वृक्ष जब युवा था कभी,
जड़ से उग आये थे उसके,
कोपल नए।
पहले दो निकले,
दो वर्षों के अंतराल पर,
और छः वर्षों बाद,
एक और कोपल।
धीरे धीरे तीनों कोपल,
पनपते गए ।
उन कोपलों में ,
मौजूद थे गुण,
उस वृक्ष जैसे ही ।
पर दो कोपल बढ़ते बढ़ते ,
तिरछे हो गए,
और मुड़ गए ,
बाहर की ओर ।
तीसरा बढता गया,
सीधा चिपका,
वृक्ष से ही ।
तीनों की जड़ें जमी रही,
एक ही जगह ।
पर तिरछे दोनों कोपल,
तने बन तन सा गए ।
ऊपर से वृक्ष को,
दिखते रहे दोनों तिरछे तने,
क्योंकि वे तिरछे हो ,
वृक्ष की दृष्टि में बने रहे ।
बीच वाला तना,
जो तना भी न था कभी,
सीधा बढ़ता गया,
चिपके चिपके ,
और चुपके चुपके ,
उस वृक्ष से ही ।
पर ऊपर से नीचे देखने पर,
शायद चिपका तना दिखा नहीं ,
और वो वृक्ष भूल सा गया ,
अपना तीसरा तना,
जो कभी तना भी न था ।
वो भुला दिया गया तना ,
आज भी चाहता,
इतना ही बस,
जड़ें बांधे रहे ,
उस वृक्ष की ,
और मजबूती से चिपका रहे,
उसके चारों ओर ,
होकर अदृश्य ही सही |
" फादर्स डे "पर "बस यूँ ही "कुछ जो रोका न जा सका ।