सवेरे चिपका कर
नकली हंसी का मुखौटा
बैठ जाता हूँ
ज़िन्दगी की हाट में
महसूस करता हूँ
लोगों की मुस्कराहट का स्पर्श ।
दिन ढले तक
आंका जाता हूँ
मेरी हंसी के मुताबिक
हर किसी के तय किये दामों में
आसान नहीं होता
यूं सुबह शाम
बेदिल लिबास बदलना
पर बदलता हूँ
बदलाव नियति है न ।
रोज़ रात
समेटता हूँ तन्हा
फिर वही बिखरी ज़िन्दगी
जोड़ता हूँ टूटन
किसी की ख़ुशी की खातिर
गिरता हूँ फिर
बन कर 'एक टूटता तारा ' ॥
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wow..."गिरता हूँ फिर बनकर एक टूटता तारा" माशाअल्लाह।कहाँ आसान होता है बनना टूटता तारा जिससे कर सके कोई अपनी ख्वाइश पूरी करने की इल्तज़ा।
जवाब देंहटाएंतारा बन के रौशनी बिखराना शायद ज़्यादा आसान होता होगा, बनिस्पत एक 'टूटता तारा' बन पाना...। बहुत दिल से लिखी...दिल तक गई...।
जवाब देंहटाएंइतना टूटा हूँ के छूने से बिछड़ जाऊंगा..अब अगर और दुआ दोगे तो मर जाऊंगा...ये ग़ज़ल याद आ गई | -------सुमन कपूर ( उनकी टिप्पणी फेसबुक से कॉपी पेस्ट )
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जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
बहुत ही गहरी और मार्मिक कविता है . अक्सर हम मुखौटे पहनने मजबूर हो जाते हैं अपने आप से दूर ..
जवाब देंहटाएंहृदय की गहराई से लिखी ह्रदय की गहराई को छूती पंक्तियाँ। अति सुन्दर
जवाब देंहटाएंचलन यही है - 'ज़िन्दगी की हाट' का व्यवहार है ये तो !
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही सुंदर पेशकश....यूँ ही लिखते रहिये.....दाद !!
जवाब देंहटाएंमरहबा ... :)
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
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