बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

"स्वेद की बूंदें स्वर्णिम सी"

स्वेद की बूंदें,
यूँ टिकी थी माथे पर,
स्वर्णिम श्रृंगार हुआ हो जैसे|
सूरज की किरणे भी,
ढूंढ़ती हों  जैसे,
अपना बिम्ब उन्हीं  में|
हवा थी कुछ मंद सी,
और खेलती थी उन बूंदों से,
खेल लुका छिपी  का|
बनती बूंदों  को मिटाना,
फिर बनते देखना,
उन स्वर्णिम स्वेद बूंदों को|
कभी बादल भी आ जाते,
हवा के साथ और तब,
मचल सी उठती किरणे,
खोता देख अपना इन्द्रधनुष|
पर इन सबसे बेखबर,
वह तो थी मगन,
लगन से जतन से,
अपने श्रम में|
हाँ कभी कभी,
निहार लेती थी,
अपने दुधमुहे बच्चे को,
खेल जो रहा था वहीँ,
पास क्रेन की छाँव में|




22 टिप्‍पणियां:

  1. जब दिन में दो बार यूँ बूँदें स्वर्णिम होने लगें, तो देश दुर्भाग्यग्रस्त है।

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  2. संघर्षमय जीवन की झलकी कविता और चित्र में भी ...
    बहुत बढ़िया !

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  3. इन्‍हीं ईंटों के घेरे में सुरक्षित, सुख भोग रहे हम.

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  4. इसे पढ़ कर महा कवि 'निराला' की कविता 'वह तोडती पत्थर' याद आ गयी.
    बहुत ही अच्छा लिखा है आपने.

    सादर

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  5. वाह ,सुन्दर सी महाप्राण निराला की परम्परा की यथार्थ परक कविता ...

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  6. सूरज की किरणे भी,
    ढूंढ़ती हों जैसे,
    अपना बिम्ब उन्हीं में|

    यहाँ उन स्वेद बूंदो की महत्ता परिलक्षित हो रही है जहाँ सूरज भी नमन कर जाये……………बेहतरीन अभिव्यक्ति।

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  7. बेहतरीन अभिव्यक्ति..... बहुत ही अच्छा.... बढ़िया

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  8. स्वेद की बूंदें,
    यूँ टिकी थी माथे पर,
    स्वर्णिम श्रृंगार हुआ हो जैसे...

    श्रम से आई हुई स्वेद की बूंदों कों इससे बेहतर तरीके से नहीं व्यक्त किया जा सकता।

    अति सुन्दर !

    .

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  9. जीवन की जद्दोज़हद का सार्थक रेखांकन|बेहतरीन अभिव्यक्ति|

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  10. दुसरे के एहसासों को भी खूबसूरती से परिभाषित करती सुन्दर रचना !

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  11. जीवन-संघर्ष की भावपूर्ण प्रस्तुति...............ध्वन्यात्मकता ने हृदय को करुणार्द्र कर दिया...................श्रमिक की अन्तर्वेदना को आपने मुखरित किया है। काव्य-प्रतिभा आपमें बसती है।

    भावों से आर्द्र होना एवं भावों को शब्दों में पिरोना दो भिन्न-भिन्न बातं है भावों को शब्द शब्द-शिल्पी ही दे सकते हैं तथा उसमें रसात्मकता एक जन्मना कवि भर सकता है।


    डॉ. दिव्या श्रीवास्तव ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर किया पौधारोपण
    डॉ. दिव्या श्रीवास्तव जी ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर तुलसी एवं गुलाब का रोपण किया है। उनका यह महत्त्वपूर्ण योगदान उनके प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता, जागरूकता एवं समर्पण को दर्शाता है। वे एक सक्रिय ब्लॉग लेखिका, एक डॉक्टर, के साथ- साथ प्रकृति-संरक्षण के पुनीत कार्य के प्रति भी समर्पित हैं।
    “वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर” एवं पूरे ब्लॉग परिवार की ओर से दिव्या जी एवं समीर जीको स्वाभिमान, सुख, शान्ति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के पञ्चामृत से पूरित मधुर एवं प्रेममय वैवाहिक जीवन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।

    आप भी इस पावन कार्य में अपना सहयोग दें।


    http://vriksharopan.blogspot.com/2011/02/blog-post.html

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  12. निहार लेती थी,
    अपने दुधमुहे बच्चे को,


    दिल को छू लेने वाली पंक्तियाँ
    लगता हैं साक्षात् दृश्य मूर्तिमान् है।

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  13. दिल को छू लेने वाली बेहतरीन अभिव्यक्ति......

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  14. दिल को छू लेने वाली पंक्तियाँ
    खूबसूरती से परिभाषित करती सुन्दर रचना !

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  15. तोडती पत्थर : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

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  16. निहार लेती थी,
    अपने दुधमुहे बच्चे को,
    खेल जो रहा था वहीँ,
    पास क्रेन की छाँव में|......phir bhi sansar ki anya mmon se bhi jyaada kush rahti hai aisee mayen .....bahut acchi abhiwayakti ....

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