी आत्मा स्वरूप जीवन को दिया जाना चाहिए | किसी से सम्बन्ध रखते समय यदि हम उसकी आत्मा को ध्यान में रखकर उससे व्यवहार करें ,तभी हम उसके मूल तक पहुँच सकते हैं|वो मूल सभी में एक समान है और वही ईश्वर है |

          "सबका वर्गमूल एक है या सभी वर्गों का मूल एक है या शायद वही ईश्वर है |" 

बुधवार, 23 नवंबर 2011

"यादें टुकड़ो में"


वो हंसती थी टुकड़ो में,
बोलती थी टुकड़ो में,
लिखती थी कुछ कुछ टुकड़ो में,
शर्माती थी टुकड़ो टुकड़ो में,
पलकें उठाती थीं टुकड़ो में,
गिराती भी थी टुकड़ों में,
कभी थामा हाथ कभी उंगलियाँ, 
वो भी टुकड़ो टुकड़ो में,
करती थी बहुत प्यार,
 मगर टुकड़ो में,
रूठी थी कई कई बार,
वो भी टुकड़ो में,
.
.
ये सिलसिला,
मुसलसल न चल सका, 
वक्त बाँट गया हमारा  प्यार,
टुकड़ो टुकड़ों में,
मैं बेखबर करता रहा इंतज़ार, 
टुकड़ो में,
और यादें उनकी  बस बिखर ही गई,
टुकड़ो में !!!

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

"कभी ऐसा भी हो"


कभी ऐसा भी हो,
मैं कही गुम जाऊँ,
ढूंढूं खुद को,
पर ढूंढ ना पाऊँ,
हाँ ! खोजो तुम,
तुमको मिल जाऊँ,
पर तुमसे खुद को,
माँग ना पाऊँ,
खुद को छोड़,
तुम्हारे पास,
लौट आऊँ,
फ़िर याद करूँ ,
खुद को अक्सर,
तो याद तेरी भी,
आ जाये,
कभी ऐसा भी हो,
किताब पढूँ मैं जब,
अक्स उभर आये ,
पन्नों पे तेरा,
पन्ने पलटूँ जब,
लब तेरे छूँ जाये,
कभी ऐसा भी हो,
तू नींद में हो ,
और मै,
ख़्वाब में आऊँ !! 
कभी ऐसा भी हो,
कुरेदो नाम ज़मीं पे मेरा,
और टिका दो ,
उस पे हथेलियाँ,
उधर वो नाम मिट जाए,
इधर मैं मिट जाऊँ !!! 

रविवार, 6 नवंबर 2011

काश ! हम "प्याला" होते......

काश ! 
हम प्याला होते,
दुबके होते बीच, 
उनकी हथेलियों में |
कभी थामती,
सलीके से,
दो ही उँगलियों में,
और कभी होते लिपटे,
दसों उँगलियों में |
ज्यादा गरम होता,
शायद साथ हो जाता,
दुपट्टे का भी |
लबों तक भी होता ,
आना जाना अक्सर |
नयन का बिम्ब भी, 
उतर ही जाता दिल में, 
अक्सर |
ठण्ड भी जब कभी,
होती सुर्ख, 
गाल खुद ही रहते बेताब,
छूने को, 
मुझको अक्सर |
रहता बेजान,
और अनजान ही,
मगर, 
वे कह उठते, 
पीने के बाद,
अक्सर,
..
..
..
रखना संभाल के 
कहीं टूट ना जाए !
..
..
"और हम टूट जाया करते "!

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

"गोद माँ की..."

गर,
सुकूँ माँ है तो,
गोद माँ की,
पुरसुकून है |
कभी एक मुठ्ठी,
छाँव है,
कभी एक मुठ्ठी,
धूप है |
विस्तार कभी,
आसमाँ का,
गोद कभी,
धरती माँ सी |
कभी लगाती,
पंख समय के,
कभी पंखों का,
कवच बनाती |
कभी मिटाती थकान,
समय की,
कभी समय को,
मात दिलाती |
हाँ !!
गोद माँ की पुरसुकून है |
.
.
.
काश !
नींद लम्बी हो,
जब कभी ? ?
सिर मेरा हो,
गोद माँ की हो |