गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

"टर्न ओवर........"

कुल गुब्बारे होंगे,
सौ, दो सौ, चार सौ।

वज़न सारी रेवड़ी का,
आठ दस किलो।

छोटी सी दुकान,
कुल पतंगे तीस चालीस।

सिर्फ़ रूई की बत्तियां,
सारी बमुश्किल आधा किलो।

बांसुरी सभी बजती हुई,
मगर कुल सौ डेढ़ सौ।

मिट्टी के खिलौने,
रंग-बिरंगे सजे ज़मीन पर,
कुल कीमत चार साढे चार सौ।

चूरन का ठेला,
बच्चों को ललचाता हुआ,
लागत जोड़ें तो,
रुपए डेढ़ पौने दो सौ।

चाकू छुरी तेज करता हुआ,
दिन भर में चालीस-पचास।

ऐसे ना जाने कितने,
बेचारे चलते फ़िरते,
दुकानदार,

जितना इनका,
खर्च रोज़ का,
जीवन जीने का,
उतनी तो कुल पूंजी है | 

कैसे ये जी लेते हैं,
ज़िन्दगी,
इस "टर्न ओवर" में।

काश! हो इनकी भी,
किस्मत कभी "ओवर टर्न" ।

8 टिप्‍पणियां:

  1. मर्म को छूने की अच्छी कोशिश , संवेदना अभी जीवित है । अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । पढ़िए "खबरों की दुनियाँ"

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  2. टर्न ओवर से ओवर टर्न तक पहुँच पाना आसान कहाँ है ।
    अच्छी और संवेदनशील सोच के लिये साधुवाद...

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  3. बहुत खूब अमित भाई क्या खूबसूरती से दर्द लिख डाला..

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  4. बहुत अच्छी और संवेदनशील रचना...
    मन यूँ भी उदास था....आपने कसर पूरी कर दी.

    सादर
    अनु

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  5. शौक और आराम तो चबाये हुए च्युइंग गम से हैं
    जितना खींचों खिंचते जायेंगे।
    बहुत सुन्दर विचारोतेजक सोच

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