सोमवार, 25 जून 2012

" मानसिक बलात्कार ....."

बात तो काफी पुरानी हो चली है | आज फुरसतिया / खुरपेंची अनूप शुक्ला जी की बात हुई तब अचानक मैंने संतोष त्रिवेदी जी के ब्लॉग में टिप्पणी अंकित कर दी कि फ़ुरसतिया को जानने वालों में से मुझे सबसे पुराना माना जा सकता है | मैं इंजीनियरिंग कालेज में उनसे एक वर्ष जूनियर था | मैंने लिख दिया कि रैगिंग के दौरान उन्होंने मेरा मानसिक बलात्कार किया था | इस पर ब्लॉग जगत के लोगों ने जिज्ञासा व्यक्त की और खुलासा करने को आदेशित किया | इस प्रकार इस पोस्ट का जन्म हुआ |

वर्ष १९८२ में मेरा दाखिला मोतीलाल नेहरु इंजीनियरिंग कालेज इलाहाबाद में हुआ | मुझे तिलक हास्टल में रूम अलाट हुआ | १५ कमरों की विंग में मेरा कमरा सबसे पहले पड़ जाता था | उसी विंग में अनूप शुक्ला जी का भी रूम था | मेरी ब्रांच और शुक्ला साब की ब्रांच मेकेनिकल ही थी | इनके रूम के बगल में विनय अवस्थी सर का रूम था | जो इनके बैचमेट थे और बाद में इनके साले भी कहलाये | उन्ही के पड़ोस में मेरे बैच के दो दोस्त बिनोद गुप्ता और इंद्र अवस्थी भी रहते थे |ये चारों आपस में एकदम टाईट बंधे रहते थे | मैं चौकीदार की तरह विंग की शुरुआत में ही रहता था | पहले वर्ष के शुरूआती दिनों में कुछ समझ तो आता नहीं | जिसे देखो वो ही लाइन हाजिर करता रहता था | खैर मेरे विंग की रैगिंग का स्थान शुकुल (अब आगे इन्हें शुकुल ही लिखूंगा ,बहुत इज्जत दे दी अब तक ) का कमरा ही हुआ करता था | तब तक इनके बारे में इतना मालूम चल गया था कि ये बहुत पढ़ाकू टाइप के इंसान है और यू.पी. बोर्ड के रैंक होल्डर थे | पैजामे पर कमीज पहने सबसे पहले मैंने इन्हें ही देखा था | इनके कमरे में हिन्दी साहित्य हंस,सारिका ,कादम्बिनी इत्यादि प्रचुर मात्रा में पाया जाता था | 

बलात्कार का अर्थ है वह कार्य जो बल पूर्वक किसी की इच्छा के विरुद्ध किया जाये | मानसिक बलात्कार तब होता है जब आपके दिमाग में बातें कुछ और चल रही हों और पूछा कुछ और जाए या पूछने वाला जानता हो कि आपको विषय का ज्ञान नहीं है फिर भी आपसे फनी उत्तर सुनने के लिए आप पर दबाव डालता रहे | उस दौरान अधिकतर वही बातें पूछी जाती थीं जिनका सरोकार मुझसे पहले बिलकुल नहीं था और शुकुल जो अब तक ज्ञानी बन चुके थे , उन्हें भी उन बातों से ,जब वह प्रथम वर्ष में आये थे ,नहीं रहा होगा | परन्तु अब तंग तो करना था ही | मुर्गा बनाना , कमरे में वर्ल्ड टूर कराना (पूरे कमरे में हर सामान के ऊपर नीचे से निकलते हुए ,टांड पर चढ़ते हुए ,उतरने को वर्ल्ड टूर कहते थे ), शिमला बनाना , दरवाजा बंद कर पैंट उतारने को कहना ( जैसे ही आपने अपनी पैंट को हाथ लगाया ,गालियां मिलती थी ,कहते थे मैंने दरवाजे पर टंगी पैंट उतारने को कहा है ,तुम्हारी नहीं ) नाचने और गाने को कहना जो मुझे कभी नहीं आया और सबसे ज्यादा इसी वजह से मैं तनाव में रहता था और ना जाने क्या क्या | इनके दो दुलारे जूनियर थे एक बिनोद गुप्ता जिस पर ये जान छिड़कते थे ( कारण मैं आज तक नहीं जान पाया ) और दूसरे इंद्र अवस्थी | वे दोनों गाने नाचने में एकदम  उस्ताद थे और चूंकि हम सब एक ही विंग में थे सो अक्सर रैगिंग में इकट्ठे होते थे | मेरा पहला कमरा था सो उसका दरवाजा तो सबकी लात बर्दाश्त करने के लिए ही डिजाइन किया गया था | शुकुल अच्छी तरह जानते थे मुझे गाना बजाना नहीं आता पर अपने दोनों प्रिय शिष्यों के आगे मेरी किरकिरी करते और मेरा मानसिक बलात्कार ही होता था | लेकिन उसके एवज में चाय पकौड़े खूब खाने को मिले | वे दोनों इनके शिष्य मेरे आज भी बहुत अच्छे दोस्त हैं | खैर रैगिंग में तो यह सब होता ही है |

शुकुल पढने में तो अव्वल रहे ही ,लोगों की मदद को भी सदैव तत्पर रहते थे | विनय अवस्थी सर की तबियत प्रायः खराब हो जाती थी तब शुकुल ही उनका ख्याल रखते थे | शुकुल और विनय अवस्थी ने साइकिल से भारत यात्रा की थी | उस घटना से थोड़ा बहुत प्रेरित हो मैं और दिलीप गोलानी भी कालेज से प्रतापगढ़ (६५ किमी.) चले गए थे साइकिल से 'नदिया के पार ' फिल्म देखने | कालेज में अच्छा खासा हंगामा हो गया था |

तृतीय वर्ष में मेरी मारपीट एक छात्र से हो गई थी ,जो हरदोई का रहने वाला था और बदमाश भी था | बात काफी बढ़ गई थी | हास्टल से निकाले जाने की बात थी पर अंकों के आधार प़र परखने प़र प्रिंसिपल ने मुझे सपोर्ट कर दिया था | प़र उस छात्र के गैंग वाले ( लीला राम वगैरह ) मुझे मारने की योजना बना रहे थे तब शुकुल ने बीच बचाव कर वह संवेदन शील मामला निपटाया था | अब तो यादें भी थोड़ी धुंधली हो चुकी हैं |

प़र शुकुल से संवाद का सिलसिला हमेशा बना रहा | मेरे  दोनों बेटे जब कानपुर पहुँच गए तब तो वे ही दोनों के लोकल गार्जियन हो गए | परन्तु आजकल फिर फरारी काटकर जबलपुर पहुँच गए हैं प़र बच्चों का दायित्व उन्हीं का है अब भी ,ऐसा मान हम लोग निश्चिन्त रहते हैं |

फेसबुक पर मेरे कमेन्ट देखकर शुकुल अक्सर कहते तुम ब्लागिंग किया करो | उन्हीं के काफी कहने पर मैंने ब्लागिंग शुरू करी | जब उनसे कहता पढ़ कर कमेन्ट करिए तो नहीं करते थे | उस पर भी मैंने एक पोस्ट लिखी थी और आज तो अब हम दम्पति ब्लॉगर बन चुके हैं | एक बात और बता दें,  सबके ब्लॉग पर तो शुकुल कमेन्ट करते हैं , मेरी पोस्ट पर फोन द्वारा अवश्य कमेन्ट कर मौज लेते हैं |



   यह चित्र तिलक हास्टल के सामने का है । सबसे दायें मैं हूँ ,मेरे बगल शुकुल हैं (चश्में में ) ,उनके बगल में उनका दुलारा बिनोद गुप्ता और आखिरी में राजेश सर हैं ।

26 टिप्‍पणियां:

  1. पोस्ट पढ़ के एक ठो आउर नाम लगता है, फिट करेगा इन पर..'पापी देवता' :)
    बढ़िया संस्मरण..
    धन्यवाद

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    1. बिलकुल सही कहा आपने | इतनी हिम्मत वाला है तो कोई | आपका आभार |

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  2. अब बुझाया कि जड़ कहाँ हैं, सब लोग तो फल और फूल देखने में मगन रहते हैं।

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  3. हूँ तो लगावन बुझावन फिर बीच बचावन की आज की आदतों की जड़ें भी बहुत गहरी हैं :-)

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  4. मानसिक शारीरिक रूप से इससे कहीं अधिक क्षति होती है .... जो हम कह पाते हैं , उससे कहीं अधिक भयानक वह होता है - जो कभी कह नहीं पाते . लाख कहा जाए कि रोका किसने है, हम हैं न .... पर न कहा जाता है , न कहा जा सकता है

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  5. आपकी फोटो विराट कोहली जैसी लग रही है !

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  6. सब तो ठीक है, मगर शुकुल जी किधर और किसे देख रहे हैं इस तस्वीर में, यह भी जाहिर किया जाए!! ;-)

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  7. बढ़िया संस्मरण.... आदरणीय अली जी सही कहते हैं आप तो विराट कोहली लग रहे है फोटो में...
    सादर।

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    1. विराट कोहली को भी प्रसन्न होने का एक कारण मिल गया |

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  8. फोटो में कोई पहचान में नहीं आया.:). अच्छी पोल खोलू पोस्ट है:):).(कि शुकुल जी शुरू से ही इंटेलिजेंट रहे हैं* ).मजा आया पढकर.

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  9. बिसरी बातें याद करने में बड़ा सुख मिलता है...

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  10. फ़ेसबुक में १९८३ में कालेज गये फ़िर ब्लॉगर में सन १९८२ में। ये दोनों आधुनिक तकनीकों में साल भर का टाइम गैप! :)

    खैर इस बारे में तो कल फ़ोन पर टिपिया ही चुके हैं कि शायद ऐसा हुआ हो कि एक साल और रहे कालेज में (लीलाराम की संगत में) और लोगों को झांसा देने के लिये बताते होगे १९८३ में आये इसलिये १९८७ में निकल सके।

    इंद्र अवस्थी हम लोगों की विंग में नहीं थे। वो डी ब्लॉक में रहते थे शायद। बिनोद और इंद्र साथ रहते थे कलकत्ता में एक साथ पढ़ते थे और वहीं सीखा भी होगा कि संगठन में शक्ति होती है। बचे रहते थे।

    प्रतापगढ़ तो हम लोग तब गये थे जब साइकिल टूर की टेस्टिंग करने गये थे कि साइकिल चला पाते हैं कि नहीं। उसके बाद फ़िर गये थे तुम लोग क्या? गोलानी भी हम लोगों के साथ गया था साइकिल यात्रा पर। लेकिन बेचारा बोर होकर चेन्नई से वापस लौट आया था। :)

    अब तो तुम उस्ताद ब्लॉगर हो गये हो। इंद्र अवस्थी एक दिन जलते हुये फ़ोनिया रहे थे कि बमबम के तो बुढौती में (लेखन के) मुंहासे फ़ूट रहे हैं।

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    1. हम आदतन वित्तीय वर्ष की बात करते हैं | हमारा अभिप्राय वर्ष १९८२-१९८३ के दौरान से था | कहीं कोई त्रुटि नहीं हुई है | मैं वर्ष १९८६ में ही ससम्मान उत्तीर्ण हो गया था | बच्चों के सामने मेरी टी.आर.पी. गिराने का असफल प्रयास ना करें | इंद्र अवस्थी २४ घंटे में से २३ घंटे ५९ मिनट तो उसी विंग में धराशायी रहता था सो हुआ ना उसी विंग का | हाँ ! हम और गोलानी प्रतापगढ़ गए थे फिल्म देखने | आप भूल गए शायद | लोगों का प्रश्न है कि फोटू में आप ताड़ किसको रहे हैं | गर्ल हास्टल तो बहुत दूर था वहां से |

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    2. वाह, आपको भी याद है कि गर्ल होस्टल वहाँ से दूर था.. हाँ!! वैसे भी इन मामलों में यादाश्त धोखा नहीं देती है!! हा हा हा.. :D

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  11. हा हा , बढ़िया है ,दो मजबूत कन्धों का सहारा भी तो है (फोटू में )

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  12. बहुत अच्छा लगा फ़ुरसतिया जी के बारे में और जानना। धन्यवाद

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  13. शुकुल जी जो कुछ यूँ लग रहे हैं मानों कह रहे हों - अउर बच्चा...फोटू हिंचा रहे हो....हिंचाओ हिंचाओ....हम भी आ जाते हैं....खरचा ओतना ही पड़ेगा :-)

    बढ़िया संस्मरण है।

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    1. अरे! यह बलात्कार मानसिक ही तो था , सामूहिक होता तब तुम्हें अवश्य बुलाते |

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  15. धन्य है यू पी बोर्ड से उतीर्ण ब्लोग्गर...


    सुंदर लगा आपका ये सस्मरण.

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