अबोध था मै भी कभी,
उंगलियां भी नन्ही रही होंगी जरूर,
पर धीरे धीरे वक्त के साथ,
कब मां की उंगलियां छूटी और,
मेरी नन्ही उंगलियां बड़ी होने लगीं,
याद नही,
वक्त और बीतता गया,
मां ने अपनी पसंद के ,
दो हाथ थमा दिये और,
कहा यह जीवन संगिनी है,
ये नये हाथ ज्यादा रास आये,
सो ज्यादा मजबूती से थाम लिये,
क्रमशः स्वभाविक रूप से,
चार नन्हे हाथ और जुड़ गये,
इसी आपाधापी और ,
जीवन के बहाव में,
मां को लगा शायद,
मैं उनकी उंगलियों का स्पर्श,
भूल गया हूं,
ऐसा कदापि नही हो सकता,
पर हां थोड़ा "संतुलन" बना पाने में,
जरूर विफ़ल रहा हूं,
नई और विरासत की उंगलियों में।
उंगलियां भी नन्ही रही होंगी जरूर,
पर धीरे धीरे वक्त के साथ,
कब मां की उंगलियां छूटी और,
मेरी नन्ही उंगलियां बड़ी होने लगीं,
याद नही,
वक्त और बीतता गया,
मां ने अपनी पसंद के ,
दो हाथ थमा दिये और,
कहा यह जीवन संगिनी है,
ये नये हाथ ज्यादा रास आये,
सो ज्यादा मजबूती से थाम लिये,
क्रमशः स्वभाविक रूप से,
चार नन्हे हाथ और जुड़ गये,
इसी आपाधापी और ,
जीवन के बहाव में,
मां को लगा शायद,
मैं उनकी उंगलियों का स्पर्श,
भूल गया हूं,
ऐसा कदापि नही हो सकता,
पर हां थोड़ा "संतुलन" बना पाने में,
जरूर विफ़ल रहा हूं,
नई और विरासत की उंगलियों में।
बेहतरीन ..उँगलियों के बहाने सब कह दिया .......
जवाब देंहटाएंमां को लगा शायद,
जवाब देंहटाएंमैं उनकी उंगलियों का स्पर्श,
कंही भूल गया हूं,
ऐसा कदापि नही हो सकता,
पर हां थोड़ा "संतुलन" बना पाने में,
जरूर विफ़ल रहा हूं,
नई और विरासत की उंगलियों में।
कौन भूल सकता उन उँगलियों को थामकर मिला जीवन जीने का संतुलन .... उम्दा रचना
गहरी बात कह गए हैं ....माँ खुद ही संतुलन बना देती है ...भले ही आप नयी उँगलियों को संतुलित करते रहें ...भावमयी रचना .
जवाब देंहटाएंपर हां थोड़ा "संतुलन" बना पाने में,
जवाब देंहटाएंजरूर विफ़ल रहा हूं,
नई और विरासत की उंगलियों में।
गहरी और सच बात कह दी ………आज हर इंसान कि यहीकहानी है।
पर हां थोड़ा "संतुलन" बना पाने में,
जवाब देंहटाएंजरूर विफ़ल रहा हूं,
नई और विरासत की उंगलियों में
यह आज की सच्चाई है जिसे आपने बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है..अहसासों से पूर्ण सुन्दर रचना..आभार
सच-बयानी भी अच्छी लगती है? पर अजीब सा लगता है कि सच लिख्नने के बाद मन बहुत हल्का हो जाता है।कुछ कुछ अपराध स्वीकारने का सा बोध होने लगता है। आप सभी लोगों को बहुत बहुत धन्यवाद इतना स्नेह देने के लिये।
जवाब देंहटाएंमाँ से दूर होने की व्यथा को अंगुलियाँ नहीं पकड़ पाने जैसे शब्दों के साथ व्यक्त किया आपने ...बचपन में माता पिता अपनी अंगुली थाम कर हमें चलना सिखाते हैं , और जब उन्हें हमारी अँगुलियों की जरुरत हो , हमें वक़्त नहीं मिलता ...दुखद है मगर सत्य भी !
जवाब देंहटाएंयह एहसास ही बहुत है...
जवाब देंहटाएंएहसास के साथ ही संतुलन आ जाता है!!
न जाने कितने लोग इस एहसास से ही वंचित हैं...
आपकी साफगोई को सलाम....
सादा मिजाज़ .... आपकी कविता की ख़ूबी लगी....शुभकामनाएं
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