रविवार, 16 सितंबर 2012

" अखबार फेंकते, ये हॉकर्स ........."


सवेरे तय समय पर अखबार न मिले तो कुछ उलझन सी लगती है | अब तो अख़बार में कुछ नया नहीं होता पढने को , सब कुछ टेलिविज़न या नेट की न्यूज़ से पता चल जाता है , फिर भी अखबार की तलब तो लगती ही है | जब पहली चाय के साथ अखबार न हो तो चाय भी बे-स्वाद ही लगती है |

मौसम कैसा भी हो , बारिश जम के हो रही हो या  कोहरे में हाथ को हाथ न सूझ रहा हो ,फिर भी अखबार तय समय पर मिल जाए ,यह उम्मीद रहती है और मिलता भी है | अक्सर जब विपरीत मौसम में अपने हॉकर को देखता हूँ , अखबार देते हुए , उसकी निष्ठा के प्रति सम्मान उमड़ जाता है |

अमूमन सभी अखबार रात को २/ ३ बजे के बाद ही प्रेस से निकलते हैं | तभी से इन हॉकर्स की दिनचर्या आरम्भ हो जाती है | अखबार के सभी पन्नों को क्रम से लगाना ( अब तो शायद यह मशीन से ही संभव हो गया है ) , फिर उसके भीतर कोई न कोई विशेषांक रखना और प्रायः सभी अखबार के भीतर विज्ञापन के पैम्फलेट रखना , यही शुरुआत होती है , अखबार के हॉकर्स के काम की | सारे अखबार जो उन्हें वितरित करने होते हैं उन्हें वह अपने क्षेत्र मे बांटने के क्रम में सजा लेते हैं | ख़बरों के इस बोझ को वह अपनी साइकिल पर लाद कर निकल पड़ते हैं , फेंकने को खबरे रोज़ रोज़ की,हमारे आपके घरों में |

अखबार में क्या छपा है , इससे इतर उनके मन में साइकिल पर चलते चलते कुछ यूं चलता होगा : 

शर्मा जी के यहाँ जागरण और टाइम्स देना है , बाजपेई जी के यहाँ खाली हिन्दुस्तान | आहूजा साब के यहाँ कुत्ता न बैठा हो गेट की आड़ में | सरकार जी के यहाँ फिर वह आंटी खड़ी मिलेंगी हल्ला करते हुए कि , तुम अखबार पानी में क्यों फेंकते हो | सलूजा साहब कहेंगे , अखबार मोड़ कर मत दिया करो , सीधा सीधा डाला करो ( बाद में रद्दी बेचते समय ज्यादा पैसे मिल जाते होंगे शायद ) | छोटे घरों में अखबार देना आसान होता है , एक पैर पर साइकिल टिकाई और बैठे बैठे ही घंटी बजाकर फेंक दिया या फंसा दिया दरवाजे में और बड़े घरों में , आगे खुला मैदान ,उसमे दो चार कुत्तों की जमात ,जो देखते रोज़ हैं पर भौंकते भी रोज़ है ( शायद अखबार की खबर का भान रहता है उन्हें कि फिर खबर छपी है उसमें कुत्ते सरीखे आदमियों की ) । कितना भी जोर से फेंको , बरामदे तक पहुंचता नहीं और वह मुआ कुत्ता उसे फाड़ देता है | अब रुको पहले, फिर  घंटी बजाओ , किसी के आने की प्रतीक्षा करो तब उन्हें दो , नहीं तो अगले दिन की चिड चिड झेलो | मेरे बारे में सोचता होगा कि टाइम्स आफ इंडिया और हिन्दुस्तान के तो पैसे देते हैं , उसके अलावा २/३ अख़बार तो इन्हें मुफ्त कूपन से मिल जाते हैं ( खूब रद्दी बेचते होंगे ) | अरे! नहीं भाई , ये प्रेस वाले जबरदस्ती कूपन पकड़ा जाते हैं तो क्या करें | रद्दी तो कभी हमने बेचीं ही नहीं | घर पर काम वाली ले जाती है ,उसके बच्चे उससे लिफाफा बना बेचते हैं | 

साल के बारहों महीने एक सा काम , एक तय समय का रूटीन , मेरे ख्याल से इन हॉकर्स के अलावा और किसी भी काम का इतना सख्त रूटीन नहीं होता होगा | मजे की बात हर कोई चाहता है , मोहल्ले में अखबार सबसे पहले उसे मिले | जितनी तल्लीनता से और निशाना साध कर यह हॉकर्स अखबार दूसरे /तीसरे माले तक फेंक देते हैं , वह काबिले तारीफ़ है | अगर इन्हें शूटिंग प्रतियोगिता में भेजा जाये , शर्तिया मेडल ले कर ही लौटेंगे | 

अखबार की खुशबू हाथ में आते ही कितने लोगों की शारीरिक पाचन क्रिया तत्काल गुड़गुड़ाहट के साथ अपना दायित्व पूरा करने को तत्पर हो जाती है | गोया अखबार हाथ में न आये तो मूड फिर बनता ही नहीं | कुछ का अखबार पढ़ते पढ़ते, उससे मुंह ढँक कर दुबारा सोने का मजा ही कुछ और है | कहीं कहीं क्रॉस वर्ड या सुडोकू कौन पहले हल कर डालेगा , इसका झगडा और कहीं तो सारे पन्ने अलग अलग बँट जाते हैं ,कोई स्पोर्ट्स ले गया कोई सिटी विशेषांक और कोई मुखपृष्ठ |

जो भी हो मुझे तो इन हॉकर्स में अपने काम के प्रति लगन , जिम्मेदारी , कंसंट्रेशन भरपूर दिखता है और याददाश्त तो इनकी गजब की होती है और निशाने का भी कोई जवाब नहीं और न ही निशानदेही का |

शायद यूरोपियन देशों में इसीलिए बच्चों को अखबार वितरित करने का काम सौंपा जाता है ,'सेन्स आफ़ रेस्पोंसबिलीटी' डेवलप करने के लिए । 

16 टिप्‍पणियां:

  1. अखबार बांटने वालों के प्रति के नया आयाम उभर कर सामने आया है आपकी इस पोस्ट से ...निश्चित रूप से उनकी स्मरण शक्ति गजब की होती है ...!

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  2. अखबार बांटते हुये अखबार वाले के मन की सोच को बखूबी लिखा है ... बढ़िया लेख

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  3. अखबार के हॉकरों की सुबह की दिनचर्या पर बहुत अच्छा प्रकाश डाला है सर! यहाँ भी हाई स्कूल/इंटर के कुछ बच्चे अखबार डालते दिख जाते हैं।


    सादर

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  4. हमें मोर्निंग वाक पर रोज एक बच्चा हॉकर मिलता है.....बिना हेडफोन के फुल वोल्यूम में गाने सुनता चलता है....बिंदास...
    मुस्कुराता...खुश मिजाज़...और बहुत जल्दी में....
    मुझे यकीन है उसे किसी आंटी की चिडचिड की कोई फ़िक्र नहीं होगी.
    :-)

    सादर
    अनु

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  5. एक नई सोच ..आपका हर लेख नई सोच लिए हुए रहता है :)))

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  6. सबको खबरें बाटते हैं ये हॉकर..सच से जोड़ते..सबको..

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  7. बहुत अच्छा लिखा आपने ......मैंने भी कई बार सोचा है इनकी जिन्दगी के बारे में

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  8. तेजी से साइकिल पर पैडल मारते पैर और दूसरे -तीसरे माले तक अखबार फेंकने में व्यस्त हाथ ...
    बहुत दिनों से ऐसे दृश्य नहीं देखे....आपकी पोस्ट ने याद दिला दी .

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  9. वाकई सुबह बनाने में इन हॉकर्स का बहुत योगदान रहता है. जिस दिन अखबार न आये तो लगता है जैसे सुबह ही नहीं हुई.
    बढ़िया पोस्ट है एकदम सुबह की तरह ताज़ा.

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  10. सटीक चित्र खीचा है आपने . उत्तरदायित्व और समर्पण का अच्छा उदहारण .

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  11. अखबार को एक-एक घर में पहुँचाने का काम वाकई बहुत मेहनत और सलीके का है। आपने बहुत सही तस्वीर पेश की।

    मेरे मन में जैन साहब की छवि उभर रही है जो जरा हटकर थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रावासों में अखबार बाँटते थे। जी.एन.झा हॉस्टेल के १३३ कमरों का अखबार दस से पन्द्रह मिनट लगते। साइकिल पर लदा भारी बोझ। एक बार में ग्राउन्ड फ़्लोर के अड़सठ कमरों का और दूसरी बार में फर्स्ट फ़्लोर के ६५ कमरों का अखबार उठाते और क्रम से डालते जाते। उनके कदम रुकते बिल्कुल नहीं थे और सबकी पसन्द का अखबार बिल्कुल सटीक कमरे के फाटक पर चोट करता गिरता जाता। जो छुट्टी पर गया हो उसका अखबार नहीं गिरता। पता नहीं कैसे उन्हें सबकुछ याद रहता था। ऐसा ही वे तीन चार छात्रावासों में करते- पीसीबी, एसएसएल, एनझा, ताराचन्द, हालैन्डहाल आदि। कहीं बाहर मिलने पर सबको पहचान भी जाते। यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। भोर में उठकर इतनी बड़ी ‘हॉकरी’ करने के बाद वे किसी ऑफ़िस में नौकरी भी करते थे। तभी तो सभी विद्यार्थी उन्हे सम्मान से ‘जैनसाहब’ कहते थे।

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  12. हमारे यहां मिसराजी अखबार देते हैं। सुबह तीन बजे शुरु होती है। आंख का आपरेशन नहीं करवा पा रहे हैं। बताते हैं कि एक महीना लगेगा आंख ठीक होने में। इत्ते दिन में ग्राहक छूट जायेंगे। हाकर लम्बी बीमारी नहीं अफ़ोर्ड कर सकते।

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  13. एण्ड्रॉइड एप्प्स अब हॉकर्स की भी नौकरी के पीछे पड़े हैं। :-(

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  14. वास्तव में आप बहुत संवेदनशील व्यक्ति हैं वरना अखबार वालों के लिए कौन इतना सोच पाता है । बहुत् समझदारी होती है इनमें , सच सम्मान के काबिल हैं ये ।

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  15. बिल्कुल सत्य लिखा है आपने। मुझे तो सरकारी स्कूल में कई विद्यार्थी ही ऐसे मिल जाते हैं जो ये काम करते हैं। सच मे सम्मान के काबिल है ये लोग। आपका लेख सराहनीय है।

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