बुधवार, 27 अप्रैल 2011

"पासवर्ड"

इस हाईटेक दुनिया में,
सब कुछ हासिल,
पासवर्ड से,
क्या मोबाइल, 
क्या कम्प्यूटर, 
दरवाज़े, ताले, 
तिजोरी, 
बैंक खाता, 
सब चलते, 
इससे |
लाखों, करोड़ों, 
इधर से उधर, 
बस एक, 
पासवर्ड से |
वैसे पासवर्ड, 
की ईजाद,
कोई, 
नई नहीं |
अलीबाबा का, 
"खुल जा सिम सिम", 
पासवर्ड ही था |
पर इस सब से, 
इतर, 
एक पासवर्ड और है,
जो खोल सकता है, 
तमाम दिलों को, 
तमाम बंद रिश्तों को, 
तमाम उलझनों को |
रिश्ते जैसे, 
पति -पत्नी के,
सास-बहू  के,
भाई -भाई के, 
अड़ोसी-पडोसी के, 
डाक्टर-मरीज़ के,
दोस्त-दोस्त  के,
वगैरह वगैरह |
मगर इस पासवर्ड के, 
साथ एक शर्त, 
इतनी सी कि,
मंशा भी, 
झलकनी चाहिए, 
सच्ची |
और हाँ ! 
वो, 
पासवर्ड है, 
बस,
**************  
"दो बोल प्यार के" 



अरे एक रिश्ता, 
तो मै भूल ही, 
गया था, 
"ब्लागर और,
टिप्पणीकार का", 
( इसमें भी उलझने बहुत दिख जाती है प्रायः ) 


रविवार, 24 अप्रैल 2011

T-39 / C, लोको कॉलोनी , फ़ैज़ाबाद (उ.प्र.)

इसी पते पर, 
जन्म हुआ था, 
एक दंपति   के, 
सपनों का |
संस्कारों और सरलता,
में लिपटे, 
बस सोचा,  
उन्होंने सदा,  
जीवन के मूल्यों को, 
और चाहा,
समाज में हो, 
स्तम्भ, 
सरीखे उनके, 
तीनों  बच्चे |
बेहद मामूली,
आय परन्तु,  
सोच एकदम दृढ | 
समय के साथ, 
उन बच्चों के, 
कान में घुलती रही थीं, 
कहानियाँ, 
महापुरुषों की,संतों की | 
कितने श्लोक ,मन्त्र, 
कंठस्थ हो गए थे, 
बालपन में ही, 
उन तीनो को | 
"अर्थ",
सब कुछ तो नहीं, 
फिर भी बहुत कुछ, 
कितनी वेदना सही होगी, 
उस दंपति ने, 
पर सदा, 
एक ही संकल्प, 
बच्चों को, 
उच्चतम शिक्षा | 
इस पते पर,
आज भी, 
शायद घर के आँगन में, 
दीवाल पर बना, 
ब्लैक बोर्ड, 
गवाह होगा, 
कि,
वह घर कम, 
शिक्षालय, 
अधिक हुआ करता था | 
उनकी माँ, 
की दिनचर्या, 
थी बस, 
बच्चों के इर्द गिर्द, 
नतीजा, 
बच्चों ने, 
स्थापित किया, 
स्वयं को, 
समाज में |
आज वह दंपति, 
माँ-बाप है,  
एक वरिष्ठ शल्य चिकित्सक, 
एक अभियंता और
एक  कानूनविद के | 
हाँ ! !  
मुझे गर्व है, 
वो दंपति, 
मेरे मम्मी पापा  हैं | 



बुधवार, 20 अप्रैल 2011

"शब्दों के खनकते सिक्के"

जब कभी,
जेब में हाथ डाला, 
पैसों के लिए, 
पहले सिक्के ही खनके, 
और बाहर आ गए | 
सिक्के खर्च होते गए, 
धीरे धीरे,
फिर,  
कुछ छोटे नोट, 
भी कम हो गए | 
मगर, 
कोने में दबा रुपया, 
सहेजा रहा, 
भविष्य के लिए | 
ऐसी ही बात है, 
शब्दों की, 
जब तुम सामने हो, 
कोशिश करता हूँ, 
कुछ कहने की, 
पर, 
पहले खनकते, 
शब्द ही बाहर आते हैं, 
छोटे छोटे, 
शायद उनकी आवाज़, 
तुम्हे पसंद नहीं | 
पर तनिक ठहरो तो, 
मै कुछ और बड़े शब्द, 
खर्च करना चाहता हूँ, 
पर तुम  तो, 
सिक्कों की खनक से  ही, 
मेरी हैसियत,
आंकने  लगती हो,
और शब्दों के ही चन्द,
सिक्के मेरी हथेली,
पर रख कर आगे,
बढ़ जाती हो |
मुमकिन हो,
मै शाहखर्च नहीं,
शब्दों को खर्चने में,
पर क्या रिश्तों की भी,
नीलामी होती है,
जो ज्यादा शब्दों की,
बोली लगाएगा,
वही जीतेगा |
शायद,
कुछ चुप सौदागर भी,
होते हैं,
मेरे जैसे,
जो अपना मुड़ा तुड़ा,
नोट और शब्द,
(कोने में दबा )
खर्च करते हैं,
अंत में |
पर,
तब तक तो,
बोली लग चुकी होती है,
और,
देखते रह जातें हैं,
हम,
बस,
लगते दीमक,
अपने शब्दों,
की तहों में ।



रविवार, 17 अप्रैल 2011

"एक मुलाकात खुद से"

आज, 
बमुश्किल,
थोडा वक्त चुराया, 
मिलने को, 
खुद से |
बरसों बीत गए,  
याद नहीं कब से, 
मुलाकात नहीं हुई, 
खुद से |
बस जिए जा रहा हूँ, 
निभाने के लिए,   
ज़िन्दगी के दस्तूर |
पर एकदम खुद से, 
होकर अनजान,
और बेजान |
पर पता नहीं, 
क्यों आज अचानक, 
याद आ गई खुद की |
सो सोचा,
चलो मिल आते हैं, 
मुद्दत हुई पता नहीं, 
पहचान हो भी,
कि ना हो |
लापता सा हो गया,
पता भी,  
पर धुंधली यादों,
के सहारे, 
खोज ही निकाला, 
खुद को |
उफ़ इतनी धूल, 
दरवाज़े (मन ) पर, 
लगता है सदियों,
से जैसे कोई,
आया ही न हो |
साँसों से बुहारते,
और आंसुओं से धुलते, 
पलकों क़ी पालकी से,
पहुँच ही गया भीतर तक |
वो,
देखते ही बोला,
खुद की सुध,
अब  ली,
जब वो थक हार, 
कर चली गई |
तुमने से मिलने,
वो आती रही बार बार,
गौर से देखो 
धूल पे समय की |
निशान,
जो भी हैं, 
वो उसी क़ी,
मिन्नतों  के है,
और मन्नतों के भी |
जिसकी दुआओं से, 
से  तुम, 
महफूज़ हो आज, 
शायद |
पर अफ़सोस, 
मै,
उससे ना मिल सका, 
जो मेरा मुकद्दर थी, 
मेरे मन में थी,
और, 
मेरे सी ही थी | 


                "हाँ,मैं अपनी ’प्रकॄति’ और ’प्रवॄत्ति’ को ही भूल गया था ,उनसे मिले सदियां गुज़र गई थीं।जीवन की आपाधापी में याद ही ना रही । पर अब मिलना चाह रहा हूं ,मगर अफ़सोस वह तो चली गई, मुझसे रूठ कर । मेरा "मैं" ही चला गया मुझे भूल कर" ।
   

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

"जताना भी जरूरी और छुपाना भी"

तुम जब, 
करीब  नहीं होते, 
तब याद एक,
आस सी लगती है |
यादें भी वही,
जब करीब  थे हम | 
पास होते हो, 
तो कोशिश  करता हूँ, 
पढने की,
चेहरा तुम्हारा | 
कितना फर्क है अब, 
इस चेहरे में और, 
यादों के चेहरे में |
दरअसल,
जो कुछ भी, 
सोचते हैं हम, 
अकेले में, 
या साथ रहने पे, 
सब  उभर आता है, 
बन लकीरों में, 
चेहरे पे |
क्योंकि प्यार, 
है ही ऐसा,
जितना ज्यादा प्यार,  
उतना ही,
महसूस करते हैं,
एक दूसरे की रूह को |
फिर कुछ भी छुपाना,
नामुमकिन सा, 
और प्यार जताने  के लिए, 
कुछ तो छुपाना भी,
जरूरी होता है,
शायद |
और,
यही विरोधाभास,
ज़िन्दगी का |




            "अधिकतर लोग अपने जीवन में  'प्यार' जता नहीं पाते और 'आंसू ' छुपा नहीं पाते "

रविवार, 10 अप्रैल 2011

"हजारे" "हजारे" इतना जश्न क्यों ? ? ?

              क्योंकि ०९/०४/२०११ केवल एक तिथि नहीं , आने वाले दिनों में यह तिथि यादगार तिथि के रूप में जानी जाएगी ,इसमें कोई संदेह नहीं | इस तिथि को प्रत्येक वर्ष 'नागरिक दिवस' के रूप में भी मनाए जाने की बात की जा रही है | आम आदमी के मन में एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से या कौतूहल वश यह उठता है कि आखिर ऐसा क्या हासिल हो गया या होने वाला है, जो गली गली में इतना जश्न मनाया जा रहा है | उनका सवाल है कि, क्या  भ्रष्टाचार अब ख़त्म हो गया | क्या उस अम्पायर (लोकपाल ) पर इतना भरोसा करना ठीक रहेगा ,जिसे चुनने की इतनी कवायद हो रही है,खिलाडियों (नेताओं) को नियमतः खेलने को मजबूर करने की बात क्यों नहीं हो रही है ,या उनकी चयन प्रक्रिया ऐसी हो कि अच्छे और law abiding खिलाड़ी ही चुन कर आये ताकि अम्पायर पर भी कम ही दबाव रहे | अकेला अम्पायर कितना दबाव बर्दाश्त कर पायेगा ,यह तो समय ही बताएगा | अभी तो अम्पायर चुनने वाली टीम के सदस्यों को  चुनने में ही लोगो में मतभेद हो गया ,यह दुखद है |  देखने वाली बात है कि आम आदमी मूलतः ईमानदार होता है और ईमानदारी से ही जीना चाहता है | वह सरकारी तंत्र में विश्वास करता है और उससे अपेक्षा भी करता है पर जब रोजमर्रा की ज़िन्दगी में उसका विश्वास  टूटता है और उसे ज़िंदा रहने के लिए  लड़ना पडता है तब वह भी थक हार कर गलत कार्य करने को अग्रसित  हो जाता है और यही आम आदमी  जब हक़ की लड़ाई के लिए हथियार उठा लेता है तब नक्सलपंथियों और अपराधियों का जन्म होता है |
              लोगों को जश्न मनाते  देख यह बात तो सिद्ध होती है कि, आम  आदमी ज्यादातर ईमानदारी और नियम कानून के पक्ष में रहना चाहता है और जब कभी ईमानदारी और हक़ की बात और लड़ाई होती है, तब वह उसमे और उससे खुद को जोड़ कर देखता है | अन्ना जी की जीत में वह अपनी जीत ,अपने बच्चों की जीत देख रहा है | इतना तो हर किसी को आसानी से समझ में आ जाएगा और आ भी रहा है कि अगर देश में भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाए ,सारे काम नियम कानून से हो तो हमारे देश में इतनी समृद्धि है कि हर किसी का जीवन खुशहाल हो सकता है |
                अन्ना जी ने यह जो अलख जलाई है ,हम सभी का भी यह दायित्व और कर्त्तव्य है कि हम भी अपने आसपास के परिवेश में गलत कार्यों का विरोध करे और स्वयं भी भ्रष्ट आचरण ना करें,और गलत सही का आकलन करने का सबसे अच्छा रास्ता यह है कि, किसी भी  कार्य को करने से पहले या विवादास्पद निर्णय लेने से पहले इस पर विचार कर ले कि, हमारे उक्त निर्णय से तत्कालिक परिणाम क्या होंगे और दूरगामी परिणाम क्या होंगे | निश्चित तौर पर वही कार्य उचित और श्रेष्ठ है, जो दूरगामी परिणाम उचित और देशहित में दे , (यही सिद्धांत  पारिवारिक निर्णयों पर भी लागू होता  है ) | निश्चित  तौर पर अब वह समय आ गया है कि अनुचित और भ्रष्ट आचरण करने वालों को जनता को सीधे जवाब देना होगा ,क्योंकि जनता अब अपने देश को यूँ लुटते देखना बर्दाश्त नहीं करेगी |
                   और तभी यह बात भी झूठी साबित होगी कि "भारत एक अमीर देश है परन्तु भारतवासी गरीब" और यह बात भी सच है कि अब नहीं (सुधार) तो कभी भी नहीं |

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

"मै मन हूं ’हजारे’ का"

हाँ ! मै मन हूँ,
हजारे का |
बस इतना ही,
तो चाहा मैंने,
कि लोकतंत्र में,
हो विश्वास,
लोक का तंत्र में |
हो एहसास, 
भरोसे का, 
जन को तंत्र में | 
मनुष्य से ऊपर, 
हो परिवार, 
परिवार से ऊपर समाज, 
और हो, 
सर्वोपरि अपना देश | 
तंत्र हो पारदर्शी, 
हो नेता समदर्शी, 
व्यापक हित की,
हो बात |
देश को न समझे, 
सौगात |
कानून से ऊपर, 
कोई क्यों हो, 
जन को मिले, 
अधिकार, 
चलने का, 
उनके साथ |
जो बने बैठे हैं, 
भाग्य विधाता, 
देश के, 
और करते हैं, 
केवल निज हित, 
की बात |
भयभीत हूँ मै, 
उनके (नेताओं ) भय से, 
क्यों करते वे, 
इनकार |
बस इतना ही,
चाहा मैंने, 
हो सभी का  अधिकार| 
हाँ ! अब मै मन हूँ 
हजारों का , हजारों हजारों का | | |
     

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

"क्यों ना हो जाएं ’ट्रांसफ़ार्मर’ सरीखे हम"

              "ट्रांसफार्मर से सभी लोग भली भांति परिचित होंगे | यह वह विद्युत उपकरण है जो आवश्यकता अनुसार उच्च विभव को निम्न विभव और निम्न विभव को उच्च विभव में परिवर्तित करता है | इसकी आतंरिक संरचना इस प्रकार की होती है कि, बस इससे विद्युत प्रवाहित होते ही इच्छित परिणाम मिल जाते हैं" |
                 मनुष्य का एक दूसरे के प्रति व्यवहार आपस में किये गए संवाद और भाव भंगिमा से ही परिलक्षित होता है | यदि हम अपने मन ओर सोच की आतंरिक संरचना कुछ ट्रांसफार्मर जैसी कर ले, तो कितना उत्तम होगा ,अर्थात दूसरे व्यक्ति के जो भी विचार ,भाव भंगिमा या शब्द शैली हो उसे हम अपने में आत्मसात करते हुए परिस्थिति के अनुसार ही उसके अर्थ और मंतव्य को बाहर आने दें | जैसे कोई कितना भी अप्रिय अथवा बुरा बोल रहा हो (हाई वोल्टेज )  हम शांति पूर्वक उसे अपने में समाहित करते हुए शांत भाव (लो वोल्टेज ) से बात आगे बढाने की कोशिश करें | और कोई व्यक्ति छोटी सी भी अच्छी बात या विचार या भाव प्रकट करने का प्रयास मात्र भी करे तो तुरंत  जोर शोर से उसकी बात का समर्थन करते हुए उसकी भावना को आगे बढ़ाएं | आने वाले विचार और जाने वाले विचारों के आपस में टकराने से ( varying flux) कुछ उष्मा( eddy current) भी मन में उत्पन्न होगी | उसे ठंडा करने के लिए  ठंडे विचारों के प्रवाह की आवश्यकता होगी, जो ईश्वर की अराधना ,भजन ,संध्या एवं ध्यान से प्राप्त की जा सकती है |

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

"वर्ल्ड कप" बनाम "पूनम पांडे"

                सहसा एक विचार यह कौंध रहा है कि, वर्ल्ड कप में मिली जीत के पीछे कहीं पूनम पाण्डेय का टोटका तो नहीं काम कर गया | सदियों से हमारे देश की यह परंपरा कहे, या चलन कहे कि, जब बरसात के मौसम में बारिश नहीं होती और लगभग सूखे के आसार होते हैं तब स्त्रियाँ गावं में निर्वस्त्र  हो कर खेत में हल चलाती हैं |उसके पीछे तर्क यह है कि उससे लज्जित हो , इंद्र भगवान बारिश कर देते हैं | पुरानी कहानियों में इसका भरपूर उल्लेख मिलता है और अभी भी गाहे बगाहे समाचार पत्रों में ऐसी खबर पढने को मिल जाती है |
                 हमारे यहाँ मन्नत मांगने का प्रचलन बहुत है, कुछ लोग इसे मानता मानना भी कहते हैं , जैसे कि धोनी ने मानता मानी थी जीतने पर वह अपने केश कटवा देगा | ज्यादातर लोग मानता में अपनी प्रिय वस्तु या प्रिय शौक त्याग करने की मानता मानते हैं | चाहे बच्चों की सफलता हो या कोई मुकाम हासिल करना हो, इस सब के लिए हर कोई कुछ  भी करने को तैयार रहता है | यह शायद पूनम पाण्डेय का एक टोटका भर ही था जो शायद काम भी कर गया | 
                  किसी के कुछ कह देने भर का शाब्दिक अर्थ ही केवल नहीं लगा लेना चाहिए | क्रिकेट के मैदान पर खिलाड़ी जो भाव भंगिमा दिखाते हैं ,लगता है जैसे सामने वाले से युद्ध कर लेंगे  , पर वास्तव में ऐसा उनका उद्देश्य नहीं होता | गाली गलौज करने में अगर आप गालियों के शाब्दिक अर्थ पर विचार करें तो उनका कोई महत्त्व नहीं होता ,उद्देश्य केवल रोष या क्रोध व्यक्त करना होता है  | अर्थात किसी के कुछ कह देने के पीछे उसकी भावना ज्यादा महत्त्व रखती है | उस भावना का सम्मान होना चाहिए | 
                   अगर पूनम पाण्डेय का कथन किसी प्रकार से हमारे संस्कारों के विरुद्ध है, तब यह मंथन किया जाना चाहिए कि ऐसी स्थिति उत्पन्न क्यों हुई | वह एक मॉडल है जो कैलेंडर पर भिन्न भिन्न मुद्राओं में तस्वीरें  खिचवाती है और हम ही लोग उसे बड़े चाव से अपने अपने ड्राइंग रूम में सजाते है | आप क्या सोचते है ,जब वह ऐसी मुद्राओं में तस्वीरें खिचवाती होगी तब उसकी कितनी अस्मिता बच पाती होगी | शायद यह सब करते करते उसके पास अब बचाने छुपाने को कुछ बचा नहीं होगा, तभी उसने ऐसा बयान दिया | कहीं ना कहीं हम सब भी इस व्यवस्था के लिए जिम्मेदार हैं |
                    प्रत्येक बुराई की पराकाष्ठा से पहले प्रारम्भ में ही उसके निदान की  बात होनी चाहिए | पूनम पाण्डेय की ऐसी मानसिकता किन परिस्थितियों में बनी होगी, इस पर विचार होना चाहिए | भर्त्सना करना तो सदैव आसान रहा है पर पुनरावृत्ति रोकना सदैव मुश्किल |

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

"पटरी और ज़िंदगी"

रेल की पटरी, 
से हम,
और, 
ट्रेन सी हमारी, 
ज़िन्दगी |
पटरियां वहीँ हैं, 
जहाँ थी, 
ट्रेने गुज़र गई कितनी |
हम तो वही,
अब भी |
पर ज़िन्दगी देखो, 
कहाँ पहुच गई |
काश, 
पटरियां भी सफ़र, 
करती,
ट्रेनों के साथ |
और शामिल होते,
हम भी,
ज़िन्दगी के साथ |
पर ज़िन्दगी तो, 
निकल गई,
दूर बहुत,  
बस निशाँ छोड़ गई, 
हमारे वजूद  का |
ज़िन्दगी तो,
रफ़्तार है,
हम बस, 
पटरी सरीखे |
कितनी जिन्दगियां,
गुज़रती है, 
ऊपर से हमारे,
तमाम रिश्तों की,
नातों की | 
कभी कभी क्या, 
अक्सर ही, 
उतरती  है,
पटरी से,  
ज़िन्दगी |
हम तो बस, 
पटरी सरीखे,
ट्रेन सी ज़िन्दगी | 

रविवार, 3 अप्रैल 2011

"इतना पैसा क्यों "

                  एक सिपाही, चौराहे पर गलत तरीके से तेज़ी से भागती गाडी रोकने के प्रयास में ,उसी गाडी से कुचल कर मार दिया गया | नतीजा घर में एक विधवा और दो अनाथ बच्चे रह गए | मुआवजा 20/25 हज़ार रुपये ,वह भी सरकारी तंत्र में कब मिले पता नहीं | देश की सीमा या देश के अन्दर कभी उग्रवादियों, से कभी माओवादियों से लड़ते हुए सैनिक शहीद ,परिणाम घर में एक विधवा ,दो तीन बच्चे और बूढ़े बेसहारा माँ-बाप | हाँ, मरने के बाद पूरी शोशेबाजी के साथ क्रिया कर्म ,फिर कोई पूछने वाला नहीं | बड़ी बड़ी औद्योगिक इकाइयों के निर्माण के दौरान अथवा बड़े बड़े पुल ,मेट्रो इत्यादि के निर्माण के दौरान कभी मजदूर, कभी अभियंता की दुर्घटना में मौत ,सहायता के नाम पर सिवाय चंद रुपये और कुछ  नहीं | ये सारे भी वही लोग हैं जो परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से देश का गौरव ही बढ़ा रहे थे |   
                    अब बात करते हैं खेल की दुनिया की | यह सच है कि विश्व में प्रत्येक क्षेत्र में अपना झंडा लहराने के लिए प्रत्येक देश जी जान से प्रयत्न करता रहता  है | खेल में भी सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने का अपना महत्त्व है ,परन्तु लगभग प्रत्येक खेल में विशेषकर क्रिकेट में खिलाड़ियों को बहुत अधिक पैसा खेल के अलावा अन्य स्रोतों से भी मिल जाता है | विश्व कप जीतना बहुत बड़ी उपलब्धि है ,खिलाड़ियों ने हम सभी का सर सारी दुनिया में गर्व से ऊँचा  कर दिया है ,परन्तु शरद पवार की तरफ से  प्रत्येक खिलाड़ी को एक एक करोड़ रुपये दिए जाने की घोषणा कुछ  हज़म नहीं हुई | निश्चित तौर पर अच्छी रकम मिलने से खिलाड़ियों का हौसला बढ़ जाता है ,पर क्या इस गरीब मुल्क में इतना पैसा यूँ ही बाँट दिया जाना उचित है |पांच लाख या दस लाख की राशि भी इनाम के तौर पर बहुत अधिक होती है | और वैसे भी पूरे देश के लोगों ने खिलाड़ियों को सर आँखों पर बिठा रखा  है | क्या यदि इतना पैसा ना दिया जाता तो उनके द्वारा किया देश के लिए कार्य सराहनीय नहीं होता |
                      इस्लाम में कहा गया है कि, घर में कोई पकवान जब बने तो इस बात का ध्यान रखा जाये कि उसकी खुश्बू जहां तक जाय ,वहां तक कोई उसकी खुश्बू से विचलित हो भूख ना महसूस करने लग जाए ,अगर ऐसा हो तो पहले उसे भी वह खाना खिलाया जाये | इस गरीब देश में इतनी  बड़ी राशि इनाम  के तौर पर पर  दे दिया जाना कुछ उचित नहीं लगा | इसकी घोषणा होने से निश्चित रूप से लोगों के मन में थोड़ी खिन्नता हुई है,क्योंकि हम लोग एक गरीब मुल्क के लोग है |दिन प्रतिदिन रोजाना की ज़िन्दगी में हम सौ, दो दो, सौ रुपये के लिए लोगों को जान की बाजी लगाते देखते हैं ,श्रम की कीमत उसके अनुपात में कितनी कम मिलती है, अक्सर देखते हैं |
                      हाँ ,यह राशि उचित लगती, अगर मुंबई ब्लास्ट में मारे गए सभी पुलिस कर्मियों को भी महाराष्ट्र सरकार ने एक एक करोड़ रुपये की सहायता दी होती |
                      यह आंकड़े पुराने है ,अब तो इनकी संपत्ति कई गुना बढ़ चुकी है | 
                      "थोड़ा तो मंथन करने की आवश्यकता है" |