शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

"ठंड" और "अलाव"

मैने पूछा ठंड से,
अकड़ तो बहुत है तुझमें,
दम रखती हो जकड़ने का सभी को,
पर डरती हो तुम भी अमीरों से,
रूपये-पैसे से और उनकी मदिरा से,
तभी तो उनकी रंगीनियों में,
तुम शामिल नही होती और,
कपड़े हों ना हों,
जिस्म उनके ठंडे नही होते,
और बेचारे गरीब,
जिनपे कपड़े तो बहुत हैं शायद,
फ़िर भी अकड़ से जाते हैं,
तुम्हारी जकड़न में,
लगता है मिली हुई हो,
तुम भी सिस्टम से,
या गोया कोई चाल है तुम्हारी
सरकार की तर्ज पर,
गरीबी मिटाने की,
कि गरीबी मिटाने से अच्छा है,
गरीब को ही मिटा दो,
उसने मेरी बात अनसुनी सी की,
और लगी रही जतन से,
शहीद करने में,
अलाव चौराहों के।

8 टिप्‍पणियां:

  1. आज की व्यवस्था पर बहुत सटीक कटाक्ष...आज गरीब की चिंता किसे है..एक सुन्दर संवेदनशील प्रस्तुति.

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  2. आदरणीय शर्मा साहब बहुत बहुत धन्यवाद ।

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  3. बहुत सुन्दर रचना।
    आपकी पुरानी नयी यादें यहाँ भी हैं .......कल ज़रा गौर फरमाइए
    नयी-पुरानी हलचल
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.com/

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  4. umda rachna .. उसने मेरी बात अनसुनी सी की,
    और लगी रही जतन से,
    शहीद करने में,
    अलाव चौराहों के।
    sahi kathan

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