आँखें थी मृग सरीखी,
चितवन चकोर सी,
नाजुक कलाइयाँ,
लच जाती थी कभी,
कभी खाती थी बल,
और खिल उठी थी,
कई बार सुनहरी चूड़ियों में |
निहारता रहा था तुम्हे मै,
पर मूँद ली थी पलकें तुमने,
यह मौन निमंत्रण ही था ,
तम्हारा,
आलिंगन का |
पता नहीं क्यों,
तुम्हारा स्पर्श सदा लगा यूँ,
जैसे तुमने कुछ कहा हो,
चुपके से |
और कहा था कुछ जब,
तो लगा था जैसे,
तुमने छुआ हो मुझे,
अपनी सांसो से |
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और बस अब,
बात इत्ती सी,
कि कर रहा हूँ याद,
तुम्हारी बातों को,
और गुम सा हो रहा हूँ,
तुम्हारे ही स्पर्श के एहसासों में |
"पता नहीं क्यों,
जवाब देंहटाएंतुम्हारा स्पर्श सदा लगा यूँ,
जैसे तुमने कुछ कहा हो,
चुपके से |"
kai baar sparsh hi sabkuchh kah jata hai..
shabdon ki zaroorat hi nahin hoti..!!
behad khoobsoorat !!
बहुत ही बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंसादर
is ehsaas ko ehsaas hi rahne do , koi naam na do
जवाब देंहटाएंsundar shringar rachna..
जवाब देंहटाएंprem me sarabor...
और बस अब,
जवाब देंहटाएंबात इत्ती सी,
कि कर रहा हूँ याद,
तुम्हारी बातों को,
और गुम सा हो रहा हूँ,
तुम्हारे ही स्पर्श के एहसासों में ...
प्रेम के गहरे एकसास में डूब कर कुछ कुछ ऐसा ही महसूस होता है ....नाज़ुक लम्हों से लिखी रचना .
एहसास सच्चे प्रेम का...
जवाब देंहटाएंअहा, इतना स्निग्ध व्यवहार न देखा था शब्दों का।
जवाब देंहटाएंbahut hi sachha aur achha ehsaas....:)
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