मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

"ये कैसी तरक्की"

आज खुद पर घिन आ गई,
जब देखा उसे मेरे  फ़ेंके हुए,
दोने-पत्तल चाटते हुए,
ये कौन सा युग है,
आदमी आदमी का जूठा,
वह भी फ़ेंका हुआ,
खा कैसे सकता है,
मगर खाते देखा,
मैने आज हज़रतगंज,
लखनऊ(तहजीबों के शहर) में,
यह माना कि उन्हें हमने,
नही किया पैदा मगर,
समाज ही जिम्मेदार है,
अगर नस्ल की फ़सल है ऐसी,
अव्वल तो हो ऐसी व्यवस्था कि,
काम मिले सभी को और फ़िर,
दाम भी मिले सभी को,
"फ़िलानथ्रॉपी" पर होते तो हैं,
सेमिनार बड़े बड़े,
मगर शायद वे सिर्फ़ कम अमीरों ,
को ही  ज्यादा अमीर बनाने के लिये,
आज सोचने पर मजबूर हूं कि,
डस्ट-बिन कूड़ा डालने के लिये है
या कूड़ा बीनने के लिये,
कंही आदमी ही आदमी को,
डस्ट-बिन में तो नही डाल रहा है,
मेरी शिक्षा-दीक्षा,अनुभव,चिंतन,
आज सब धरा का धरा रह गया,
"ये कैसी तरक्की",
 सोचने को मजबूर।

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत samvdansheel लिखा है ... इंसान इंसान में kitna fark हो गया है ... .

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  2. आदरणीया संगीता स्वरूप जी,सोनल जी एवं आदरणीय शिवम एवं दिगम्बर नासवा साहब बहुत बहुत शुक्रिया ।

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