आहिस्ता से भीतर आई ,
एक मंद बहार सी तुम ,
ख्यालों में कुछ और था ,
बेख्याली में दखल तुम ,
लफ्ज़ होंठों पे सजे यूँ ,
सरगम सजी हो जैसे सितार पे ,
पलकें उठाईं थीं ऊपर तुमने ,
अवाक मैं निर्वात आलम ,
आफताब सी दमक ,
और माहताब सा चेहरा ,
काजल की लकीर ,
ज्यों शाख हो नजमों की ,
तितली सी पलकें ,
और चाँद सी तबस्सुम ,
गोया वर्क हो ,
चांदी की जैसे ,
खुदा के नूर पे ।
खुदा का नूर सुंदर है, चांदी का वर्क भी... :)
जवाब देंहटाएंवैसे पहले मुझे चांदी के वर्क वाली मिठाइयाँ अच्छी नहीं लगती थीं, लगता था खराब हैं इसलिए सजाया गया है...
बहुत सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, क्लर्क बनाती शिक्षा व्यवस्था - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंsundar rachna......
जवाब देंहटाएंsundar rachna......
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं