अंतर तो है,
स्त्री और पुरुष
सोच में,
पर इतना व्यापक
अंतर क्यों ?
कारण अस्पष्ट सा !
अपना पराया,
इनका उनका,
लेना देना,
क्या खाया,
क्या पाया,
कहा क्या,
सुना क्या,
कब आये,
क्यों आये,
जायेंगे कब,
इनका मायका,
उनकी ससुराल,
ये ननद,
वो भौजाई,
अपनी बिटिया,
उनकी बहू,
मंहगी जेठानी,
सस्ती देवरानी,
कमाऊ देवर,
बोझ ससुर ।
पुरुष बेचारा
अव्वल तो समझ
से परे
समझे तो पागल ।
स्त्री ही स्त्री की,
मददगार क्यों नही,
हमसोच हमख्याल
क्यों नहीं ?
"एक बार स्त्री-मन
मिले तो जान पाऊं"
शायद ??
सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंsahi kaha.............sundar abhivyakti.
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जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट लेखन के लिए बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - पराजित होती भावनाएं और जीतते तर्क - सब बदल गए - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा
सुन्दर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंसभी सुधी पाठकों को स्स्नेह आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब !!!
जवाब देंहटाएंईश्वर से प्रार्थना करूंगी
कि --
"अगले जन्म में तुझे बिटिया ही कीजो.....!!"
जब दो व्यक्तियों के जीवन का केंद्र एक ही व्यक्ति हो , तो अक्सर वे एक दूसरे के मददगार नहीं रह पाते … मनोविज्ञान लगाया है थोडा इसमें :)
जवाब देंहटाएंबहुत सोचा है इस बारे में की आखिर स्त्री ही स्त्री की मददगार क्यों नहीं हो पायी. जवाब मिला. बहुत गहरा और मानसिक कारन है. इसकी जड़ तब तक जाती हैं जहाँ स्त्री को विवाह में दुसरे घर भेजने का रिवाज हुआ और पिता के घर से संपत्ति में उसे खुद कभी कुछ नहीं मिला. पति के घर भी संपत्ति में वह अपना अधिकार अपने पति/पुत्र द्वारा ही ' महसूस ' कर सकती है. और सारा सम्मान अधिकार संपत्ति के चरों और ही बुना गया है हमारे समाज में.
जवाब देंहटाएंस्त्री मन पाकर कुछ नहीं होगा ।स्त्री चरित्र व हठ भी अपनाने होगें अमित जी ।पर लिखा आपने सटीक है ।स्त्री मन तो अथाह ममता से भर होता है तो क्यूँ एक स्त्री ही स्त्री को नही समझ पाती ..ये समझ से परे है ।
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