शनिवार, 8 जनवरी 2011

"उम्र एक लिबास"

उम्र एक लिबास है,
जो ढक लेता है,
अनेक खामियां,
अनेक गुनाह,
उठाते हैं लोग,
ना-जायज़ फ़ायदा,
इस फ़लसफ़े का,
और करते हैं मैला,
इस लिबास को,
बात हो चाहे,
रिश्तों की, चाहे अपनों की,
उम्र की तासीर ही,
आंकते सभी,
सहमत नही कई बार मैं भी,
पर ओढ़ रखा है जो,
लिबास संस्कारों का,
मन तो कहता है,
उतार नोचो सभी लिबास,
पर समाज में कहलाऊंगा,
नंगा मैं ही ।

5 टिप्‍पणियां:

  1. सोचने को विवश करती , एक उम्दा प्रस्तुति। काफी कुछ कह दिया आपने इन चंद पंक्तियों में।
    बधाई।

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  2. वाह, उम्र को लिबास की संज्ञा का अभिनव प्रयोग कविता को अत्यंत प्रभावशाली बना रहा है !
    सुन्दर प्रस्तुति !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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