विज्ञान ने तकनीकी रुप से प्रगति करते हुए सभी क्षेत्रों को 'analog' से 'digital' mode में परिवर्तित कर दिया है ।चाहे वह दूर-संचार का क्षेत्र हो,या कोई भी डाटा ट्रांसफ़र का काम हो,बैंकिंग के क्षेत्र के सारे काम ,चिकित्सा-क्षेत्र में उपकरणों के प्रयोग एवं उनकी रीडिंग सब डिजिटल हो गई है | चाहे पेट्रोल की माप हो,या रसोई में किसी उपकरण में मन वांछित तापक्रम सेट करना हो, हलके से हल्का या भारी से भारी वजन करना हो ,किसी भी उपकरण में पहले से इच्छित परिणाम सेट करना, सब बिलकुल बच्चे के काम जैसा आसान है | digital mode में accuracy एक बहुत अच्छा फीचर है| युद्ध के क्षेत्र में प्रयुक्त सभी उपकरणों में accuracy एक महत्वपूर्ण पहलू है| इससे पहले analogus mode में काम करने में अनुमान का एक महत्वपूर्ण स्थान था, परन्तु अनुमान लगाना प्रत्येक व्यक्ति की अलग अलग क्षमता पर निर्भर था | मोटे तौर पर analogus mode में 'गुंजाइश' का अपना एक महत्त्व था जो digital mode में लुप्त हो गया |
इसी प्रगति के साथ कदम मिला कर चलते चलते मनुष्य भी लगता है digital mode में आ गया है| उसके लिए परस्पर सम्बन्ध result oriented ज्यादा हो गए हैं और उसमे सामंजस्य की गुंजाइश बिलकुल ना के बराबर | चाहे पति पत्नी के रिश्ते हो या माता पिता के सम्बन्ध बच्चों से हो ,सभी में बस आरपार की बात दिखती है ,बिलकुल binary code की तरह, या तो 'जीरो' या 'वन' अर्थात या तो सम्बन्ध रखेंगे या नहीं रखेंगे | एक व्यक्ति दूसरे के लिए या तो परफेक्ट है या पूरी तरह जीरो ,बीच की कोई स्थिति नहीं | विवाह होते ही तलाक इसका एक साफ़ साफ़ उदाहरण है ,यही रिश्ते यदि analogus होते तो पक्की तौर पर कोई ना कोई बीच का समाधान निकलता जो पूरे परिवार को ऐसी स्थिति से बाहर निकाल लाता |
पर अब तो मनुष्य अपनी सोच में भी पूरी तरह से digital हो गया है | कोई कितना भी करीबी क्यों ना हो, यदि उससे इच्छित परिणाम ना मिला तब उससे बुरा कोई नहीं ,किन परिस्थितियों में उससे ऐसा हुआ है, यह जानने की गुंजाइश बिलकुल नहीं |यही कारण है की मनुष्य का दिल अब digital युग में brittle होता जा रहा है और फिर तो उसे पट से टूटना ही है | माँ-बाप, बच्चे के पैदा होते ही उसके लिए desired result तय कर देते हैं और जब वह बेचारा बच्चा थोपा हुआ परिणाम नहीं दे पाता, तब पूरे परिवार का दिल टूटता है| बच्चों की ग्रोथ वेव फ़ार्म में होनी चाहिए ना की discrete bundle फार्म में | डिजिटल मशीन की तरह हम लोग पूरे जीवन की प्रोग्रामिंग एकसाथ कर देते हैं और desired output ना मिलने पर खुद तो करप्ट होते ही हैं और पूरे सिस्टम में अपनी अदूरदर्शिता और discreteness का वाइरस डालकर उसे भी करप्ट कर डालते हैं|
भले ही मशीन इतनी तरक्की कर जाए की मनुष्यों जैसा व्यवहार करने लग जाए, यह परिकल्पना तो अच्छी है, पर कितनी भी तरक्की हो जाए ,पर (काश) मनुष्य मनुष्य ही रहे ,उसमे संवेदनाए रहें,भावनाए रहें,और भरपूर गुंजाइश रहे ,(go और no go जैसी tolerance limits बिलकुल भी ना हों) तभी यह दुनिया शादाब रहेगी शायद |
इसी प्रगति के साथ कदम मिला कर चलते चलते मनुष्य भी लगता है digital mode में आ गया है| उसके लिए परस्पर सम्बन्ध result oriented ज्यादा हो गए हैं और उसमे सामंजस्य की गुंजाइश बिलकुल ना के बराबर | चाहे पति पत्नी के रिश्ते हो या माता पिता के सम्बन्ध बच्चों से हो ,सभी में बस आरपार की बात दिखती है ,बिलकुल binary code की तरह, या तो 'जीरो' या 'वन' अर्थात या तो सम्बन्ध रखेंगे या नहीं रखेंगे | एक व्यक्ति दूसरे के लिए या तो परफेक्ट है या पूरी तरह जीरो ,बीच की कोई स्थिति नहीं | विवाह होते ही तलाक इसका एक साफ़ साफ़ उदाहरण है ,यही रिश्ते यदि analogus होते तो पक्की तौर पर कोई ना कोई बीच का समाधान निकलता जो पूरे परिवार को ऐसी स्थिति से बाहर निकाल लाता |
पर अब तो मनुष्य अपनी सोच में भी पूरी तरह से digital हो गया है | कोई कितना भी करीबी क्यों ना हो, यदि उससे इच्छित परिणाम ना मिला तब उससे बुरा कोई नहीं ,किन परिस्थितियों में उससे ऐसा हुआ है, यह जानने की गुंजाइश बिलकुल नहीं |यही कारण है की मनुष्य का दिल अब digital युग में brittle होता जा रहा है और फिर तो उसे पट से टूटना ही है | माँ-बाप, बच्चे के पैदा होते ही उसके लिए desired result तय कर देते हैं और जब वह बेचारा बच्चा थोपा हुआ परिणाम नहीं दे पाता, तब पूरे परिवार का दिल टूटता है| बच्चों की ग्रोथ वेव फ़ार्म में होनी चाहिए ना की discrete bundle फार्म में | डिजिटल मशीन की तरह हम लोग पूरे जीवन की प्रोग्रामिंग एकसाथ कर देते हैं और desired output ना मिलने पर खुद तो करप्ट होते ही हैं और पूरे सिस्टम में अपनी अदूरदर्शिता और discreteness का वाइरस डालकर उसे भी करप्ट कर डालते हैं|
भले ही मशीन इतनी तरक्की कर जाए की मनुष्यों जैसा व्यवहार करने लग जाए, यह परिकल्पना तो अच्छी है, पर कितनी भी तरक्की हो जाए ,पर (काश) मनुष्य मनुष्य ही रहे ,उसमे संवेदनाए रहें,भावनाए रहें,और भरपूर गुंजाइश रहे ,(go और no go जैसी tolerance limits बिलकुल भी ना हों) तभी यह दुनिया शादाब रहेगी शायद |
टिप्पणी करने को बाध्य कर दिया>>>शानदार
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ..सारी दुनिया अब बस दो रंगों में रंग गई है काला या सफ़ेद ..इन दोनों के बीच का कुछ भी नहीं है ... गुंजाईश वाली बात तो जबरदस्त है
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Sonal Rastogi
बिल्कुल सही कह रहे हैं।
जवाब देंहटाएंbouth he aache shabad hai aapke .... :D
जवाब देंहटाएंPleace visit My Blog Dear Friends...
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सच कहा आपने, किसी के गुण-दोष समग्रता से स्वीकार हों। एक गुण या दोष बन्धन का निर्णय न करें।
जवाब देंहटाएंyou are right , people are usually at extremes. They need to strike a perfect balance.
जवाब देंहटाएंAll or none! :-)
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ.... दौर जो भी हो , बिना भावनाओं , संवेदनाओं के कैसा जीवन ?
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