बुधवार, 5 सितंबर 2012

" कविता भी रूठ गई ......"


रात गहरी हो चली थी | मैं अपनी आँखें मूंदे मूंदे ख्यालों में एक कविता गुन, बुन रहा था | गुनते ,बुनते कब आँख लग गई पता नहीं चला | सपनों में , हाँ ,सपना ही रहा होगा,मैं अपनी कविता को शब्दों , भावों और स्मृतियों से सजा रहा था । तभी  देखा ,मेरी कविता अकस्मात मेरे सामने तन कर खड़ी हो गई और मुझसे बोली ,"आज तुम मेरा श्रृंगार-विंगार मत करो ,पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो |" मेरे लिए अचानक यह अचंभित करने वाली घटना थी | मेरी ही कृति मुझसे प्रश्न कर रही थी | अपने को संयत करते हुए मैंने अपनी कविता से कहा , क्या बात है , क्या शंका और सन्दर्भ है तुम्हारा |

मेरी कविता : जबसे तुम युवा हुए हो , तुमने मुझे अपने ह्रदय में बसा रखा है | तबसे बरसों बीत गए और तुम सबके सामने मुझे ही प्रस्तुत करते रहते हो | मुझे तुम कभी आंसुओं के आवरण में और कभी वेदना से सुसज्जित कर ,स्वयं तो मेरे पीछे छुप जाते हो और दुनिया के सामने मुझे पेश कर देते हो | बहुत पीड़ा होती है मुझे जब लोग मुझे शब्द-शब्द , भाव-भाव ,पोर पोर से उद्घाटित करते हैं और मेरे दर्द में वे स्वयं आनंद की अनुभूति करते हैं | बार बार आखिर कितनी बार तुम मेरा सहारा लोगे  ,स्वयं को अभिव्यक्त करने में | 

सच तो यह है, तुमको जब भी कोई अपना सा मिलता है, कुछ भाने सा लगता है ,तुम स्वयं को उसके सामने प्रस्तुत कर कुछ कहना चाहते हो पर यह क्या, स्वयं तुम चुप रह कर मुझे सजाते संवारते हो ,उसके सामने पेश कर देते हो | वे सब भी मुझ पर तुम्हारे ही द्वारा लादे गए आभूषणों से रोमांचित और पुलकित होते हैं , थोड़ा निहारते हैं ,मुस्कराते हैं,अपना जी भर लेते हैं ,बस और कुछ नहीं | मैं भी अब थक गई हूँ , तुम्हारे बदले सारी दुनिया से रू-ब-रू होते होते  |

मेरा दिल भी अब तुम्हारे पास नहीं लगता | मुझे भी किसी एक के ही हवाले कर दो | सुख चैन से उसी की हो कर रहूँगी | रोज़ रोज़ तुम्हारे आंसुओं में नहाना तो नहीं पडेगा | कभी एक पाँव मेरा तुम चाँद पर रखते हो और दूसरा दरिया में | फूलों की खुशबू से ज्यादा काँटों से सजाते हो | दर्द इतना भर देते हो कि अन्दर ही अन्दर सांस लेना मुश्किल हो जाता है | लबों को मेरे, तुमने न जाने कितनी बार छुआ होगा सबके सामने, कि अब तो सबके सामने जाने में लज्जा सी लगती है | दर्द ही सजा मिला है सदा वहां ,जहां तबस्सुम को भी होना चाहिए कभी |

अपनी कविता का यह रूप देख मैं स्तब्ध रह गया | मैं कुछ सोचने को विवश हो ही रहा था कि मेरी कविता ने आज मुझ पर ही कुछ पंक्तियाँ लिख दी  :

दो बोल अब बोल भी दो , 
दिल का राज़ खोल भी दो,
मत लिखो कोई नई कविता,
बह जाने दो आँखों से सरिता,
कर जाओ मुझे भी अब मुक्त,
करके प्यार को अपने उन्मुक्त |

मैं अपनी कविता द्वारा लिखी चंद पंक्तियों के अर्थ को समझने का प्रयास कर ही रहा था कि वह मुस्करा कर उठ खड़ी हुई और कभी न आने की बात कर चली गई | अब शायद कभी न लौट कर आये मेरी कविता |

अब तक मेरी उनींदी आँखें खुल चुकी थी और मुझे दिख रही थी एक धुंधली सी कविता ,रूठ कर जाते हुए |

12 टिप्‍पणियां:

  1. कवित के दर्द को भी भली प्रकार व्यक्त कर दिया .... वैसे कवित ज्यादा देर तक रूठने वालों में से नहीं ।

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  2. संगीता दी की बात से सहमत ...!!
    प्रभु प्रदत्त ,अभिव्यक्ति अभिव्यक्त होने के बहाने ढूंढ ही लेगी ...!!
    अपनी जगह बना ही लेगी ....

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  3. कविता का दर्द खूबसूरती से पिरोया है।

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  4. एक अनूठा स्वरुप देखा आज अभिव्यक्ति का ...सोचने पर मजबूर कर दिया ..हाँ वास्तव में...हम सब यही तो करते हैं...बहुत सुन्दर प्रयोग ...बहुत सशक्त प्रस्तुति .....

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  5. जल्दी जाइए ... मना कर वापस लाइये अपनी कविता को ... क्या करेंगे आप उसके बिना ... कुछ सोचा है ???


    मुझ से मत जलो - ब्लॉग बुलेटिन ब्लॉग जगत मे क्या चल रहा है उस को ब्लॉग जगत की पोस्टों के माध्यम से ही आप तक हम पहुँचते है ... आज आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !

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  6. अब तक तो मान गई होगी ना ? मैंने तो मना लिया और लिख भी दी .

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  7. बहुत बढ़िया कविता, काबिले तारीफ ।
    मेरी नयी पोस्ट -"क्या आप इंटरनेट पर ऐसे मशहूर होना चाहते है?" को अवश्य देखे ।धन्यवाद ।
    मेरे ब्लॉग का पता है - harshprachar.blogspot.com

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  8. पीर यही कि पीर कही,
    वह संग मेरे बन नीर बही।

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