बहुत साधारण सी बात है कि, पैसे पेड़ पर नहीं उगते | यह जुमला अक्सर सुनने को मिलता है | मध्यम वर्ग के परिवारों में अक्सर बच्चे या महिलायें अगर किसी चीज़ की फरमाइश कर दे और कमाने वाला पुरुष अगर सीमित आमदनी वाला है तब वह बरबस उनकी फरमाइश सुन कर कह उठता है , पैसे पेड़ पर तो उगते नहीं | ऐसा नहीं है कि वह उनकी फरमाइश से इत्तिफाक नहीं रखता या पूरी नहीं करना चाहता पर हताशा वश ( अपने परिवार की इच्छा पूरी न कर पाने के दबाव में ) ऐसा कह उठता है | इस कथन के पीछे उसे भी मानसिक पीड़ा बहुत होती है | जब भी या जिस भी परिस्थिति में इस जुमले का प्रयोग किया गया हो या किया जाता हो , वह स्थिति अधिकतर लाचारी को ही दर्शाती है |
प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन में ऐसी बात कहना हास्यास्पद नहीं समझा जाना चाहिए | उनकी या उनकी पार्टी की आर्थिक नीतियाँ जो भी हो , उसे समझने और उसकी व्याख्या करने के लिए बहुत सारे विशेषज्ञ अपनी अपनी राय दे रहे हैं और समय समय पर देते रहते हैं | परन्तु अभी समय है इस पर चिंतन करने का कि प्रधान मंत्री ने पूरे देश के सामने इतनी गंभीर बात कह दी है ,इसका अर्थ है कि वास्तव में देश का खजाना खाली है और उनके सामनें लाचारी और बेबसी की स्थिति है | उन्हें अच्छी तरह से मालूम है कि अगले लोकसभा चुनाव के सन्निकट ऐसी बाते करने से उन्हें लाभ के स्थान पर भारी नुकसान ही होने वाला है फिर भी उन्होंने ऐसी आत्मघाती बात कही है |
दोष किसका है , यह तो तय होता रहेगा ,सर्व प्रथम आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी स्थिति से बाहर कैसे निकला जाय | संसाधनों का अत्यंत सीमित प्रयोग पहला कदम होना चाहिए | समृद्ध व्यक्ति धन के बल पर पेट्रोल / डीज़ल / गैस / बिजली का दुरूपयोग करता रहे और बाकी लोग अभावों में झूझते रहे ,इस पर अंकुश की आवश्यकता है |
भ्रष्टाचार या घोटाले जो भी आजकल चर्चा में है उसमे शामिल धन का आकलन काल्पनिक अधिक और वास्तविकता में कम है | ज्यादातर ऐसे तथ्य उजागर हुए हैं कि अगर आबंटन ( चाहे कार्य का हो , चाहे लाइसेंस का ) खुली निविदा से होता तब ऐसा नहीं ऐसा होता | अगर वैसा होता भी तब भी देश की अर्थ व्यवस्था में कोई सुधार न होता | किसी क्लोज्ड सिस्टम की गुणवत्ता में सुधार तभी संभव है जब उसमे बाहर से अधिक गुणकारी चीजें जोड़ी जाए | जब तक अपने देश में बाहरी देशों के लोग व्यापार / उद्योग को स्थापित नहीं करेंगे अर्थ व्यवस्था में सुधार संभव नहीं है | एक छोटे से उदाहरण से इसे यूं समझा जा सकता है कि जैसे अपने देश में ही जो भी तीर्थ स्थान हैं , दूर दराज़ में अनेक मंदिर बने हुए हैं अगर वहां बाहर से लोग आना बंद कर दे तब मात्र चौबीस घंटों में ही उनका सारा अर्थ शास्त्र बिगड़ जाएगा | धन का प्रवाह जितना अधिक और जितने अधिक देशों में होगा उतना ही हमारा रुपया मजबूत होगा | बिना विस्तार के मुद्रा भी संकुचित होती रहती है और यह स्थिति आज सारे विश्व की है | पुराने जमाने में प्रचलित बार्टर सिस्टम आज भी लागू है | जिसके पास पेट्रोल / डीज़ल है वह उसके बदले आपसे मनमानी से रेट मांग रहा है | अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में हमें हमारे उत्पादों की गुणवत्ता बढाकर खुद को स्थापित करना होगा |
प्रधान मंत्री की बात के दूरगामी परिणामों पर विमर्श किया जाना चाहिए | विकल्प के तौर पर कौन लोग उपलब्ध है और कितने सच्चरित्र हैं , सब सबके सामने हैं | क्षेत्रवाद , जातिवाद और परिवारवाद से परे कोई नहीं |
बस एक बात ही सरल सी समझ आती है "आवश्यकताएं कम कर लो , समृद्धि महसूस होने लगेगी " | समृद्धि का सीधा अर्थ रुपये के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य के सापेक्ष देखा जाना चाहिए | अगर रूपए का अवमूल्यन हो रहा है , इसका अर्थ है कि जो समृद्धि दिख रही है वह कुछ लोगों तक ही सीमित है और वह भी कुछ समय तक के लिए ही सीमित रहेगी |
अब आर्थिक मामलों के जानकार भी ऐसे विषयों पर कोई विश्लेषण नहीं करते .... सच है समृद्धि के भी सही अर्थों को समझना होगा
जवाब देंहटाएंएक अर्थशास्त्री के तौर पर उनका बयान अनुकरणीय है लेकिन एक प्रधानमंत्री के तौर पर हास्यास्पद.... खासकर तब, जब आस पास लूट खसोट की गंगा बही हुयी है...
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प्यार एक सफ़र है, और सफ़र चलता रहता है...
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मुझे तनिक अलग से बतायियेगा क्या हम सचमुच किसी भयंकर आर्थिक समस्या के मुहाने तक तो नहीं जा पहुंचे हैं ?
जवाब देंहटाएंपैसे पेड़ों पर तो नहीं लगते ... पर नीतियाँ सही हों और ईमानदारी से निभाई जाएँ तो पैसे की कमी भी नहीं ...
जवाब देंहटाएंहम भी घर में यही कहते थे तब कोई सुनता नहीं था..
जवाब देंहटाएंहम तो इसीलिए कल्पवृक्ष के जुगाड़ में नहीं रहे कभी .
जवाब देंहटाएंथोड़ा कहा बहुत समझना - ब्लॉग बुलेटिन ब्लॉग जगत मे क्या चल रहा है उस को ब्लॉग जगत की पोस्टों के माध्यम से ही आप तक हम पहुँचते है ... आज आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !
जवाब देंहटाएंइतने घोटालों के बाद भी आर्थिक संकट ....बात कुछ समझ नहीं आई
जवाब देंहटाएंपूरी पोस्ट आज की ताज़ा खबर पर आधारित
घोटालों को पैसा सरकारी आय में जुड़ा होता तो देश को ये बताने की ज़रूरत न पड़ती
जवाब देंहटाएंदेश के खाली खजाने का जिम्मेदार कौन है ये भी हमारे प्रधानमंत्री बता देते तो शायद लोग उनकी बात का विश्वाश भी कर लेते क्योंकि पिछले ९ सालों से तो उनकी ही सरकार है !!
जवाब देंहटाएंअगर प्रधानमंत्री हताश हो जाएंगे तो देश का क्या होगा.....
जवाब देंहटाएंचोर चोरी से जमा किये छिपे खजानों से ध्यान हटाने के लिये फटेहाल दिखता है.... रोता-कलपता है.... छाती पीट-पीटकर शोर मचाता है.... "हाय मैं लुट गया, बरबाद हो गया!!, कोई मेरी मदद तो करो!!!" ये कुशल चोरों के लक्षण हँ.... वे लूट और चोरी से त्रस्त जनता की संवेदना जगाकर बची-खुची पूँजी भी हड़प लेते हैं.
जवाब देंहटाएंआप ही सोचिये एक गूंगा बिना वजह तो 'राष्ट्र के नाम सन्देश' देने तो नहीं आयेगा.
मुझे कवि 'दिनकर' जी की कुछ पंक्तियाँ एक बार फिर याद आ रही हैं :
जो चोरों के हैं हितू] ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं.
जो छल-प्रपंच सबको प्रश्रय देते हैं.
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं.
.... यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है.
भारत अपने घर में ही हार गया है.
ये तो बड़ी उंची बात कह दी सिरीमान जी ने।
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